समकालीन जनमत
जनमत

दिल्ली पुलिस के नाम खुला पत्र

प्यारी दिल्ली पुलिस और उसके बहादुर जवानों,
जे.एन.यू. के छात्र-छात्राओं पर लाठी भाँजते,उन्हें खींचते-घसीटते और उन पर पानी-प्रहार करते आपकी तस्वीरें देखी.

क्या मुस्तैदी और वीरता पूर्वक हमला बोला तुमने उन छात्र-छात्राओं पर ! गोया वे विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं न हो कर कोई खूंखार अपराधी हों, जिनसे तत्काल न निपटा गया तो देश में कानून के राज का ही अंत हो जाएगा !

वैसे भी जब सामने वाला निहत्था और खतरनाक न हो तो उस पर हमला बोलने, उसे पीटने-घसीटने का अपना ही मजा है ! अपने से कमजोर- निहत्थों पर ज़ोर आजमाइश कर मजा लूटने और अपने को वीर सिद्ध करने का काम आम तौर पर गुंडे करते हैं !

सत्ता का चरित्र तो इससे भी खतरनाक होता है. वह बेहद कुशलता के साथ नकली दुश्मन गढ़ती है और फिर ऐसे शत्रु से लड़ कर अपनी वीरता का लोहा मनवाती है,जो दरअसल कहीं होता ही नहीं है. नकली दुश्मनों से लड़ कर स्वयं को वीर इसलिए सिद्ध करना पड़ता है क्यूंकि असली सवालों के सामने सत्ता की बोलती बंद हो चुकी होती है,असली सवालों का सामना करने से पहले ही वह हथियार डाल चुकी होती है.

इस लड़ने-लड़ाने की बात से याद आया कि अभी कुछ दिन पहले तक प्यारे दिल्ली पुलिस वालों, आप भी तो एक लड़ाई में शामिल रहे. वकीलों के साथ बस न चलता देख, आपने सवाल उछाला था-क्या हम पुलिस में पिटने के लिए भर्ती हुए हैं? सही सवाल, पर जब इन लड़के-लड़कियों को आप पीट घसीट रहे थे तो ये सवाल आपके दिमाग में दोबारा क्यूँ नहीं कौंधा?

सवाल तो वहाँ भी बनता है कि क्या बी.ए.- एम.ए – एम.फिल-पीएच.डी. ये लड़के-लड़कियां इसलिए कर रहे हैं कि सड़क पर पीटे जाएँ या निर्जीव वस्तुओं की तरह घसीटे जाएँ ?

तीस हजारी वाले झगड़े के बाद आपने सवाल उठाया कि क्या पुलिस का कोई मानवाधिकार नहीं है ? बिलकुल है, निश्चित ही है. लेकिन इन लड़के-लड़कियों के बारे में आपने ऐसा क्यूँ नहीं सोचा कि इन पढ़े-लिखे युवाओं का क्या मानवाधिकार नहीं है ? और यह भी जान लो कि मानवाधिकारों और उनकी रक्षा के लिए अपनी जान तक दांव पर लगाने वाले यदि कोई हैं तो ये और इन जैसे ही हैं.

जुम्मा-जुम्मा हफ्ता-दस दिन भी नहीं बीता प्यारी दिल्ली पुलिस जब आप अपने लिए यूनियन बनाने का अधिकार मांग रहे थे. उचित ही मांग रहे थे. आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अफसरों की एसोसिएशन हो सकती है तो निचले रैंक वाले पुलिस कर्मियों की एसोसिएशन या यूनियन क्यूँ नहीं होनी चाहिए ? लेकिन एक तरफ खुद के लिए यूनियन की मांग और उधर एक अन्य यूनियन और उसके सदस्य अपनी वाजिब मांग के लिए सड़क पर तो उनके लिए लाठी-डंडे,लात-घूंसे और जल प्रहार ?आखिर यह कैसा विरोधाभास ?

जब अभी कुछ दिन पहले हड़ताल से उठे हो प्यारे दिल्ली पुलिस वालो तो यह तो जान लेते कि इन छात्र-छात्राओं की हड़ताल है,किस लिए ? ये तो लड़ रहे हैं कि शिक्षा सस्ती होनी चाहिए, हर एक को हासिल होनी चाहिए.

तुम ही बताओ प्यारी दिल्ली पुलिस, तुम्हें अपने बच्चों के लिए सस्ती और अच्छी शिक्षा नहीं चाहिए ? जानते हो, ये जे.एन.यू. ही इस देश में ऐसा विश्वविद्यालय है, जिसके गेट पर सुरक्षा गार्ड की नौकरी करने वाला, वहाँ पढ़ने का सपना साकार कर सकता, सिर्फ पढ़ाई की मेहनत के दम पर. जहां फेरी लगाकर चूड़ी बेचने वाला का बेटा और खेतों में मजदूरी करने खेत मजदूर माँ-बाप की बेटी भी पढ़ कर सिर्फ अपनी अच्छी ज़िंदगी का सपना नहीं पालते बल्कि एक बेहतर दुनिया-बेहतर समाज बनाने की जद्दोजहद में अपने हिस्से की भूमिका का निर्वाह करने उतरते हैं.

प्यारी दिल्ली पुलिस यह पत्र तुम्हारे नाम इसलिए है क्यूंकि चंद रोज पहले अपने अधिकार और सम्मान के लिए तुमने वही रास्ता अपनाया था,जो पढ़ने का अधिकार बचाने के लिए ये छात्र-छात्राएं अपना रहे हैं. जो अपने अधिकार और सम्मान के लिए धरना-प्रदर्शन जैसे रास्ता अपनाएं,उन्हें कम से कम दूसरे की हक-अधिकार की लड़ाई कुचलने तो नहीं जाना चाहिए.

अभी भी मौका है,इन बच्चों के लिए नहीं बल्कि अपने बच्चों के शिक्षा के अधिकार के लिए वैसे ही कड़े अंदाज में सवाल करो,जैसा कुछ दिनों पहले तुम अपने पुलिस मुख्यालय के बाहर कर रहे थे. पूछो अपने अफसरों से,अफसरों से ऊपर बैठे हुए आकाओं से कि सस्ती शिक्षा की मांग करने वालों से निपटने के लिए पुलिस को क्यूँ जाना चाहिए ? पूछो कि बेतहाशा बढ़ी हुई फीस का विरोध का मसले से निपटने के लिए तुम्हें क्यूँ भेजा जा रहा है,जबकि न तुमने फीस बढ़ाई है, न तुम कम कर सकते हो. पूछ कर तो देखो कि तुम्हारे अफसर और उनके ऊपर बैठे आका,चंद लड़के-लड़कियों के निहत्थे नारों से इतना डरते क्यूँ हैं कि तुमको लाठी,बंदूक,आंसू गैस के साथ इनसे निपटने के लिए भेज देते हैं ?

जिन्हें दुर्दांत अपराधियों का हम निवाला – हम प्याला होने में भय नहीं होता,उन्हें नारे लगाने वालों से इतना भय क्यूँ होता है ?

प्यारी दिल्ली पुलिस,तुम जिन लड़के-लड़कियों से मुक़ाबिल हो,ये तो उस पाश के वैचारिक वारिस हैं, जो ‘पुलिस के सिपाही से’ से कहता है :

“तुम लाख वर्दी की ओट में
मुझसे दूर खड़े रहो,
लेकिन तुम्हारे भीतर की दुनिया
मेरी बाजू में बांह डाल रही है
………
तुम चाहे आज दुश्मन के हाथ में
लाठी बन गए हो
पेट पर हाथ रख कर बताओ तो
कि हमारी जात को अब
किसी से और क्या खतरा है
हम अब सिर्फ उनके लिए खतरा हैं
जिन्हें दुनिया में बस खतरा ही खतरा है”

यह गांठ बांध लो कि शिक्षा,स्वास्थ्य,रोटी,रोजगार मांगने वालों से जिन्हें खतरा है,जरा सोचो तो वे कितने खतरनाक लोग हैं ? इन खतरनाक लोगों के हाथ की लाठी न बनों. जिनके हाथ की तुम लाठी बने हो,उन्हीं से पाश, तुम्हारे हालात को देख कर पूछता है :

“ऐ हुकूमत
तू जरा अपनी पुलिस से पूछ कर बता
कि
सीखचों के भीतर मैं कैद हूँ
या सीखचों के बाहर ये सिपाही”
सीखचों के बाहर की इस कैद से खुद को, अपने दिमाग को मुक्त करो,उनके साथ खड़े हो जाओ,जो तुम पर जुल्म होने पर तुम्हारे साथ खड़े हो जाएँगे,खड़े न भी हो सको तो कम से कम उन्हें अपना दुश्मन मत समझो. शिक्षा,स्वास्थ्य,रोटी,रोजगार मांगने वाले तुम्हारे लिए कतई खतरा नहीं हैं.वे तो तुम्हारे भाइयों और बच्चों के लिए भी यही सब चाहते हैं. और कुछ कर सको, न कर सको,लेकिन अपने भीतर दोस्तों-दुश्मनों की पहचान करने का शऊर जरूर विकसित करो.

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