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सुमिरन कर ले मेरे मना: भारतीय शास्त्रीय संगीत का ‘जस’ हैं पंडित जसराज

समस्त राग-रागिनियाँ भी मानो इस भजन गायन से उस परमब्रह्म में लीन होने को तत्पर हो जाती हैं। पता नहीं गुरु नानक देवजी के शब्दों की महिमा है कि भैरवी राग की या आदरणीय पंडित जसराज जी के गायन की, यह भजन सुनते ही अध्यात्म के प्रांगण में सभी प्रयास दत्तचित्त होकर परम आनंद की स्थिति में पहुँच जाया करते हैं।

काम-क्रोध-मद-लोभ निवारो, छाड़ दे सब संत जना, कहे नानक शाह, सुनो भगवंता, या जग में नही, कोई अपना” पंकियां इतने मार्मिक ढंग से गाते थे, कि सहज ही इस संसार की निस्सारता का बोध हो जाता है।

शास्त्रीय संगीत के गायन के द्वारा सहृदय को सभी सरहदों के पार परमलोक तक ले जाना या स्वयं से जोड़ देना, यही संगीत सरताज पंडित जसराज के गायन का व्यापक प्रभाव है जो सुनने वाले को यह तक भुला देता है कि वह ‘कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, भोर ही मुख खोलो’ सुनकर कृष्ण में मगन हो गया है या स्वयं कृष्ण उनमें उतर आये हैं या हम स्वयं कृष्ण हो गए हैं। भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त पंडित जसराज शास्त्रीय संगीत के साथ अपने कृष्ण भजनों के लिए सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध हुए। उन्हें इन भजनों के कारण अधिक प्रसिद्धि मिली और रसिक समाज के प्रिय बने।

वृन्दावन’ संकलन के सभी भजन एक से बढ़ कर उत्कृष्ट हैं। सूरदास और अन्य कवियों के कृष्ण भजनों को उन्होंने स्वरबद्ध किया और भक्ति रस से सभी को आनंदित किया।

पंडित जसराज को संगीत विरासत में मिली थी। उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जिसकी चार पीढ़ियां संगीत से जुड़ी रहीं। इनका जन्म 28 जनवरी 1930 को हुआ। उनके पिताजी पंडित मोतीराम जी स्वयं मेवाती घराने के एक विशिष्ट संगीतज्ञ थे।

चार साल की उम्र में ही पंडित जसराज के सर से पिता का साया उठ गया था। उनके पालन-पोषण का दायित्व बड़े भाई पंडित मणिराम की देख-रेख में हुआ था। जिन पंडित जसराज को दुनिया प्रखर शास्त्रीय गायक के रूप में जानती और पहचानती है, संगीत से उनका पहला सम्बन्ध एक तबलावादक के रूप में हुआ था।

इन्होंने अपने बड़े भाई मणिराम जी से तबला वादन की शिक्षा ग्रहण की और उनके संगीत कार्यक्रमों में बतौर तबलावादक भाग लिया करते थे। गौरतलब है कि शास्त्रीय संगीत की दुनिया भी अन्य क्षेत्रों की तरह कई पूर्वाग्रहों से ग्रसित रही है।

जब पंडितजी 14 वर्ष के थे तब उन्होंने तबला वादन त्याग कर गायन सीखना शुरू केवल इसलिए कर दिया था क्योंकि उस समय सारंगी बजाने वाले या तबला बजाने वालों को सम्मानित दृष्टि से नहींं देखा जाता था। इसलिए उन्होंने प्रण लिया कि अब वे शास्त्रीय गायन में विशारद हो कर ही कुछ और करेंगे। फिर उन्होंने मेवाती घराने के महाराणा जयवंत सिंह बाघेला और आगरा के स्वामी वल्लभदास जी से संगीत-विशारद की शिक्षा ग्रहण की।

पंडित जसराज बचपन से ही अपने आदर्शों के पक्के थे और उनकी गायकी में भी उनके पक्के सुरों का अनुभव होता है।

कुछ सजीव अनुभव:-
बनारस से पंडित जी का ख़ास लगाव था। संगीत और साहित्य का गढ़ माने जानी वाली यह स्थली शास्त्रीय संगीत के न जाने कितने ही संगीतज्ञों और कलाकारों से भरी-पूरी है।

यहाँ शास्त्रीय संगीत को जितना अधिक प्रश्रय और रस मिलता ही, उसका मुकाबला किसी और जगह से नही हो सकता। यह शहर गंगा नदी की समृद्ध परम्परा, आस्था और भक्ति के महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में समस्त संसार को आकर्षित करता है।

यहाँ वर्ष भर शास्त्रीय संगीत के विविध आयोजन और कार्यक्रम होते रहते हैं। पंडित जसराज जी को अक्सर यहाँ के संकटमोचन मंदिर में होने वाले संगीतोत्सव और गंगामहोत्सव के उप लक्ष्य में कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए कई बार सुनने का अवसर प्राप्त हुआ।

ऐसा सुना है कि पंडित जी बनारस में अपना गायन प्रस्तुत करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। ‘संकटमोचन मंदिर’ में होने वाले सभी कलाकारों की प्रस्तुतियां एक से बढ़ कर एक होती थी पर पंडितजी की प्रस्तुती में कुछ ख़ास बात थी। पंडित जी हृदय से भक्त थे।

कभी-कभी ऐसा लगता था मानो भक्ति युग का कोई भक्त आज इनके रूप में अवतरित हो शास्त्रीय संगीत के माध्यम से भक्ति और प्रेम का प्रसार कर रहा हो। यहाँ एक बात और भी बताना चाहेंगे कि क्यों बनारस में अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए सभी कलाकार लालायित रहते हैं ? ‘बनारस’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि जहाँ ‘रस’ हमेशा बना रहता है। साथ ही शास्त्रीय संगीत का नैसर्गिक सम्बन्ध अध्यात्म के साथ भी है और यह भूमि ऎसी ही तरंगों से युक्त है।

यहाँ के लोग जो दर्शक और श्रोता हैं, वे भी संगीत के मर्मज्ञ और पारखी होते हैं। यह किसी भी कलाकार की प्रतिष्ठा को भी बढ़ाता है। आज इस देश के जितने भी बड़े बड़े संगीतकार विश्व भर में प्रसिद्ध हैं, वे सभी यहाँ पर अपनी संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहते हैं।

संकटमोचन मंदिर के शाम को शुरू होने वाले कार्यक्रम में पंडित जी सबसे आखिर में गाते थे। मध्य रात्रि के समय में गाया जाने वाला राग दरबारी कान्हड़ा उनका प्रिय राग था। इस राग की राग दारी की खूबसूरती मन्द्र स्वरों से ही उभर कर आती है।

पंडित जी मन्द्र स्वरों में भी अति मन्द्र सप्तक गाने में माहिर थे। इसी राग के थाट पर आधारित एक अन्य राग अड़ाना में निबद्ध की बंदिश ‘माता कालिका’ अत्यंत प्रसिद्ध है। यह उनकी संगीत के प्रति असीम निष्ठा और लगाव ही था कि वे राग का विस्तार जिंतनी गहनता से करते उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।

राग को गाते समय वे सच में रागमय ही होते। संगीत उनके लिए आराधना थी। संगीत ही उनका ईश्वर और इष्टदेव भी था। किसी भी शास्त्रीय राग को आरम्भ करते समय वे पहले “मंगलम भगवान् विष्णु’ मन्त्र का जाप उसी राग के स्वरुप के अनुसार करते थे।

पूरी रात इसी राग से श्रोताओं को भाव विभोर किये रहते और मंदिर में भोर 4-5 बजे की आरती पंडित जी किया करते तुलसीदास कृत संकटमोचन हनुमानाष्टक ‘बाल समे रवि भक्ष लियो तब’ से और फिर भोर के समय गाये जाने वाले अपने प्रिय रागों बैरागी या ललित से फिर से दर्शकों को आनन्दासिक्त करते।

उस आरती के समय संकटमोचन मंदिर के सभी घंटे इस तरह से लयाधीन हो जाते मानो पंडित जी ही उन्हें नियंत्रित कर रहे हों और समस्त वातावरण एक स्वर एक लय होकर तल्लीनता के महासागर में डुबकियां लगाने लगता। उस समय मंदिर के प्रांगण में ज़मीन पर बैठे हुए श्रोता उसी भाव स्थिति में पहुँच जाते जिसमें पंडित जसराज स्वयं होते।

काव्यशास्त्र में रस के स्वरुप के वर्णन में जिस ब्रह्मसहोदर आनंद की बात कही जाती है, उसका साक्षात इनके गायन को सुनकर होता था।

बनारस का गंगामहोत्सव जो गंगा नदी में तिरने वाले कई बजड़ो को जोड़ कर तैयार किये गए मंच पर भी आयोजित होता था, उसकी शोभा भी पंडित ने बढ़ा या कहें कि दोनों ने ही एक दूसरे को आनंदित किया। गंगा की लहरों का संगीत जब इनकी स्वरलहरियों में घुल-मिल जाता तो सारा वातावरण मन्त्र-मुग्ध हो जाता।

इसके बाद दिल्ली में भी इन्हें सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। स्पिक मैके द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में नेहरु पार्क में इनका प्रिय कृष्ण भजन ‘गोविन्द दामोदर माधवेति’ और ‘ओम नमो भगवते’ की प्रस्तुति आज भी उस भावप्रवणता की याद दिलाती है जब सभी दर्शक इनके गाये हुए भजन के अंत में ‘गोविन्द-गोविन्द’ के लगातार उच्चारण से आल्हादित हुए बिना नहीं रह पाते थे। श्री राम सेण्टर हो या अन्य ऑडिटोरियम, पंडित जी की गायकी का लाभ उठाने संगीतप्रेमी उमड़ पड़ते और उस दैवीय अनुभव से परिपूरित होते।

संगीत की एकलयता प्रदान करने की सम्पूर्ण शक्ति का परिचय उन्हें भी होता जिन्हें शास्त्रीय संगीत या संगीत की कोई ख़ास जानकारी न होती। कृष्ण से इनके अनुराग की अभिव्यंजना में शास्त्रीय संगीत का गहन सार्थक योगदान का परिचय इनके द्वारा गाये और संगीत बद्ध किये गए सुन्दर भजनों से प्राप्त होता है।

सोनी म्यूजिक की कंपनी द्वारा रिलीज़ ‘श्री कृष्ण अनुराग’, ‘वृन्दावन’, हवेली संगीत’, hmv का ‘वोकल इंडिया’, आदि इनके अनेक संकलन हैं जिनमे एक से बढ़ कर एक मधुर कृष्ण भजन हैं। सूरदास द्वारा रचित ‘मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायो’ को सुनकर इस भजन में जो भाव सूरदास ने इस पद को लिखते समय प्रस्तुत किये होंगे, बिलकुल वही श्रोता तक पहुँचते हैं। वे सदैव वृन्दावन की संगीत बैठकों का अभिन्न अंग हुआ करते थे। वृन्दावन उनके प्रिय इष्ट का स्थल है वहा वे जब भी समय होता अवश्य जाते।

संगीत सरताज पंडित जसराज का संगीत पूरी दुनिया को भाव विभोर करता रहा। विदेशों में भी इन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम किये। जिनमें से एक, वैंकोवर में 1996 में उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के साथ प्रभावशाली कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इसके अलावा पूरे यूरोप और अमेरिका में विभिन्न कार्यक्रम प्रस्तुत किये।

जब वे 82 वर्ष के थे तब अन्टार्कटिका के दक्षिणी ध्रुव पर अपनी प्रस्तुति से अनूठी उपलब्धि हासिल की। तब वे पहले ऐसे भारतीय बन गए जिन्होंने सातों महाद्वीपों पर कार्यक्रम पेश किये हैं। इन्होंने 8 जनवरी को अन्टार्कटिका के तट पर सी स्प्रिट नामक क्रूज़ पर अपना गायन प्रस्तुत किया। इसके पहले वे 2010 में उत्तरी ध्रुव का दौरा भी कर चुके थे।

अनेक बड़ी म्यूजिक कंपनी के अनगिनत संकलनों (म्यूजिक टुडे के maesteo’s choice सीरीज, संगीत सरताज, HMV पर इनके द्वारा गाये गए की रागों की रिकॉर्डिंग आदि) के गायक पंडित जसराज को 2000 में पद्मविभूषण से, 1990 में पद्म भूषण, 1987 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड और 1975 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

इसके अलावा 2013 में लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए भारत रत्न भीमसेन जोशी क्लासिकल म्यूजिक अवार्ड भी दिया गया। इस प्रकार अनेक पुरस्कारों से सम्मानित पंडित जसराज सदैव एक भक्तानुरागी के व्यक्तित्व में ही दिखते थे।

हिन्दी सिनेमा में गायन:-
शास्त्रीय गायन के साथ पंडित जी ने हिंदी सिनेमा के भी कुछ गीत गाये। बॉलीवुड में उनकी प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत साल 1966 में आई फिल्म ‘लड़की सह्याद्री की’ से हुई थी। डायरेक्टर व्ही शांताराम की इस फिल्म में उन्होंने ‘वंदना करो’ भजन को राग अहीर भैरव में गाया था। इस भजन को वसंत देसाई ने कम्पोज़ किया था।

यह भजन आज भी हृदय विभोर करता है। उनका दूसरा गीत 1975 में आई फिल्म ‘बीरबल माय ब्रदर’ के लिए था। हालांकि ये प्रसिद्ध पर नहीं हुआ। इसे श्याम प्रभाकर ने कम्पोज़ किया था और पंडित जसराज ने पंडित भीमसेन जोशी के साथ जुगलबंदी में गाया था।

इन शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों के अलावा इन्होंने 2008 में आई बॉलीवुड फिल्म ’1920’ के लिए एक रोमांटिक गीत भी गाया। ‘वादा है तुमसे वादा’ को पंडित जी ने अपनी प्रभावशाली आवाज़ दी। इसे अदनान सामी ने कम्पोज़ किया और विक्रम भट्ट इसके डायरेक्टर थे।

इस प्रकार पंडित जसराज केवल शास्त्रीय गायक ही नहीं थे बल्कि अपने आप में संगीत की एक ऎसी संस्था थे जिसमें मेवाती घराने की पक्की नींंव थी, जो पक्के अनुशासन और निष्ठा के प्रतीक थे।

उनका परम तत्त्व का अवलंबन सदा ही उनके गायन के माध्यम से श्रोताओं को भी उसी आनंद की भूमि पर ले जाता था जिसका वे स्वयं अनुभव किया करते थे।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की गरिमा और महत्त्व को बढ़ाने तथा विदेशों में इसकी अद्वितीय और अलौकिक आभा का विस्तार करने में पंडित जसराज का योगदान अवर्णनीय है। इनके द्वारा प्रस्तुत सांगीतिक मूल्य और आदर्श अवश्य ही सभी संगीतप्रेमियों के लिए सदैव पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे |

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