समकालीन जनमत
पुस्तक

अंबेडकर का जीवन और चिंतन

 2023 में नवयान से अशोक गोपाल की किताब ‘ ए पार्ट एपार्ट: द लाइफ़ ऐंड थाट आफ़ बी आर अंबेडकर’ का प्रकाशन हुआ। किताब की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें अंग्रेजी के साथ मराठी स्रोतों का भी भरपूर उपयोग किया गया है । उनका कहना है कि आम तौर पर इन दोनो भाषाओं के अध्येताओं के बीच आपसी संवाद कम ही होता है। यह जानकारी भी खास है कि दलित शब्द का उपयोग पहली बार सावित्री बाइ फुले ने अपनी कविता में किया था।

शुरुआत 13 अक्टूबर 1935 को येवला में हुई इस घोषणा से लेखक ने की है जिसमें अंबेडकर ने हिंदू के बतौर पैदा होने की विवशता और उस रूप में न मरने का संकल्प किया था। इस घोषणा को मुम्बई से प्रकाशित एक मराठी साप्ताहिक में 20 अक्टूबर को जगह मिल सकी थी। 15 अक्टूबर को सभा में प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें संकल्प था कि दलित समुदाय हिंदू घेरे से पूरी तरह संबंध विच्छेद कर लेगा और कोई ऐसा धर्म अंगीकार करेगा जिसमें उसके साथ समानता का व्यवहार हो।

इसकी खबर अंग्रेजी में छपी । तत्कालीन वातावरण में यह खबर सनसनी की तरह फैल गयी । गांधी ने सबसे पहले इस पर अचरज जाहिर किया। गांधी को धक्का लगना स्वाभाविक था। तीन साल पहले ही उनके बीच पूना पैक्ट हुआ था। इसके आधार पर दलितों को विधायिका में प्रतिनिधित्व की गारंटी हुई थी। विवाद संयुक्त और पृथक निर्वाचक मंडल के सवाल पर था। पूना पैक्ट के बाद आरक्षित सीटों पर दलित प्रत्याशी ही चुनाव लड़ने थे। संयुक्त निर्वाचक मंडल में आरक्षित सीटों पर सभी मतदाता दलित प्रत्याशी ही चुनते। पृथक निर्वाचक मंडल में केवल दलित मतदाता उनका चुनाव करते। अंबेडकर पृथक निर्वाचक मंडल के पक्ष में थे। गांधी दलितों को हिंदुओं से अलगाने की व्यवस्था नहीं चाहते थे। 1932 में अंग्रेजी सरकार ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की घोषणा की थी। इसके विरोध में गांधी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन की घोषणा कर दी। अंबेडकर को गांधी से बात करनी पड़ी और 24 सितम्बर 1932 के पूना पैक्ट के नतीजे के बतौर उन्होंने संयुक्त निर्वाचक मंडल की जटिल व्यवस्था स्वीकार कर ली ।

इसे उस समय गांधी की जीत के रूप में प्रस्तुत किया गया था लेकिन गांधी ने अनशन से पहले ही निर्वाचक मंडल को उतना महत्व का सवाल नहीं माना जितना अछूत और सवर्ण हिंदुओं के बीच की खाई को पाटना महत्वपूर्ण लगा था। अछूतों को वे हरिजन घोषित कर चुके थे। पैक्ट के बाद उन्होंने हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र शुरू किया और हरिजन सेवक संघ की भी स्थापना की। अछूतों के मंदिर प्रवेश के सवाल पर हिंदू धर्माचार्यों से बहस की। आत्मशुद्धि के निमित्त इक्कीस दिनों का व्रत किया, अस्पृश्यता के विरुद्ध एक अभियान चलाया और हरिजन सेवक संघ के लिए चंदा जुटाने के मकसद से आठ महीने देश भर घूमते रहे।  कट्टर हिंदुओं ने उनका विरोध किया और उनके काफिले पर बम भी फेंका गया। इसके उलट बहुतेरे पुजारियों ने मंदिरों के दरवाजे अछूतों के लिए खोले। गांधी ने इन सबको इसका सबूत माना कि अस्पृश्यता अब अंतिम सांसें गिन रही है ।

ऐसे में उनको लगा कि अंबेडकर की घोषणा दलित उत्पीड़न की घटनाओं में तत्कालीन तेजी के विरुद्ध उग्र भावनात्मक प्रतिक्रिया है। उस समय एक घटना की चर्चा बहुत थी जिसमें 1935 के अगस्त माह में गुजरात के आणंद में कविथा में सरकारी स्कूल में जब दलित छात्र गये तो सवर्णों ने अपने बच्चों का दाखिला निरस्त करा लिया, दलितों के साथ मारपीट की, उनके घर तोड़े और उनका सामाजिक बहिष्कार किया। मजबूरन दलितों ने अपने बच्चों को स्कूल से वापस लेने का लिखित आश्वासन दिया। इसके बावजूद उनका बहिष्कार जारी रहा और उनके कुओं में किरासन डाल दिया गया था । इन घटनाओं को गांधी हिंदू धर्म की जगह उसके कुछ कमजोर अनुयायियों की करतूत मानते थे। अंबेडकर ने गांधी की इस बात का खंडन किया कि कविथा की घटना के कारण किसी तात्कालिक प्रतिक्रिया में उन्होंने यह घोषणा की। उनका कहना था कि कविथा की घटना जातिप्रथा से उत्पन्न है और जातिप्रथा हिंदू धर्म का अंग है ।

अंबेडकर की इस घोषणा का उनके शेष कार्यों से गहरा संबंध है और इसके तार 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में धर्मांतरण से भी जुड़े हुए हैं। इसकी खोज ही इस किताब का मकसद है। 1940 दशक के पूर्वार्ध से ही अंबेडकर ने बुद्ध को पढ़ना शुरू कर दिया था और इस अध्ययन से उन्होंने लोकतंत्र की नैतिक धारणा विकसित की । 7 मई 1941 को जनता में उन्होंने लिखा कि बुद्ध ने चातुर्वर्ण समर्थक ब्राह्मणी धर्म के विरोध में क्रांतिकारी कदम उठाया। यह धर्म जातिप्रथा का जनक है जो समता, स्वतंत्रता और बंधुता को नकारती है। इसलिए लोकतंत्र के लिए बुद्ध का धर्म ही उचित है। लोकतंत्र को भी उन्होंने शासन पद्धति की जगह समाज व्यवस्था के रूप में देखा। बुद्ध और उनका धम्म में भी उन्होंने यही तर्क और आगे विकसित किया। लेखक के मुताबिक किताब में उनकी सोच के विकास को देखने का प्रयास है जिसकी अंतिम परिणति जातिभेद उच्छेद में इस सवाल के साथ होती है कि देश में जाति को समाप्त करके समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कैसे किया जाय ।

अंबेडकर के चिंतन की कहानी एकाधिक कारणों से सीधी और सरल नहीं है। वे पारम्परिक अर्थ में चिंतक भी नहीं कहे जा सकते। वे अपने आसपास की हलचलों से निस्पृह शाश्वत प्रश्नों में डूबे रहने वाले नहीं थे। वे वकील थे और दलित समुदाय हेतु राजनीतिक चिंतक , नेता और प्रतिनिधि की भूमिका निभा रहे थे। उनका चिंतन हालात के साथ अंत:क्रिया में विकसित हुआ। इसलिए उनके विचारों में मौजूद जीवंतता, गहराई और तात्कालिकता को आज भी महसूस किया जा सकता है। उनके हालात ने उनकी बौद्धिकता और व्याप्ति को सीमित भी किया। राजनीति के दबाव और सेहत की समस्याओं के कारण वे बहुतेरी योजनाओं को उस तरह लागू नहीं कर सके जैसा चाहते थे। उनके लेखन को दलित नेता की सीमा में बांधकर देखा जाता रहा है।

हाशिये पर खड़े रहकर अंबेडकर ने दलितों के लिए अधिकार हासिल करने की कोशिश की और मुख्यधारा की राजनीति को भी बदला। अपनी कोशिशों को वह पूरक की तरह देखना चाहते थे लेकिन दलित समस्या के प्रति अन्य पार्टियों की उपेक्षा के चलते उन्हें दलित समस्या को प्रमुखता देनी पड़ी। उनके लिए स्वराज्य किनके लिए और किस तंत्र से का सवाल हमेशा बना रहा। बहुत हद तक इसी कारण वे स्वाधीनता आंदोलन से कुछ दूर रहे। दलित समुदाय नामक अंश की प्रमुखता के बावजूद वे सबके सवाल पर भी सोचते रहे। इसका सबूत पाकिस्तान के बारे में उनका लेखन है जो मुस्लिम लीग के पाकिस्तान संबंधी प्रस्ताव 1940 में पारित होने के महज चार महीने बाद लिखा गया।

इसकी भूमिका में ही उन्होंने किताब के मुद्दों के बारे में सोचने का आग्रह पाठकों से किया था। इस किताब की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन वे जिन मुद्दों की बात कर रहे थे उन पर कम ध्यान दिया गया। इस मामले में उनके अन्य प्रस्तावों की भी उपेक्षा की गयी । विभाजन को वे अनिवार्य देख रहे थे इसलिए उसके व्यवस्थित समाधान पर जोर दे रहे थे। संविधान सभा में आकर और नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री के बतौर वे दलित समुदाय के लिए अधिकार ही हासिल करना चाहते थे लेकिन असल में उन्हें इसके साथ ही बहुत कुछ करना पड़ा था। राजनीतिक विरोधियों के साथ समायोजन में उन्होंने संविधान का निर्माण किया जिसे वे राजनीतिक लोकतंत्र का आधार भवन कहते थे ।

अंबेडकर बहुत समय तक राजनीति में रहे लेकिन उनके लेखन में जाति, धर्म और समाज सुधार का सवाल प्रमुख है। पाकिस्तान वाली किताब में भी उनका यही कहना है कि इन दोनों के झगड़े में समाज सुधार की बात गायब हो जाएगी। वे कहते भी थे कि राजनीति उनकी मुख्य रुचि का क्षेत्र नहीं है। उनकी रुचि सामाजिक आंदोलन में रहती है। असल में किसी भी समुदाय के जागरण के लिए वे नैतिक और सामाजिक ताकतों को राजनीतिक ताकतों से अधिक मूल्यवान समझते थे।

वे आंदोलन के पक्ष में तो थे लेकिन उसके लिए कोई बोझ उठाने को तैयार नहीं थे। सार्वजनिक जीवन के शोरगुल को वे दिये गये कर्तव्य की उपज मानकर झेल लेते थे । उनके निजी और सार्वजनिक जीवन के बीच यह तनाव बार बार पैदा होता था और राजनीति से दूर होकर लिखने में सारी ऊर्जा लगा देने की इच्छा भी अक्सर उन्होंने जाहिर की। सक्रियता को कभी तिलांजलि तो उन्होंने नहीं दी लेकिन संगठनों की छोटी मोटी झंझटों से अक्सर वे खुद को दूर रखते थे।

इसका असर उनके द्वारा स्थापित संगठनों पर काफी पड़ता था। वे अपनी ऊर्जा मुद्दों को परिभाषित करने, जनता को जागृत करने और व्याख्यान देने में अधिक लगाते थे। उनका प्रयास राजनेता जैसा होता था। इसी भूमिका का सर्वोच्च रूप संविधान सभा की मसौदा समिति की उनकी अध्यक्षता में  उभरकर सामने आया।

इस तरह अंबेडकर दो किस्म की भूमिकाओं में साथ साथ नजर आते हैं- समाज सुधारक और अनिच्छुक राजनीतिक जो राजनेता होना चाहता था। वे खास हित के मुकाबले सामान्य कल्याण के लिए काम करना चाहते थे। राजनीतिक की जगह सामाजिक भूमिका उन्हें पसंद थी लेकिन इस भूमिका के लिए वे राजनीति में भी अपनी मौजूदगी जरूरी मानते थे। इसी चक्कर में सामाजिक और राजनीतिक जीवन में धर्म की भूमिका को उन्होंने सारभूत तत्व मान लिया।

बौद्ध धर्मांतरण में इन सभी बातों का योगदान है। 1941 वाले जनता के लेख से स्पष्ट है कि यह चुनाव धार्मिक भावनाओं का नतीजा नहीं था। राजनीतिक और सामाजिक हालात के आधार पर यह फैसला सोच समझकर लिया गया। धर्म का इस्तेमाल वे किसी ऐहिक मकसद से कर रहे थे। यह मकसद पूरी तरह भौतिक नहीं था।

वे तो समता, स्वतंत्रता और बंधुता की नीतियों पर आधारित समाज बनाना चाहते थे। स्वतंत्रता के पक्ष में आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक उद्यमिता का तर्क था। इसी तरह समता का अभाव हिंसा की ओर ले जाता है। अंबेडकर इस किस्म के उपयोगितावादी तर्कों का सहारा लेते हैं लेकिन वे सिद्धांतों की बात करते हैं जिनके साथ यदि न्याय की धारणा को भी मिला लें तो मनुष्य के सर्वतोमुखी सर्वांगीण विकास का परम लक्ष्य प्राप्त होता है।

1942 तक उन्हें लग गया कि बौद्ध धर्म में ईश्वर और जातिभेद की जगह नहीं है इसलिए वह इस लक्ष्य का नैतिक चालक हो सकता है । बौद्ध धर्म के चुनाव से वे संविधान और समाज के बीच की खाई को भी पाट देना चाहते थे ।

भारत में आदर्श और यथार्थ के बीच की खाई को अंबेडकर बौद्ध धर्म की ओर जाने से पहले भी लक्षित करते रहे थे । आजादी से पहले ही उन्होंने राजनीतिक आंदोलन के मुकाबले समाज सुधार को वरीयता देने की बात शुरू कर दी थी क्योंकि उनके मुताबिक सामाजिक सुधार के अभाव में शासक तो बदल जा सकते हैं लेकिन समाज की शक्ति संरचना में कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा ।

उनको शंका थी कि आजादी के बाद दलितों को जातिप्रथा की बुराइयों को झेलना होगा और संवैधानिक तंत्र अधिकतर वही रहेगा जो इस समय बनेगा इसलिए ही वे अंग्रेजों के जाने से पहले दलित समुदाय के लिए अधिकतम सम्भव संवैधानिक सुरक्षा हासिल कर लेना चाहते थे । उनके जाने की घड़ी में संविधान बनाने की कोशिश में भी शरीक होने की यही वजह थी। सामाजिक लोकतंत्र हासिल करने में राजनीतिक तंत्र उन्हें अपर्याप्त लगा इसलिए बौद्ध धर्म अपनाना फौरन जरूरी महसूस हुआ था ।

जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करने के लिए ढेर सारी किताबें लिखने की योजना बनायी। बुद्ध और उनका धम्म के अलावे प्रचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति के साथ उन्हें बुद्ध और कार्ल मार्क्स का भी लेखन करना था लेकिन गिरती सेहत की भी वजह से वे केवल पहली किताब ही पूरी कर सके। इसकी अपूर्ण भूमिका में उन्होंने तीनों किताबों को बौद्ध धर्म की समझ के लिए एक ही योजना का अंग कहा था।

वे बौद्ध धर्म को अपनाने के लिए न केवल भारत बल्कि सारे संसार के लोगों से अपील करते थे लेकिन धर्मांतरण के समय उन्होंने इसे दलितों की मुक्ति का मार्ग कहा। फिर कुछ समय बाद उन्होंने ऐसे अन्य समारोह आयोजित करने की इच्छा जतायी ताकि न केवल दलित बल्कि सभी लोगों को इसका लाभ मिल सके। ऐसे समारोह हुए भी और जनगणना के मुताबिक दस साल में बौद्ध लोगों की तादाद में बढ़ोत्तरी भी हुई लेकिन दलित समुदाय को छोड़कर अन्य किसी समुदाय ने इस धर्मांतरण में हिस्सा नहीं लिया। इससे बौद्ध धर्म के प्रति उनके नजरिये को देखने पर असर पड़ा। दलित आंदोलन के भीतर और बाहर इसे केवल दलित समुदाय की बात समझा जाता रहा। वे बुद्ध और उनका धम्म को काफी महत्व देते थे लेकिन बाद में उनके प्रसंग में इसकी चर्चा यथोचित महत्व के साथ नहीं हुई। बौद्ध धर्म को अंबेडकर अन्य धर्मों से अलगाते हैं और उसे ईश्वरहीन नैतिकता का स्रोत समझते हैं । इसके बावजूद वे इसे संस्थानों के सहारे प्रचारित भी करना चाहते हैं ।

लेखक के सामने यह भी समस्या है कि वे अंबेडकर के चिंतन को किसी एक धारा के साथ जोड़ नहीं पाते। उनकी पढ़ाई बहुमुखी थी और वे ढेर सारे स्रोतों का उपयोग करते थे। किसी भी एक विचार सरणि से वे बंधे नहीं नजर आते। शुरुआती मराठी लेखन में वे हिंसा के नैतिक औचित्य पर विचार करते हुए महाभारत का इस्तेमाल खूब करते हैं। इस शुरुआती लेखन में वे भक्त कवियों का भी सहारा लेते हैं लेकिन यह नहीं मानते कि देश की जातिप्रथा की समस्या का कोई समाधान वहां मिलेगा।

1920 दशक में वे गीता से प्रचुर उद्धरण देते हैं लेकिन 1940 दशक में उसे प्रतिक्रियावादी पुस्तक मानने लगते हैं। 1920 दशक के समाज सुधार के कुछ प्रयासों पर आर्यसमाज की छाप है लेकिन बाद में उसे खारिज कर देते हैं । कभी वे खुद को सत्यशोधक कहते थे और जोतिराव फुले के प्रति श्रद्धा भी व्यक्त करते थे। उन्हीं की तर्ज पर वे जातिप्रथा को धर्मानुमोदित उत्पीड़क और विभाजनकारी तत्व मानते हैं।

इतिहास पर ऊंची जातियों के कब्जे की मान्यता भी वे स्वीकार करते हैं । फिर भी जाति की उत्पत्ति के सिद्धांत, हिंदू समाज के वर्गीकरण और धर्म के उद्देश्य के मामले में वे फुले से सहमत नहीं हैं। रानाडे की वे प्रशंसा करते हैं लेकिन समाज सुधार के मामले में अंबेडकर की परिधि रानाडे के मुकाबले व्यापक है।

1935 के बाद से ही अंबेडकर बौद्ध धर्म के तत्कालीन अध्येताओं को पढ़ना शुरू कर चुके थे लेकिन सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक धर्म के बतौर बौद्ध धर्म की कल्पना उनकी मौलिक बात थी। जान डेवी के विचारों को का जिक्र वे हमेशा करते रहे लेकिन अनेक सवालों पर उन्होंने डेवी से भिन्न राय भी जाहिर की । अपने तर्कों के समर्थन में अंबेडकर बहुतेरे पश्चिमी लेखकों का जिक्र करते हैं । इन लेखकों को भी आपस में जोड़ने वाली कोई विचारधारा नहीं थी। इस मामले में वे कोई परहेज नहीं करते । इसका कारण उनके वकील होने में छुपा हो सकता है लेकिन इसे उनके परिणामवादी दर्शन का ही नतीजा मानना सही होगा।

उन्हें उदारवादी लोकतांत्रिक और क्रांतिकारी कहना पर्याप्त नहीं है। उन्होंने अपने आपको एक बार प्रगतिशील कनजर्वेटिव तो दूसरी बार प्रगतिशील रैडिकल कहा था। इसी तरह जातिभेद का उच्छेद में वे जाति की समाप्ति का उपाय अंतर्जातीय विवाह बताते हैं फिर इसके तुरंत बाद इसे व्यर्थ भी कहते हैं और शास्त्रों की पवित्रता में विश्वास का खात्मा इसका सर्वोत्तम तरीका कहते हैं । इसका अर्थ वे स्पष्ट नहीं करते। तर्क को समझने से मतलब निकलता है कि अंतर्जातीय विवाह जाति को खत्म तो कर सकता है लेकिन इतना करना ही पर्याप्त नहीं होगा। जब तक प्रत्येक व्यक्ति शास्त्र की जकड़बंदी से आजाद नहीं होगा तब तक अंतर्जातीय विवाहों का आयोजन वैसे ही है जैसे किसी बीमार के लिए पथ्य का प्रबंध करना ।

इस तरह के अंतर्विरोधों पर अधिक जोर देने वालों को जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि कोई भी विचारवान व्यक्ति किसी समय व्यक्त अपने विचारों से सुसंगति बनाये रखने के लिए बंधा नहीं रह सकता। संगति से ज्यादा महत्व जिम्मेदारी का है। इसके लिए सीखे हुए को भुलाने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। पुनर्विचार और खुद को बदलने का साहस उससे अपेक्षित होता है। असल चिंतन के क्षेत्र में कुछ भी अंतिम नहीं होता।

राजनीतिक अभिमत के सिलसिले में उन्होंने कहा कि राजनीति को समय के हिसाब से चलना होता है। अपनी इन मान्यताओं, राजनीति और समाज में दलित समुदाय की स्थिति और संवैधानिक उपायों को पसंद करने के चलते अंबेडकर लाभ हेतु समायोजन से परहेज नहीं करते थे। रानाडे के बारे में बोलते हुए भी उन्होंने कहा कि राजनीतिक वार्ता में सम्भव का नियम लागू होता है। इसका अर्थ नहीं कि जो कुछ मिले उससे तुष्ट हो जाना चाहिए बल्कि जो कुछ दिया जा रहा है अगर उससे अधिक के लिए प्रतिपक्ष को बाध्य नहीं किया जा सकता तो उसे लेने से इनकार नहीं करना चाहिए। सिद्धांत पर कोई समझौता नहीं हो सकता लेकिन उसे हासिल करने के उपायों में कोई परहेज नहीं बरतना उचित होता है। राजनीति में क्रमविकास अपरिहार्य होता है और कभी कभी लाभकर भी। इसी वजह से अंबेडकर कुछ मुद्दों पर अपनी राय बदलते रहते थे।

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