समकालीन जनमत
कवितास्मृति

तरुण भारतीय की कविताएँ हिंदी कविता का उत्तरपूर्वी अंग हैं

असद ज़ैदी


प्रसिद्ध फिल्म निर्माता, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता तरुण भारतीय का 25 जनवरी की सुबह दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। ‘समकालीन जनमत’ तरुण भारतीय के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। उनकी स्मृति में हम अपने रविवार का कविता अंक उनकी कविताओं पर प्रकाशित कर रहे हैं। उनकी कविताओं और व्यक्तित्व पर यह टिप्पणी समकालीन हिंदी कविता के सुपरिचित कवि असद ज़ैदी जी से टेलीफोनिक बातचीत का ट्रांस्क्रिप्शन है। 

 

तरुण भारतीय की कविताओं की जड़े दो तरह की संस्कृतियों में हैं, एक तो उनकी बिहार की मिथिलांचल की अपनी संस्कृति, जहाँ से वो हैं और दूसरे उत्तर पूर्व में, खासकर मेघालय की जो संस्कृति है, क्योंकि उनका बचपन और किशोर अवस्था शिलॉन्ग में गुजरी। जहाँ से वो सीधे दिल्ली आ गए। यहाँ किरोड़ीमल कॉलेज से उन्होंने ग्रेजुएशन किया और फिर एनएसआरसी से उन्होंने मीडिया की डिग्री ली। उसके बाद कुछ साल उन्होंने एनडीटीवी में काम किया, फिर वो इंग्लैंड चले गए थे। कुछ वर्षों बाद भारत वापस आकर शिलॉन्ग में अपने परिवार के साथ बस गए। उनके परिवार में उनकी पत्नी (जो कि खासी समुदाय से हैं) और तीन बच्चे हैं।

तरुण की कविता अपने समय का विद्रोही स्वर है। तरुण ने अपनी कविता में और अपने दूसरी रचनाओं में यही इंटरवेंशन किया है। वो ‘रॉएट टाइम्स’ नाम से एक वेबसाइट भी चलाते थे। इसमें विविध आयामी सामग्री आया करती थी। उनकी पत्रिका एक तरह से उनकी कविताओं का व्यक्तित्व हैं, उसका प्रतिबिंब है। वो केवल कवि नहीं थे, उनके व्यक्तित्व के कई और आयाम ज़्यादा प्रॉमिनेंट थे। बल्कि पोएट तो वे थोड़े रिलेक्टेंट थे।

शुरूआती दौर में तो अपनी कविताओं को लेकर वे मूक थे। वे फिल्मकार थे, फोटोग्राफर थे, अनुवादक थे, बहुत अच्छे वीडियो एडिटर थे, सामाजिक कार्यकर्ता थे और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट भी थे। ये सारी चीजें उनके जीवन का हिस्सा थीं जो कहीं ना कहीं उनकी कविता की रचना प्रक्रिया का भी हिस्सा हैं। कविता एक तरह से उनका बाय-प्रोडक्ट है। “ही डिड नॉट बिगिन ऐज़ ए पोएट।” वे कविता लिखने की दुनिया में साहित्य की संगत में धीरे-धीरे प्रविष्ट हुए। कविताओं में उनकी रुचि कुछ-कुछ आधुनिकतावादी और कुछ-कुछ उत्तरआधुनिकतावाद से प्रभावित रही जो कि अब एक ख़राब शब्द बन गया है।

तरुण अपने पीरियड की अराजक टेंडेंसीज के मुहावरे से हमेशा बहुत प्रभावित रहे। लिहाज़ा उनकी कविता में एक बड़ा सूक्ष्म ढंग का बिखराव मिलेगा, ऐसा बिखराव जिसको वो प्लान करते हैं लेकिन कहीं भी वो अपने प्रतिरोध और विद्रोह के स्वर से समझौते नहीं करते। हर चीज को चैलेंज करने की उनकी आदत थी। तो कहीं ना कहीं उन पर राजकमल चौधरी का महत्वपूर्ण प्रभाव था। उन्होंने राजकमल चौधरी को देर से डिस्कवर किया लेकिन पाया कि 60 के दशक में इस तरह का इनोवेटिव और पाथ ब्रेकिंग काम बहुत कम देखने को मिलता है बल्कि वो मुक्तिबोध के बाद राजकमल चौधरी को ही हिंदी के नए काव्य क्षेत्र का अग्रदूत मानते थे। राजकमल मैथिली में भी लिखते थे, इसका भी उनके ऊपर असर था। एक तरह की बीटनिक और विद्रोही जनरेशन है उसका संस्कार भी उनकी विरासत का हिस्सा थी। आज के जीवन के जो विडम्बनाएँ हैं उन पर ही वो फोकस करते थे। उनकी कोई भी कविता हैप्पी पोयम नहीं है। उसमें कोई राग-रंग या उत्सव बिलकुल नहीं है। वो चीजों को क्रिटिकली देखते हैं। वो इसको बचाओ, उसको बचाओ जैसी बात नहीं करते। वो अपनी कविताओं की मारफ़त बड़ी तीखी, तुर्श और एक तरह से विध्वंसक आवाज़ में आलोचना करते हैं।

अपने समय की जो राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं, फासीवाद का जो उभार है भारत में खासकर हिंदुत्ववादी फासीवाद, उसको लेकर वो हमेशा चिंतित रहते थे जिसका वो अपनी कविताओं में भरसक विरोध करते थे। उनकी कविताओं में भी जगह-जगह वो रेफरेंस आते हैं और कई बार वो बड़े प्रोवोकेटिव ढंग से चैलेंज करते थे।

तरुण की प्रमुख चिंताओं में पूर्वोत्तर राज्यों के साथ हिंदी पट्टी के लोगों का अंतर्विरोधी रुख शामिल था। अक्सर हिंदी प्रदेश के लोग नॉर्थ ईस्ट जाते हैं और वहाँ हिंदी और हिंदी प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं। यदि उन समाजों में आप अपनी हिंदी बेल्ट की राजनीति, यहाँ के संस्कार, यहाँ के अंतर्विरोधों को आप इम्पोर्ट कर लेते हैं तो उन समाजों को समझने, उनमें रमने और उनको रिप्रेजेंट करने की बजाय जो पाखंड है हमारे हिंदी प्रदेश की सांस्कृतिक और भाषाई विरासत का, उसी को जताने में लग जाते हैं। उत्तर पूर्व के साथ इस अंतर्विरोध को लेकर वो चिंतित रहते थे।
उनका मानना था कि हम मेनलैंड हिंदुस्तान से ही बिलॉन्ग नहीं करते हैं, हम नॉर्थ ईस्ट के भी लोग हैं। चूँकि वो स्वयं भी वही बस गए थे, उनका परिवार भी नॉर्थ ईस्ट का ही है। बाय एन्ड लॉर्ज तो वो मेनलैंड वर्सेज नॉर्थ ईस्ट उनका जो अंतर्विरोध है, उससे वे अपना गहरा कंसर्न रखते थे। इसीलिए एक प्रोवोकेटिव जेस्चर उनकी ख़ासियत है, जैसे कि वो कहते थे “कि तुम अपने को बहुत बड़ी चीज समझते हो। भारत अपने को महादेश कहता है और हिंदी पट्टी की संस्कृति को ही अपेक्षाकृत महान बताता है। जबकि देश की बाकी सारी छोटी छोटी संस्कृतियों को कुछ नहीं समझा जाता।” उनका मानना था कि ये जो स्मॉलर ट्रैडीशन है, जो छोटी संस्कृतियाँ है, वो भी सगर्व खड़ी रह सकती हैं। एक तरह से तरुण हिंदी के उत्तरपूर्वी अंग के कवि थे। उनके काव्य में नार्थ ईस्ट का स्वर है, वहाँ के दृश्य, चरित्र, उनकी परम्परा सभी कुछ है।

उनकी कविताएँ इंडियन स्टेट की आलोचना हैं। इंडियन स्टेट के वे बहुत बड़े आलोचक थे। वो ये मानते थे कि जो हमारी राज्य व्यवस्था है, यही डेमोक्रेसी को बर्बाद कर रही है और फासीवाद की तरफ हमें ले जा रही है। राज्य व्यवस्था चाहती है कि हम यह सोचें कि हम लोगों में जितनी भी बुराइयाँ हैं वो समाज में व्याप्त हैं। सांप्रदायिकता, सामन्तवाद, हर तरह का अन्याय और पूंजीवादी प्रवृतियों सबका आरोप हम समाज के ऊपर डाल देते हैं। हम उसके पीछे की जो पॉलिटिक्स और जो स्टेट फॉर्मेशन है, उसके रोल को नहीं देखते हैं।

साम्प्रदायिकता के लिए लोगों को दोषी ठहराना ना कि राज्य को और उसके इंस्टीट्यूशन को, उसी तरह पूंजीवाद के लिए उपभोक्तावाद को दोषी ठहराना, जो कि आम बीमारी है ना कि पूंजीवादी स्ट्रक्चर को। तरुण अक्सर इन बातों को बड़े प्रोवोकेटिव ढंग से उठाते थे।

पिछले मंगलवार को तरुण ने अपने तमाम तरह के कामों और उलझनों के बीच वक़्त निकाला और इधर की अपनी सात ताज़ा कविताएँ मुझे और कुछ और दोस्तों को भेजीं और चार ही दिन बाद दुनिया को ख़ैरबाद कह गया। आज उसका अंतिम संस्कार है।

अंतिम कविता ‘देश’ सिर्फ़ दो पंक्तियों की है, जो उसने छह दिसंबर 2024 के दिन लिखी थी। ये दो अविस्मरणीय पंक्तियाँ हमेशा मेरे दिल में रहेंगी। तरुण ने कविता थोड़ा देर से लिखनी शुरू की थी, संख्या में मेरा अंदाज़ा ये है कि 50, 60 से ज्यादा नहीं होगी, एक काम हमारा ये बनता है कि उनकी रचनाओं को संकलित करके एक अच्छी भूमिका के साथ लोगों के सामने लाएँ ताकि ये आवाज़ खो ना जाए। तरुण अपनी तरह की यूनिक आवाज़ है। इस आवाज़ को ज़िंदा रखना होगा।

 

 

तरुण भारतीय की कविताएँ

1. देश

उस देश को भूल जाओ
जैसे उस मस्जिद को भूल गए हो।

 

2. सम्राट : तीन स्वर


सम्राट का एकांत

एकांत में गिनतियां
गिनते हैं
कितनों को उबाराजा सकता है
बेबुनियाद चुटकुलों से

एकांत में मानचित्रों
के रह
लाल कलम से
रेखांकित करते
लिखते घरों के पते

एकांत में प्रेम
गीत गुनगुनाते हैं
और प्राचीन शोकगीत
को विलंबित
में लिपिबद्ध करते हैं

एकांत में प्रजा
के अनुशासन पर
प्रसन्नता व्यक्त करते
करते सो भी
जाते हैं कभी कभी

अकेले में पुण्यता
के स्वप्नों को स्वीकारते
हैं सम्राट
और द्वारपाल लाते हैं
राष्ट्रोचित रक्त

रक्ताभिषेक
रक्ताभिषेक
रक्ताभिषेक
रक्ताभिषेक
रक्ताभिषेक


सम्राट ने लगाई डुबकी
आकाश में फैलाई मुस्कान
हम हंसे बिना चुटकुले के
दरबार में विदूषक का आसन
खाली हो गया

सम्राट ने प्रजा के लिए
क्या नहीं किया


सम्राट बोलते क्यों नहीं?

सम्राट की चुप्पी
सम्राट की निगाहें
सम्राट की उबासी
सम्राट की उदासी

सम्राट चुप रहे
सम्राट ने देखा
सम्राट अलसाये
सम्राट उदासीन

हम चिल्लाए
हम जगे
हम कूदे
हम प्रसन्न

सम्राट की दया
हमारी हया
सम्राट के शिलालेख
हमारी कब्र

 

3. भय की प्रार्थना

भय का आरंभ ज्ञान
आकाश का अनन्त स्वप्न
भाषा सामिप्य आतंक
कमरे का कोना तय

जँगल में साँस विद्रोह
इतिहास में प्रश्न मुस्कान
नगर में कुत्ते चुप
कमरों की सँख्या तय

प्रेम के ईश्वर कुपित
सिमटती दिशाएँ मंत्र
साहब की खांसी गुप्त
कमरे का आकार तय

कमरों से ही बनता है घर
हवाओं में नहीं हिलतीं स्मृतियाँ
नमक से नहीं चमकता दालान
मतों से नहीं उगती हताशा
प्रार्थना ही है सत्य

भूगोल भी नहीं
कहानियाँ भी नहीं
प्यास तो दूर की बात है
प्रार्थना ही है सत्य
इतना ही है भय

 

4. मैं मुसलमानों पर कुछ नही लिखूंगा

मैं केवल अपने चचेरे भाई पर लिखूंगा
जिसको रोज़ हिंदू होने के नए तरीके सूझते हैं
बलात्कारी भाषा जिसे हिंदी भी कहा जा सकता
उसमे वह गढ़ता है हर रात एक नया शब्द
एक इतिहास जहां केवल बिरयानी है
और कुछ ग़ालिब वालिब भी
उसकी अर्धांगिनी जो सम्राट के सपने देखती है
अलसाये दिनों में बिना डरे

मुझे मुसलमानों पर कुछ नहीं कहना है
क्योंकि मुझे तो ये भी नहीं पता कि
उनमें गुस्सा है या डर या दोनों या
वे हंसते हैं मेरी अकसकाती शर्म पे

उनके घर, इतिहास, हंसी, बदमाशी, इश्क
को जलाने के बाद इस देश की तरह
मुझे उनकी कविता राख नहीं करनी है

(अ क द के लिए)

 

5. उस दोस्त के लिए जिसने बाज़ार में पहचानने से इंकार कर दिया 

क्योंकि तुम्हें लगा कि
लोग सोचेंगे कि मैंने पूछा
कैसे हो इन दिनों
और तुम्हें पुलिस बीट हाउस में
सोचना पड़ेगा कि तुम ने
क्या जवाब दिया?

क्या तुमने मंदिर कहा और हंसे
या फिर जंगल वाले रास्ते पर
जो रहती थी बूढ़ी प्रोफेसर
उसकी फीकी चाय का पुराना मजाक
इतिहास की कुछ बेवकूफियों
के साथ –

और यह भी कि बेल पर रह रही है
एक पुराने शहर में

यही बेहतर है
कि हम चुपचाप
अपने झोलों को संभालते
यह भी न सोचें कि
मछली महंगी हो गई है

और परिवार दोस्तों
से बचने का नाम है

 

6. मिस्टेकन आइडेंटिटी 

जब पूछा उनसे उनका नाम
काम, गाम
उन्होंने केवल आधार कार्ड निकाला
और तीन हज़ार के कालिख पुते नोट
एक ने तो ये भी कहा कि
उसके पास केवल ढाई हजार हैं
क्योंकि सरदार के पास छुट्टे नहीं थे

ये सब दुभाषिये ने बताया

मैं देख रहा था रेंगती अंतड़ियां
और सोच रहा था कि
आज रात कौन सी फिल्म
और कौन सी रम
किसमे कितना है दम

ये कौन सा देश है
कमांडर कहता है
हटाओ सालों को

फोटो खींचने के लिए जेब
से निकाला उसने वो नया फोन
जो उसने पिछले महीने
चाइना बाजार से खरीदा था
और जिसपर उसने हमें
दिखाया था देशद्रोहियों को
पहचानने के तरीके
और देशद्रोही लौंडियों
का नाच

कमांडर की बंदूक
हल्की थी

सबसे पहले गाड़े हमने बेलचे
अंत में जांघिए
और माटी उलीचते उलीचते
याद आया कि
हम भूल चुके थे
रोहडेनड्रोन के बीज

 

7. पीस एकॉर्ड

१.
एक पुरानी सी पतली किताब है
एक गुमशुदा कवि की कुछ खराब सी शायरी
लेकिन उसमें आज़ादी है
और एक किशोर प्रेम
एक जंगल और सपना
और हाशिए में बंदूक
एक देश भी जिसका नाम
भारत नहीं है

२.
आज वो जो बूढ़ी औरत है
पगलाई सी ऑख़म नाम वाली
उसे पकड़ाने आ गए कुछ
मनचले भारत वाली किताब
एक इतिहास जिसमें पराग दास वाला
पन्ना ठीक से छपा नहीं है
और एक कहानी जिसमें से गायब है प्रेमिका
जो आज रहती तो एक
चमचमाती नदी की मालकिन तो
बेशक नहीं रहती

३.
सारी क्रांतियां
फ्लाईओवर के किनारे
बसे अक्सों में ही
नहीं ढूंढी जा सकती

कभी कभी
शहर के उस टॉवर को
भी पूजा जा सकता है
जहां गद्दारी का मतलब
ऊषा जैसे बेतुके शब्द
हों

४.
पराजय का नाम
ही है प्रार्थना
और यह देश
जिसे अब किताबों में नहीं
बल्कि कब्रगाहों
में पढ़ा जाए।

 


 

तरुण भारतीय प्रसिद्ध फिल्म निर्माता, कवि, अनुवादक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने कई पुरस्कृत फिल्मों का संपादन भी किया था. उन्हें साल 2009 में रंजन पालित द्वारा निर्देशित ‘इन कैमरा, डायरीज़ ऑफ़ अ डॉक्यूमेंट्री कैमरामैन’ के संपादन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था. हालांकि, 2015 में उन्होंने देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता के विरोध में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को अपना रजत कमल पुरस्कार लौटा दिया।

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