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दलित साहित्य को शिल्प और सौंदर्यबोध देने वाले भाषा के मनोवैज्ञानिक थे मलखान सिंह

परसों शाम को फोन पर बात हुई, मैंने पूछा था, सर नया क्या लिख रहे हैं इन दिनों। उन्होंने जवाब में कहा था- “ये मेरे चल देने का वक़्त है, ये तुम्हारा वक़्त है तुम युवा लोग लिखो”।

फिर आज सुबह पता चला कि दलित वंचित समाज के वेदना और आक्रोश को शब्द देने वाले एक विद्रोही कवि मलखान सिंह नहीं रहे।

आज सुबह 4 बजे हृदयगति रुक जाने के चलते उनका निधन हो गया। वो 71 वर्ष के थे। उनका जन्म 30 सितंबर 1948 को उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुआ था।

आप आगरा उत्तर प्रदेश में बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद रिटायर हुए थे। उनके परिवार में तीन बेटियां और एक बेटा है। जबकि उनकी जीवनसंगिनी का निधन करीब 13 वर्ष पूर्व 2006-07 में हो गया था।

मलखान सिंह जी पिछले 12 वर्षों से कैंसर से पीड़ित थे कुछ दिनों पहले ही कीमोथेरेपी कराई थी। उन्हें दो बार पहले भी दिल का दौरा पड़ चुका था।

अंबेडकर लेखक संघ के संस्थापक सूरज बड़ित्या मलखान सिंह के परिवार के हवाले से बताते हैं कल रात वो 11 बजे सोए थे, और उनकी आदत थी वो सुबह 4 बजे उठ जाते थे और उठकर बच्चों को चाय-पानी के लिए आवाज़ लगाते।

लेकिन जब आज सुबह उन्होंने आवाज़ नहीं लगाई तो परिवार वाले उठकर आये तो देखे कि क्या हो गया। फिर उन लोगों ने डॉ. राम दयाल ने बुलाया।

डॉ. दयाल ने बताया कि जांच करके बताया कि वो नहीं रहे। उनके मुताबिक सुबह 4 बजे के करीब उन्हें कार्डियक अटैक आया था।

मलखान सिंह के निधन पर प्रतिक्रिया देते हुए अंबेडकर लेखक संघ के संस्थापक और कवि संपादक सूरज बड़ित्या कहते हैं – “मलखान सिंह का जाना दलित साहित्य की बहुत बड़ी क्षति है। जब दलित साहित्य की शुरुआत हो रही थी तो तो दलित साहित्य को हाशिये पर ढकेल दिया गया । दलित साहित्य पर ये आरोप लगाया गया दलित साहित्य में न शिल्प है न सौंदर्यबोध ये मोनोटोनस है। ऐसे समय में दलित साहित्य के भीतर एक नये तरह का शिल्प सामने रख कर उन्होंने जवाब दिया था। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज का वैचारिक विश्लेषण है। उनकी कविताएं भारतीय जातिवादी समाज का मनोविश्लेषण करती हैं, और बताती हैं कि हम भी इंसान है और हमारी पहचान इंसान के रूप में की जाए। वो सिर्फ दलित के नहीं पूरे वंचित समाज की आवाज़ बनकर आते हैं। इसलिए उन्हें दलित कवि न कहकर पूरे वंचित समाज का कवि कहा जा सकता है। वो अपने रचनाओं के जरिए एक नए तरह का सौंदर्बोध सामने रखते हैं।”

उनके दो कविता संग्रह सुनो ब्राह्मण और ज्वालमुखी के मुहाने पर दलित साहित्य के साथ साथ मुख्यधारा के साहित्य में भी बहुत ही सराहा गया। उनका पहला कविता संग्रह सुनो ब्राह्मण दलित साहित्य के इतिहास में क्रांतिकारी मील का पत्थर साबित हुआ।

उनके इस संग्रह के बाद ही दलित साहित्य ने खुद को स्थापित किया और मुख्यधारा के साहित्य समाज को चुनौती मिली।

मलखान सिंह ने अपनी निजी यथार्थ की अनुभूतियों को विचार में बदलकर दलित वंचित समाज की सामूहिक पीड़ा के रूप में अभिव्यक्ति दी।

इसके लिए उन्होंने अपनी नई काव्यभाषा अर्जित की। मलखान सिंह अपने साहित्य में सिर्फ आक्रोश ही नहीं, भय की वेदना लिखते हैं, अपमान पीड़ा तिरस्कार और वंचना लिखते हैं।

इन रचनाओं का हासिल ये है कि इनमें वर्ग या जाति विशेष के प्रति प्रतिशोध नफ़रत या गाली नहीं है कि जिनका पाठक होकर एक सवर्ण उत्तेजित प्रतिक्रिया दे। इन कविताओं का अर्जित ये है कि इन्हें पढ़कर ब्राह्मण या सवर्ण पाठक के मन में आत्मग्लानि व अपराधबोध का भाव पैदा होता है।

इन्हें पढ़कर वो अपने पुरखों के सामने गर्व से शीश नहीं नवाता बल्कि कई बार धिक्कारता है, लानत भेजता है उनकी बर्बरता एवं अमानवीयता भरे इतिहास पर। शर्मिदां होता है उनका वंशज होने पर। इन कविताओं की सार्थकता ये है कि ये सवर्ण पाठकों को भी उद्वेलित और आंदोलित करती हैं। सवर्ण से मनुष्यतर होने की भावना जगाती हैं।

“सुनो ब्राह्मण/ हमारे पसीने से/ बू आती है तुम्हें/ फिर ऐसा करो/ एक दिन/ अपनी जनानी को/ हमारी जनानी के साथ/ मैला कमाने भेजो/ तुम! मेरे साथ आओ/ चमड़ा पकायेंगे/ दोनों मिल बैठ कर/ मेरे बेटे के साथ/ अपने बेटे को भेजो/ दिहाड़ी की खोज में/ और अपनी बिटिया को/ हमारी बिटिया के साथ/ भेजो कटाई करने/मुखिया के खेत में/”

एक सतत विद्रोही कवि मलखान सिंह के निधन से दलित वंचित साहित्य के एक युग का अवसान हो गया। लेकिन वो अपने साहित्य के जरिए हमेशा इस समाज में मौजूद रहेंगे और ब्राह्मणवादी ताकतों को चुनौती देते रहेंगे। उन्हें आखिरी विदा, सादर नमन व विनम्र श्रद्धांजलि।

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