〈 कथाकार हेमंत कुमार की कहानी ‘ रज्जब अली ’ पत्रिका ‘ पल-प्रतिपल ’ में प्रकाशित हुई है. इस कहानी की विषयवस्तु, शिल्प और भाषा को लेकर काफी चर्चा हो रही है. कहानी पर चर्चा के उद्देश्य से समकालीन जनमत ने 22 जुलाई को इसे प्रकाशित किया था. कहानी पर पहली टिप्पणी युवा आलोचक डॉ. रामायन राम की आई है जिसमें हम प्रकाशित कर हैं. बहस को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिक्रिया, टिप्पणी, लेख आमंत्रित हैं. सं 〉
हेमंत कुमार की कहानी ‘रज्जब अली’ एक ऐसे समय मे आयी है जब भारत साम्प्रदायिक फासीवाद के संगठित प्रयोगशाला के बतौर विकसित हो रहा है. मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेकर हिन्दू बहुसंख्यक समुदाय के भीतर घृणा अभियान चला कर समाज को बांटने और सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न कर देने की कोशिशें फलीभूत होने लगी हैं. पिछले चार वर्षों में साम्प्रदायिक गुंडा वाहिनी के संगठित हमलों में सौकड़ों मुसलमानो को जान गंवानी पड़ी है या घायल होना पड़ा है.
” रज्जब अली को देखते ही उसके गले से रुलाई फूट पड़ी। दूध का गिलास और हलवे का प्लेट चौकी पर रखकर अपने मुंह में आँचल का पल्लू ठूंसकर वह फफक-फफक कर रो पड़ी. उसके दोनों बच्चे रुआंसे होकर शोभा और रज्जब अली का मुंह देखने लगे.
“ मत रो बहू. मैं इतना कायर नहीं हूँ जो अपना गाँव छोड़कर कहीं भाग जाऊं. मैं अब यहीं रहूँगा. गऊ माता की सेवा करूंगा और बिटिया रानी को किस्सों में बगदाद घुमाऊंगा. मेरे मरने के बाद तुम लोग अपनी चच्ची के बगल में कब्र दे देना. ”
इस कहानी में सारा नायकत्व राजपूत जाति के सहृदय लोगों के पास है और दलित, मुस्लिम समुदाय की पूरी आबादी इन सहृदय लोगों पर ही निर्भर है. ये चाहे जैसा रखें दलित बेचारे वैसा ही रह लेंगे. वे कोई प्रतिरोध नहीं करते. लेकिन यह कैसे माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के किसी गांव में आज की तारीख में कोई दबंग बिना पैसे चुकाए किसी दलित का बकरा खोल ले जाएगा. आज कोई भी ऊंची जाति का आदमी किसी दलित को गाली गलौज करते हुए काम करने या बेगार करने को नहीं कह सकता !
कोई भी रचना सिर्फ इसलिये याद नहीं की जाएगी कि वह अपने समय की गलत राजनीति का किस हद तक प्रतिरोध करती है. पोलिटिकल करेक्टनेस कोई प्रमुख प्रतिमान नहीं होता. रचना यादगार तब बनती है जब वह अपने समय की बारीकियों को दर्ज़ करती है क्योंकि बेहद छोटे-छोटे ब्यौरों और मामूली लगने वाली घटनाओं में आगामी समय के उत्स छिपे होते हैं और इन ब्यौरों को दर्ज करने की प्रक्रिया में लेखक पकड़ा जाता है. मुझे लगता है कि अपने सकरात्मक उद्देश्य और संदेश के बावजूद हेमन्त जी की कहानी रज्जब अली अपने ब्यौरों में गच्चा खा जाती है और लेखक के रूप में हेमंत जी का मानस भी पकड़ में आता है. जैसे दलित बस्ती के लिए वे बार बार चमरौटी शब्द का इस्तेमाल करते हैं और ठाकुरों की बस्ती के लिए बबुआन. दलित लोग अपनी बस्ती को चमरौटी नहीं कहते ओर न ही ठाकुरों की बस्ती को बबुआन कहते हैं. अपनी बस्ती के लिए वे बेहतर शब्द प्रयोग में लाते हैं और ठाकुरों के लिए कोई नफरत से भरा शब्द ! अब लेखक चमरौटी शब्द का इस्तेमाल किसकी ओर से कर रहा है ? कहानी के नायक रज्जब की ओर से अपनी ओर से ! रज्जब इस शब्द का इस्तेमाल अपनी ओर से नहीं करते क्योंकि वे दलितों को सम्मान देते हैं. इसका मतलब कथाकार के खुद के मन मे बबुआन ओर चमरौटी के कुछ रूढ़ अर्थ छिपे हैं. इसीलिए वह 2017 में यह कह पा रहा है कि जमींदारी के समय चमरौटी ज्यादा भरी पूरी थी. इस समय सिर्फ बूढ़े बचे हैं ! ऐसा नही है ! आज दलित बस्तियां ज्यादा आबाद और आक्रामक हैं। आज उत्तर प्रदेश के किसी भी कोने में कोई राजपूत दलित का बकरा दबंगई के बल पर नहीं ले जा सकता और न ही बेगार के लिए कह सकता है। लेखक भूल जा रहे हैं कि यह वही समय है जब 2 अप्रैल का भारत बन्द हुआ है.
इसी तरह मुसलमानो को लेकर लेखक के मन मे एक विशेष छवि है जो दीन हीन कातर और दोयम है. यह छवि तो राही मासूम रजा ने आधा गांव में ही तार-तार कर दी थी. यहां तो स्थिति है कि चमार ओर जुलाहे वैसे ही रहेंगे जैसे ठाकुर साहब लोग चाहेंगे. मतलब दलित ओर मुस्लिम को विक्टिम दिखाने के चक्कर मे लेखक उनको हाशिये से बाहर डाल देता है. कुछ कुछ हिंदी फिल्मों की तरह कि वहां सारा नायकत्व क्षत्रियों के पास हैं बाकी सब तो जी हुज़ूर बोलने के लिए हैं.
संक्षेप में यह कि हेमंत जी सामंती वैभव और रोब दाब के प्रति एक नॉस्टैल्जिक सा भाव रखते हैं. शायद यह बात उनकी पिछली कहानी से भी लगता रहा है. समाज की निचली तहों में जो बदलाव की पद चापें है उन्हें सुने बगैर वस्तुनिष्ठ नहीं हुआ जा सकता.
आज हिंदी का दलित विमर्श इसी बुनियाद पर खड़ा है जहां वह जातीय उत्पीड़न के प्रतिरोध में संगठित रूप में सामने आता है. हेमंत जी की कहानी में उत्पीड़ित तबकों का प्रतिरोध सिरे से गायब है. यहां सबाल्टर्न आवाजों को अनसुना कर दिया गया है जबकि हम सब यह जानते हैं कि सवर्ण पुरूषोचित सेकुलरिज्म के भरोसे फासीवाद से लड़ना महज खामख्याली है. मजदूर वर्ग की परिवर्तनकामी चेतना ही फासीवाद का विकल्प है.आज जो भी विकल्प बन रहा है या बनेगा उसमे इस तबके की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगी.
टिप्पणी शायद लंबी हो गई है लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए है कि हेमंत कुमार की यह कहानी निश्चित तौर पर एक उम्मीद जगाती है कि हिंदी कहानी अब यथार्थ की भीतरी तहों में पैठ रही है जो साहित्य को और अधिक मूल्यवान और सार्थक बनायेगी.
कहानी रज्जब अली यहाँ पढ़ें