( जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष, कवि और आलोचक राजेन्द्र कुमार आज 75 साल के हो गए. साढ़े सात दशक का उनका प्रतिबद्ध, सर्जनात्मक, सक्रिय और संघर्षपूर्ण जीवन आगे भी हम सब को प्रेरित करता रहेगा. इस अवसर पर हम राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व पर केन्द्रित जन संस्कृति मंच के पूर्व महासचिव प्रणय कृष्ण का यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने एक- डेढ़ वर्ष पहले लिखा था, जिसे इस अवसर के अनुरूप अद्यतन बनाते हुए उन्होंने हमें प्रकाशनार्थ उपलब्ध कराया है . सं )
प्रो. राजेन्द्र कुमार, राजेन्द्र जी और राजेन्द्र सर – ये तीनों ही उनके बहुप्रचलित संबोधन हैं, लेकिन इलाहाबाद शहर और उससे बाहर भी ज़्यादातर लोगों के लिए वे ‘राजेन्द्र जी’ ही हैं, चार दशक से अधिक के उनके अध्यापकीय जीवन से अर्जित प्रोफ़ेसर और सर जैसी उपाधियों के बगैर.
उनका अलंकरण मुश्किल है. उनके बारे में अतिशयोक्ति संभव नहीं. ध्यान से देखें तो उन्होंने अपने जीवन और अपनी रचना में कुछ भी अतिरिक्त, कुछ भी surplus बचाकर रखा नहीं है. जो कुछ भी अर्जित रहा, वह इतने इतने रूपों में बंटता रहा कि कोई चाह कर भी उसका लेखा-जोखा नहीं तैयार कर सकता. सामाजिक सक्रियताओं, लेखकीय प्रतिबद्धताओं, अध्यापकीय और पारिवारिक जिम्मेदारियों के दरम्यान उनका सारा अर्जन मानों खुशबू की तरह बिखर गया है, उसे वापस खींच कर, इकट्ठा कर measure करने की सुविधा किसी को नहीं है.
मनुष्य का भौतिक शरीर तो बहुत सी जैविक, आनुवांशिक और पर्यावरणीय प्रक्रियाओं का परिणाम होता है, उसके रूपाकार को सिर्फ व्यक्तिगत प्रयासों का फल नहीं माना जा सकता. फिर भी, कहे बगैर रहा नहीं जाता कि जिन्होंने पिछले कई दशकों से उन्हें देखा है, वे लक्ष्य किए बगैर नहीं रह सकते कि उस शरीर पर भी कभी, कुछ भी ‘अतिरिक्त’ नहीं रहा. जिसने कभी भी उन्हें देखा है, वह तस्दीक करेगा कि इस देह में ‘आराम’ का कोई सुराग खोजे नहीं मिलता. धूप, जाड़े, बारिश और न जाने किन-किन चिंताओं ने इसे तपाया है.
इस तपे हुए शरीर को लेकर भी उनकी चिंता फकत इतनी ही है कि वह अंतिम परिणति में सिर्फ अग्नि-देवता के काम न आए, बल्कि ज़िंदा लोगों और मेडिकल रिसर्च के काम आए. अभी 2 साल पहले मुझसे पूछ रहे थे कि शरीर-दान की प्रक्रिया क्या है और मेडिकल कॉलेज में इसकी सुविधा है या नहीं. मैं कुछ खोज-खाज कर बताता ,इससे पहले ही उन्होंने बी.एच.यू. में पढ़ा रहे अपने एक शिष्य से शरीर-दान का संकल्प-पत्र मंगवा लिया. मेरी भूमिका इतनी ही रही कि गवाह के रूप में उस पर मेरे हस्ताक्षर हैं. अभी भी बहुधा, 75 साल की उम्र में भी घर से दो चार किलोमीटर की दूरी, बगैर किसी की सहायता के कड़ी धूप में भी पैदल नापते उन्हें देखा जा सकता हैं. यों, अक्सर अपने एक प्रिय छात्र अंशुमान कुशवाहा की मोटर-सायकिल पर पीछे बैठ कर वे सभा-गोष्ठियों में पहुंचते देखे जाते हैं.
जब वे उपरोक्त पंक्तियों में मेरे द्वारा ‘अतिरिक्त’ शब्द का व्यवहार पढ़ रहे होंगे, तो ( मेरा अंदेशा है कि) निश्चय ही हल्की सी मुस्कान उनके होठों पर तिर आएगी , थोड़ी शरारती, थोड़ी बच्चों जैसी. कारण यह है कि वे शब्दों के खिलाड़ी हैं- उनके भाषणों, कुछ कुछ कविताओं, कक्षाओं के लेक्चर और सामान्य बातचीत में शब्दों से खेलने की उनकी प्रवृत्ति में उस बच्चे जैसी जिज्ञासा और कौतुक का मेल होता है, जो अलार्म घड़ी से लेकर हर यंत्र के पुर्जे खोल-खोल कर उनके नए संयोजन बनाने की कोशिश करता है.
याद आता है कि अपने किसी भाषण में उन्होंने ‘अतिरिक्त’ शब्द के साथ भी ऐसा ही खेल किया था. ‘अतिरिक्त’ का सामान्य अर्थ यानी ‘एक्सट्रा’ या ‘सरप्लस’ के अलावा उन्होंने ‘अति’ और ‘रिक्त’ को अलग कर के एक और अर्थ निकाला -‘बिलकुल खाली’. यह शब्द-खिलवाड़ जब उनके व्यक्तित्व से जोड़कर देखता हूँ तो चक्कर में पड़ जाता हूँ. एकबारगी कहने की इच्छा होती है कि इस अर्थ में भी उनमें ‘अतिरिक्त’ कुछ भी नहीं है. वे भरे पूरे हैं- प्यार, सदाशयता, सच्चाई और वात्सल्य से. लेकिन क्या भरा-पूरापन और खालीपन नितांत अलग अलग आयाम हैं ? यदि पात्र सिर्फ भरा हुआ है तो जो उसके भीतर है, वह बाहर ही आ सकता है चाहे वह प्यार हो, करुणा हो या उसके उलट कोई और भाव या संवेदन, लेकिन बाहर से भीतर को चीज़ें तभी जा सकती हैं, जब पात्र में खाली जगह हो. जब वह बाह्य के आभ्यंतरीकरण में समर्थ हो.
राजेन्द्र जी ने अपने भीतर लगातार खाली जगहें बनाई हैं, ताकि फैलते हुए बाह्य संसार और उसमें घटनेवाले जीवन-प्रवाह की भाव-संवेदनात्मक तरंगों को आत्मसात करने का अवकाश भीतर सदा बना रहे. यह उनका जीवन है. इसीलिए उनसे सिर्फ आशीर्वाद या उपदेश नहीं मिलता. वो तो कहीं भी मिल जाएगा. सबसे पहला और सबसे मूल्यवान अहसास यह होता है कि हमें सुना गया, समझा गया, कोई जगह है हमारे लिए भी, कहीं हम वांछित हैं. इसीलिए भले ही एक समर्थ वक्ता के रूप में उनकी ख्याति है, लेकिन मेरी निगाह में वे एक विलक्षण और अदभुत श्रोता हैं. आप उनके किसी भी विद्यार्थी, किसी भी सहयोगी से पूछ लीजिए. मैं उनके सैकड़ों विद्यार्थियों और सहयोगियों में से एक हूँ जिसे उनके इस ‘भरे-पूरे’पन का तो अकूत लाभ मिला ही है, साथ ही उस भीतरी आकाश का भी, उस खाली जगह का भी जिसमें हमारी अनगढ़ और उलझी हुई संवेदनाओं और विचारों का सदा स्वागत रहा.
1983-84 में मैं उनके संपर्क में आया. तबसे 35 साल गुज़रे हैं. बी.ए. में दाखिला लेने वाले एक ऐसे विद्यार्थी के रूप में मैं उनसे मिला जो व्यक्तित्व के ऐसे असामाधेय से लगनेवाले अंतर्विरोधों से जूझ रहा था जिन्हें परिस्थिति, वैचारिक झंझावात, पृष्ठभूमि और उम्र ने पैदा किया था, लेकिन उन्होंने जो भरोसा दिया यानी यह कि ‘ये असामाधेय नहीं हैं’, उसने मेरे जीवन का साथ अब तक दिया है. साहित्य बहुतों से सीखा जा सकता है किन्तु, ज़िंदगी को बरतना जिन विरले लोगों से सीखा जा सकता है, उनमें से हैं राजेन्द्र कुमार.
अपने जिए इलाहाबाद के बारे में वीरेन दा की कविता है ‘ऊधो मोंहि ब्रज……” जिसमें ये पंक्तियाँ आती हैं-“वो जोश भरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों की/वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल/वह कहवाघर!/जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी/हम कंगलों को.” इलाहाबाद विश्विद्यालय के मेरे छात्र जीवन तक भी इस माहौल की गंध थी. मेरे लिए ‘वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल’ जैसी पंक्ति का उन दिनों सबसे सम्पूर्ण अर्थ था ‘राजेन्द्र कुमार’.
राजेन्द्र जी के जिस घर में मैंने जाना शुरू किया था, वह इलाहाबाद विश्विद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय बिल्डिंग के सामने बंध रोड के आख़िरी सिरे पर था. यह घर प्रो. धीरेन्द्र वर्मा का था. राजेन्द्र जी 1981 में यहाँ रहने आए. लेकिन इलाहाबाद में वे एक दशक पहले ही आ चुके थे. कानपुर से ही एम.एस.सी. करने के बाद वहां रसायनशास्त्र की अध्यापकी करने के दौरान ही 1966-67 के आस-पास ‘नयी कहानियां’ पत्रिका के ज़रिए श्री अमृत राय के संपर्क में आए. अमृत जी ने इनके कुछ लेख इस पत्रिका में छापे.थे. घर के माहौल से मन सदा उचटा ही रहता था जिसके चलते घर से बिना किसी को बताए भाग जाने की घटनाएं पहले भी घट चुकी थीं. इस बार इलाहाबाद पहुँच गए और अमृत जी के साथ उनके घर पर ही रहना शुरू किया. यहाँ शाम को साहित्यकारों की बैठकी जमती थी. प्रो. एहतेशाम हुसैन इस मंडली के नियमित सदस्य थे. अमृत जी के घर कब तक रहेंगे, यह सोचकर ज़ीरो रोड स्थित अग्रवाल कालेज में सेकेंडरी स्तर पर 90 रूपए मासिक वेतन पर विज्ञान पढ़ाने की नौकरी कर ली और बलुआ घाट में कमरा लेकर रहने लगे. लेकिन यहाँ भी बहुत दिन मन नहीं लगा और बलुआ घाट वाले मकान में सामान वगैरह वैसे ही छोड़ वापस कानपुर चले आए.
अमृत जी को पता चला तो वापस बुलवाया. अमृत जी के घर पर ही प्रो. एहतेशाम हुसैन ने राजेन्द्र जी को हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में एम. ए. कोर्स के तीन आवेदन पत्र लाकर दिए और तीनों विषयों में आवेदन करने की हिदायत दी. एम. ए. हिन्दी में दाखिले की लिस्ट पहले आई और इस लिस्ट में राजेन्द्र जी का नाम होने की सूचना भी खुद प्रो.एहतेशाम हुसैन ही लाए. इस समय वे उर्दू विभाग के अध्यक्ष और कला संकाय के डीन भी थे. इस प्रकार हिन्दी की अकादमिक दुनिया में एहतेशाम साहेब ने लगभग ठेल कर इन्हें दाखिल करा दिया. साहित्य के संस्कार पहले से ही यानी कानपुर से ही चले आ रहे थे. एम. ए. पूरा करने के साथ ही 1971 में सी.एम.पी. डिग्री कालेज में नौकरी मिल गयी. डा. रघुवंश के निर्देशन में पी.एच.डी. करने के बाद 1979 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवक्ता नियुक्त हुए.
इलाहाबाद की साहित्यिक दुनिया में प्रवेश के साथ ही श्री अमृत राय और प्रो. एहतेशाम हुसैन के अभिभावकत्व ने उन्हें अनेक रूपों में समृद्ध किया होगा. संभवतः हिन्दी और उर्दू के इन दो प्रकांड व्यक्तित्वों की अन्तरंग संगत ने भी राजेन्द्र जी के अध्यापन, व्यक्तित्व, सामाजिक जीवन और रचनाशीलता में उर्दू-हिन्दी की अविभाज्य सांस्कृतिक विरासत, साझा-संस्कृति या गंगा-जमुनी तहजीब की मार्मिक पकड़ को मजबूती प्रदान की. आज हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी में उनके जैसे लोग बहुत थोड़े हैं जिनकी आखें हिन्दुस्तानी या हिन्दवी की दोनों लिपियों के लिए खुली हुई हैं, जिनकी ज़बान में दोनों किस्म की ध्वनियों की सुन्दर संगत है, जिनके ज्ञानात्मक संवेदन के विकसित होने में मीर से लेकर वामिक और फिराक तक का वैसा ही योग है, जैसा कि कबीर, तुलसी, जायसी, मीरा या निराला का. विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने तक वे लगभग दो दशक तक हिन्दी विभाग में उर्दू का स्पेशल पेपर पढ़ाते रहे थे.
विश्वविद्यालय में नियुक्ति के बाद प्रो. धीरेन्द्र वर्मा के घर समय समय पर होने वाली गोष्ठियों में डा. रघुवंश, डा. रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि वरिष्ठ साथियों के साथ आते-जाते उनके परिवार से भी अंतरंगता हुई. 1981 में जब वे डा. धीरेन्द्र वर्मा के घर रहने आए, उससे पहले धीरेन्द्र जी की मृत्यु हो चुकी थी. इससे पहले तक वे इलाहाबाद के अलग अलग मोहल्लों में रह चुके थे. पहले अशोक नगर स्थित अमृत राय जी के मशहूर ‘धुप छांह’ में, फिर बलुआ घाट, फिर कटरा में लक्ष्मी टाकीज के पास, उसके बाद दोबारा कुछ दिन बलुआ घाट और फिर कटरा में रहने के बाद वे धीरेन्द्र जी के घर में 1981 से रहने आए.
राजेन्द्र जी के इस घर में दाखिल होते ही एक निश्चिंतता सी लगती थी. बैठके में साधारण से सोफे, कुर्सियों और मेज़ के साथ एक तख़्त था जिसके एक सिरे पर बड़े करीने से किताबें और लिखने पढने की अन्य सामग्री रखी होती थीं. इसी तख़्त पर या कुर्सी पर प्रायः राजेन्द्र जी बिलकुल सीधी तनी रीढ़ के साथ विराजमान मिलते थे. बातचीत होते होते कब आंटी चाय नाश्ता रख जाती थीं, पता ही नहीं चलता था. इस घर में कभी भी जाया जा सकता था. यहाँ सबके लिए जगह थी. बाहर से आनेवाले तमाम साहित्यकारों के ठहरने का सबसे आत्मीय और भरोसेमंद स्थान भी यही घर था. अश्क जी की विशाल कोठी के बारे में भी यही ख्याति थी. लेकिन मेरा उसके बारे बारे में कोई अनुभव नहीं है. फिर डा. धीरेन्द्र वर्मा के इस विशाल घर का एक कोना ही राजेन्द्र जी के पास था और यह अस्सी का दशक था. यहाँ राजेन्द्र जी के निवास की जगह बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन यहाँ बहुत बड़े दिल में सबका स्वागत था. धीरेन्द्र जी की बेटी राजेन्द्र जी की मुंहबोली बड़ी बहन थीं. लेकिन कुछ ऐसा अपघट हुआ कि इसी घर से राजेन्द्र जी को निकाला गया. बहन-भाई के सम्बन्ध को आखीर तक निबाहने की ज़िद में राजेन्द्र जी ने वहां अनेक अपमान सहे, जिसके बारे में तफसील में जाने का मैं अधिकारी नहीं हूँ. 1985 में इसी घर से उन्हें निकलना पडा. मालिकान के द्वारा उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई गयी, पुलिस बुलाई गयी, मुकदमा किया गया. राजेन्द्र जी के साथ विश्विद्यालय समुदाय, छात्रनेताओं और शहर के तमाम बुद्धिजीवी और नागरिकों की एकजुटता थी, लेकिन उन्होंने इस पूरी यंत्रणा के विरुद्ध आत्मरक्षार्थ भी उनके विरुद्ध कुछ नहीं किया. लोगों ने बहुतेरा समझाया कि मकान मत छोडिए, या कम से कम छोड़ने के एवज़ में मुआवजा वसूलिए, लेकिन बगैर एक शब्द बोले वे उस घर से निकल गए. जब सम्बन्ध ही सूख गए, तो भला बाकी किसी चीज़ का क्या सोचना ! लेकिन इस घर से निकाले जाने का उन्होंने एक अनूठा प्रतिवाद किया. घर का जो बड़ा कमरा था, उसकी दीवारों पर उन्होंने मार्क्स, लेनिन, भगत सिंह आदि के पोर्ट्रेट बना डाले. क्या रहा होगा मन में ऐसा करते हुए ? बाहर के बैठके में भी दीवार पर स्केच देख कर किसी मित्र ने पूछा कि इसे आप ने कागज़ पर क्यों नहीं बनाया. जवाब था कि “कागज़ तो मेरे साथ चला जाएगा और जल्दी नष्ट हो जाएगा, दीवारें यहीं रहेंगी और शायद उन पर ये चित्र भी, कुछ ही दिन सही .”
मेंरी समझ से, छूट कर भी वह घर जिस तरह उनके भीतर रह गया, उसी तरह उन चित्रों की मार्फ़त वे भी घर छोड़ने के बाद भी, कितने भी कम समय तक वहां रह सकें, यही उन चित्रों को बनाने के पीछे की भावना थी. भौतिक रूप से उस घर से निकलने को मजबूर किए जाने के बाद उसके प्रति प्यार, उसमें अपनी उपस्थिति और उसके साथ अपनी पहचान को उन्होंने दीवारों पर अंकित कर दिया. चित्र भी कैसे ? किनके ? किन चित्रों में वे अपनी पहचान, अपनी उपस्थिति, अपनी सोच, अपने लगाव अंकित कर जाना चाहते हैं ? राजेन्द्र जी के वर्तमान आवास के बैठके में भी प्रेमचंद, फैज़, फिराक आदि के स्केच आलमारी में रखे हुए हैं जिन्हें पिता-पुत्र (राजेन्द्र जी और उनके छोटे बेटे प्रेयस) ने तामीर किया है.
चित्रकारी के शौक के बारे में बताते हैं कि वह उन्हें बचपन से ही था. कानपुर में हाई-स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद से उन्होंने ट्यूशन करके खुद का खर्च निकालना शुरू कर दिया था क्योंकि पिता जी के पास कोई काम-धन्धा या नौकरी नहीं थी. तब वे जिन बच्चों को पढ़ाते थे उनकी पढ़ाई पूरी होने के वक्त अपनी ओर से पेंटिंग बना कर दिया करते थे. अंडाकार घेरे के बीच गांधी, सुभाष बोस आदि तमाम राष्ट्रीय नेताओं के चित्र पेंट करके नीचे लिख देते थे -“ढूंढो , इनमें तुम कहाँ हो ?”
बहरहाल, जिस घर की ऊपर चर्चा हुई, उससे उनके निकाले जाने से पहले की एक घटना याद आती है. मैं वहां गया हुआ था. बगल के कमरे से बड़ी तेज़ आवाज़ में ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है ‘ का रिकार्ड बज रहा था. आवाज़ इतनी तेज़ थी कि बातचीत मुश्किल से हो पा रही थी. मालुम हुआ कि यह उन्हें निकालने के लिए आजमाए जा रहे अनेक तरीकों में से एक था. सुबह के समय कामवाली और दूध देने वाले का आना बंद करवा दिया गया था. मकान के आगे जो बड़ा सा अहाता था उसके मेनगेट में सुबह के समय ताला जड़ दिया जाता था.
वहां से निकलने के बाद वे काफी अरसे अल्लापुर में किराए के मकान में रहे. मैं इलाहाबाद छोड़ चुका था. लेकिन जब भी आता, उनके घर जाए बगैर लौटना नहीं होता था. मुझे खुद उस छूटे हुए घर की बहुत याद आती थी, जैसे वो मेरा ही घर रहा हो. एक बार मैंने अल्लापुर वाले घर में उनसे यह बात कही भी. ज़ाहिर है यह भावना मेरी ही नहीं उन तमाम लोगों की भी रही होगी जिनके लिए वह घर मानों उनका खुद का घर था. इधर करीब 20-22वर्षों से वे फिर उसी बंद रोड पर अपने निजी मकान में रह रहे हैं, लेकिन उस पिछले छूटे हुए मकान की याद हमारे जैसे लोगों को अब भी आती है. उन दिनों ‘अभिप्राय’ पत्रिका में सम्पादकीय पते के स्थान पर इसी घर का पता लिखा होता था.
राजेन्द्र जी आज 75 साल के हो गए . ‘ साधारणता ‘ साहित्य का मूल्य बहुतों के लिए है, लेकिन जीवन-मूल्य बहुत कम लोगों के लिए है. साधारणता के इस अडिग जीवन-मूल्य के पीछे एक असाधारण जीवन-संघर्ष छिपा है. वह सदैव पृष्ठभूमि में रहा है, जिसका सिर्फ अनुमान होता है. साढ़े सात दशकों के उनके जीवन का शब्दांकन यदि हो, तो वह समाज, रचना और राजनीति की परस्पर गुंथी हुई गतियों के बीच एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति के बनने की एक बेहद दिलचस्प, नाटकीय और प्रेरणादायी संघर्ष-कथा होगी जिसमें पाठक ज़माने के चेहरे को अलग ढंग से पहचान सकेंगे. मुझे ऐसा ही लगता है. उनकी कविताओं को देखें या फिर आलोचनाओं को, उनमें व्यक्तिगत जीवन की निजता के कोण से उतारे गए चित्र बहुत विरल हैं. निजता यदि है भी तो इतनी सूक्ष्म कि पकड़ में न आए. कई बार निराला और मुक्तिबोध के बारे में कक्षाओं में और बाहर भी जो व्याख्यान उन्होंने दिए हैं, उन्हें सुनते हुए लगता है कि वे पाठ के समानांतर इन कवियों के जीवन-संघर्ष के साथ identify करते हुए एक और पाठ भी रच रहे होते हैं.
काफी वर्षों पहले उनसे सुना था कि मुक्तिबोध कठिन कवि बिलकुल भी नहीं हैं. दर-असल वे कह इतना ही रहे हैं कि आप मुक्तिबोध के पास हिन्दी आलोचना द्वारा पैदा किए गए घटाटोप के बगैर जाएं, तो पाएँगे कि आप ऐसे व्यक्ति और रचना के सम्मुख हैं जिससे बिलकुल भय नहीं लगता, जिससे कोई दूरी नहीं लगती, जो सहज, आत्मीय और बेबनाव है. क्या राजेन्द्र कुमार के नज़दीक जा कर भी यही नहीं लगता ? मुक्तिबोध के बारे में कही गयी उनकी इस बात में क्या उनका अपना भी चेहरा नहीं झांकता ?
उनके पास बगैर परिचय के अपनी समस्याएँ (सिर्फ अकादमिक नहीं, बल्कि जीवन-संबंधी भी) लेकर पहुँचनेवाले छात्र, साहित्य की दुनिया में नवोदित या विभिन्न कारणों से हाशिए पर रहे लोग बिलकुल ही आराम से, बगैर किसी दूरी का अनुभव किए, न जाने कितना समय बिताते रहे हैं. सोचता हूँ कि वे न जाने कितने लोगों के राज़दार हैं, लेकिन क्या उनका राज़दार भी कोई है ? दूसरों की समस्याओं को सुनते, समाधान करते, उनकी जायज़ अपेक्षाओं पर खरा उतरने की हर क्षण कोशिश करते, अपनी मुश्किलात के बारे में वे शायद ही कभी चर्चा करते हों. मुझे लगता है कि जब वे अपनी किसी मुश्किल के बारे में बहुत हलके ढंग से कभी कुछ बताते भी हैं, तो उससे पहले उसे अधिकतम हद तक अकेले ही झेल चुके होते हैं.
यह उनका स्वभाव बन चुका है. अपने निजी दुखों-तकलीफों से परिजनों, मित्रों तक को मुक्त रखना उनका स्वभाव है और ये खतरनाक है. इतने लोगों के संतापों और तकलीफों का यथासंभव निराकरण करते हुए, मदद और भरोसा देते देते उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा बन गया है कि किसी को लगता ही नहीं कि उन्हें भी कोई तकलीफ हो सकती है. हम जैसे उनके विद्यार्थियों और तमाम नौजवान लोगों के लिए वे अजीब सा द्वंद्व उपस्थित करते हैं. एक ओर वे बिलकुल मित्रवत हैं, तो दूसरी ओर ऐसे पिता की तरह हैं जो अपने बच्चों को लेकर इतना protective है कि बच्चों को इसका कभी अभ्यास ही नहीं पडा कि पिता को भी protection की ज़रुरत हो सकती है. आखीर आज भी हम लोग पूरे अधिकार के साथ बगैर उनकी सुविधा-असुविधा, इच्छा-अनिच्छा, बीमारी-तकलीफ का ख्याल किये, उन्हें न जाने कितनी ज़हमत देते ही रहते हैं. सोचता हूँ यह बदलना चाहिए. वे तो यह हमें सिखाने से रहे, इसे हमें खुद ही सीखना होगा.
राजेन्द्र जी का जीवन वैसे खुली किताब है- सामान्य अर्थों में. लेकिन मुझे लगता है कि हम उनके नज़दीक होकर भी उन्हें कम जानते हैं. एक गहराई है उनके व्यक्तित्व में जो समझे जाने के लिए उनके साथ संपर्क-सबंध रखनेवालों से कल्पनाशीलता, भावुकता और सहृदयता की मांग करती है. हम उनके साथ-संगत में उनका जिया जा रहा एक जीवन देखते हैं, लेकिन उनके जिए गए वे अनुभव जो उनकी स्मृति का हिस्सा हैं, जो उनके व्यक्तित्व में रच पच गए, जिनसे तप कर वे वहां खड़े हैं जहां से हम उन्हें देख रहे हैं, वहां तक हमारी पहुँच नहीं हो पाती. वैसे कभी कभी उन्होंने अपने अभावग्रस्त मातृविहीन बचपन, पिता की दूसरी शादी और घर से भागने जैसी कुछ बातें स्फुट रूप से बतायी भी हैं.
कानपुर के अभावग्रस्त जीवन के बीच ही उन्होंने ऐसा बहुत कुछ अर्जित किया जिसका बहुत कुछ छूट जाने के बावजूद , बहुत कुछ मूल्यवान ऐसा भी है, जो अब तक उनके साथ है. हाई-स्कूल पूरा करते करते वे अपने पैरों पर खड़े थे. इसी कच्ची उम्र में कानपुर के कम्युनिस्ट नेताओं कामरेड राम आसरे, कामरेड सुलतान नियाजी, कामरेड एस.एम.बनर्जी आदि के संपर्क में भी आ गए. म्योर कॉटन मिल के सामने पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस और सोवियत प्रकाशन गृहों द्वारा प्रकाशित किताबें भी बेचना शुरू कर दीं. घर के निचले तल पर किराए की कोठरियों में कपड़ा धोनेवाले, चाट का खोमचा लगानेवाले आदि मेहनत मजूरी करनेवाले लोग रहा करते थे. इन्हीं में से एक, म्योर कॉटन मिल के सामने चाट का ठेला लगानेवाले भगौती ने वहीं राजेन्द्र जी को कम्युनिस्ट और प्रगतिशील साहित्य बेचते देखा और उनके पिता जी को रिपोर्ट किया. ज़ाहिर है कि इसे लेकर घर में बवाल हुआ. राजेन्द्र जी का बचपन मेहनत मजूरी करनेवाले अपने इन्हीं पड़ोसियों के बच्चों के साथ गुज़रा. वैसे भी घर की अकेली संतान थे. पिता को इन ‘छोटे लोगों’ से इनका घुलना मिलना बुरा लगता था. एक ओर घर का निचाट, नीरस और दमघोंटू माहौल था, तो दूसरी ओर जवां उमंगों और युवा आदर्शवाद को पुकारती एक और दुनिया के दरवाज़े खुलते जाते थे. कम्युनिस्ट नेताओं की संगत, प्रगतिशील साहित्य का नशा, हिन्दी फिल्मों का चाव, ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार की फिल्मों और फ़िल्मी नगमों की दीवानगी, आई.एम.ए. हॉल में साहिर, जिगर और सरदार जाफरी को प्रत्यक्ष सुनने का रोमांच और इन सबके बीच चित्र बनाने से लेकर गीतकारों और जन-गीतकारों की मज़बूत परम्परा वाले शहर में धोबी-गीत, कहारों के गीत और आल्हा आदि लोकधुनों पर आधारित गीतों की रचना के ज़रिए अभिव्यक्ति की राह खोजते युवक राजेन्द्र कुमार की दुनिया उन्हें लगातार घर-परिवार के जड़ीभूत जीवन से दूर खीचे ले जा रही थी.
बी.एस.सी. का पहला साल पूरा करने के बाद ट्यूशन की व्यस्तता के चलते प्रैक्टिकल की कक्षाएं छूट गयीं और डिग्री पूरा करने में एक साल का अंतराल आ गया. इसी अंतराल में अखबार में श्रीगंगानगर , राजस्थान में एक स्कूल में विज्ञान शिक्षक की नौकरी का इश्तेहार देख कर बिना घर से बताए गंगानगर कूच कर गए. नौकरी मिल भी गयी, लेकिन परदेस में इतनी दूर रहने का मन न बना सके और वापस लौटे. इस बीच घर में कोहराम मचा हुआ था. आत्महत्या तक की आशंका हुई और मृत शरीर की खोज में गंगा में जाल भी डलवाए गए. कुछ एक वर्ष बाद फिर घर से भागे दिल्ली. चाट का खोमचा लगानेवाले भगौती के भतीजे सुन्दर कुछ साल पहले भाग कर दिल्ली गए थे और चावड़ी बाज़ार की एक बर्तन की दूकान में नौकरी करने लगे थे. लौट कर आए तो इसी दूकान का एक कैलेंडर लाए जिस पर बर्तन की दूकान का चित्र , पता वगैरह दिया हुआ था. घर में लटके इस कैलेंडर ने घर से भागने के एक और मौके की पृष्ठभूमि बनाई. ट्रेन से दिल्ली पहुंचे और पैदल ही चावड़ी बाजार पहुँच कर दूकान खोज ली. लेकिन सुन्दर ने दिल्ली की सैर कराके इन्हें वापस कानपुर जानेवाली ट्रेन में बैठा दिया. कुल मिलाकर ये घटनाएं बचपन से जवानी तक राजेन्द्र जी के कठिन जीवन में घर और बाहर की दुनिया के बीच विकट खाई का ही प्रमाण हैं.
उनके आरंभिक जीवन के बारे में ये चंद बातें भिन्न-भिन्न प्रसंगों में टुकड़े – टुकड़े में हम तक पहुँची ज़रूर हैं, लेकिन अपने बारे में बात करने से इतना परहेज़ रखनेवाले व्यक्ति के बारे में इतना जानना कितना कम जानना है ! कहीं जीवन के बहुविध अनुभवों ने उन्हें रहीम वाली सीख तो नहीं दी है- रहिमन निज मन की विथा….? क्या विज्ञान की ट्रेनिंग और सोच की वैज्ञानिक तर्क-प्रणाली ने उन्हें वस्तुनिष्ठता और उससे भी ज़्यादा आत्म-निर्लिप्तता दी है ? या फिर यह ज़िंदगी को बरतने की एक ख़ास तहजीब और तमीज है जो उन्हें निजता को कम से कम करते हुए आत्मा में, भाव संसार में अन्य लोगों के लिए अधिकाधिक जगह बनाते चले जाने में अभिव्यक्त होती है? यह आत्म-संकोच और आत्म-निर्लिप्तता सहानुभूति से भिन्न चीज़ है, दूसरों के लिए लगातार जीवन और साहित्य में अधिकाधिक जगह बनाते चले जाने की सतत कला है. उनकी ही एक कविता की आखिरी पंक्तियाँ देखिए-
“मुझमें जो कुछ बचा रह गया है
उसमें ही, वह सब भी हो कुछ-कुछ-
कुछ अनसुनी प्रार्थनाएं
अनकही व्यथा
अनदिखी उमंगें
औ’ कुछ अनछलके आँसू
जाने क्या कुछ कहाँ पड़ा हो
गिरी पड़ी हर चीज़
उठाकर
देख रहा हूँ.
(‘गिरी पड़ी हर चीज़ उठाकर देख रहा हूँ’ शीर्षक कविता, २००९)
‘हर कोशिश है एक बगावत’ शीर्षक से प्रकाशित राजेन्द्र जी के दूसरे कविता-संग्रह (2013) के संकलनकर्ता कवि-कथाकार शैलेय ने लिखा है, ” कोई कवि लिखता निरंतर रहे, लेकिन अपनी कविताओं के प्रति अपने संकोच से उबरना उसके लिए इतना मुश्किल हो कि पहले संग्रह ‘ऋण गुना ऋण'(1978) के बाद, इतने वर्षों तक उसका कोई दूसरा संग्रह न हो – आत्मप्रकाशन की हड़बड़ी के इस दौर में ऐसा ‘आत्मसंकोच’ मुझ जैसों के लिए एक विरल अनुभव है.” लेकिन ‘आत्मसंकोच’ के अलावा भी एक और विरल चीज़ है – कवि की ‘आत्म-निष्ठा’- अपना रास्ता न छोड़ना, दौर चाहे जैसी हड़बड़ी या आत्महीनता का हो.
अज्ञेय ने ‘चौथा सप्तक’ के लिए राजेन्द्र जी की उन कविताओं का चयन किया जो कि उन्हीं के सम्पादन में छपनेवाले ‘नया प्रतीक’ में पहले छप चुकी थीं. लेकिन राजेन्द्र जी को लगता था कि अन्यत्र छपी या अनछपी दूसरी कवितायेँ संग्रह के अधिक योग्य हैं. अज्ञेय अपने चयन पर अडिग रहे. लिहाजा राजेन्द्र जी ने ‘चौथा सप्तक’ में संकलित न किए जाने का चुनाव किया. अज्ञेय जैसे संपादक को उस दौर में भी कौन युवा कवि ऐसा कह सकता था भला ! ‘आत्म-संकोच’ से भी बड़ी बात मेरी नज़र में अपनी कविता को लेकर कवि का यह ‘आत्म-विश्वास’ है. ‘आत्मविज्ञापन’ या ‘आत्म-प्रकाशन’ तो बहुत दूर की बात है, वे तो विज्ञापन-मात्र की संस्कृति से खासी दूरी बरतते रहे हैं.
‘अभिप्राय’ के 1981 से लेकर 2000 के बीच निकले 26अंकों में उस दौर के प्रायः सभी महत्वपूर्ण रचनाकार छपे लेकिन एक भी पैसे का विज्ञापन किसी भी अंक में नहीं छपा. सम्पादक की इस ‘निष्ठा’ की क्या व्याख्या होगी इस दौर में में या किसी भी अन्य दौर में ?
राजेन्द्र जी एक ऐसे पब्लिक स्पीकर हैं जिनकी ज़रुरत मानवाधिकार संगठनों, अकादमिक मंचों, वामपंथी सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठनों और आत्मीय घरेलू गोष्ठियों में यकसां लगातार बनी रहती है. वे हर उस जगह वांछित हैं जहां सत्य के विरुद्ध सत्ता के अविराम युद्ध में सत्य के पक्षधर इकट्ठा होते हैं. सत्ता के समक्ष सच उनके लिए सिर्फ बोलने की चीज़ ही नहीं है. अपने दैनंदिन व्यवहार के व्यक्तिगत प्रकरणों में भी वे इसे कसौटी की तरह ही बरतते हैं. कुछ घटनाएं जिन्हें मैं जानता हूँ, उनकी एक बानगी प्रस्तुत करना ज़रूरी समझता हूँ.
प्रियम और प्रेयस ( राजेन्द्र जी के दोनों बेटे) तब गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इलाहाबाद में पढ़ते थे. इनमे से कोई एक, शायद प्रियम पिता की किताबों में से लेनिन, मार्क्स आदि की लाल कवर वाली किताबें जिज्ञासावश स्कूल में खाली वक्त में पढने के लिए ले जाने लगे. स्कूल में ये किताबें पकड़ी गयीं. प्रिंसिपल ने इन्हें खतरनाक किताबें बताते हुए अभिभावक को एक नोट भेज कर मिलने के लिए बुलवाया. वहां प्रिंसिपल से राजेन्द्र जी ने दो-टूक कहा कि न तो ये किताबें खतरनाक हैं और न ही इन्हें पढ कर उनके बेटे ने कोई अनुशासनहीनता की है. अभिभावक को बुलवाना प्रिंसिपल साहब को उलटा पड़ा.
उनके एक विद्यार्थी (जो तब तक अध्यापक हो चुके थे) के आग्रह पर वे एक नवोदित गज़लकार लेकिन पुलिस के एक बड़े अधिकारी (जो कि अध्यापनरत उक्त विद्यार्थी के करीबी थे), के संग्रह पर चंद पंक्तियाँ लिखने को राजी हो गए. कोई कार्यक्रम था जिसमें उक्त अधिकारी, उक्त अध्यापक और राजेन्द्र जी तीनों इकट्ठा थे. राजेन्द्र जी ने एक पन्ने पर कुछ पंक्तियाँ लिख भी ली थी. जब वे उन अधिकारी महोदय से मिलने अपने विद्यार्थी के साथ उनके कमरे में पहुंचे तो देखा कि वे बिस्तर पर पसरे पड़े हैं और एक सिपाही उनका पैर दबाते हुए लगातार उनकी पुलिसिया लहजेवाली डांट खा रहा है. तत्काल इन्होने अपने पॉकेट से वह पन्ना निकाला और अधिकारी महोदय के सामने उसकी चिंदी चिंदी कर दी, उन्हें उसका कारण भी बताते हुए.
कुछ साल हुए जब इलाहाबाद की एक संस्था ने साहित्य, संस्कृति की महत्वपूर्ण हस्तियों को सम्मानित करने का कार्यक्रम घोषित किया. राजेन्द्र जी से भी उन्होंने बहुत आग्रह करके उन्हें सम्मानित किए जाने का अवसर देने की सहमति ले ही ली. आयोजन स्थल पर पहुँचने पर उन्हें पता चला कि संस्कृतिकर्मियों, लेखकों का सम्मान करने के लिए आयोजकों ने भाजपा के वरिष्ठ नेता, अनेक बार इलाहाबाद से सांसद, उत्तर प्रदेश विधानसभा के स्पीकर रहे और आजकल बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी को बुला रखा है. राजेन्द्र जी ने जा कर आयोजकों से अपनी आपत्ति दर्ज कराई और बगैर वक्त बर्बाद किए वहां से सीधे घर वापस आ गए. सम्मान ग्रहण नहीं किया.
इलाहाबाद विश्विद्यालय के विज्ञान संकाय के एक मशहूर प्रोफ़ेसर और राजेन्द्र जी के मित्र ने अपने घर पर अपनी वयोवृद्ध माताजी के काव्य-संग्रह का एक भव्य जलसा रखा. राजेन्द्र जी को विमोचन करना था. लेकिन जब उन्हें बताया गया कि इस अवसर पर भाजपा के शहर से कई बार विधायक रहे विज्ञान संकाय के एक और पूर्व प्रोफ़ेसर भी कार्यक्रम की शोभा बढ़ाएंगे, तो राजेन्द्र जी ने विनम्रतापूर्वक विमोचन करने में असमर्थता व्यक्त कर दी. महत्वपूर्ण लेकिन यह है कि जब उक्त भाजपा नेता और पूर्व-प्रोफ़ेसर महोदय को पता चला कि राजेन्द्र जी इस कारण नहीं उपस्य्थित हो सकेंगे तो वे स्वयं कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए. ज़ाहिर है कि इस प्रकरण से सम्बद्ध सभी लोग एक ही विश्वविद्यालय में पढ़ाते रहे और परस्पर मित्र भी रहे, लेकिन बगैर किसी मनमुटाव के राजेन्द्र जी की वैचारिक प्रतिबद्धता को सबने स्वीकार किया.
राजेन्द्र जी के यहाँ प्रायः उसूल और जज़्बात दो चीज़ें नहीं रही हैं, जिन्हें सुविधा के हिसाब से अलग कर लिया जाए, कहीं उसूल निभाए जाएं और कहीं जज़्बात. इसका सबसे अच्छा दृष्टांत श्री विभूतिनारायण राय द्वारा कुछ वर्षों पहले वर्धा के अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय के कुलपति रहते हुए एक इंटरव्यू में हिन्दी लेखिकाओं के लिए ‘छिनाल’ शब्द के प्रयोग पर राजेन्द्र जी द्वारा किया गया अनूठा प्रतिवाद है. इस प्रकरण पर बहुत लोगों ने, संगठनों ने बयान दिए, हस्ताक्षर अभियान चलाए, माफी माँगने या इस्तीफा देने या हटाए जाने की मांग आदि की. लेकिन राजेन्द्र जी के अलावा इस प्रकरण पर विरोध करनेवाले किसी भी व्यक्ति का कोई नुक्सान नहीं हुआ, उनके अलावा किसी और ने इसकी व्यक्तिगत स्तर पर कीमत नहीं चुकाई. श्री राय ने प्रकरण के एक साल के कुछ ऊपर होने पर एक और इंटरव्यू में यह गर्वोक्ति भी की कि विरोध करनेवाले अधिकाँश तब तक विश्विद्यालय का आतिथ्य ग्रहण कर चुके थे. अनुमान ही लगा सकता हूँ कि यह गर्वोक्ति करते वक्त राय साहब को राजेन्द्र जी सरीखे उन लोगों की भी याद ज़रूर आई होगी जिन्होंने ऐसा करना गवारा नहीं किया. राजेन्द्र जी के प्रतिवाद का तरीका सबसे अनूठा और रचनात्मक था. उन्होंने उक्त इंटरव्यू की घटना के कुछ ही दिनों बाद इलाहाबाद के निराला सभागार के मुक्तांगन में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में इस प्रकरण पर एक कविता सुनाई. इस कविता में विभूतिनारायण राय और रवीन्द्र कालिया के नामों के साथ शाब्दिक खेल की प्रविधि का इस्तेमाल करते हुए दोनों की हिन्दी-सेवा और महिला-दृष्टि पर तीखा व्यंग्य किया गया था. कवि सम्मेलन में उपस्थिति भरपूर थी, बात राय साहब और कालिया जी तक विद्युत्वेग से पहुँची होगी, इसमें कोई शक नहीं. राजेन्द्र जी तब वर्धा विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन’ के सम्पादक थे. अगला अंक निकलना था. राजेन्द्र जी ने पत्रिका का सम्पादकीय इसी प्रकरण पर लिखा. गुप्तचर तैनात थे. जहां पत्रिका कम्पोज़ होती थी, वहां से सम्पादकीय क्या है, पता कर लिया गया. श्री राय ने राजेन्द्र जी को ख़त लिखा कि उनकी अस्वस्थता के कारण पत्रिका से वे मुक्त हों तो बेहतर. राजेन्द्र जी ने रोचक और मारक जवाब लिखा. राजेन्द्र जी पत्रिका के सम्पादक पद से हटा दिए गए. अंक छपा लेकिन उनका सम्पादकीय नहीं छपा. बाद में यह सम्पादकीय और श्री राय और राजेन्द्र जी के बीच खतो-किताबत समकालीन जनमत में प्रकाशित हुयी.
श्री राय और श्री कालिया राजेन्द्र जी के शत्रु नहीं मित्र ही रहे हैं. लेकिन यहाँ मसला मित्रता या शत्रुता का था ही नहीं. यह सब कुछ होने के बाद भी, श्री राय अभी कुलपति थे ही, जब राजेन्द जी को श्री विभूतिनारायण राय की माता जी के निधन का समाचार मिला. इस दुःख की घड़ी में रसूलाबाद घाट पर राजेन्द्र जी बाकायदा उपस्थित थे, उनके साथ, इलाहाबाद की साहित्यिक बिरादरी और अन्य सभी के साथ. उनके वहां उस वक्त होने में न किसी व्यक्तिगत रंज का कोई दखल था, न किसी तिक्तता की कोई छाया.
राजेन्द्र जी के जीवन के कई रंग ऐसे हैं जो उन्हें सिर्फ औपचारिक रूप से जानने वालों को चकित कर दे सकते हैं, हालांकि हम लोगों को भी वे समय समय पर आश्चर्यचकित कर ही देते हैं. मुझे कवि अंशु मालवीय ने बताया कि कैसे कई साल पहले होली के दिन राजेन्द्र जी ने उनके घर की छत पर सर पर तौलिया या चादर डालकर, ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’ पर डांस किया था. अमित सिंह परिहार अनौपचारिक गोष्ठियों में बुन्देलखंडी में तरह तरह की हास्य-वार्ता प्रस्तुत करते हैं. ऐसे ही एक मौके पर राजेन्द्र जी भी उपस्थित थे. वे अमित की वार्ता के बीच बीच में बाईं हथेली पर दायीं के पिछले हिस्से की ताल देकर ‘हां.’ कहते थे और उनका यह ताल देना वार्ता को और रोचक बनाए दे रहा था. एक बार इन्होने नाटक में अभिनय भी किया. भोपाल त्रासदी पर डा. लालबहादुर वर्मा ने एक नाटक लिखा, ‘एक दिन ज़िंदगी ने कहा’. नाटक की स्क्रिप्ट राजेन्द्र जी को दी गयी कि वे अपने लायक भूमिका चुन लें. राजेन्द्र जी ने ‘दलाल नेता’ की भूमिका चुनी. तब एम. ए. कर रहे उनके बड़े बेटे प्रियम को न जाने क्यों ये लगा कि पापा को यह रोल या बल्कि नाटक ही नहीं करना चाहिए. राजेन्द्र जी ने भूमिका चुनते वक्त ही कहा था कि जो जीवन में हैं, उसके विपरीत ही भूमिका चुनेंगे, तभी तो वह नाटक होगा, वर्ना उसे नाटक करना कैसे कहेंगे ? बहरहाल, रिहर्सल के समय भी कभी प्रियम पिता जी के साथ नहीं गए. जब नाटक इलाहाबाद स्थित उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में खेला गया, तो राजेन्द्र जी के अभिनय ने खूब तालियाँ बटोरीं. बुज़ुर्ग नाट्यकर्मी राम कपूर ने आकर कहा कि ‘आप जैसे ही किसी कलाकार को मैं ढूंढ रहा था.” लेकिन अभिनय का वास्तविक पुरस्कार उन्हें घर आकर मिला. राजेन्द्र जी को अनुमान नहीं था कि दर्शक दीर्घा में प्रियम भी बैठे उनका अभिनय देख रहे होंगे. पिता के नाटक करने का विरोध करनेवाला बेटा पिता के अभिनय से अभिभूत था. घर आने पर प्रियम उनके गले लिपट गए और उन्हें चूमने लगे.
इधर कुछ वर्षों से मुझे लगता है कि हमारी पीढ़ी या उससे पहले वाले उनके विद्यार्थियों के मुकाबले बाद वाले उनसे ज़्यादा खुले हुए हैं और ज्यादा छूट लेते हैं, हंसी-दिल्लगी करते हैं, उलाहना दे लेते हैं. अवधेश, मृत्युंजय, अमित परिहार, दीपक, अहसन या परवेज़ ज़्यादा मुँहलगे हैं. प्रेमशंकर या अंशुमान आदि ऐसा नहीं कर पाते, तो शायद अपने ही मिजाज़ के चलते. वे इन लोगों की संगत में और युवतर होते जा रहे हैं. घर में बहुओं के बाद बेटियाँ आ गयी हैं. प्रियम और प्रेयस दोनों की दो बेटियाँ राजेन्द्र जी और आंटी की आँखों का तारा हैं. दो पीढ़ियों से खानदान में बेटियाँ नहीं थीं. इस उम्र में दोनों को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी है.
मैंने ऊपर जो कुछ लिखा वह उनके जीवन का मेरे प्रेक्षण बिंदु से उतारा गया, एक अधूरा चित्र है. उनके समकालीन मित्र, सहयोगी साहित्यकार अथवा मुझसे पहले या बाद की पीढी के उनके विद्यार्थी और अन्य आत्मीय स्वजन शायद अधिक समृद्ध ढंग से उनके व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर सकें. लेकिन चलते-चलते मैं इस लेख में उनके जीवन की उस अनमोल परिघटना का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगा जिसके बगैर वे स्वयं भी अधूरे हैं. उनके और आंटी (उनकी पत्नी शशि जी) के बीच का जो सम्बन्ध है, वह सचमुच अनमोल है. उन्हें साथ देखना जैसे दुनिया के सबसे खूबसूरत जोड़े को देखना है, जैसे वे एक दूसरे के लिए ही बने हों. आंटी पिछले 13 -14 सालों से लिवरसिरोसिस जैसे असाध्य मर्ज़ के साथ हम सब के बीच वैसी ही सफाई, सादगी, सच्चाई और स्नेह से भरपूर ह्रदय के साथ मौजूद हैं जैसा हमने उन्हें बीमार होने से पहले देखा था. यह मेडिकल चमत्कार जैसा है. लेकिन यह चमत्कार उस केमेस्ट्री की बदौलत हासिल हुआ है जो उन दोनों के बीच है. स्वभाव के अनुकूल बिना औरों को तंग किए वे आंटी की लम्बी बीमारी, अस्पताल के चक्कर और ऑपरेशनॉ की अनिश्चितता से ज़्यादातर अपने बल पर ही जूझते रहे हैं, लेकिन कभी कभी ही सही, सबसे चिंतित और उदास मैंने उन्हें उनकी बीमारी के ही लम्हों में देखा है. वर्षों से आंटी का इलाज कर रहे प्रो. एस.पी. मिश्रा भी डॉक्टर से ज्यादा इस दंपत्ति के मित्र हैं. गाकर, हंसा कर, चिढा कर और डांट कर भी वे दोनों का इलाज करते हैं, बीमार तकनीकी रूप से भले ही कोई एक ही हो. दर-असल वे जान गए हैं कि एक का बीमार पड़ना दोनों का इलाज चाहता है, ऐसी उनके बीच केमेस्ट्री है.
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