(ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद डॉ केदारनाथ सिंह से यह संक्षिप्त बातचीत टेलीफ़ोन पर हुई थी. यह साक्षात्कार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ था. )
प्रश्न: ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद आपको कैसा लग रहा है.
डा. केदारनाथ सिंह: अच्छा लग रहा है. अच्छा लगने का कारण यह है कि यह केवल हिन्दी नहीं बल्कि देश की सभी भाषाओं के बड़े साहित्यकारों को मिल चुका है. इन सभी साहित्यकारों के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है. भारतीय साहित्य के मनीषियों की परम्परा से जुड़ कर अच्छा लग रहा है. मै उन सभी भारतीय मनीषियों का स्मरण करते हुए विनम्रता के साथ यह सम्मान स्वीकार कर रहा हूं.
मै हिन्दी के उस क्षेत्र विशेष से जु़ड़ा हुआ हूं जिसे पूर्वांचल कहा जाता है. मै उन रचनाकारों में हूं जो शहर तक सीमित नहीं हैं. मै गांव-जवार और उसके सुख-दुख से जुड़ा हुआ हूं. मेरी रचनाओं में पूर्वांचल की सांस्कृतिक परम्परा, विरासत समाई हुई है. इस क्षेत्र से मुझे अपार प्यार मिला है जिसके आगे मै नतमस्तक हूं। यह सम्मान मेरा सम्मान नहीं, पूर्वांचल की पूरी सांस्कृतिक परम्परा, विरासत का सम्मान है.
मुझे लगता है कि काफी लोग ऐसे हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिलना चाहिए. जिनको पुरस्कार मिल चुका है और जो इससे छूट गए हैं, मैं उनके प्रति सम्मान देते हुए इस सम्मान को स्वीकार कर रहा हूं.
प्रश्न: इस मौके पर आप हिन्दी कविता पर क्या कहना चाहते हैं ?
डा. केदारनाथ सिंह: मैं इस पुरस्कार को कविता में सक्रिय नई पीढ़ी को समर्पित कर रहा हूँ. नई पीढ़ी बहुत सक्रिय है और नए-नए क्षे़त्रों में कार्य कर रही है. बहुत अच्छे रचनाकार सामने आ रहे हैं। उन क्षेत्रों से भी रचनाकार आ रहे हैं जहां पहले उनकी उपस्थिति नहीं थी। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के अलावा हिमांचल प्रदेश से कई अच्छे कवि अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. इनमें कई बुद्धिष्ट परम्परा से निकल कर आए हैं। अन्य भाषा-भाषी भी लिख रहे हैं. हिन्दी का विस्तार तो हुआ ही है उसकी रचनाशीलता का भी विस्तार हुआ है.
मैं हिन्दी कविता में कमियों के बारे में आज बात तो नहीं करूंगा। आज युवा लेखन सोशल मीडिया पर बहुत प्रबल है। यह कितना शुभ है, कितना अशुभ इसका विश्लेषण होगा। मैं रचना के हर आयाम में संभावना देखता हूं। वहां भी एक संभावना है. पाठक से जुड़ने का नया आयाम खुल रहा है। यह केवल हिन्दी तक सीमित नहीं है. इसका विस्तार विश्व पटल तक है। एक नई दुनिया खुलती दिखाई दे रही है. सोशल मीडिया पर बहुत से कवि सक्रिय हैं। उनका लिखा मुद्रित रूप में आना चाहिए.
प्रश्न: कहा जा रहा है कि बुद्धिजीवियों का जनता से कोई रिश्ता नहीं रह गया है ? आज के दौर में आप बुद्धिजीवियों की भूमिका को आप किस तरह देख रहे हैं ?
डा. केदारनाथ सिंह: मुझे राजकपूर की एक फिल्म में शैलेन्द्र का एक गीत याद आ रहा है-कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं. यह गीत हमारे बुद्धिजीवी वर्ग पर एक दम सही लगता है. ज्ञान के पुस्तकीय दायरे से बाहर निकलने की जरूरत है. हमारे देश में पब्लिक इंटेलेक्चुअल कम पाए जाते हैं. पब्लिक इंटेलेक्चुअल की बड़ी भूमिका है, लेकिन यह कम होती जा रही है. यहां एक खालीपन है, जो भरा जाना चाहिए. समाज में उभरती प्रतिगामी शक्तियों को कैसे देखा जाए, उसका प्रतिरोध कैसे किया जाए, इसमें बुद्धिजीवियों की बड़ी भूमिका है. अंग्रेजी की दुनिया में कुछ लोग ऐसा काम कर रहे हैं. मै अरूंधति राय का नाम लेना चाहूँगा जो महत्वपूर्ण काम कर रही हैं. हिन्दी में भी ऐसी प्रतिभाएं सामने आनी चाहिए.
यात्रा
जन्म-चकिया ( बलिया ), उत्तर प्रदेश , 7 जुलाई 1934
शिक्षा-गांव में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वाराणसी में बीएचयू से एमए व पीएचडी
अध्यापन-गोरखपुर के सेंट एण्डयूज कालेज व कुशीनगर के उदित नारायण पीजी कालेज में अध्यापन के बाद जेएनयू, नई दिल्ली। यहां हिन्दी भाषा विभाग के अध्यक्ष पद पर रहे।
रचनाएं-अभी बिल्कुल अभी ( 1960) , जमीन पक रही है (198’‘0) , अकाल में सारस (1989), उत्तर कबीर और अन्य कविताएं (1995), टालस्टाय और साइकिल (2004) सृष्टि पर पहरा (2014)
पुरस्कार व सम्मान-साहित्य अकादमी सम्मान, कुमारन अशान पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार (बिहार), मैथलीशरण गुप्त (मध्य प्रदेश ), व्यास सम्मान