केदारनाथ सिंह की कुछ कविताएं
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ ‘पेड़’
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ ‘पानी’
‘आदमी’ ‘आदमी’ – मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ।
***************
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
*********************
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.
*********************
हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर-उसने कहाँ
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है ?
*****************
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।
*******************
कपड़े सूख रहे हैं
हज़ारों-हज़ार
मेरे या न जाने किस के कपड़े
रस्सियों पर टँगे हैं
और सूख रहे हैं
मैं पिछले कई दिनों से
शहर में कपड़ों का सूखना देख रहा हूँ
मैं देख रहा हूँ हवा को
वह पिछले कई दिनों से कपड़े सुखा रही है
उन्हें फिर से धागों और कपास में बदलती हुई
कपड़ों को धुन रही है हवा
कपड़े फिर से बुने जा रहे हैं
फिर से काटे और सिले जा रहे हैं कपड़े
आदमी के हाथ
और घुटनों के बराबर
मैं देख रहा हूँ
धूप देर से लोहा गरमा रही है
हाथ और घुटनों को
बराबर करने के लिए
कपड़े सूख रहे हैं
और सुबह से धीरे-धीरे
गर्म हो रहा है लोहा।
*******************
बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें
****************
उठो सोये हुए धागों
उठो
उठो कि दर्जी की मशीन चलने लगी है
उठो कि धोबी पहुँच गया घाट पर
उठो कि नंगधड़ंग बच्चे
जा रहे हैं स्कूल
उठो मेरी सुबह के धागो
और मेरी शाम के धागों उठो
उठो कि ताना कहीं फँस रहा है
उठो कि भरनी में पड़ गई गाँठ
उठो कि नाव के पाल में
कुछ सूत कम पड़ रहे हैं
उठो
झाड़न में
मोजो में
टाट में
दरियों में दबे हुए धागों उठो
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा
फिर से बुनना होगा
उठो मेरे टूटे हुए धागो
और मेरे उलझे हुए धागो उठो
उठो
कि बुनने का समय हो रहा है