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‘प्रोजेक्ट चीता’ मनुष्यों और पशुओं दोनों के लिये अनैतिक एवं अनुचित हैः अध्ययन  

आथिरा पेरिंचेरी


स्थानीय लोगों से इस प्रोजेक्ट के बारे में न तो कोई सलाह-मशविरा किया और न ही उन्हें इसकी कोई जानकारी ही दी गयी और भारत लाये गये अफ्रीकी चीतों को एक लम्बे समय तक कैद करके रखा गयाः एक अध्ययन

बंगलुरुः 2022 एवं 2023 में भारत ने अपने महत्वाकांक्षी ‘‘प्रोजेक्ट चीता’’ के लिये नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से 20 वयस्क अफ्रीकी चीते खरीदे। यद्यपि 19 फरवरी को एक जर्नल फ्रंटियर्स इन कन्जर्वेशन साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार यह ‘‘निरर्थक प्रोजेक्ट’’ – जैसा कि कई वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों इसे सम्बोधित किया है (प्रोजेक्ट चीता को लेकर कई मोर्चों पर लगातार आलोचनायें हुयी हैं)- न केवल स्थानीय समुदायों के लिये बल्कि उन लाये गये पशुओं के लिये भी अनैतिक और अनुचित है।

इस अध्ययन में इसी बात पर जोर दिया गया है कि प्रोजेक्ट चीता के लिये चीतों के इस स्थानान्तरण पर नैतिक मान्यताओं का समुचित संज्ञान नहीं लिया गया है और इसीलिये इसे अनेक सामाजिक एवं प्रजाति सम्बन्धी न्याय की चिन्ताओं का सामना करना पड़ रहा है। इनमें उस प्रथम आकलन की क्रियाविधि की पड़ताल भी शामिल है जिसके आधार पर भारत सरकार ने प्रोजेक्ट चीता को आगे बढ़ाने पर सहमति जतायी थी। हाँलाकि पूर्व सरकारी वैज्ञानिक एवं इस आकलन के सह-लेखक वाई0वी0 झाला ने द वायर से बात करते हुये प्राथमिक आकलन की क्रियाविधि को उचित ठहराया है।

सामाजिक चिन्तायें

सितम्बर 2022 में प्रारम्भ हुये इस प्रोजेक्ट चीता का लक्ष्य था केन्द्रीय भारत के चुनिंदा घास के मैदानों में अफ्रीकी चीतांे को दाखिल कराना। वर्तमान में नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से लाये गये सभी वयस्क चीते और साथ ही भारतीय भूमि पर जन्म लेनेवाले शावक मध्यप्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में रह रहे हैं।

इसके पहले भारत में एशियाई चीते (एक अलग उप-प्रजाति के) ही रहते थे, पर उनमें से भी आखिरी चीता 1950 में ही विलुप्त हो गया था।

बंगलुरु के वन्यजन्तु अध्ययन केन्द्र के शोधार्थी यशेन्दु जोशी समेत अन्य शोधार्थियों के एक समूह ने अपने एक प्रारूप-लेख में कहा है कि एम0के0 रंजीतसिंह और वाई0वी0 झाला (जो उस समय भारतीय वन्यजन्तु संस्थान में वैज्ञानिक थे और बाद में उन्होंने प्रोजेक्ट चीता के क्रियान्वन का भी पर्यवेक्षण किया था, पर सितम्बर 2022 के अन्त में उन्हें चीता टास्क फोर्स से अलग कर दिया गया था) की 2010 की रिपोर्ट- जिसके आधार पर सरकार ने प्रोजेक्ट चीता को आगे बढ़ाने के लिये हरी झंडी दी थी- में कई वज़ूहात का जिक्र करते हुये ‘न्याय सम्बन्धी त्रुटियों’ का स्पष्ट उल्लेख किया गया था।

पहला तो यह कि इस क्षेत्र में चीतों को लाकर बसाने के मुद्दे पर स्थानीय समुदायों की कोई राय नहीं ली गयी थी। इसके बजाय उनके मध्य किये गये साक्षात्कार में शामिल लोगों के रंग-ढंग, आयु और उनके आभूषणों के आधार पर मनमाना आकलन करके एक संकेतक विकसित किया गया था जो यह बता सके कि मुआवज़ा लेकर अपनी जमीन छोड़ने के लिये वे तैयार भी होंगे या नहीं।

दूसरे, इस अध्ययन में पाया गया कि 2010 की रिपोर्ट ‘‘वित्तीय प्रोत्साहन को लक्षित करते हुये आर्थिक एवं सामाजिक रूप से वंचितों की पहचान किये जाने पर केन्द्रित थी, कहा गया था कि उस क्षेत्र में रहनेवाले लोग ग़रीब हैं और इसीलिये वे मुआवज़े की योजना के ‘‘मोह का संवरण नहीं कर पायेंगे’’।

इन आरोपों की पड़ताल के लिये जब द वायर ने झाला से सम्पर्क साधा तो उन्होंने स्वीकार किया कि, ‘‘स्थानीय समुदाय के समृद्धता-स्तर की जानकारी करने के लिये हमलोगांे ने एक सूचकांक का उपयोग किया था।’’ अपनी क्रियाविधि के समर्थन में उन्होंने कहा कि यह ‘वस्तुनिष्ठ’ और अधिक प्रभावकारी था, और जैसा कि नये अध्ययन में दावा किया गया है, यह ‘व्यक्तिनिष्ठ’ नहीं था। उन्होंने द वायर से कहा, ‘‘मेरा दृढ़विश्वास है कि इस गुणात्मक सूचकांक का प्रयोग करके वस्तुनिष्ठ आकलन किया जाना ऐसे लोगों से बात किये जाने की अपेक्षा कहीं बेहतर है जो अपनी आय या सम्पत्ति को लेकर हमेशा सच नहीं बोलते।’’ यद्यपि उन्हे यह नहीं लगता कि ‘‘हमारी रिपोर्ट में आकलित स्थानीय लोगों की समृद्धि/निर्धनता और उन्हें दिये गये मुआवजे़ के बीच कभी कोई अनुपात रखा गया था।’’

यह नया अध्ययन उन ‘‘जटिल एवं सामाजिक औचित्यों’’ को भी हाइलाइट करता है जिन्हें प्रोजेक्ट चीता के समर्थकों ने उसे न्यायसंगत ठहराने के लिये प्रस्तुत किया था। उदाहरण के लिये अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों की समिति के एक चीता जीव-विज्ञानी फैन दर मैर्व- जिनसे भविष्य में प्रोजेक्ट चीता के सम्बन्ध में सलाह लिये जाने की बात खुद अधिकारियों ने कही थी- का इस प्रोजेक्ट के सम्बन्ध में कथन है कि विशेषतः हिन्दू संस्कृति पशुओं के प्रति सहिष्णुता की वकालत करती है और इस प्रकार मानव-वन्यजन्तु के टकराव के खतरे को कम कर देती है’’। इस अध्ययन में आगे कहा गया है कि, ‘‘जो भी हो, इस तर्क में मौलिक दोष हैं, संरक्षण-शोधार्थियों को बिना किसी सुस्थापित-शोध के संस्कृति-विशिष्ट शब्दावलियाँ एवं सामान्यीकरण अपनाते समय सावधानी बरतनी चाहिये थीं। हमें इस अवधारणा को चुनौती देने की जरूरत है कि केवल हिन्दू समुदाय के लोग ही कूनो के आसपास रहते हैं और यह समझना चाहिये कि अन्य समुदायों को मानव-वन्यजन्तु के टकराव के खतरों का सामना करना पड़ सकता है। और हिन्दू समुदाय को विशेष तौर पर धर्माधारित-सहिष्णुता का जामा पहनाना मुद्दे का सरलीकरण ही होगा।’’

प्रजातिगत अन्याय 

इन सामाजिक अन्यायों के साथ ही इस अध्ययन ने कई ‘प्रजातिगत अन्यायों’ की भी पहचान की है जो प्रोजेक्ट चीता के ज़रिये आती हैं। उनमें से एक तथ्य यह भी है कि 5000 वर्ग किमी से अधिक फैले कूनो में लाकर बसाये गये अफ्रीकी चीते अपने भारत-प्रवास की लम्बी अवधि तक 5 वर्ग किमी से भी कम के क्षेत्र में बन्द रहे हैं। इसके अतिरिक्त इस नये अध्ययन में यह भी कहा गया है कि भारत में अपने प्रवास के दौरान वयस्क चीतों को कम से कम 90 रसायनों का प्रयोग करके गतिहीन कर दिया गया था, यह किसी पशु को लम्बी अवधि तक बन्दी बनाये रखकर उनके ‘शारीरिक एवं मानसिक’ कल्याण के सन्दर्भ मंे प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। हाँलाकि इस समय सात चीते -जिनमें से दो नर हैं, दो मादा और तीन 13 माह की आयु के छौने हैं- जिन्हें दिसम्बर 2024 से प्रारम्भ करके छोटे-छोटे समूहों में कूनो के जंगल में छोड़ा गया था, वहीं घूम रहे हैं।

इस अध्ययन में अनुकूलन की विफलता का भी जिक्र किया गया है (जैसे कि इन चीतों में पीठ पर जाड़ों के मौसम के अनुकूल घने बाल होते हैं जिनके चलते कूनो के उमस भरे मौसम में उनमें त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ हो जाने का अन्देशा है)। इस कारण भारत में इन चीतों की जीवन-दर घट गयी है (दक्षिण अफ्रीका में इनकी वयस्क जीवन-दर 85 प्रतिशत थी जो कूनो में घटकर 60 प्रतिशत रह गयी है)। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार अब तक रक्त के एक संक्रमण-सेप्टीसीमिया और अन्य कारणों से 8 वयस्क चीते काल के गाल में समा चुके हैं।

इस अध्ययन में प्रोजेक्ट चीता के अन्तर्गत अदला-बदली के दौरान चीतों की मृत्यु-दर की भी लानत-मलामत की गयी है, कि यह इस प्रोजेक्ट के प्रजाति-प्रबन्धन की असफलता के नैतिक सरोकारों और जवाबदेही के अभाव का द्योतक है। इस अध्ययन में कहा गया है कि, ‘‘जहाँ 40 से 50 प्रतिशत चीते इस स्थानान्तरण में अपनी जान गँवा रहे हैं, ऐसे में हमारी चुनौती है कि संरक्षक, चीतों के स्थानान्तरण के दौरान एक नैतिक रूप से स्वीकार्य मृत्यु-दर की पहचान करें और ‘‘सफल स्थानान्तरण’’ जैसे जुमलांे से बचें।’’ इस अध्ययन प्रमुख लेखक जोशी ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि, ‘‘हमारी वर्तमान सोच में विभिन्न ज्ञान-पद्धतियों, मूल्यों, प्रकृति के साथ लोगों के व्यवहार, वन्य-जीवन के प्रति उनकी समझ और सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह कि इस प्रकार के कदमों के परिणामों को बरदाश्त कर लेने के प्रति उनकी सहमति या असहमति के अनदेखा कर दिये जाने का जोखिम है। संरक्षण के प्रयासों का फोकस उनकी मानव एवं वन्यजीवों द्वारा व्यवहार्य साझा-स्पेस को बरकरार रखने की योग्यता पर होना चाहिये न कि और अधिक विभाजन और पीड़ा पर।

मेटास्ट्रिंग फाउन्डेशन के सी0ई0ओ0 एवं बायोडाइवर्सिटी कोलैबोरेटिव के समन्वयक रवि चेल्लम का कहना है कि, ‘‘यह अध्ययन हमारा ध्यान उन महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर खींचता है जिन्हें किसी संरक्षण प्रोजेक्ट के आयोजन और क्रियान्वन के समय प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि यह मान लिया जाता है कि संरक्षण प्रोजेक्ट तो सहज ही अच्छे होते हैं और लागू किये जा सकते हैं।’’ वैज्ञानिकों के उस समूह में, जिसने अक्तूबर 2022 में प्रकाशित जर्नल नेचर इकोलॉजी एण्ड इवॉल्यूशन से किये गये पत्राचार में कहा था कि भारत में अफ्रीकी चीतों का लाया जाना ‘‘एक अविवेकी संरक्षण-प्रयास है’’ और ‘‘पारिस्थितिकीय मानकों पर अस्वीकार्य प्रोजेक्ट’’ है, सिंह-प्रजाति (बिग कैट) के विशेषज्ञ चेल्लम भी शामिल हैं।

उन्होंने द वायर से बात करते हुये कहा कि, ‘‘भारत में अफ्रीकी चीतों के लाये जाने पर बहुत सारे लोगों ने पिछले कई सालों मंे अनेकों चिन्तायें व्यक्त की हैं। चीता प्रोजेक्ट के क्रियान्वन मेें समानता एवं न्याय के महत्वपूर्ण पहलू लेकर उठाये जानेवाली लम्बी सूची में इन लेखकों ने भी अपना नाम जोड़ लिया है। जब कभी प्रभावित स्थानीय समुदाय के लोगों के कल्याण एवं उनके अधिकारों का प्रश्न सामने आये तो इस प्रोजेक्ट की विफलता को स्थापित करने के लिये उन्होंने सबूत इकट्ठा कर लिये हैं।’’ गैर-इंसानी प्रजाति, वर्तमान सन्दर्भ में अफ्रीकी चीतों के विरुद्ध किये गये अन्याय को सामने लाकर उन्होंने अपनी दलील को व्यापक बना दिया है।

द वायर से साभार अनुवादः दिनेश अस्थाना

फीचर्ड इमेज़: चीतों की प्रतीकात्मक फोटो स्रोतः लिटिल जॉन/अनस्प्लैश।

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