समकालीन जनमत
सिनेमा

बंशी चन्द्रगुप्त : एक महान कला निर्देशक

प्रशांत विप्लवी


एक नदी जहां तीन महान फ़िल्मी हस्तियाँ पहली बार एक साथ किसी एक मकसद के लिए मिलते हैं और भारतीय सिनेमा को पूरी तरह से बदल कर रख देते हैं। उन्होंने स्थापित नियमों को दरकिनार कर एवं शास्त्रीयता के जटिलताओं को पानी जैसा विशद और निर्मल बना दिया। भारतीय फ़िल्म का यह एक नया व्याकरण, नई भाषा और अनूठा शिल्प था जिसे इन तीनों दिग्गजों ने रचा था। हालांकि जैसा आमतौर पर होता है लोग फिल्मों के कुछ ही प्रतिदानों पर विमर्श करते हैं एवं उससे जुड़े सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को चुनकर दिननुदिन उन्हीं पर बात करते रहते हैं। एक मुक्कमल फ़िल्म के लिए जिनके योगदान को प्रचलित रूप में सराहा नहीं जाता है जबकि वे लोग ही उस फ़िल्म में प्राण फूंकने में अपना सबकुछ लगा देते हैं।
सन 1950 में फ्रांसीसी निर्देशक जीन रेनॉइर “द रिवर” के शूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता आए। इसी नदी वाली फ़िल्म में एक दूसरे से अच्छी तरह से परिचित हुए – सत्यजीत रे, बंशी चन्द्रगुप्त और सुब्रत मित्रा। सत्यजीत रे ने जहां इस फ्रांसीसी निर्देशक से मुलाक़ात की वहीं बंशी बाबू कला निर्देशक के सहायक बने और सुब्रत दा प्रोडक्शन टीम के सहायक थे। इस फ़िल्म के मुख्य कला निर्देशक थे यूजीन लुरीए , जिन्होंने चैपलिन की महत्वपूर्ण फ़िल्म लाइम लाइट का सेट तैयार किया था। बंशी बाबू ने फ़िल्मी सेट को यथार्थ से जोड़ देने का हुनर यहीं सीखा था।
अपने विज्ञापन कंपनी के द्वारा छह महीने के ट्रैनिंग सेशन में सत्यजीत रे ने आखिरकार डी सिका की वह कालजयी फ़िल्म बाइसिकल थीव्स भी देख ही ली जिसने उन्हें फ़िल्म बनाने की सबसे बड़ी प्रेरणा दी। जब उन्होंने विभूति बाबू के उपन्यास पर फ़िल्म बनाने का मन बनाया तो इतना तय कर लिया था कि वे प्रोफेशनल लोगों की टीम बनाने के बजाए एमेच्योर लोगों को जोड़ेंगे। उन्होंने अपने इन दो साथियों को अपनी फ़िल्म में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी।
“उस समय जिन्होंने भी बंशी को देखा होगा उन्हें याद होगा कि उनके बाल कंधों तक लटके हुए थे। उस समय वह टैगोर के बहुचर्चित भवन के एक कमरे में रहते थे। उसे देखकर मेरा यही अंदाज़ा था कि बंशी नर्तक होगा। जबकि मेरी यह बद्धमूल धारणा थी कि बंशी वाकई नाचता होगा। हो सकता है कि उसका इंटेरेस्ट फिल्मों से हो। लेकिन अपनी कौतूहल के लिए मैंने उनसे पूछ ही लिया कि क्या वह नाचता हैं या नहीं। मेरी इस बात से वे बहुत गुस्सा हो गए थे। उन्होंने कहा,”नहीं, नृत्य से मेरा कोई संबंध नहीं है। मैं चित्र बनाता हूँ एवं फिल्मों के प्रति मेरी अभिरुचि है इसलिए मैं यहाँ हूँ।“ यह बात महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने टेक्निशन स्टूडियो के एक शोक सभा में बंशी चन्द्रगुप्त के विषय में कहा था। चालीस के दशक की शुरुआत में अमेरिकन लाइब्रेरी में इन दो महारथियों की पहली मुलाकात हुई। दोनों ही फिल्मों को लेकर बेहद उत्साही थे। सत्यजीत रे उस समय एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी करते थे जबकि बंशी बाबू बेरोजगार थे।
बंशी चन्द्रगुप्त का जन्म अविभक्त भारत के सियालकोट में हुआ था। देश विभाजन से पहले ही उनके पुरखे कश्मीर के श्रीनगर में आ बसे थे। उन्होंने श्रीनगर कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन के कारण उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी। उसी दरम्यान उनकी मुलाकात कवि गुरु के एक रिश्तेदार (भतीजा) शुभ टैगोर से उनकी मुलाकात हुई। शुभ स्वयं भी निपुण चित्रकार थे और वे बंशी बाबू से काफी प्रभावित भी थे। उन्होंने ही उन्हें अपनी कला को परिमार्जित करने के लिए कलकत्ता आने की सलाह दी। कलकत्ता में अवस्थित टैगोर के निवास स्थल में ही उन्हें रहने की सुविधा मिल गई। बाद में शुभ ने उनका परिचय शांति निकेतन के सुविख्यात चित्रकार नंदलाल बोस से मुलाकात करवाया। हालांकि वहाँ वे ज्यादा दिन नहीं रह पाए। कुछ दिनों बाद अभियात्री फ़िल्म के सेट सजाने का काम शुभ टैगोर को मिला तो उन्होंने बंशी बाबू को भी अपने साथ रख लिया लेकिन फ़िल्म निर्माता से किसी विवाद के कारण शुभ ने यह काम छोड़ दिया जिसे बाद में बंशी बाबू ने ही पूरा किया। इसमें वे महज़ कला निर्देशक ही नहीं रहे बल्कि उन्होंने इस फ़िल्म में अभिनय भी किया। सन 1950 में फ्रांसीसी निर्देशक जीन रेनॉइर “द रिवर” के शूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता आए। सत्यजीत रे की भी मुलाक़ात इस फ्रांसीसी निर्देशक से हुई थी और बंशी बाबू को इस फ़िल्म में सहायक कला निर्देशक के रूप में अनुबंधित किया गया। बंशी बाबू को इस फ़िल्म के जरिए ही बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। इसके कुछ ही दिनों बाद बंशी बाबू और सत्यजीत रे साहब की जोड़ी पोथेर पांचाली से शुरू होती है। इन दोनों की यह जोड़ी एक लंबी यात्रा तय करती है।
एक सभा में सत्यजीत रे ने कहा था,”पोथेर पांचाली यूनिट के ज्यादातर लोग एमेच्योर थे, यहाँ तक कि मैं भी। कैमरामेन सुब्रत भी एकदम फ़िल्मी कैमरों से अनभिज्ञ था। लेकिन इन सबों के बीच बंशी दा अनुभवी थे। इसलिए मुझे अपनी पूरी फ़िल्म के दौरान बंशी दा से कई बार सहायता लेनी पड़ी। मुझे याद है उस समय मैं शूटिंग के लिए अनभ्यस्त था इसलिए दृश्य पूरे होने के बावज़ूद मैं कट बोलना भूल जाता और कैमरा चालू ही रह जाता। बंशी दा ही बहुत बार पीछे से चिल्लाते माणिक कट बोलो – कट बोलो।“
बंशी इस पूरे यूनिट के एकलौते व्यक्ति थे जो सत्यजीत रे को नाम से बुलाते थे। इसके बाद बंशी दा रे के बन रहे फ़िल्मी इतिहास का एक अभिन्न हिस्सा बन गए। उन्होंने सत्यजीत रे की पोथेर पांचाली से लेकर शतरंज के खिलाड़ी तक साथ दिया। रे के फ़िल्म प्रेमियों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि पोथेर पांचाली के आउट्डोर शूट के बाद ज्यादातर शूट स्टूडियो में हुआ था। यह बंशी दा का ही कमाल था कि उन्होंने ग्रामीण परिवेश के घर से लेकर उस घर में उपयोग के तमाम प्रॉप खुद तैयार किए थे। इस बात का उद्बोधन अगर रे नहीं करते तो शायद उस यूनिट के अलावा यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि आउट्डोर का स्टूडियो सेट तैयार किया गया है। अपु ट्रिलोजी के दूसरे भाग में काशी के जिस मकान को अपु का घर दिखाया गया है , वह स्टूडियो सेट है। यह एक अद्भुत और कमाल का काम था। वैसे सत्यजीत रे बंशी दा के सभी कामों की अत्यंत सराहना करते हुए नहीं थकते थे लेकिन वे मानते थे कि बंशी दा का श्रेष्ठ काम चारुलता में हुआ है। बंशी दा का काम फ़िल्म पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए एक सजीव ग्रंथ की तरह हैं। वे अपने काम को लेकर कितने दीवाने थे उसे एक वाकये से समझा जा सकता है। शतरंज के खिलाड़ी के सेट पर रे साहब ने बंशी दा को मज़ाक में कहा यदि कैमरा टिल्ट होगा तो सेट का छत दिख जाएगा। यह मज़ाक रे साहब को ही भारी पड़ गया क्योंकि पूरे दस दिन शूटिंग को टालना पड़ा। जब तक सेट के छत को अपनी तसल्ली के मुताबिक तैयार नहीं किया उन्होंने सेट हैन्डोवर ही नहीं किया।


उन्हें याद करते हुए सत्यजीत रे ने कहा था कि बंशी दा एक असाधारण पाठक थे। वे अपने उपार्जन का अधिकांश हिस्सा किताबों में खर्च करते थे। इन दोनों विशाल व्यक्तित्व के जीवन में चित्रांकन और फ़िल्म एक कॉमन प्रेम का हिस्सा था। रे जिन दृश्यों की परिकल्पना करते और उसे उकेरते उन्हें बंशी दा हूबहू मूर्त रूप देते। बंशी चन्द्रगुप्त तीन बार फ़िल्म फेयर अवॉर्ड से भी सम्मानित हुए। बंशी चन्द्रगुप्त ही पहले कला निर्देशक थे जिन्होंने कला निर्देशन के महत्त्व का एहसास दिलाया। इस महान कला निर्देशक की मृत्यु अप्रत्याशित रूप से विदेश में हुई। न्यूयॉर्क के किसी स्टेशन पर ट्रेन के पीछे भागते हुए इन्हें दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल पहुंचते-पहुंचते ही उनकी मृत्यु हो गई। उनकी अन्त्येष्टि भी वहीं करनी पड़ी। उनकी मृत्यु से रे को बहुत आघात पहुंचा। उन्हें पता था कि इस कमी को कभी भी पूरा नहीं किया जा सकेगा।

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