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हिंदी सिनेमा में 1857 का विद्रोह

1857 का विद्रोह अपनी प्रकृति में जटिल था और अंततः विफल रहा। इसके बावजूद यह भरतीय इतिहास की युगांतरकारी घटना है। इसके चलते न केवल स्थापित विदेशी शासन की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में बड़े बदलाव हुए वरन भारतीय राजनीति ने भी हमेशा के लिए नई राह पकड़ ली। इस लिहाज से यह देखना रोचक हो सकता है कि हिंदी सिनेमा में विद्रोह के समय के भारत का क्या चित्र मिलता है।
1856 में हुए अवध के विलय को विषय बनाकर एक शानदार फ़िल्म सत्यजीत रॉय ने बनाई है-शतरंज के खिलाड़ी। अवध के विलय को 1857 में हुए विद्रोह के कारणों में एक माना जाता है। इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ब्रिटिश सेना के अधिकांश सिपाही अवध जनपद के ही थे। इस लिहाज से विद्रोह के समय के समाज को देखने-समझने के लिहाज से ‘शतरंज के खिलाड़ी’ महत्त्वपूर्ण फ़िल्म है।
इस विषय पर बनी दूसरी महत्वपूर्ण फ़िल्म श्याम बेनेगल निर्देशित “जुनून” है। इसमें सीधे-सीधे 57 के विद्रोह को कथा बनाया गया है। कथाभूमि है रुहेलखंड। अन्य फिल्मों में केतन मेहता निर्देशित “मंगल पांडेय : द राइजिंग” महत्त्वपूर्ण है । हाल ही में चर्चा में रही ‘मणिकर्णिका’ रानी लक्ष्मी बाई के जीवन पर आधारित है जो विद्रोह की अहम नायिका थीं।
सत्यजीत रॉय ने ऐतिहासिक कथा को आधार तो बनाया किन्तु “शतरंज के खिलाड़ी” फ़िल्म में आये इतिहास को उन्होंने राष्ट्रवादी महत्वाकांक्षाओं से दूषित नहीं होने दिया। ठीक इस बिंदु पर अगर हम गौर करें तो उनका भारतीय साहित्यकारों में रवींद्रनाथ से सर्वाधिक प्रभावित होना हमें अधिक समझ आएगा। इस प्रसंग में हम 1945 के फासीवादी दौर में जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा द्वारा बनाई गई फ़िल्म “तोरा नो ओ आफूमू ओतोकोताची”(शेर की पूंछ को खोदने वाला आदमी) का भी स्मरण कर सकते हैं जो उस उबलते समय में भी राष्ट्रवाद की रौ में नहीं बहे। रॉय और कुरोसावा के आपसी सम्बंध विदित ही हैं। कुल मिलाकर रॉय ने अपनी गहन मानवतावादी दृष्टि से तत्कालीन वस्तुस्थिति को बेहद कलात्मक ढंग से जनता के समक्ष रखा है। उन्होंने भावनाओं का ज्वार नहीं खड़ा किया है।
अब फिल्मों में आये समाज पर गौर करें तो शतरंज के खिलाड़ी में प्रदर्शित सामंत वर्ग अकर्मण्य और विलासी है। नैरेटर के शब्दों में-” इस शौकीन रियाया के सरताज हैं नवाब वाजिद अली शाह जिन्हें राज-काज के अलावा सब तरह का शौक है।” फ़िल्म में इस रियासत के दो जागीरदारों, मिर्जा साहब और मीर साहब, को दिन-रात शतरंज खेलते दिखाया गया है। रियासत को हड़पने को लेकर फैल रही अफवाहों के बारे में जब एक व्यापारी पूछता है कि आपने नहीं सुना, तो मीर साहब का जवाब है-“हम सुनते उनते नहीं। बस खेलते हैं।”
“मंगल पांडे: द राइजिंग” में भी मंगल पांडेय अजीमुल्ला और तात्या टोपे से कहता है कि हमने बिना लड़े हथियार डालते राजाओं-नवाबों को देखा है। लेकिन जुनून में सामंत वर्ग को वीरता से लड़ते दिखाया गया है। यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि विद्रोह के दौरान सामंत और उनके अनुयायी बहादुरी से लड़े। लेकिन 1857 के बाद बचे रह गए रजवाड़ों का इतिहास, कतिपय अपवादों को छोड़कर, उनके विलासिता और जनता के शोषण में आकंठ डूबे होने की कहानी कहता है।
सत्यजीत रॉय ने जिस सुकून से सामंती समाज की काहिली को सामने लाया है उतने ही विस्तार से उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के नीति और नैतिकता विरोधी चरित्र को भी उजागर किया है।उनकी साम्राज्यवादी भूख 20 वर्ष पहले की अवध के नवाब से संधि को तोड़ देती है। वाजिद अली शाह का यह कथन तथ्यपरक है कि स्लीमैन साहब सूबा बंगाल की रियाया की हालत क्यों नहीं देखते। दरअसल स्लीमन रिपोर्ट को ही अवध के विलय का आधार बनाया गया था जिसमें रियाया की बदहाली को दर्शाया गया था।जबकि चेरियों के बिंब के सहारे रॉय ने स्पष्ट कर दिया है कि एक एक करके राज्यों को हड़पते जाना डलहौजी की नीति है। इस तरह शतरंज के खिलाड़ी में भारत के शासक वर्ग और ब्रिटिश साम्राज्यवाद दोनों की मुकम्मल पहचान इस इशारे के साथ की गई है कि किसी भी प्रकार की शासन व्यवस्था जनता के लिए उतनी बुरी हो नहीं सकती जितना बुरा एक व्यापारिक कम्पनी का शासन हो सकता है। क्रोनी कैपिटलिज्म ने इसे नजदीक से देखने का हमें दुबारा अवसर दे दिया है।
1857 के विद्रोह की कहानी कहते हुए श्याम बेनेगल ने विद्रोह का नेतृत्व कर रहे भारतीय सामंतों के स्त्री के प्रति नजरिये को व्यापकता से उठाया है। जफ़र की पत्नी का रोल शबाना आजमी ने किया है। वह हर प्रकार प्रेम विहीन जीवन जी रही। पर्दा प्रथा हिंदू और मुसलमान दोनों समाजों में समान रूप से प्रचलित है। रूज के पिता की हत्या विद्रोहियों ने ही की और जफ़र रूज से जबरन विवाह के लिए जोर डालता है।जो स्थिति जुनून में जफ़र की पत्नी की है वही शतरंज के खिलाड़ी में मिर्जा साहब की पत्नी की है। इत्तफाक से दोनों भूमिकाएं शबाना आजमी ने निभाई हैं। मंगल पांडे :द राइजिंग में सती प्रथा, दास प्रथा और यूरोपियों द्वारा भारतीय महिलाओं के शारीरिक शोषण को भी दिखाया गया है। इस फ़िल्म अछूतों की समस्या भी आई है पर अगम्भीरता के साथ।
सत्यजीत रॉय और श्याम बेनेगल ने आम अवाम के साथ सामंतों के व्यवहार को भी दर्शाया है।मिर्जा साहब का गांव के निरीह बालक के साथ व्यवहार पूर्णतया सामंती है। यही रवैया जफ़र का है। जो फर्क है वह बस लखनऊ की नफीस नवाबी संस्कृति और रूहेलखंड की पठान संस्कृति के कारण ऊपरी तौर पर है।
किंतु इन सभी फिल्मों में 1857 तक भारतीय समाज मे स्थापित हो चुकी हिन्दू-मुस्लिम एकता को पुरजोर ढंग से दिखाया गया है । आपसी समानताओं और भिन्नताओं के साथ दोनों समाज हृदयग्राही ढंग से सहज हो चुके थे, जो इन फिल्मों में खूबसूरती से दिखाया गया है। जुनून में जफ़र और शतरंज के खिलाड़ी में मीर साहब और मिर्जा साहब के हिन्दू सेठ के साथ बर्ताव में इसे देखा जा सकता है। नवाब वाजिद अली शाह के गहरे सांस्कृतिक व्यक्तित्व के चलते यह भारतीय एकता ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में नृत्य, संगीत, गीत, कला और धार्मिक रहन-सहन के सूक्ष्म स्तरों पर व्यक्त हुई है। जुनून में यह बात-व्यवहार और संघर्ष में दिखती है। मंगल पांडे और मणिकर्णिका में जुबानी जमा खर्च अधिक है, गहरा चित्रण कम। 1857 के बाद इस गहरी एकता को छिन्न-भिन्न करना साम्राज्यवादी शासन का मुख्य औजार बना।
मंगल पांडेय: द राइजिंग में फिल्मकार का फोकस लाज़मी तौर पर मंगल पांडेय को ग्लोरीफाई करने पर अधिक रहा है। इस प्रवाह में केतन मेहता इतना आगे बढ़ गए हैं कि मंगल पांडेय में भारतीय नवजागरण की सारी प्रगतिशीलता को दिखा बैठे हैं। वह अछूतोद्धारक, नारी उद्धारक यहाँ तक कि लोगों द्वारा शासन करने की बात भी कहने लगता है। कला में कल्पना का उपयोग वाजिब है लेकिन इतिहास को तहस-नहस करके नहीं। लेकिन जिन्होंने भी केतन मेहता की ‘सरदार’ फ़िल्म में नेहरू का चरित्र हनन देखा होगा उन्हें इनका नजरिया विस्मित नहीं करेगा।
रही बात मणिकर्णिका की तो उसे इस समय बन रही ऐतिहासिक फिल्मों मसलन-पद्मावत, बाजीराव मस्तानी, ताना जी आदि के साथ ही रखकर देखना चाहिए। इनका पहला उद्देश्य व्यवसायिक सफलता और दूसरा उद्देश्य वर्तमान अंधराष्ट्रवादी उबाल की बहती गंगा में हाथ धोना है। शुरुआत में ही नाना साहब और अन्य दरबारी यह गीत गाते हैं-देश से है प्यार तो हर पल ये कहना चाहिये/मैं रहूँ या न रहूँ भारत ये रहना चाहिए। यह भावना ऐतिहासिक दृष्टि से इनमें विद्यमान नहीं थी। एक दृश्य में एक अंग्रेज किसी सामन्त से कह रहा है-‘…यहाँ के नेशनलिस्ट हमें कब का खदेड़ देते।’ 1857 में उसे भारतीय राष्ट्रवाद से इतना भय था !
निष्कर्षतः ये बात कही जा सकती है कि भारतीय इतिहास की इस महत्त्वपूर्ण घटना को सही इतिहास-दृष्टि और अपेक्षित कला कौशल के साथ हिंदी सिनेमा द्वारा व्यक्त किया जाना अभी शेष है। इस विद्रोह में जन भागीदारी और लोक आकांक्षाएँ बसी हैं; हिन्दू और मुसलमान एकता है; और आज के समय में महत्त्वपूर्ण हो चला उस साम्राज्यवादी हिंसा का तांडव है जिसमें नस्लीय घृणा मिली हुई थी । अतः हमारे लिए इतिहास के इस अध्याय में बहुत जरूरी सबक छिपे हुए हैं। उनको सिनेमा के जरिये भी बाहर आना चाहिए।

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