सबा नक़वी
आज की तारीख में पूरे भारत में विभिन्न स्थानों पर सघन हिन्दुत्व की लामबंदी क्यों की जा रही है? क्या हमने अचानक अपने हिन्दुत्व की आत्मा का आविष्कार कर लिया है और हमें इसे पूरी दुनिया को जोर-शोर से बताने की जरूरत आन पड़ी है, विशेषतः अपने मुस्लिम पड़ोसियों को और/या उन गलियों को, जहाँ मस्जिदें हैं, जिन पर लगता है कि कुछ भारतीयों की दुर्दमनीय लिप्सा है कि इन पर भगवा ध्वज फहरा दिया जाय? क्या इस समय भारत की ‘वास्तविक प्रकृति’ भौंडे जुलूसों की अनगिनत झांकियों के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहीे है जहाँ धार्मिक/पहचान के नारों के साथ गालियों का घालमेल किया जा रहा है?
क्या हम यही हैं और क्या वर्तमान सरकार हमको यही महसूस कराना चाहती है?
मेरा मानना है कि हम इतिहास के उस बिंदु पर हैं जहाँ कोई भीड़ भारत के जीवन-वृक्ष को बड़ी बुरी तरह हिला रही है, नीचे लगे हुये सारे फल गिर रहे हैं, कुछ शाखायें टूट रही हैं और सम्भवतः पूरे पेड़ को ही उखाड़ा जा रहा है। इस सम्पूर्ण पतन को भय पैदा करने के लिये ही डिजाइन किया गया है, न सिर्फ अल्पसंख्यकों में बल्कि उन समस्त संस्थाओं में भी जिनसे संविधान की रक्षा करने की उम्मीद की जाती है। यह एक लम्बी प्रक्रिया का हिस्सा है और इसका उद्देश्य है उस मनोवैज्ञानिक राज्य का निर्माण जो विरोधी शक्तियों को डराता है और नौकरशाही, चुनाव आयोग और न्यायपालिका को और भी अधिक आज्ञाकारी बनाता है।
विकास का यह डरावना और विस्मयकारी स्वरूप है।
जो कुछ हो रहा है उसका विभाजन और हिन्दू राष्ट्र के अधूरे कार्य को आगे बढ़ाने की परिकल्पना से भी आगे बढ़कर और भी निकृष्ट पक्ष है। राष्ट्रीय सरकार कोई रोजगार या नौकरी पैदा करने में असफल हो चुकी है, अर्थव्यवस्था का लघु एवं मध्यम क्षेत्र, जो भारतीय श्रमिकों के रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र रहा है, 2016 के नोटबंदी के दौर से ही लड़खड़ा गया है और उसके बाद से जी.एस.टी. और लॉकडाउन के थपेड़े भी झेल रहा है।
पूँजी रॉकट़ की गति से भारत से बाहर जा रही है और कुछ आंकड़े यह भी बताते हैं कि धनिकों का एक वर्ग और भी अधिक धनी और ग़रीब और भी ज्यादा ग़रीब होता जा रहा है। हम दुनिया भर में सबसे अधिक दर पर पेट्रोल और डीज़ल बेच रहे हैं और मुद्रास्फीति आसमान छू रही है। हमारी सीमाओं में अपना एक पैर घुसेड़े चीन एक महाशक्ति बन चुका है और हम कमतर होते जा रहे हैं, महाशक्ति बनने की हमारी नैतिक शक्ति हवा होती जा रही है।
इसके साथ ही यह भी हुआ है कि भाजपा भारत के इतिहास की सबसे धनी पार्टी बन गयी है और चुनावी बॉन्ड जारी होने के साथ ही हर चुनाव के पहले वह और भी अधिक धनी हो जाती है क्योंकि वे आमतौर पर इसी राष्ट्रीय पार्टी के नाम जारी किये जाते हैं। एक ओर राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता कॉरपोरेटों और नेताओं के बीच साठ-गाँठ से लोगों को अँधेरे में रखती है, तो दूसरी ओर दिल्ली सरकार की निष्ठुरता बेमिसाल है और वह प्रवर्तन निदेशालय और आयकर के छापों के माध्यम से दूसरी राजनीतिक पार्टियों को फंड से महरूम रखती है। जो राजनीतिक पार्टियाँ राज्यों में सत्ता में हैं वही लड़ने की स्थिति में होती हैं परन्तु उन पर भी लगातार हमले होते रहते हैं, यह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबन्धन के नेताओं की गिरफ्तारी में साफ दिखायी देता है। महाराष्ट्र वह राज्य है जहाँ भाजपा मानती है कि उसे अनुचित तरीके से सत्ता से बाहर रखा गया।
जो कुछ होता दिखायी दे रहा है यह उसकी पृष्ठभूमि है। सारी ताकत, पैसा और मारक क्षमता के बावजूद भाजपा अपने वास्तविक आर्थिक प्रगति और कल्याण के वादों में से कुछ भी नहीं कर पायी है। जीवन रेखा के नाम पर राशन बाँटना क्षेत्र विशेष की ग़रीबी का इलाज़ मात्र है और इसे आर्थिक प्रगति की वास्तविक यात्रा का प्रतिस्थापन नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार यदि कुछ करने के लिये बचा है तो वह है हंगामा मचाना।
यही वह कुछ है जो आज भारत में हो रहा है। सोच ऐसी दिखायी देती है कि एक झुलसती हुयी नीति युवाओं के एक वर्ग को उत्तेजित करके कट्टरवादी बना देगी और उन्हें निर्देशित अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अनवरत युद्ध में उलझाये रखेगी। इससे कई लक्ष्य एक साथ वेधे जाते हैंः रोटी और भूख की वास्तविक समस्या से एक महा-विचलन हो जाता है, भाजपा और संघ परिवार की विचारधारा, ‘हिन्दू पहले’ पर अधिक आग्रह दिखायी देने लगता है और बेरोजगार युवाओं को दूसरे काम मिल जाते हैं।
इस पर सटीक आंकड़ों के साथ बात करना सम्भव तो नहीं है पर ऐसे स्रोत उपलब्ध हैं जिनके अनुसार कुकुरमुत्तों की तरह उग आये अनेक हिन्दू मोर्चा संगठनों में उन्हें काम दिया जा सकता है। कोई भूल मत कीजिये, तलवारें और झंडे उठाये, नारे लगाते और गालियाँ बकते समस्त युवा जो दिखायी देते हैं, वे इसी काम के लिये बड़ी मेहनत से तैयार किये गये हैं और उन्हें अपनी मेहनत का मुआवज़ा भी मिलता है। यह इस समय एक अनौपचारिक क्षेत्र है और इसमें भी उसी हिसाब से भुगतान किया जाता है जैसे कि चुनावों में। युवाओं को इससे एक उद्देश्य मिल जाता है और जुलूसों और प्रदर्शनों में भाग लेने के लिये कुछ नकदी भी मिल जाती है। वे किसी सीमा तक सहायक सेना का हिस्सा बन जाते हैं। मीडिया रिपोर्टाें के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी में हनुमान जयंती के जुलूस, जिसके चलते दंगे हुये थे, में भाग लेने वाले युवा पिस्तौल और शॉट गन जैसे हथियारों का प्रदर्शन कर रहे थे।
इस प्रकार एक वैचारिक लक्ष्य, एक राजनीतिक योजना और एक आर्थिक अराजकता का सिद्धान्त यहाँ काम करता है। कर्नाटक में, जहाँ अगले साल चुनाव है, यह योजना बखूबी काम कर रही है। गड़बड़ी पैदा करने के लिये की जा रही यह भर्ती यदि चुनावों में सफल हो जाती है, तो इसे हिन्दी-हृदय प्रदेश और गुजरात के बाद दूसरे दक्षिणी राज्यों में भी लागू किया जायेगा।
लेकिन चुनावी गुणा-गणित से भी आगे, यह कहना जरूरी है कि घृणा और हिंसा का यह माहौल केवल भारतीय मुसलमानों का ही संकट नहीं है। भारत के उस बहुसंख्यक समुदाय के लिये यह एक निर्णायक बिंदु भी है, जिसके बच्चों को हिंसा और घृणा के रास्ते अपनाने के अलावा और कोई काम नहीं मिल रहा है और उनके त्योहारों को आस्था के एक दकियानूसी संस्करण के लिये तैयार किया जा रहा है।
(डेकन हेराल्ड में ‘द इकोनॉमिक काओसः थियरी ऑफ़ रायट्स’ शीर्षक से सर्वप्रथम प्रकाशित )
अनुवादः दिनेश अस्थाना