(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)
ट्रेनिंग का पहला साल 1979-80
राजकीय शिशु प्रशिक्षण महिला महाविद्यालय इलाहाबाद में एडमिशन के लिए इतना लोग डराए थे कि बिना सोर्स के ऐसे थोड़े एडमिशन हो जाएगा। लेकिन मेरिट के आधार पर ही मेरा नाम लिस्ट में आ गया था। फिर अप्रैल-1979 में इस दो वर्षीय ट्रेनिंग में मैंने एडमिशन ले लिया। एडमिशन के बाद थोड़े दिन हॉस्टल में भी रहे। हॉस्टल क्या एक बड़ा हाल जैसे था। जिसमें कुल बारह लड़कियां रहती थीं। कुछ दिन बाद मुझे यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर साहब के मकान की दुछत्ती में दो कमरा, एक बरामदा मिला। रास्ता पीछे गली से था। राशन वगैरह मायके से आ जाता था। मेरे पिता जी किसान थे। माता जी चावल की बोरी में जो कुछ उस समय उपलब्ध रहता था ( मिर्चा, गुड़, लहसुन, मंगरैल, प्याज) डाल देती थीं कि हमें खरीदना न पड़े। (अब सब कुछ मेरे पास है तो वे दोनों नहीं हैं।) कपड़े अभी शादी वाले ही थे।
ट्रेनिंग कालेज के लिए आसमानी रंग की दो साड़ी लेना अनिवार्य था। अर्थाभाव में मैंने 60/- में एक ही ऊली की साड़ी लिया था। रोज रात को धोकर पंखे में सुखा कर बिस्तर के नीचे दबा देती थी। क्योंकि प्रेस नहीं खरीद सकती थी।
जाड़े में साड़ी सूख नहीं पाती थी तो एक साड़ी और लेनी ही पड़ी। दोनों साड़ियों की अरज (चौड़ाई) मेरी लम्बाई के हिसाब से कम थी। साड़ी ऊपर उठी रहती थी। कॉलेज में क्लास टीचर ने कहा कि तुम्हारी साड़ी चढ़ी रहती है। तुम कटरे में सुखबासी लाल के यहां से 150/- की साड़ी लो, वो नहीं चढ़ेगी। उनसे क्या बताते कि मैं 150/-की साड़ी नहीं ले सकती। मैंने उसी साड़ी में ऊपर खोंसने वाले हिस्से में कपड़ा जोड़ दिया। अब जोड़ वाला कपड़ा खोंस लेती थी तो साड़ी थोड़ी नीचे हो जाती थी। कालेज की एक छात्र पुष्पा श्रीवास्तव मेरे बगल में बैठती थी। वह मेरी अच्छी दोस्त थी। वह मेरी स्थिति जानती थी।
कहीं आने-जाने का समय ही नहीं मिलता था। रविवार को कभी बड़ी अम्मा के यहां बलरामपुर हाउस चली जाती थी। अम्मा हमको एक पर्स, एक सामान रखने के लिए रैक (जिसका एक हिस्सा आज भी मेरे किचेन में है) और एक ट्रे दी थीं। ट्रे इसलिए कि दीवाली मेंं एक ट्रे में गीली मिट्टी से घरौंदा बनाना था। इसको क्लास में टीचिंग के लिए रखना था।
कॉलेज में गाजीपुर से एक और लड़की कौशल्या का एडमिशन हुआ था, मैं जितना ही कम बोलती थी कौशल्या उतना ही ज्यादा बोलती थी। मॉनीटर बनना चाहती थी, शायद बन भी गई थी। सबसे आगे अपना डेस्क लगाकर बैठती। व्यवहारिक नहीं थी। वो ऐसे कि क्लास में मंजूश्री जोशी नाम की छात्र प्रेग्नेंट थी, उसका आठवां महीना चल रहा था। उसे बहुत गर्मी लगती थी। हम लोग उसको पंखे के नीचे बैठाते थे। एक दिन पंखा खराब हो गया, दूसरे पंखे के नीचे हम लोग उसको बैठाना चाहते थे, कौशल्या उसको बैठने ही नहीं दे रही थी, कह रही थी कि अपनी जगह पर ही बैठिए। बाद में सरोज यादव ने अपनी जगह मंजूश्री को बैठाया।
कौशल्या आए दिन किसी न किसी से भिड़ जाती थी और कहती थी कि आप गाजीपुर की होकर भी मेरा साथ नहीं दे रही हैं। बाद के दिनों में पता चला कि वह पार्टी के भी नजदीक थी। फिर तो हम उसको समझाये और बाद के दिनों में उसमें सुधार भी आया।
धीरे-धीरे मुझे शहरी माहौल समझ में आने लगा था। क्लास में और टीचिंग के समय टीचर और ट्रेनर के बीच चापलूसी भरे संबंध भी दिख रहे थे, जो पैसे पर आधारित थे। मेहनत पर आधारित रहता तो मैं कत्तई पीछे न रहती। लेकिन किसी की साड़ी में फाल स्वयं खरीदकर लगाना या लगवाकर देना, साड़ी धुलवा देना, ब्लाउज सिलवा देना, मेकअप का कोई न कोई सामान लाकर देना, ये सब मुझसे नहीं हो सकता था। इसका कारण केवल मेरे पास पैसा न होना ही नहीं था, मुझे ये सब बहुत बुरा लगता था। लेकिन मन की बातें केवल पुष्पा से ही कह पाते थे। उसने समझाया कि कुछ बोलना मत। जो कर रहा है उसे करने दो, तुम मत करना। हालांकि इसका असर परीक्षाओं में दिखता था। मैं थ्योरी में हमेशा फर्स्ट और प्रैक्टिकल में सेकेण्ड आती, जबकि सेवा करने वाले ट्रेनर का इसका उल्टा आता था। क्योंकि प्रैक्टिकल के नंबर्स टीचर्स के हाथ में होता है। अपने निजी कामों को सहेजते समय टीचर पैसा देने के लिए निकालती तो थीं मगर ट्रेनर लेती नहीं थीं कि मैम हम करा देंगे। लेकिन चुनकर ऐसे ही ट्रेनर को काम सौंपा जाता था जो पैसा न ले। क्लास टीचर शशि बाउन्ड्रा इस तरह की नहीं थीं।
क्लास में मैं कम बोलती थी । तिमाही परीक्षा हुई। प्रकाश मैम आईं। सबका नम्बर बताने लगीं। जब मेरा नाम बोलीं तो मैं खड़ी हुई, तो प्रकाश मैम ने कहा तुम क्यों खड़ी हो गई ? मीना राय का नाम बोली हूं। एक साथ कई लड़कियां बोलीं मैम यही तो है मीना राय। मुझे आज तक यह नहीं भूलता कि प्रकाश मैम एकटक मुझे देखती रहीं और बोलीं कि तुम कैसे इतना नम्बर पा गई!? क्लास में सबसे अधिक नम्बर मेरा था। उसके बाद प्रिंसिपल मैम हमको आफिस में बुलवाईं और बहुत प्यार से मुझसे बात कीं और बोलीं कि स्कूल रेगुलर आना और अपनी पढ़ाई पर ही ध्यान देना। फिर तो हम सबकी नजर में आ गए । गेम के लिए दूसरे कॉलेज में मुझे भेजा गया। वहां दौड़ में मैं सेकेण्ड आई। अपना सब काम करते हुए मैं साल पूरा होने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। क्योंकि मुझे वजीफा मिलने की खबर प्रिंसिपल मैम से मिल गई थी और मैंने उस पैसे से प्रेशर कुकर लेने की सोच रखा था।
इधर दशहरे में घर से समता और माता जी ( सास ) को ले आए थे। खाना मैं बुरादा पर बनाती थी, क्योंकि बुरादा मिट्टी के तेल से सस्ता पड़ता था। सुबह खाना बनाकर मैं 2 कि.मी. पैदल स्कूल जाती। और शाम को पैदल ही कटरा लक्ष्मी चौराहे वाली सब्जी मंडी से सब्जी लेते हुए घर लौटती। पहली बार मैंने टिंडा देखा था और उसे हरा टमाटर समझकर ले लिया था। घर आकर रात में उसकी चटनी बनाई। कोई स्वाद ही नहीं आया। आए भी कैसे? सुबह जब सब्जी में डालने के लिए काटी तब देखी कि ये तो टमाटर नहीं है। उसको मैंने कॉलेज की दोस्त पुष्पा श्रीवास्तव को दिखाकर पूछा कि क्या है ये ? मैं तो टमाटर समझकर ले गई थी। उसने बताया कि इसे टिंडा कहते हैं, इसका भरवां बढ़िया लगता है , सब्जी भी बनती है।
उस समय मुख्य रूप से दो तरह का काम चल रहा था। एक तो नाट्य टीम बनाने की तैयारी और दूसरा नये छात्र संगठन का निर्माण।
सांस्कृतिक टीम ‘दस्ता’ नाट्यमंच बन गया था। उस समय दस्ता नाट्य मंच में रामजी राय, दिलीप सिंह, हिमांशु रंजन, राजेन्द्र मंगज, रविन्द्र सिंह, चन्द्र प्रकाश राय, पार्थ चौधरी इत्यादि थे। बाद के दिनों में बहुत लोग जुड़े। “राजा का बाजा” और “इतिहास गवाह है” बहुत बार खेला गया और बहुत चर्चित हुआ। जिसमें उदय यादव, अमरेश मिश्र, प्रमोद सिंह, विमल वर्मा, अनिल सिंह और सेवाराम आदि थे। “दस्ता नाट्य मंच” जगह जगह नुक्कड़ों पर वर्तमान माहौल से संबन्धित छोटे छोटे नाटक करता था। इस तरह का नुक्कड़ नाटक इलाहाबाद के लिए नया था। नुक्कड़ नाटक के बारे में पेपर में सनसनीखेज खबरें छपीं- ‘इलाहाबाद में नक्सलियों का प्रवेश। ये एकाएक किसी चौराहे पर इकट्ठे होते हैं, डफली बजाकर भीड़ इकट्ठा करते हैं, गीत गाते हैं नाटक करते हैं और गायब हो जाते हैं।’ नाटकों का रिहर्सल शुरुआती दौर में बनारस से जलेश्वर उर्फ टुन्ना (महेश्वर के छोटे भाई) और पार्थ चौधरी (इलाहाबाद से) कराते थे। नाटक शुरू होने से आधा घंटा पहले गले में ढोलक लटकाकर जोर जोर बजाते हुए यूनिवर्सिटी के यूनियन हाल से कचहरी तक 10-12 लड़कों के झुंड में नाटक का नाम और समय बताते हुए समय से आने के लिए प्रचार किया जाता था। लड़कों के हाथ में पुराने अखबार पर स्याही से नाटक का नाम और समय लिखा पोस्टर रहता था।
पहला नुक्कड़ नाटक “अब ना सहेंगे जोर किसी का” लक्ष्मी चौराहे वाली सब्जी मंडी में हुआ था। और नाटक खत्म होने के बाद मंडी वालों ने चाय भी पिलाई थी। उसके प्रचार में कृष्ण प्रताप सिंह भी थे। कृष्णप्रताप सिंह जो बाद में डीएसपी हुए। तब वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे और उनकी सरकार डकैत उन्मूलन अभियान चला रही थी। कृष्णप्रताप आदर्शवादी युवा अफसर थे। पुलिस के लोग उनको एक गांव में डाकुओं के छुपे होने की गलत सूचाना देकर ले गए और खुद ही उन्हें गोली मारकर हत्या कर उसे मुठभेड़ में मारा जाना ठहरा दिया।
यही नाटक एक बार कचहरी के पास पोस्ट ऑफिस के सामने पेट्रोल टंकी पर हो रहा था। उस दिन जो लड़का व्यवस्था का रोल करता था वो नहीं था तो अखिलेन्द्र सिंह व्यवस्था का रोल किए। राजेन्द्र मंगज फौज का रोल कर रहे थे। नाटक में व्यवस्था ने जब जनता पर फौज दौड़ाई तो बदहवास फौज व्यवस्था (अखिलेन्द्र) पर जा भहराई। उसी समय अखिलेन्द्र गोबर पर पैर पड़ जाने के कारण फिसल कर गिर गए और फौज (मंगज) उनके ऊपर गिरी। फौज के इस रोल पर दर्शक जोरदार ताली बजाए। मंगज के नीचे दबे अखिलेन्द्र की हालत देखने लायक थी। अखिलेन्द्र एकदम दुबले पतले थे और मंगज मोटे और भारी थे। उसके बाद फिर अखिलेंद्र कभी नाटक का पात्र नहीं बने।
एक नए छात्र संगठन के निर्माण का दौर भी था। प्रत्येक रविवार को यूनिवर्सिटी के सीनेट हाउस के सामने के बरगद वाले लॉन में स्टडी सर्किल होती थी। जिसमें अक्सर मैं भी चली जाती थी। एक गोला बनाकर लोग बैठते थे और किसी एक विषय पर सभी लोग अपनी बात रखते थे। और अगले रविवार का विषय भी सबकी राय से तय हो जाता था। इस कार्य में रामजी राय और रवि श्रीवास्तव रेगुलर लगे रहते थे। यह एक नए छात्र संगठन के निर्माण का दौर था। आने में देर हो जाय तो रामजी राय हास्टल में रुक जाते थे। क्योंकि इस घर में बाहरी लोगों का आना और रुकना मकान मालकिन की वजह से बहुत मुश्किल था।
रामजी राय के देर रात आने या रात में न लौटने का रवैया देखकर माता जी परेशान होती थीं। लेकिन रामजी राय से कुछ नहीं कहती थीं। जो सुनाना होता था हमीं को सुनाती थीं कि- “बड़का लइका कइसे- कइसे एके पढ़वलस आ ई इंहवां फरगुद्दी काटता, एकरा तनिकों बुझाते नइखे” तू काहे नइखू समझावत एके”। मैंने माताजी से कहा कि “हम त कह कह के थक गइलीं, तनि आपे कहीं, हो सकेला आप क बात क असर पड़े”। तो तुरन्त माताजी टोन ही बदल दीं और कहीं “ना हम ना कहब , ओकर दिमाग हल्लुक ह, कहीं कुछ हो गइल ओके तब?”। उनकी बात सुनकर हमको गुस्सा भी आया और हंसी भी। फिर मैंने उनसे हंसते हुए कहा भी कि “आप उनसे ना कहब कि उनकर दिमाग हल्लुक हउए आ हमके रोज सुनाइब , त हमहीं लोहे क काया हलिवन्ते (हनुमान) क बल लेके पैदा भइल बानीं, हमरा दिमाग पर ना असर पड़ी?”। फिर हम दोनों हंसने लगे। उनको लगता था कि जैसे भी करके ये (रामजी राय) नौकरी करने लगें। स्वाभाविक भी था, हर मां अपने लड़के के बारे में यही सोचती है कि वो अपने पैर पर खड़ा हो, उसका परिवार सुखी रहे। इसलिए वे यह भी चाहती थीं कि वो न करें तो मैं ही कुछ करने लगूं, तब भी किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़ेगा।