वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से कवि-आलोचक कुमार मुकुल की बातचीत
अपनी बातचीत में आप हिंदी कविता, कहानी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों राजकमल चौधरी और फणीश्वर नाथ रेणु का जिक्र बारहा करते हैं। आपको इनकी संगत का लाभ उठाने का मौका मिला है। उन प्रसंगों की बाबत कुछ बताएं।
वह भारत–पाक युद्ध का समय था। हम तीन दोस्त थे। एक थे डॉ. एस. एस. ठाकुर, पटना के बड़े डाक्टर और दूसरे थे शंभु। उस समय लोगों को उत्साहित करने वाले कवि–सम्मेलन होते रहते थे हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में, बाद में सम्मेलन बहुत गलत लोगों के हाथों में चला गया। तब वहां बाबा नागार्जुन भी आते रहते थे। राजकमल चौधरी भी तब पटना में ही रहते थे। सतेन्द्र नारायण सिंह, जिन्हें छोटे साहब कहते थे लोग, वे भी हमें बहुत मानते थे। एक पत्रकार साथी थे दिनेश सिंह। ये सब ईमानदार लोग थे।
दिनेश सिंह नवराष्ट्र पत्रिका के संपादक थे। वे चाहते थे कि पटना में एक कवि–सम्मेलन आयोजित हो। वे मुझसे भी कविता पाठ करवाना चाहते थे। मैंने कहा कि उसमें मुझे कौन जाने देगा, तो उन्होंने कहा कि कैसे नहीं जाने देगा, मैं हूं ना।
कवि सम्मेलन हुआ तो उसमें तमाम बड़े कवि शामिल हुए। रामगोपाल रूद्र, केदारनाथ मिश्र प्रभात, आरसी प्रसाद सिंह जैसे मशहूर लोग उसमें थे। कवि सम्मेलन के दौरान मैंने एक चिट पर अपना नाम लिखकर मंच पर बढ़ाया। सम्मेलन की अध्यक्षता राजकमल चौधरी कर रहे थे। मैं देख रहा था कि लोग मेरी पर्ची पर ध्यान नहीं दे रहे थे और सम्मेलन अपने अंत की ओर बढ़ रहा था। युद्ध के चलते कुछ समय बाद ब्लैक आउट हो जाता और पूरे इलाके की बिजली गुल कर दी जाती सुरक्षा को लेकर, तो कवि सम्मेलन भी बंद हो जाता। मुझे लगा कि अब मेरा नंबर नहीं आएगा।
तब राजकमल जी ने कहा कि अब तो सबका पाठ हो गया अब एक कोई नौजवान हैं, आलोक धन्वा। उनसे मेरी गुजारिश है कि वे मंच पर आएं और अपनी कविता पढें।
तब मैं मंच पर गया और एक कविता पढी। वह कविता फिर कहीं छपी नहीं।
कौन सी कविता थी वह, क्या कुछ याद है ?
हां, अभी भी उसकी कुछ पंक्तियां याद हैं –
सुनती हो मां
अब तो मुझको नींद नहीं आती है
भीतर ही भीतर कोई स्तूप उबलता है
नीली नीली नसें सुलगती ही जाती हैं
अंबाला के सैनिक वाले अस्पताल पर बम गिरता है
एक नर्स सीढि़यां उतरती मर जाती है
मरने पर भी उसकी आंखों में एक हरी गर्दन चिल्लाती है …
इस कविता ने सबका मेरी ओर ध्यान खींचा। राजकमल जी ने भी कहा कि लड़का अच्छा लिख रहा है।
इतनी ही थी कविता या पूरी कविता याद नहीं आपको ?
इसमें आगे भी कुछ पंक्तियां थीं –
उड़ी, पूंछ के बीच जमी
पत्थर वाली शहतीर
तुम्हारी जय हो …
इस तरह से थी कविता।
इस कविता के पाठ के बाद राजकमल जी से टाइम लिया हम लोगों ने। उस समय मेरे साथ गद्यलेखक और यूएनआई के पत्रकार साथी रत्नधर झा भी थे। राजकमल जी से मुलाकात के दौरान रेणु जी की चर्चा हुई। राजकमल जी ने पूछा कि रेणु जी से मिलना चाहते हैं आप।
मैंने कहा – हां, जरूर मिलना चाहेंगे।
जिस घर में राजकमल रहते थे वह खपरैल की थी जिस पर कद्दू फले थे। तो राजकमल ने कहा कि अगर आपको रेणु जी के यहां चलना है तो आपको वहां तक उनके लिए यहां से एक कद्दू लेकर चलना होगा।
उस समय तक तो रेणु जी हिंदी की दुनिया में काफी लोकप्रिय हो चुके थे ?
हां, राजेन्द्र नगर के एक फ्लैट में रेणु जी रहते थे। उन्हें कौन नहीं जानता था। वहां कौन नहीं आया। अज्ञेय आये थे, रघुवीर सहाय आये, सर्वेश्वर जी आए।
तो जब रेणु जी के यहां चलने की बात हुई तो मैंने कहा कि मुझे आप वहां ले जा रहे हैं पर उनके यहां एक कुतिया है, नवमी।
तो राजकमल बोले – मत डरो, मैं तो भैरव का भक्त हूं। कुत्ते से भय नहीं होना चाहिए।
अच्छा तो आप कुत्ते से एक जमाने से डरते आ रहे ! पर आपको पहले से कैसे पता था कि रेणु जी कुत्ता रखते हैं ?
अरे मत कहअ, मउअत से हमरा डर ना लागे, बस कुकुर से डर लागे ला। (भोजपुरी में बोलते हैं वे।)
यह सब अखबारों से पता चल जाता था। रेणु जी बहुत लोकप्रिय थे। फिर वे खुद भी जनता अखबार निकालते थे।
तो वहां पहुंचने पर राजकमल जी ने मैथिली में रेणु जी से कहा- कि यह जो लड़का है मेरे साथ वह बहुत डरता है कुत्ता से। सो नवमी को बांध दीजिए।
तो रेणु जी ने लतिका जी से कहा- कि यह लड़का बहुत डरता है कुत्ते से सो उसे उस कमरे में ले जाओ तब तक।
फिर चाय आदि आयी। चाय पीते हुए मैं रेणु जी को पहली बार इस तरह नजदीक से देख रहा था। वे बहुत सुदर्शन थे और काफी लंबे थे, मैं समझता हूं छह फीट से अधिक लंबे थे वे। सांवले थे पर बहुत सुंदर। घुंघराले केस थे, हैंडसम क्लीन शेव्ड। वे चलते तो लगता कोई लोकनर्तक चल रहा। बहुत मधुर आवाज थी उनकी।
कोशी के इलाके की जो धारा थी लेखन की, उसमें तीन बड़े लेखक थे- राजकमल, रेणु और नागार्जुन। रेणु राजकमल से सीनियर थे।
तब उन्होंने खाने के लिए पूछा – तो मैंने कहा कि मैं खाऊंगा तो नहीं।
तब उन्होंने लतिका जी से कहा- नौजवान आया है घर पर पहली बार तो कुछ इसके लिए मिठाई आदि लाओ।
तो मिठाई आयी रसगुल्ला या हम समझते हैं कि बर्फी होगी। हमने और राजकमल ने खाया फिर नमकीन और चाय ली।
फिर बातचीत चलने लगी। दोनों ज्यादातर मैथिली में बात कर रहे थे। जिसे मैं भी समझ रहा था। थोड़ी देर के बाद हमलोग निकलने लगे तो रेणु जी ने कहा कि इधर आइए तो आ जाइए यहां भी। इसके बाद उनसे ज्यादातर काफी हाउस में मुलाकात होती थी।
फिर राजकमल चौधरी बीमार रहने लगे। उनका पेट चीरा गया तो पता चला कैंसर है तो उसे बिना छेड़छाड़ के फिर सी दिया गया। क्योंकि शंका थी कि चीर-फाड़ से वह पूरे शरीर में फैल जाएगा।
फिर मैं कुछ दिन पटना से बाहर रहा। आया तो पता चला कि राजकमल जी गुजर गये। यह 1967 जून की बात है। उनसे 1965 में पहली मुलाकात हुई थी।
इस बीच आप लोगों की कितने मुलाकातें हुईं, आपलोग कितना साथ रहे ?
भेंटे तो कम ही हुई थीं। पर जब भी हमलोग जाते तो वे प्रेम से मिलते। उनकी बीमारी का दौर था तो उन्हें कई तरह की सलाह देने वाले लोग वहां मिलते थे। बीमारी से आतंकित होने वाले आदमी नहीं थे राजकमल जी।
कविता पर भी काई बात होती थी राजकमल जी से ?
कविता पर हमलोग बहुत कम बात करते थे। क्या बोलते, हम लोग बहुत यंग थे उस समय। हम लोग सुनते थे उनको। वे गद्यकार थे। उनकी किताब ‘मछली मरी हुई’ छप चुकी थी। कहानियां उनकी बहुत मशहूर थीं । कविताओं की उनकी पुस्तक ‘कंकावती’ भी मशहूर थी।
बहुत ही संघर्ष का जीवन था राजकमल जी का। ‘ज्योत्सना’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी पटना से, उसमें वे काम भी करते थे। पर वहां से कुछ खास पारिश्रमिक नहीं मिलता था हमेशा आर्थिक संकट रहता था।
बीमारी के कारण जब वे अस्प्ताल में भर्ती हुए तो हमलोग उनसे नियमित मिलते थे। नंदकिशोर नवल और उस समय के चर्चित गीतकार चंद्रमौली उपाध्याय आते थे उन्हें देखने। उपाध्याय जी कलकत्ते से आते थे।
रेणु जी भी तब पटना ही रहते थे, वे भी आते-जाते होंगे ?
हां, यहीं रहते थे और आते थे। अस्पताल में तो नहीं आते थे रेणु जी पर जब ‘मुक्तिप्रसंग’ के प्रकाशन के बाद अज्ञेय उनसे मिलने पीएमसीएच सर्जिकल अस्प्ताल में आते तो रेणु जी भी उनके साथ रहते। टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार जिते्न्द्र सिंह भी साथ होते थे। मुक्तिप्रसंग अज्ञेय जी को ही समर्पित है।
पर राजकमल को बचाया नहीं जा सका। उनको याद करते बाबा नागार्जुन ने कविता भी लिखी थी। रेणु जी ने भी अवश्य ही कुछ लिखा होगा। मिथिलांचल के ये दोनों ही लेखक राजकमल के गुजरने से बहुत व्यथित हुए थे। राजकमल हिंदी, मैथिली, बांग्ला और अंग्रेजी के भी जानकार थे।
उस समय तक तो रेणु का लेखन पर्याप्त चर्चा पा चुका था ?
उस समय रेणु जी की इतनी ख्याति हो चुकी थी कि उन्हें इग्नोर नहीं किया जा सकता था। उनसे मिलने बड़े बड़े लोग आते थे। एमएलए व पार्षद सब उनको घेरे रहते। कुछ लोग उनसे कॉफी हाउस आकर मिलते थे और कुछ उनके निवास पर मिलते थे। कॉफी हाउस में जब काफी लोग आते तब कई टेबलों को जोड़कर एक टेबल बना दिया जाता था।
सर्वेश्वर जी पटना आते तो उनके घर पर रुकते थे। अज्ञेय, निर्मल वर्मा, बी. पी. कोइराला और गिरजा प्रसाद कोइराला आते थे उनसे मिलने। बीपी कोइराला ने नेपाल में पहली बार लोकतंत्र लाने की कोशिश की थी। रेणु जी नियमित काफी हाउस आते थे। बीच बीच में वे अपने गांव औराही हिंगना भी जाते थे।
उस समय एक विद्यार्थी हेमंत दयाल था जो सितार बजाता था। हेमंत और शरत दयाल बिहार के एक आइएएस डॉ. एल. दयाल के बेटे थे। तो हेमंत हमलोगों को ‘मैलाआंचल’ का पहला पन्ना पढ़ कर सुनाता था। पढ़ाई तो छोड़ दी थी मैंने पर बड़े लोगों को सुनना और किताबें पढ़ना मेरी आदतों में शुमार था और भटकना।
रेणु जी का बहुत ही गहरा स्नेह था मेरे प्रति।
कई बार ऐसा होता कि कॉफी हाउस से निकलते रेणु जी मुझसे पूछते कि आप कहीं और जाएंगे।
मैं कहता कि नहीं, मैं तो भिखना पहाड़ी अपने आवास जाऊंगा।
वे कहते कि तब दिनकर चौक तक आप मेरे साथ चलिए।
तो वहां तक वे साथ आते। वे पान के शौकीन थे तो अपने पनबट्टे में वे पान लेते। वहीं पास ही मैग्जीन कार्नर था जहां से वे पत्रिकाएं लेते। फिर वहां से रिक्शे पर बैठ आगे चले जाते और मैं टहलता हुआ अपने डेरे पर चला आता। जहां मेरे बड़े भाई रहते थे।
आप पान आदि नहीं खाते थे ?
कभी कभी खाते थे। सिगरेट पीते थे।
रेणु जी भी पीते थे सिगरेट ?
नहीं, रेणु जी नहीं पीते थे। उन्हें कभी सिगरेट पीते नहीं देखा।
वे कभी आपके सिगरेट पीने पर कुछ बोलते थे ?
नहीं, उनके सामने मैं सिगरेट नहीं पीता था। यह लिहाज था। हालांकि सामने पीते तो वे कुछ बोलते नहीं। वे बहुत खुले दिल के आदमी थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वे किसी को भी तुम नहीं बोलते थे। हम लोग जो कि उनसे इतने छोटे थे उनसे, हम लोगों को भी वे हमेशा आप कहते थे। आप क्या लिख रहे हैं इन दिनों, कहते वे।
उस समय तो दिनकर जी भी थे। वे भी क्या काफी हाउस की बैठकी में शामिल होते थे? उनसे मुलाकात होती थी आपकी ?
दिनकर जी के तो रेणु जी भक्त थे। दिनकर जी से मेरी पहली मुलाकात रेणु जी ने ही करवायी थी। वही मुझे छह नंबर रोड में उनके घर लेकर गये थे।
जाने के पहले रेणु जी ने कहा कि उनके यहां चलना है तो जरा ठीक ठाक होकर आइएगा। बाल वाल कुछ बना लीजिएगा।
तो उसी समय भी आप लंबे बाल, दाढ़ी रखते थे। आप कहते हैं कि राजकमल और रेणु आपके गुरु रहे। दोनों क्लीन शेव्ड रहते थे। फिर आपने यह बाल, दाढ़ी वाली गुरूता कहां से प्राप्त की , किससे प्रेरित थे आप, टैगोर से या निराला से ?
नहीं, किसी से प्रेरित नहीं थे। बहुत बड़ी दाढ़ी टैगोर जैसी तो नहीं रखते थे हम। हां कुछ बड़ी रखते थे। मुझे अच्छा लगता था।
तो रेणु जी ने कहा कि आप ठीक ठाक होकर आइए और चलकर दिनकर जी को अपनी कविता ‘जनता का आदमी’ का एक अंश सुनाइए।
तो उस समय आप ‘जनता का आदमी’ लिख चुके थे, और उसे रेणु जी को सुना चुके थे ?
मतलब लिख रहे थे उसको। रेणु जी उसका एक हिस्सा सुन चुके थे। जनता का आदमी कविता 1972 में छपी आगे। दिनकर जी की जो डायरी ज्ञानपीठ अवार्ड मिलने के बाद प्रकाशित हुई थी उसमें उन्होंने जनता का आदमी कविता के रेणु जी और उनके सामने हुए उस पाठ की चर्चा की है।
वह चीन और भारत की लड़ाई का समय था और दिनकर जी उससे बहुत आहत थे। वे पंडित नेहरू से जुड़े हुए थे। 1964 में इन्हीं परिस्थितियों में नेहरू गुजर गये और इससे दिनकर बहुत दुखी थे।
रेणुी जी दिनकर के अलावे जेपी से भी बहुत जुड़े थे। दिनकर को रेणु जी बड़ा कवि मानते थे। रेणु हमलोगों को कहते थे कि दिनकर जी को पढ़कर ही हमलोगों में गांव से आसक्ति पैदा हुई थी।
जयप्रकाश जी ने जो आंदोलन शुरू किया था तो उनका जो अभियान चलता था उसमें तमाम लोग शामिल थे। उनमें सत्येन्द्र नारायण जी, गोपीवल्लभ जी, नागार्जुन, रामवचन राय आदि थे। जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन, रेणु नुक्कड़ सभाएं करते थे। नुक्कड़ पर बाबा जब कविता सुनाते तो खूब भीड़ जमा होती थी।
आप भी उसमें शामिल रहते होंगे ?
हम उस आंदोलन को लेकर क्रिटिकल थे। हम लोगों का अलग मंच था। हमारा सोचना था तब कि भ्रष्टाचार को लेकर इतना बड़ा आंदोलन चलाने की क्या जरूरत है, जयप्रकाश जी को। भ्रष्टाचार तो सिस्टम का बायप्रोडक्ट है तो लड़ाई सिस्टम बदलने को होनी चाहिए और उसमें मजदूरों को भी भाग लेना चाहिए। जेपी आंदोलन में मजदूर किसान कम संख्यां में थे। सीपीआई भी उस आंदोलन के विरोध में थी पर हमारा स्टैंड सीपीआई का नहीं था। हम लोग बीच का कोई रास्ता निकालना चाहते थे।
रेणु जी की इस पर क्या राय थी। क्या वे आपके मंच में शामिल होते थे?
रेणु जी से इस पर बात नहीं होती थी। वे हमारे मंच पर नहीं आते थे। कभी कभी सतनारायण जी आ जाते थे हमारे मंच पर। सायंस कालेज और पटना कालेज के विद्यार्थी इस सोच में हमलोगों के साथ थे। अरुण कमल और नंद किशोर नवल भी एक बार हम लोगों के साथ मंच पर आए थे। नागार्जुन के बेटे सुकांत सोम भी हमलोगों के साथ रहते थे। वे भी कविताएं लिखते थे और किसी की परवाह नहीं करते थे।
दिनकर जी तो शामिल थे जेपी आंदोलन में। उनकी कविताएं तो उस आंदोलन का हिस्सा बनी थीं – सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ?
दिनकर जी भी शामिल नहीं थे। उनकी कविता किसी ने पढ़ी होगी। दिनकर जी की कविता जयप्रकाश जी पढ़ते थे।
उस समय हमलोग मंच से गीतों का पाठ करते थे। एक गीत हम लोग पढ़ते थे, गीतकार का नाम याद नहीं आ रहा, दिल्ली के थे।
दिल्ली से वे गीतकार क्या पटना आए थे, आंदोलन में भाग लेने ?
नहीं, उनका गीत हमलोगों ने मंच से गाने के लिए चुना था- गीत था –
नई चहिए नई चहिए
सरकार सयानी नई चहिए
अमेरिका का दाना पानी नई चहिए।
उस समय एक छात्र युवा संघर्ष समिति थी उसमें शिवानंद तिवारी, सुशील मोदी, नीतिश कुमार आदि शामिल थे।
क्या रेणु से परिचित थे नीतिश कुमार ?
रेणु को सबलोग जानते थे।
नीतिश कुमार की कोई साहित्यिक रूचि तो नहीं रही होगी ?
नहीं, ऐसी रूचि बहुत लोगों की थी। मैला आंचल को तो मास बेसिस पर पढ़ा गया। आप इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि मैला आंचल इतनी लोकप्रिय कृति हुई कि राजकमल प्रकाशन की शीला संधू ने …
रेणु जी के लेखन को आप किस रूप में देखते हैं, उसकी रिपोर्ताज शैली को लेकर आपकी क्या सोच है ?
हां, मैला आंचल है, परती परिकथा है। रेणु जी पर कुछ लोगों ने सवाल उठाया था कि उनकी भाषा रिपोर्ताज शैली की है। रेणु जी अखबारों में रिपोर्ताज और कॉलम लिखते भी थे। इसका जवाब देते आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जी ने कहा कि यह एक अद्भुत शैली है यथार्थ को देखने की, इसके फार्म पर मत जाइए। फार्म महत्वपूर्ण नहीं है। हर लेखक अपना अलग फार्म लेकर आता है। पर उस फार्म को उसके कथ्य के आलोक में ही देखना चाहिए। जो रचना की अंतरवस्तु है उसी के अनुरूप उसका फार्मेट निर्मित होता है। रेणु जी गांव की तमाम गतिविधियों से परिचित थे और रेणु जी का यथर्थवाद उसी ग्रामधारा का विकास है।
कुछ लोग रेणु जी के लेखन पर ‘ढोढाय चरित मानस’ के रचनाकार सतीनाथ भादुड़ी की छाया देखते हैं, इसे आप किस तरह लेते हैं ?
हां, रेणु जी उनसे मिलकर प्रभावित हुए थे और उनकी कृतियों से भी प्रभावित हुए थे। उनकी कृति ‘जागोरी’ और ‘ढोढाय चरित मानस’ से प्रभावित थे वे जिसे भारती भवन वालों ने भी छापा था। पर रेणु जी का सोचने का अपना स्वच्छंद तरीका था। आजादी के बाद का जो भारत है उसमें हमारे समाज की जो विषमताएं हैं और उनकी जो चुनौतियां हैं उसको रेणु जी ने बहुत गहराई से समझा है। जातियों की जो समस्या थी जिसमें तमाम जातियां और समाज परिवर्तन करने वाले लोगों का आचार व्यवहार था, उसे रेणु जी ने गहराई से चित्रित किया है अपनी कृतियों में।
रेणु जी बहुत बड़े एक्टिविस्ट भी थे। अपने समय के तमाम सामाजिक आंदोलनों से वे प्रभावित होते थे और उस प्रभाव को अपनी कृतियों में बहुत सादगी से जाहिर करते थे।
रेणु जी कभी लगातार शहर में नहीं रहते थे दो तीन महीने शहर में रहकर वे उससे उब जाते तो गांव चले जाते थे। उनके कई ग्रामीण पात्र सजीव नामधारी थे।
रेणु की कहानियों में आपकी स्मृति में कौन सी कहानियां किस रूप में हैं ?
उन्होंने अद्भुत कहानियां लिखीं। लाल पान की बेगम, रसप्रिया, आदिम रात्रि की महक आदि उनकी चर्चित कहानियां हैं। तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम जिस पर राजकपूर ने फिल्म बनाई। पहली बार फिल्म नहीं चली और सदमें में शैलेंद्र की जान चली गयी। दूसरी बार वह खूब चली। उसके गाने भी शैलेन्द्र ने लिखे थे।
शैलेन्द्र एक ऐसे लेखक थे जिन्हें नागार्जुन का भी सान्निध्य मिला था। उनके मन में किसी के प्रति कोई दुराव नहीं था। रेणु में भी जाति को लेकर कोई आग्रह नहीं था।
पंचलाइट उनकी अद्भुत कहानी है। लाल पान की बेगम , रसप्रिया के अलावे संबदिया है। मुझे उनकी रसप्रिया और संबदिया कहानी बहुत प्रिय है। इन कहानियों में महाकाव्यात्मक आख्यान हैं। भारत-पाक का विभाजन और एक टूटते हुए सामंती समाज की पीड़ाएं उसमें अभिव्यक्त हुई हैं। वे समाज को बहुत गहराई से देख पाते थे और उसे कहानियों में लाते थे। कल्पना से भी ज्यादा उनमें जिज्ञासा थी।
विश्व साहित्य में रेणु जी की रूचि कैसी थी, किन कृतियों का वे जिक्र करते थे बातचीत ?
दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य से अच्छी तरह परिचित थे वे। मिखाइल शोलोखोव के बारे में उन्होंने ही मुझे बताया था। वे बोले कि उनको पढ़िए। उनको पढ़कर आप लड़ाई के बारे में तो जानेंगे ही आप घोड़ों के बारे में भी जानेंगे और अनोखी दुर्लभ स्त्रियों के बारे में भी। बोले कि उसे पढ़ते हुए आप दौड़ते घोड़ों के पसीने की गंध तक महसूस करेंगे।
रेणु जी की घ्राण शक्ति भी अद्भुत थी जिसके प्रयोग से वे अपनी भाषा को ताकत देते थे।
रेणु ने भिखारी ठाकुर से सीखा। प्रेमचंद से भी सीखा। कर्पूरी जी से सीखा। डॉ. लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव से सीखा। उनकी पढ़ाई बीएचयू से हुई थी और वे केदारनाथ सिंह आदि से परिचित थे। आगे उन्हें पढ़ाई में मन नहीं लगा। अपना गांव घर ज्यादा याद आता था। तो उन्होंने पढ़ाई बीच में छोड दी और गांव लौट गये थे। उन्होंने नौकरी भी की थी इलाहाबाद रेडियो में, तब तक वे मशहूर हो चुके थे।