समकालीन जनमत
कविता

जमुना बीनी की कविताएँ आदिवासियत की उपेक्षा का प्रतिकार हैं

कविता कादंबरी


आदिवासी अस्मिता पर केंद्रित हिंदी कविताओं में कुछ सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं जिसमें प्रकृति के साथ साहचर्य का भाव, ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया पर सवाल, आदिवासी लोककथाओं, मिथकीय कथाओं का पुनर्पाठ, मुख्यधारा की परियोजनाओं के लूपहोल्स का विश्लेषण आदि शामिल हैं। आदिवासी कविताओं में उपर्युक्त प्रवृत्तियों का आना सहज है। पाठक को कविताओं की विचार और शैली में अंतर तभी पता चलेगा जब वह आदिवासी कविताओं में मौजूद ‘स्थानीयता’ के प्रभाव को रेखांकित कर पायेंगे। जमुना बीनी की कविताओं में यही ‘स्थानीयता’ उनकी विशेषता बन जाती है। यह ‘स्थानीयता’ पुरखे-पहाड़ों के रूप में भौगोलिक भी है और स्थानीय शब्दावली, लोकोक्ति, मिथकीय कथाओं के रूप में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक भी, और यही स्थानीयता जमुना बीनी की कविताओं के विचार और शिल्प दोनों को अत्यंत सहजता से गढ़ती है।
पहली कविता ‘परिकथा’ कविता में जमुना लिखती हैं

रोजगार का
सब्जबाग दिखा
ये दानव
इन परियों को
नकली स्वर्ण-पिंजरों में
करतें कैद

यह कविता ‘परी’ की पारंपरिक दृष्टि का निषेध करते हुए इसे आदिवासी लड़कियों की तस्करी से जोड़कर मुख्यधारा की पितृसत्तात्मक और आवारा पूँजी के व्यवहार को उद्घाटित करती है।साथ ही इसी सन्दर्भ में ‘बाकोक’ के मिथकीय चरित्र का पुनर्पाठ करती है।इस ‘परिकथा’ में लड़कियों के लिए राजकुमार तो कहीं नहीं है। यह एक ऐसी कथा है जिसकी कहानी लड़कियों को नींद में भेजने के लिए नहीं सुनाई जाती बल्कि ‘न्यीपाक’ (गैर- आदिवासी, दिकू) की कामुक और धनलोलुप नजरों से सचेत रहने के लिए सुनाई जाती है।

‘पहाड़’ ‘बचे रहने की उम्मीद’, ‘नाता मिट्टी का’, ‘नदी के दो पाट’ जैसी कविताएँ ‘पहाड़-जंगल’ के सांस्कृतिक महत्व की ओर इशारा करते हुए मुख्यधारा की नजर,उस नजर का प्रभाव एवं जंगल-पहाड़ के प्रति उनके उपभोक्तावादी नजरिये का प्रतिकार है। ‘बचे रहने की उम्मीद’ कविता में ही जमुना प्रकृति एवं मानवेतर जीव-जगत से आदिवासियों के अटूट सम्बन्ध से उपजी नैसर्गिक ज्ञान परम्परा को रेखांकित करती हैं।
तुम्हारे
आदिवासी-बोध ने बतलाया
तुम्हें पहाड़ों
और
जंगलों की ओर
भागना चाहिए

प्राकृतिक आपदाओं के समय पहाड़ हमेशा शरण देता रहा है, यह वही आदिवासी-बोध है जिसने अंडमान की सुनामी में जारवा आदिवासियों को समाप्त होने से बचाया। लेकिन अजीब बात है कि इन क्षेत्रों के निवासियों को अपने को सभ्य कहने वाले लोग ‘गिरिजन’ और ‘असभ्य’ कहकर मजाक उड़ाते रहे हैं।

‘नाता मिटटी का कविता’ में विकास की भव्य परियोजनाओं के पीछे के पलायन,विस्थापन एवं निष्कासन की त्रासदी का यथार्थ कुछ इस प्रकार खुलता है
और रिश्तों के
टूटन में
जो दर्द होता है
मिट्टी से
उखड़ने का
दर्द भी
बहुत तेज होता है

और अधिक परतों को खोलती हुई कविता आधुनिक समय में आदिवासियों के मिटटी से कटने और काट दिए जाने की प्रक्रिया को रेखांकित करती है।जिसके फलस्वरूप,विकास का जो तंत्र खड़ा हुआ है उसने शहरों को तो प्रकाश दिया और आदिवासियों के जीवन में ‘चिराग तले अंधेरा’ का मुहावरा चरितार्थ किया है।

‘देहात की याद’ एक मनोवैज्ञानिक कविता है जिसे जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए, विशेषकर बाल मनोविज्ञान के संबंध में। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर होकर शिक्षा ग्रहण करना किसी भी बच्चे के लिए त्रासदपूर्ण है। और तब की जब इसके मूल में व्यक्तिगत चयन नहीं बल्कि पूंजी का प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव हो।

प्रकृति की गोद में पलने वाले बच्चों को अचानक से शहर के दमघोंटू माहौल में रखने की मजबूरी केवल इसलिए बनी,क्योंकि जंगलों से उन्हें काटकर उनसे जीवनयापन के ‘आर्गेनिक’ अवसर छीन लिए गये और पूंजीवाद और मुख्यधारा ने साठ-गांठ कर उनके ऊपर रोज़गार की तलाश कर बचे रहने का दवाब बनाया। यह शिक्षा की भयावहता और विफलता है।

मशहूर मनोवैज्ञानिक एरिक एरिक्सन ने ‘ओग्लाला’ आदिवासी जनों पर किये गये अपने शोध में स्पष्ट भी किया कि अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट जाना किस प्रकार ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ लेकर आता है।जमुना बीनी की यह कविता उसी भयावहता का इशारा है।
जमुना बीनी की ‘तथाकथित’ कविता मुख्यधारा की स्वीकार्यता की सीमाओं और आदिवासियत को उपेक्षित रखने पर उचित सवाल उठाती है। आदिवासी ‘मातमुर जामोह’ जैसे नायक अभी तक गुमनाम हैं। यहाँ यह कविता ज्ञान सृजन में मुख्यधारा के नजरिये के वर्चस्व को इंगित करती है और ‘सबाल्टर्न इतिहास लेखन की पद्धति’ से जुड़ती है।जमुना लिखती हैं-
कितना अंतर है
तुम्हारी
और
हमारी लेखनी में
तुम्हारा लेखन
सहानुभूति से भरा
और
हमारा लेखन
आत्मसम्मान से मदमाता

‘लौटने के इंतज़ार में’ कविता आदिवासी युवाओं पर पड़ने वाली दोहरी विभिषक मार का दुखांत है। आदिवासी आर्मी और अलगाव वादी समूहों दोनों से उत्पीड़ित है। इसके कारण कई वांचो आदिवासी अपने घर से दूर हैं, परिवार से दूर हैं। शांति बहाली का इंतजार कर रहे हैं।
वह सकपकाकर बोली-
‘नहीं, नहीं!
उसे पूछो
जंगल-आदमी
या
भारतीय आर्मी
दोनों में से
किसकी गोली का
स्वाद पसंद है ?

दूसरी ओर कॉर्पोरेट से संघर्ष करते-करते किसान आदिवासी कब ‘गुंडागर्दी’ के पर्याय में बदल दिए जा रहे हैं उन्हें खुद पता नहीं चल रहा है।यहाँ ‘गुंडागर्दी’ का ‘पर्याय बन जाना’ और ‘पर्याय में बदल दिया जाना’ के अंतर को रेखांकित करना ज़रूरी है। ‘एक रोचक कथा’ कविता इन दोनों ही पक्षों से विचार करने के सूत्र देती है।

‘वे अलसाये दिन’ कविता, कथा-कहन की पारंपरिक शैली है उसका आधुनिक पाठ सभ्यता में हुए बदलाव और विकृतियों को चित्रित करता है।
इस प्रकार आदिवासी जीवन में स्थानीयता, स्मृतियों, लोक और मिथक कथाओं का जो प्रभाव है उसका रचनात्मक प्रयोग करते हुए जमुना बीनी बड़ी ही सहज और सौम्य भाषा में कविता में संघर्ष और विद्रोह के स्वर बुनती हैं जो उनके अरुणाचली ‘पहाड़पन’ और उनकी ‘आदिवासियत’ से ही संभव है।

 

जमुना बीनी की कविताएँ

1. परीकथा

मटमैली शाम की
धुँधुआती रोशनी में
एक और बुरी खबर मिली
वह नहीं लौटी
लौटी उसकी खामोशी
उसकी सिसकियाँ ।

कुछ दिन पहले
सरकार आयोजित
ताम-झाम
टिम-टाम भरे
जॉब मेला में
कई घरों की
बेटियाँ चुनी गईं ।

बेहतर कल की
कल्पना के
परों पर सवार
ये परियाँ
दूर अजनबी
जगहों को
उड़ गईं ।

पर जैसे
होता है न
परियों की
कथा में ‘ दानव’
सही सुना दानव !
इस पात्र के
बिना तो
हर परीकथा
होती अधूरी ।

देश की
तथाकथित मुख्यधारा में
तैरने वाला
भीमकाय
नुकीले पंजों वाला दानव ।

यह मुख्यधारा
ऐसी बड़ी-सी
धारा
जहाँ तैरते
अनगिनत दानव
चारे की
तलाश में ।

रोजगार का
सब्जबाग दिखा
ये दानव
इन परियों को
नकली स्वर्ण-पिंजरों में
करतें कैद ।

और शुरू
कैदी परियों की
अनवरत यातना
शोषण
पर
शोषण
आर्थिक
मानसिक
दैहिक ।

शोषण के
इतने चेहरें
देख चुकीं परियाँ
बाट जोहती
किसी राजकुमार का ।

इस परीकथा में
राजकुमार नदारद
यह वर्तमान की
परिकथा है
जहाँ कोई
राजकुमार नहीं होता ।

लुटी-पिटी
एक परी
जब घर लौटी
अपने अनुभव के टुकड़े
परी बहन से बाँटी
तब बहन
तपाक से बोली-
“ ये दानव
हमारी लोककथाओं के
‘बाकोक’* सा है
जिनकी डरावनी किस्से
दादी और नानी
सुना-सुनाकर
हमें भेजा
करती थी
निंदिया रानी
के पास ।“

 

बाकोक – ञीशी लोककथाओं में वर्णित जलाशयों में निवास करने वाला दानव

 

2. नाजुक तार

तनकर खड़े
चट्टानों में

हवा में झूलती
नन्हीं झाड़ियों में

जंगल से आती
अनजान आवाजों में

चंचल नदी की
फेनिल झागों में

बुझा-बुझा सा
स्याह बादलों में

नीले आकाश के
उभरते तारों में

दिन भर धधकता
सूरज की किरणों में

बरसा में गिली
मिट्टी की
सोंधी खुश्बूओं में

धूल-धक्कड़ भरी
गर्मी की शामों में

जाड़े के
कुहासे भरे दिनों में

रात की
ओढ़ी गई
चुप्पियों में

नामालूम-सा
छितराता सुबह के
उजालों में

काँईयों से ढका
मझधार के
पत्थरों में

फूलों के घुलते
चटख रंगों में

बाँस के
झुरमुट में
गाती चिड़िया की
मीठे सुरों में

जाने कौन-सा
नाजुक तार
गूँथा है
मेरे और
प्रकृति के
इन बहुतेरे चित्रों में ।

 

3. बचे रहने की उम्मीद

जब नदी
तुम्हें लीलने के लिए
आगे बढ़ी
तुम ऊँचे पहाड़ों में
भाग गए
घने जंगलों के
लम्बे
और
चौड़े पेड़ों पर
चढ़ गए
स्वंय को बचाने
और
अपनी नस्ल को
विलुप्ति से ।

तुम्हारे
आदिवासी-बोध ने बतलाया
तुम्हें पहाड़ों
और
जंगलों की ओर
भागना चाहिए
वहाँ ऊपर
दुश्मनों से
महफूज रहते आए
अनगिनत काल से

तुम भागते जाते हो
जब तक
तुम्हारी साँसें नहीं रुकती
पैर जवाब नहीं देता
फिर
तुम आश्वस्त होते हो
कि
तुम्हारे लोग
तुम्हारे बाद भी जीयेंगे
तुमसे अधिक जीयेंगे
संसार को बतलाने
तुम्हारी अद्‌भुत-अनोखी संस्कृति
आदिवासी संस्कृति के बारे में ।

 

4. तथाकथित

भगतसिंह , सुखदेव को
हम जानते हैं
पर क्या
मातमुर जामोह1
मोजी रीबा2 का
नाम सुना
तुमने कभी ?

हमें पता है
गाय तुम्हारे लिए
महज एक
पशु नहीं
एक जीवित
श्रद्धापूरित सम्पत्ति है
लेकिन मिथुन3
किस पशु का
नाम है
यह तुम
नहीं जानते ।

हमने अपना लिया
तुम्हारा पहनावा
खान-पान
बोली
सवाल यह है
तुमने कितना
हमें अपनाया ?

हमारे ऊपर
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा तुमने ।

कितना अंतर है
तुम्हारी
और
हमारी लेखनी में
तुम्हारा लेखन
सहानुभूति से भरा
और
हमारा लेखन
आत्मसम्मान से मदमाता ।

 

मातमुर जामोह – अरुणाचली स्वतन्त्रता सेनानी
मोजी रीबा – अरुणाचली स्वतन्त्रता सेनानी
मिथुन – भैंसानुमा दीखने वाला पशु जिसका अरुणाचली समाज में सांस्कृतिक-धार्मिक एवं आर्थिक महत्व है

 

5. नाता मिट्टी का

नाते-रिश्तों के
जहान में
एक नाता
और भी है
नाता
मिट्टी का ।

और रिश्तों के
टूटन में
जो दर्द होता है
मिट्टी से
उखड़ने का
दर्द भी
बहुत तेज होता है ।

सालों पहले
कुछ अफसर
बगल में
फाइल दबाये
गाँव आये थें ।

बाद में
गाँवबूढ़ा1 से
जानकारी मिली
गाँव को उजाड़कर
बड़ा-सा
बाँध बनेगा यहाँ ।
खूब बिजली
पैदा होगी
बिजली से
उजियारा फैलेगी
और
एवज में
गाँव वालों को
मोटा मुआवजा
और
पक्की नौकरी मिलेगी ।

मुआवजे की
मोटी राशि
कब खा-पी
हलक से उतर गई
और
चपरासी की
नौकरी से
कहाँ पूरे परिवार का
पेट भरता ।

सालों बाद
खुद को कोस रहा
थोड़ा सचेत
हो जाता तो
यूँ झाँसे में
न आता ।
सजा मिल रही है
और क्या !
आखिर मिट्टी से
दगा जो की ।

हाँ !!
क्या थी
वह मुहावरा
‘चिराग तले अंधेरा’
बिल्कुल सच !
बिजली से
उजियारा तो खूब फैली
पर
उस उजियारे के
पीछे छिपा
अंधकार का
बोध अब हुआ ।

 

गाँवबूढ़ा – गाँव का प्रधान या मुखिया जो गाँव की न्याय-व्यवस्था और विकास संबंधी कार्यों को देखता है ।

 

6. वे अलसाये दिन

आज भी
याद है मुझे
छुटपन के
वे अलसाये दिन ।
झूमखेती1 के
बना पुरुप2 में
मुकु-मबलअ3 खाना
अपने दो
नन्हें पाँव को
नीचे झुलाते हुए
और
वह दूर नीचे
मेरी आप्पा4
मकई, मड़ुआ
और धान का
बचाव करती
बकरियों को
दूर खदेड़ रही ।

कभी मन करता
तो उनके
भागम-भाग में
संग हो लेती
और कभी
औंधे मुँह पड़ी
पुरुप में
सोती रहती ।

कितनी खीझती थी
मेरी आप्पा
इस आलसीपन पर
मैं ठहरी मनमौजी
एक कान से सुनती
और
दूसरे से निकालती ।

धान की
हरी-हरी
बालियों बीच
रंग-बिरंगी तितलियाँ
आँख मिचौली खेलतीं
इन तितलियों को निहार
मेरा अल्हड़
मन भी
कोई रंगीन सपने बुनता ।

लेकिन
तितलियों की रंगीनियाँ
आप्पा कहाँ
देख पाती
खेत में
जानवरों के
ऊधम में
वह उलझी रहती ।

उधर ऊपर
खुले आकाश में
जब आग का
बड़ा सा गोला
नीचे आता
और
मद्धम-मद्धम
बूझ जाता ।
मेरी कोमल उँगलियाँ
आप्पा का खुरदरा
मिट्टी से सना
हाथ को थाम
पहाड़ के
फिसलन भरे
रास्तों में
उनके अभ्यस्त
पैरों के साथ
ताल मिला कर
नीचे घर की ओर
उतरती जाती ।

घर के
बाग5 से ही
दादी का तम्बाकू महकता
भीतर अंगीठियों में
रोशनी
जल-जलकर नाचती
यह नाम्दा6 है हमारा
यानि गाँव का
सबसे बड़ा घर ।

बाँस के बने
इस घर में
चौदह अंगीठियाँ हैं
जब ये सारी
एक साथ
जल उठतीं
तब रोशनियाँ
घर के छिद्रों से
तैरकर बाहर निकलतीं
और बाहर
खूब उजाला फैलता ।

इन अंगीठियों के
अगल-बगल
पूरा परिवार बैठकर
दिन भर की
किस्से-कहानियाँ
एक दूसरे को
सुनाता
और
जल्द ही
खा पीकर
सो जाते सब
कल फिर
मुँह अंधेरे सबको
खेतों के लिए
निकलना है ।

आज
ये अंगीठियाँ
टूट चुकी हैं
सारा परिवार
अब साथ
नहीं रहता ।
पढ़ाई और नौकरी की
मजबूरी में
अलग-अलग
शहरों का
रुख कर लिया ।

अब हम नहीं रहते
बाँस के घरों में
अब नहीं बहतीं
रोशनियाँ
उन छिद्रों से
अब हमारा घर
बनता है कंक्रीट से
अब हम नहीं
सोते बहुत जल्द
रात भर
टी.वी. , मोबाइल फोन
या लेपटॉप में
डूबे रहतें ।

हमें जोड़े रखता है
एस एम एस , फेसबुक
और
व्हाट्‌स एप्प अब ।

 

झूमखेती- खेती के सबसे पुराने तरीकों में से एक । इसमें जंगलों को काटकर जलाया जाता है और भूमि साफ की जाती है । फिर इस भूमि पर खेती की जाती है ।
पुरुप- खेत में बना विश्रामगृह
मुकु-मबलअ- खीरा , आप्पा- माँ
बाग- आगे वाला बरामदा या आँगन
नाम्दा- बाँस का बना लम्बा न्यीशी घर

 

7. पहाड़ और आदिम निवासी

हमारे पूर्वज
तनिक भी
खतरा महसूसते
दुर्गम पहाड़ों पर
चले जाते ।

पहाड़ों की
यह दुर्गमता
उनका रक्षा-कवच होता
पहाड़ों के
बीहड़ जंगल
उन्हें सुरक्षा
और
आश्वस्ति देता ।

पहाड़ों की गगनचुम्बी
ऊँचाई पर
बादल रुई के फाहों सा
तैरता रहता
खुरदरे हाथों से
वह उनके
नरमाहट को सहलाते ।

पहाड़ों की ओट में
डूबता-उतराता सूरज
आँख-मिचौली खेलता

यह पहाड़
शरण है
हमारे पूर्वज का
अलग कैसे करोगे
पहाड़
और
उसके आदिम निवासी को !

 

8. देहात की याद

यामा
शहर आई
चाचा-चाची के
साथ रहने ।

यहाँ उसे
कुछ अच्छा
नहीं लगता
उसकी उदास आँखें
मीलों दूर
कोई पेड़ खोजती
इमारतों की
लम्बी-लम्बी
कतारों में
पेड़
कहीं नहीं दिखाई देता ।

जब मन
बहुत भारी होता उसका
ऊपर
आकाश को ताकती
आकाश तो
नीला होता है
मगर
यहाँ तो आकाश
मटमैला है
कितना भद्दा रंग !

चाची उसकी
बहुत प्यारी है
उससे कहती-
‘ यूँ अकेली
और
गुमसुम
मत रहा करो
बच्चों के साथ
घुलो‌-मिलो
हेलमेल रखो
मन बहलेगा ’ ।

पर बात क्या करती
जब वे दोनों
टी.वी. पर
पुतला देख रहे थें
क्या कहते है उसे
कार्टून !!
हाँ ! कार्टून
सकुचाती हुई
पूछा उसने-
‘ क्या मैं भी साथ देखूँ ? ’
वे बोले-
‘ तुम्हारी देहाती बोली
हमें समझ नहीं आतीं
अंग्रेजी तो
आयेगी नहीं तुझे
हिंदी में बात करो ’
तब से तीनों में
बातचीत बंद ।

क्या उमस था
उस दिन
थोड़ी झिझक के बाद
पूछ ही लिया
चाची से‌-
‘ यहाँ नदी कहाँ है ?
ठंडे पानी में
डुबकी लगाने की
चाह हो रही है ’ ।

चाची हँसी
जोर से
एक खनकदार हँसी
‘ यहाँ तो नदियाँ
डम्पिंग ग्राउंड बन चुकी है
इधर नदियों में
कूड़ा-कचरा
बहाया जाता है
खुजली हो जायेगी
नहाओगी तो ’ ।

बाजार में
कितनी भीड़ थी
वह चली कहाँ ‍!
चाची का हाथ थाम
भीड़ के साथ
बस बही जा रही थी ।
घर लौटी
तो नथुनों में
कुछ कुलबुलाहट हुआ
छोटी उँगली डाल
साफ किया
अरे ! उँगली एकदम काली हो गई
यामा बहुत डरी
चाची ने ढाढ़स दी-
‘ हवा दूषित है
अगली बार
मास्क जरुर
लगाकर निकलना ’ ।

हरा पेड़ नहीं
साफ पानी नहीं
स्वच्छ हवा नहीं
अपनी बोली नहीं
आह!
रह-रह कर उसे
देहात याद आती ।

वह सहेलियों संग
छायादार पेड़ के नीचे
लेटकर सीने में
खूब साँस भरकर
नीले आकाश की ओर फूँकना
पर दूर
ऊपर
आकाश में छिटका
इक्का-दुक्का
सफेद बादल
उन साँसों से
नहीं छितराता ।

दोपहरी की
चिलचिलाती धूप में
बेफिक्री से तैराकी करना
यापी की माँ
चिल्लाकर डाँटती-
‘ बावली लड़कियों
तेज धूप में
मत नहा
रंगत काला पड़ जायेगा ’
यापी और वह हँसती
बंदरियों की तरह
‘ खीं खीं खीं ’ !!

याद है उसे
पिताजी की
बूढ़ी-बेबस
आँखों का वह कहना-
‘ चाचा-चाची के साथ रहकर
मन लगाकर पढ़ना
कुछ बनना
और
अपने भाई-बहनों का भी
कुछ करना ’
उसके फूल-सा
नाजुक कंधों पर
यह बोझ नहीं लादा होता
तो यामा
कब की
देहात लौट चुकी होती

 

9. लौटने के इंतजार में

मैं वाङपान की
बूढ़ी माँ से मिली
हिम्मत बटोर कर
पूछ ही लिया-
‘ वाङपान की
याद नहीं आती ?’

नम आँखें
मुझे देर तक
ताकती रही
एक अर्थपूर्ण
गहरी साँस भरकर
फिर बोली-
‘ अरसा हो गया
उसे देखे
कलेजा पर
पत्थर रखकर
यहाँ से भगाया था
जंगल-आदमी1 उसे
जबरन उठाकर
ले जाते
अपने दल में
शामिल करने ।

हो न हो
मुण्ड-आखेटकों की
वीर भूमि को
जरूर किसी का
अभिशाप लगा है ।

बरसों से
शांति
और
प्रगति
इस भूमि से
रूठी हुई है ।‘

मैंने उनके
झुर्रियों से बनी
नक्काशीदार हाथ को
थाम उन्हें बतलाया-
‘ वाङपान घर
लौटना चाहता है’
वह सकपकाकर बोली-
‘ नहीं, नहीं !
उसे पूछो
जंगल-आदमी
या
भारतीय आर्मी
दोनों में से
किसकी गोली का
स्वाद पसंद है ?

बेटा मेरा
दूर सही
पर है जिंदा
माँ के
मन को
इतनी तसल्ली
काफी है ।

इधर मुक्ति कहाँ
जंगल-आदमी का शिकंजा
और
भारतीय आर्मी का चँगुल
इनके बीच
पीसने को अभिशप्त
हमारा युवा’

वापसी में
बार बार
मैं
उन तमाम
नोक्टे-वांचो2
युवाओं के बारे
सोचे जा रही थी
जिनको इंतजार है
अमन बहाली का
घर लौटने का ।

 

जंगल आदमी – एन एस सी एन उग्रवादी
नोक्टे-वांचो – नोक्टे और वांचो आदिवासी

 

10. एक रोचक कथा

कहीं किसी समय
किसानों का
एक गाँव
हुआ करता था ।

गाँव में
बहुत खुशहाली थी
खूब खेती
होती थी
धान रोपी
जाती थी
खेत लहलहाते थे
किसानों के
होठों पर
मधुर गीत
तैरते थे
फसलें कटती थी
नये चावल के
शान में
दावत हुआ
करते थे ।

लेकिन
बहुत जल्द
इस गाँव को
ग्रहण लग गया
एक कॉर्पोरेट कंपनी
गाँव में आई ।

जमीन अधिग्रहण के बदले
मुआवजा का
लालच दिखायी
और
किसानों ने
पहली दफा
मुआवजे के
पैसों का
स्वाद चखा
उनके जीभ को
यह जायका
बहुत भाया
फिर
होना क्या था ‍!!
किसानों की
किसानी छुट गई ।

ये किसान
गाहे-बगाहे
कंपनी के दफ्तर
पहुँच जाते
पैसों की
माँग करतें
और
माँगें जब
पूरी न होतीं
तो दफ्तर में
तोड़-फोड़ करतें
कंपनी वालों के साथ
हाथापाई पर
उतर आतें ।

कितनी रोचक
और
मनोरंजक है
किसानी से
गुंडागर्दी की
रूपांतरण की यह कथा !!

 

11. नदी के दो पाट

तुम्हारी अधिकांश बातें
मुझे समझ
नहीं आतीं
बिल्कुल दूसरी बोली
बोलने लगे हो तुम
तुम्हारा पहनावा विचित्र
तुम्हारी आदतें अजीब
तुम वह हो
पर
वह नहीं
जिसे मैं जानता था ।

आज
सालों बाद
हम मिलें
तुम तो
जैसे कोई
खोजी पर्यटक
साहस
और
रोमांच के
खोज में
मेरी दुनिया
देखने आये ।

अचरज का
विषय हूँ
मैं तुम्हारे लिए
हाँ !!
आदिम संस्कृति के साथ
जीता एक आदिवासी
अजायबघर का
आदर्श नमूना ।

सुविधा
भोगने की ललक
ले गया दूर
तुम्हें हमारे गाँव से
उन लोगों से दूर
जो तुम्हें
जानता था
समझता था
अपना मानता था ।

तुमने अपना लिया
न्यीपाक1 के
तौर-तरीके
तुम्हारे
और
मेरे बीच
दूरी इतनी
बढ़ गई
जैसे
नदी के दो पाट ।

 

न्यीपाक – गैर आदिवासी या मैदानी वासी

 

 

(कवयित्री डॉ. जमुना बीनी, जन्म : 20 अक्टूबर 1984

शिक्षा : एम. ए. हिंदी ( स्वर्ण पदक ), पी. एच. डी. ( राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश ) ।

प्रकाशित रचनाएँ : दो रंगपुरुष-मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड ( आलोचना ); जब आदिवासी गाता है ( कविता संग्रह ); उईमोक ( न्यीशी लोककथा संग्रह ) ।

कविताओं एवं कहानियों का संताली, असमिया, मलयालम, अंग्रेजी , तुर्की आदि भाषाओं में अनूदित ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एम. ए. पाठ्यक्रम में कविताएं शामिल.

वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश स्थित राजीव गांधी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्यरत ।

संपर्क : हिंदी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश, पिन 791112
ईमेल : jamunabini@gmail.com

 

टिप्पणीकार कविता कादंबरी, कवयित्री और सहायक प्राध्यापिका, शिक्षा पीठ, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार। जन्मतिथि: 04/02/1984
निवास: फ्लैट नंबर 101, ब्लॉक-ई, प्यारा घराना कॉम्प्लेक्स, चंदौती मोड़,गया, बिहार -823001
मोबाइल नंबर:7258810514

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और मध्यकालीन इतिहास विषय में परास्नातक।काशी हिंदू विश्वविद्यालय से शिक्षाशास्त्र विषय में शोध करने के बाद से दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षापीठ में शिक्षणरत एवं शिक्षा के सांस्कृतिक वर्चस्ववादी स्वरूप पर सवाल खड़ा करते हुए एक जनपक्षधर शिक्षा व्यवस्था के लिए प्रयासरत।

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