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हिंदी सिनेमा में दिखती ‘आदर्श’ दुनिया पर हिटलर के प्रभाव की शिनाख्त करती किताब

शक्ति


‘इतिहास, अतीत और वर्त्तमान के बीच कभी न खत्म होने वाला संवाद है’: ई. एच. कार

यूँ तो अडोल्फ़ हिटलर और फासीवाद के बारे में हमेशा से ही इतिहास और राजनीत विज्ञान में पढ़ाया जाता रहा है पर साल 2014 में नरेन्द्र मोदी के चेहरे के साथ भाजपा-आरएसएस की पूर्ण बहुमत की सरकार और 2017 में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से पूरे देश में एक बार फिर नए सिरे से फासीवाद, उसके सिद्धांत, उसके उभार, उससे लोहा लेने के तरीकों पर एक गहन बौद्धिक बहस शुरू हुई, जो 2016 में करात-येचुरी बहस से होते हुए आज भी जारी है. ऐसे मे राजनीतिक सिद्धांतकार और सिनेमा के जानकार प्रो. फरीद काज़मी की आकर प्रकाशन से इसी साल 2021 में आई इस नयी किताब ‘लग जा गले: इंडियन कन्वेंशनल सिनेमाज ट्रिस्ट विद हिटलर’ का भी स्वागत किया जाना चाहिये.
“फ़िल्में वास्तविकता को प्रतिबिंबित करने के अलावा वास्तविकता को गढ़ती भीं हैं। यदि, जैसा कि बेनेडिक्ट एंडरसन ने कहा है, कि एक राष्ट्र एक ‘कल्पित समुदाय’ है, तो फिल्में एक ‘वैकल्पिक वास्तविकता’ की कल्पना करती हैं, जो किसी सपनों की दुनिया से संबंधित नहीं है बल्कि जमीनी और मूर्त है। इस वैकल्पिक वास्तविकता को ‘आदर्श’ दुनिया के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसे मौजूदा रोगग्रस्त और बेहद समस्याग्रस्त दुनिया का स्थान लेना चाहिए।” (पृ. 173).
लेखक आगे लिखता है ‘यह वैकल्पिक तस्वीर उन बातों का प्रतिबिंब है जिसे हिटलर ने मीन काम्फ में स्पष्ट रूप से चित्रित किया था’ (पृ. 173)
भारतीय सिनेमा द्वारा रचित इसी ‘वैकल्पिक वास्तविकता’ को काज़मी ने वेल्तान्स्चुंग ऑफ़ सिनेमा (WOC) यानि हिंदी सिनेमा की विश्व-दृष्टि कहा है. किताब के कॉन्टेक्स्ट में ही लेखक साफ़ करता है कि ‘इस पुस्तक का स्पष्ट उद्देश्य, सिनेमा की विश्व-दृष्टि (WOC) और हिटलर की विश्व-दृष्टि (WOH) के बीच ओवरलैपिंग को प्रदर्शित करना है’(पृ.36).
लेखक ने हिटलर की आत्मकथा मीन कम्फ, उसके कार्यकाल पर लिखी महत्वपूर्ण किताबों (लौरांस रईस.2014, एलन बुलक. 1962, हन्ना अरेंद्त. 2006 आदि), उसके भाषणों, उसके सहयोगियों (जोसफ गोएब्बेल्स, अडोल्फ़ एइच्मन्न, हेंरीच हिम्म्लेर, रुडोल्फ हेस, हरमन गोरिंग ) के दस्तावेजों, मौजूद रिपोर्टों, शोधपत्रों और उस वक्त में घटित घटनों और प्रसंगों को सन्दर्भ बनाकर हिटलर की विश्व-दृष्टि को हमारे सामने रखा है.
लेखक ने अपने गहन शोध से ये स्थापित करने की कोशिश की है कि हिटलर की विश्व-दृष्टि (WOH) और हिंदी सिनेमा की विश्व-दृष्टि (WOC) के मध्य दस समानताएं हैं जो कि निम्लिखित हैं…
1. दैवीय मिशन के लिए मसीहे का निर्माण
2. दुश्मन के लिए उपयोग में लायी जाने वाली भाषा
3. रूप बदलने की कला
4. ‘एक-दुश्मन’ पर ध्यान का केन्द्रीकरण
5. प्रोपोगंडा का एक सद्गुर्ण की तरह इस्तेमाल
6. असमानता की स्थिति को कायम रखना
7. मस्तिष्क पर नियंत्रण को महत्व देना
8. लोकतंत्र को ही बाधा मानना
9. सेंसरशिप का हथियार की तरह इस्तेमाल
10. अंतरराष्ट्रीय कानूनों ओर संधियों को ही भार मानना ( पृ. 20-28)

एक दुश्मन पर धयान का केन्द्रीकरण: 
उपरोक्त बात को बेहतर समझने के लिये चौथे बिंदु (एक दुश्मन पर धयान का केन्द्रीकरण) को ही लें तो लेखक तथ्यों के साथ ये स्पष्ट करता है कि जैसे हिटलर की विश्व-दृष्टि (WOH) में वो एक दुश्मन ‘यहूदी’ हैं वैसे ही भारतीय सिनेमा की विश्व-दृष्टि (WOC) में वो दुश्मन ‘मुसलमान’ हैं. लेखक आंकड़े देता है-
1. विदेशी भूमि में एक आतंकवादी के रूप में मुसलमान. (न्यू यॉर्क, कुर्बान, माई नेम इज खान, विश्वरूपम, नीरजा, बेबी, फ़ना, एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है, बाग़ी 3, खुदा हाफिज, वॉर, मिशन इस्तांबुल, कोम्मोंदो 3 आदि)

2. घर में आतंकवादी के रूप में मुसलमान. (ब्लैक फ्राइडे, अ वेडनेसडे, हॉलिडे: अ सोल्जर इस नेवर ऑफ ड्यूटी, फिजा, खाकी, आमिर, मुंबई मेरी जान, क़यामत आदि )

3. कश्मीर में एक आतंकवादी के रूप में मुसलमान. (रोजा, मिशन कश्मीर, हैदर, लम्हा, फ़ना, सिकंदर, आदि )

4. सीमा पार से मुसलमान (ग़दर, हीरो, तेरे हवाले वतन साथियों, वीर जारा, राज़ी, ओमेर्ता, परमाणु, उरी, आदि)

5. दहशत फैला रहे मुस्लिम गुंडे. (तेजाब, वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर 1 और 2, रईस, गुलाम-इ-मुस्तफा, तेजाब, अपहरण, अब तक चप्पन, अग्निपथ, हसीना पार्कर आदि)

6. खलनायक के रूप में मुस्लिम शासक/आक्रमणकारी. (बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, पानीपत, तानाजी, केसरी आदि.)

7. मानो पर्याप्त नहीं हुआ तो, खलनायक के रूप में मुसलमान कई अवतारों में प्रकट होता है। गुलफान हसन (सरफरोश), प्रोफेसर (कुर्बान), तकनीक की समझ रखने वाला युवा लड़का (हॉलिडे), पुलिस अधिकारी (अब तक छप्पन), युवा मासूम फुटबॉलर (सिकंदर), मिलनसार, दयालु, पड़ोसी गाइड (फ़ना) ….. हमारे पास पूरा स्पेक्ट्रम है. (प्र. 80-81)

लोकतंत्र को ही बाधा मानना: 
अपने आठवे बिंदु (लोकतंत्र को ही बाधा मानना) पर लिखते हुए लेखक लौरांस रीस की किताब के हवाले से हिटलर के सत्ता में आने के ठीक बाद 17 फरवरी 1933 को उसके द्वारा जारी निर्देश को उद्धृत करता है-
‘पुलिस अधिकारी जो अपने कर्तव्य की पूर्ति में अपनी रिवॉल्वर से फायर करते हैं, उनके हथियारों के उपयोग के परिणामों की परवाह किए बिना मेरे द्वारा संरक्षित किया जाएगा. पुलिस पिस्टल से निकली गोली मेरी गोली है। अगर आप कहते हैं कि यह हत्या है तो मैं हत्यारा हूं’ (प्र .179)
लेखक द्वारा साथ में नत्थी किये कुछ फिल्मों के नायक पुलिसवालों के डायलाग भी देखिये.
‘ज़रा सा पुलिस अत्यचार चिल्लाओ, फ़ौरन सस्पेंड कर देते हैं’ अर्ध सत्य)
‘ह्यूमन राइट्स वाले पीछे पड़े हैं…मेरा हाथ खोलदें तो मैं सब क्राइम साफ़ कर दूँ’ ( आन: मेन एट वर्क)
एक मामूली चोर रफीक को मरने पर ‘रफीक को बिना सबूत कोर्ट के सामने खड़ा करते तो छूट जाता’ (अब तक छप्पन)
अन्य उद्धरण स्वरूप हॉलिडे फिल्म का नायक एक आर्मीमैन अपने दायरे से बहार जाकर आतंकवाद का केस डील करता है. इसी तरह अ वेडनसडे में एक सामान्य नागरिक ही सिस्टम से त्रस्त आकर खुद आतंकादियों की हत्या करता है.
आज ‘लोकतंत्र को बाधा मानना’ वाली बात एक आम समझ के रूप में भी जनता के दिलों में घर करती जा ही है. यह कितना खतरनाक है कि शर्जील इमाम य उमर खालिद को कुछ लोग अंडर ट्रायल रहते हुए ही आरोपी मान बैठे हैं और कुछ तथाकथिक राष्ट्रवादी उनके लिए तरह-तरह के फतवे जारी कर रहे हैं. ऐसे वक़्त में काज़मी की यह बात और भी प्रत्यक्ष होती नज़र आती है कि सिनेमा किस तरह से वैकल्पिक आदर्शवादी यथार्थ की इमेज पैदा करता है.

अंत करते हुए एक महत्वपूर्ण बात ये कि किसी को भी लग सकता है कि इन बातों के बारे में उसने बहुत से आर्टिकल्स पढ़े हैं. सोशल मीडिया पर बहुत से लोग इस तरह के प्रश्न वहां फिल्म देखने के बाद उठाते ही हैं. तो फिर ये किताब उनसे जुदा किस मायने में है? तो दरअसल ख़ास बात ये है कि, एक तो इसका क्षितिज विस्तृत है जो 1947 के बाद से आज तक के भारत की एक बिग पिक्चर हमारे सामने रखती है और दूसरा लेखक ने किताब में अकेले हिटलर की आत्मकथा मीन कम्फ से 200 से 250 उद्धरण पेश किये हैं जो वाकई काफी रिगरस अकादमिक काम है.
मैं बगैर किसी अन्य स्पोइलर के आपसे कहूँगा की ये किताब उन सभी लोगों के लिए उपयोगी होगी जो राजनितिक सिद्धांत, भारतीय सिनेमा, इतिहास, अंतरराष्ट्रीय संबंध, मानव अधिकार आदि विषयों में रुचि रखते हैं.

(शक्ति हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में शोध कर रहे हैं.)

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