जयप्रकाश नारायण
उदारीकरण का विश्व कृषि ढांचे पर प्रभाव
15 अगस्त को संयुक्त किसान मोर्चा के आवाहन पर भारत के किसान और किसान संगठन तिरंगा यात्रा के आयोजन में संलग्न थे। उनकी मांग थी, तीन कृषि कानूनों को रद्द करो और कारपोरेट भारतीय कृषि छोड़ो।
इस आवाहन का असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा गया। दुनिया के अनेक देशों से भारतीय किसानों के आंदोलन और उनकी मांगों के समर्थन में आवाज उठी। अमेरिका सहित कई देशों में भारतीय किसानों की मांगों के समर्थन में प्रदर्शन-विरोध आयोजित हुए।
ऐसी भी खबरें आ रही हैं, कि लाखों किसानों ने इस बात का आक्रोश व्यक्त किया कि अगर यह कृषि कानून भारत में लागू हो गया तो भारतीय किसानों की हालत भी अमेरिकी या ब्राजीलियन, मैक्सिकन और लैटिन अमेरिकन देशों के किसानों की हो जाएगी।
विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिक भी इस आंदोलन के साथ खड़े हो गए ।
सवाल यह है, कि 1990 के बाद जो विश्व आर्थिक व्यवस्था बनी उससे विश्व कृषि ढांचे और किसानों पर क्या कोई प्रभाव पड़ा। अगर इसका उत्तर ‘हां’ में है, तो हमारे लिए उस वैश्विक परिघटना का अध्ययन अवश्य लाभदायक होगा।
संयुक्त राज्य अमेरिका में जो इस अर्थव्यवस्था का विश्व नेता है, वहां भूमि का संकेंद्रण बहुत ही तेज गति से हुआ। लाखों की तादात में किसान अपनी भूमि और कृषि से बाहर कर दिए गए।
वहां बिल गेट्स जैसे आधुनिक महाराजाओं के यहां किसान मजदूर हो जाने के लिए बाध्य कर दिए गए। सिर्फ बिल गेट्स और मिलिंडा गेट्स के पास अमेरिका के डेढ़ दर्जन से ज्यादा राज्यों की लाखों हेक्टेयर जमीन आ गई।
जहां वह अपने व्यापारिक हितों के अनुसार और विश्व बाजार की जरूरतों को देखते हुए उत्पादन कराते हैं।
लैटिन अमेरिका लंबे समय से अमेरिका के नेतृत्व में विश्व साम्राज्यवादी आर्थिक व्यवस्था का अंग बना हुआ है। लैटिन अमेरिका के किसानों और वहां के कृषक समाज को कारपोरेट पूंजी के हमले का क्रूरता पूर्वक शिकार होना पड़ रहा है।
प्राकृतिक संसाधनों की लूट और उससे मची तबाही की पीड़ा की अनुभूति बहुत गहरी है। लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों में पर्यावरण और इकोसिस्टम को भारी क्षति पहुंची है।
वहां के जंगल, नदियां, पहाड़ और भूमि की उर्वरा शक्ति और प्राकृतिक स्वरूप को कारपोरेट हवस की लूट ने बर्बाद कर दिया है।
बेतहाशा कीटनाशकों, रासायनिक खादों और खर-पतवार नाशक जहरीले रसायनों के छिड़काव के दुष्प्रभाव के चलते मानव स्वास्थ्य और कृषि उत्पादन को भारी क्षति पहुंची है।
कृषि बाजार कारपोरेट और फार्मा कंपनियों के नियंत्रण में आ जाने से कठिन आर्थिक मार झेल रहे हैं।
जिससे करोड़ों किसानों का जीवन संकटग्रस्त हो गया है। किसान कारपोरेट मालिकों के दया पर आश्रित होने के लिए मजबूर कर दिए गए हैं।
आज लैटिन अमेरिका में साम्राज्यवादी लूट विरोधी भावना बहुत ही तीव्र है। जब उदारीकरण की परियोजना दुनिया में लायी जा रही थी तो राष्ट्र संघ के द्वारा आयोजित एक सेमिनार में शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्रियों ने एक पेपर पढ़ा था।
उस पेपर में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए थे। दुनिया में पूंजी को आगे विकास की तीव्रता को बनाए रखना है, तो एक वैश्विक आर्थिक ढांचा बनाना होगा।
विश्व को एक आर्थिक ढांचे में संगठित करना अर्थात विश्व बाजार की व्यवस्था करना होगा। राष्ट्र राज्यों द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय सुरक्षा के आर्थिक नियमों और व्यवस्थाओं को धीरे-धीरे समाप्त कर पूंजी के निर्बाध विचरण के लिए राह साफ करनी होगी।
जिसके लिए एक नियंत्रित यानी सीमित लोकतांत्रिक प्रणाली को आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। विश्व बाजार की व्यवस्था के लिए हमें लोकतंत्र से कुछ हद तक समझौता करना पड़ सकता है।
साफ बात है, कि लोकतांत्रिक ढांचे को कुछ समय के लिए एकाधिकारवादी सत्ता के अधीन लाना होगा। क्योंकि लोकतांत्रिक संस्थाएं और नागरिक की लोकतांत्रिक चेतना पूंजी के निर्बाध प्रवाह और विचरण में बाधा पहुंचाते हैं।
अमेरिका के नेतृत्व में विकसित राष्ट्रों ने अपने इस उद्देश्य के लिए विश्व व्यापार संगठन, डब्ल्यूटीओ को आगे कर दिया।
विश्व समाजवादी व्यवस्था के विघटन और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकासशील और नव स्वाधीन देशों में आए गहरे आर्थिक संकट ने एक बेहतर वातावरण बना दिया था।
21वीं सदी के शुरूआत में पिछड़े और विकासशील देशों को इस तरह से मजबूर किया गया कि वह अपने देशों में वैश्विक बाजार से आने वाले माल पर लगने वाले टैरिफ और विभिन्न नियंत्रण को हटाऐ।
अमेरिका के नेतृत्व में विश्व बाजार नियंत्रित अर्थव्यवस्था बनाने की परियोजनाओं को लागू करने के लिए बहुत सारे देशों में राजनीतिक अस्थिरता खड़ी की गई।
कई देशों में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को पलट दिया गया। अगर कहीं राष्ट्रीय हितों से प्रेरित कोई राष्ट्र राज्य प्रणाली थी, तो उसे किसी न किसी बहाने युद्ध थोप कर या आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उन देशों में राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट खड़ा कर पूरी राज्य प्रणाली को ध्वस्त कर दिया गया।
ढेर सारे देशों में खुले, छिपे आपराधिक कामों के द्वारा और पूंजी के बल पर मनचाही सरकारों के निर्माण की कोशिश की गई।
आर्थिक प्रतिबंधों की एक श्रंखला चलायी गई। दुनिया वैश्विक पूंजी के लिए अपने दरवाजे खोले। इसके लिए अनेक वार्ताएं और सम्मेलन डब्ल्यूटीओ द्वारा आयोजित किए गए।
जहां विकासशील देशों और पिछड़े राज्यों और राष्ट्रों की आवाज को अनसुना करते हुए और उनकी बांह मरोड़कर उन पर ढेर सारे नियम, उप नियम थोप दिए गए।
इस तरह अनेक विकासशील देशों और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को अमेरिकी नेतृत्व में वैश्विक पूंजीवाद के नियंत्रण के दायरे में ला दिया गया।
कारपोरेट लालची पूंजी को विश्व खाद्यान्न बाजार पर कब्जा करना और दुनिया में भूख और रोटी का बाजार अपने कब्जे में लाना बहुत जरूरी था।
विकसित देशों में यह काम उन्होंने बहुत पहले ही अंजाम तक पहुंचा दिया था। लेकिन दुनिया के नव स्वाधीन देश जो लंबे समय तक साम्राज्यवादी उपनिवेश रह चुके हैं, उनके यहां राष्ट्रवाद की तीव्र धारा और चेतना मौजूद थी।
जिस कारण इन शक्तियों के लिए इन राज्यों में अपनी नीतियों को लागू कराने के लिए बहुत धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाना पड़ा।
और उचित समय का इंतजार करना पड़ा। ऐसी कोशिशें जारी रखी गई और इन देशों को गहरे आर्थिक संकट की तरफ धीरे-धीरे धकेला जाने लगा।
साथ ही राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिशें की गई। जब नव स्वाधीन देश गहरे आर्थिक संकट में फंसे गये तो साम्राज्यवादी पूंजी ने इन देशों को आर्थिक संकट से बाहर लाने के लिए अपनी नीतियों को आगे कर दिया।
साथ ही अपने अनुकूल सरकारों का निर्माण उन देशों के कारपोरेट पूंजी के सहयोग से करने में सफल भी हो गए। हम जानते हैं कि भारत में 1991 के बाद विभिन्न सरकारें चाहे संयुक्त मोर्चे की हो, एनडीए की हो या यूपीए की हो और आज की मोदी सरकार हो सभी में वैश्विक आर्थिक परियोजनाओं को लागू करने की एक होड़ सी दिखी है।
यही नहीं, विश्व पूंजी के लिए भारतीय बाजार के दरवाजे खोलने के लिए अटल बिहारी के नेतृत्व में राजग की सरकार में किसी भी हद तक जाने की प्रवृत्ति भी दिखी। उद्योग व्यापार, बैंक और सरकारी प्रतिष्ठानों के निजीकरण के लिए अलग मंत्रालय विनिवेश मंत्रालय बना दिया गया।
सरकारी क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया चल ही रही है, उसे निजी कारपोरेट घरानों के हवाले किया जा रहा है। लेकिन कारपोरेट पूंजी की निगाह भारत के खाद्यान्न व्यापार पर लंबे समय से लगी हुई है।
कोरोना महामारी के काल में सिर्फ भारतीय कृषि में ही 3% से ज्यादा की वृद्धि देखी गई। बाकी छोटे कारोबार से लेकर सेवा क्षेत्र, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन और भारत के भारी उद्योग के सभी कारोबार नकारात्मक विकास की प्रवृत्ति दिखा रहे थे ।
मोदी की सरकार आने के शुरुआत से ही कृषि पर कारपोरेट निगाह लगी हुई है इसकी प्रवृतियां भूमि अधिग्रहण कानून में अध्यादेश के द्वारा संशोधन करने, कृषि उपज पर राज्यों को बोनस न देने के निर्देश में और एमएसपी से सरकारी खरीद के पूरे कारोबार को धीरे-धीरे हाथ खींच लेने की कोशिशें शुरू हो गई थी।
भारत में खाद्यान्न बाजार का कुल वार्षिक कारोबार 12000 अरब डालर से ज्यादा का है। उस पर नियंत्रण करने के लिए अदानी-अंबानी जैसे मोदी के मित्र पूंजीपतियों की जीभ लंबे समय से लपलपा रही थी।
कृषि के उत्पादन के भंडारण से लेकर वितरण तक के इंफ्रास्ट्रक्चर इन कानूनों के आने के पहले ही तैयार हो चुके थे। अरबों रुपया उन्होंने खाद्यान्न बाजार में निवेश कर लिया दिया है।
इसलिए महामारी के पहले दौर के थोड़ा ढीला पड़ते ही जब सामान्य नागरिक और आर्थिक गतिविधियां शुरू भी नहीं हुई थी, तो 5 जून 2020 को मोदी सरकार तीन कृषि कानून का अध्यादेश लेकर सामने आ गई।
इस अध्यादेश का विरोध पंजाब के किसानों में तेज दिखा लेकिन पूरे भारत में इस अध्यादेश के खिलाफ प्रदर्शन, धरने और मोर्चे लगने शुरू हो गए। अध्यादेश के कानून बनते ही पूरे देश में किसान आंदोलनों का विस्फोट हो गया।
9 महीने आंदोलन पूरा करने जा रहा है। वैश्विक स्तर पर इतने बड़े किसान आंदोलन का अभी तक कोई इतिहास कारपोरेट पूंजी और उनके दलाल सरकारों के खिलाफ कहीं नहीं रहा है।
इसलिए यह किसान आंदोलन आज उत्तर अमेरिका, लैटिन अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका तक के किसानों को प्रेरणा और उत्साह से भर दे रहा है।
वहां से आवाजें आ रही हैं, जो काम हम नहीं कर सके, जो लड़ाई हम नहीं लड़ सके, आज भारत का किसान हमारी लड़ाई लड़ रहा है।
इसलिए हमें उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर एकजुट होना और अपने-अपने देशों की सरकारों को बाध्य करना होगा, कि वह इन नीतियों से पीछे हटे।
इस आधारभूत समर्थन से भारत के किसानों को एक नयी ताकत और ऊर्जा मिली है।
(अगली कड़ी में जारी)