समकालीन जनमत
कविता

जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ सत्ता की भाषा के पीछे छुपी मंशा को भेद कर उसके कुटिल इरादों को बेनकाब करती हैं

निरंजन श्रोत्रिय


युवा कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कविताओं को महज जनजातीय स्मृतियों अथवा चेतना की कविताएँ कहना न्यायसंगत न होगा। अपने पर्यावरण और जातीय स्मृतियों के साथ उनकी कविता का प्रतिरोधी स्वर सहज ही महसूस किया जा सकता है। इस तरह एक ओर वे हमारी सबसे प्राचीन सभ्यता के निर्वासन, उन्हें अपने जंगलों, पहाड़ों नदियों से बेदखल कर देने के खिलाफ़ खड़ी हैं तो दूसरी ओर एक स्पष्ट प्रतिरोधी राजनीतिक चेतना
के साथ समकालीन सत्ता से लोहा लेती हैं।
‘सेना का रूख किधर है’ कविता में वे उस तानाशाही के विरूद्ध अपना स्वर मुखर करती हैं जो जनता को इस कदर निचोड़ रही है कि वे महज़ जिंदा रहने को ही विकास समझ लें। वे उन संगीनों से सवाल करती हैं जो सवाल करती जीभों को अपना निशाना बनाती हैं। वह दमन करने वाली सेना का रूख ही मोड़ देना चाहती हैं। ‘क्यों महुए नहीं तोड़े जाते पेड़ से’ एक मार्मिक कविता है जिसमें कवयित्री की जातीय स्मृतियां, सरोकार एवं संलग्नता बेहद खूबसूरती से मुखरित होती है-‘पेड़ जब गुजर रहा हो/ सारी रात प्रसव पीड़ से/ बताओ, कैसे डाल हिला दें जोर से?’ ‘पत्थर, आम और इमली के पेड़’ कविता में अपनी पहचान को बचाने का संकट है।
जंगल, पहाड़ और नदी के सहारे जीवन यापन करने वाले आदिवासियों की नागरिकता का प्रमाण पत्थरों पर खुदे पुरखों के नामों और उनके द्वारा लगाए पेड़ों से अधिक क्या हो सकता है? ‘जब वह प्यार करता है’ सत्ता की छुपी हुई मंशा को उजागर करती कविता है सत्ता अपने एजेण्डे को लागू करने के लिए एक भाषा ईजाद करती है। कवयित्री इस भाषा और प्रचलित शब्दावली के पीछे छुपी मंशा को भेद कर सत्ता के कुटिल इरादों को बेनकाब करती है-‘आज वह हर उस आदमी से डरता है/ जो चिल्ला-चिल्ला कर सड़क पर कहता है/ कि वह इस देश से प्यार करता है।’  ‘बच्चे अपने पिता को माफ न कर सके’ कविता बर्तोल्त ब्रेख्त की उन पंक्तियों के साथ खड़ी है जहाँ वे कहते हैं कि ‘उस समय कवि जन चुप क्यों थे!’
यह कविता प्रतिरोध की अनिवार्यता को रेखांकित करती है खासकर मध्यवर्ग को संबोधित करते हुए क्योंकि ‘पिता’ का मेटाफर उसी समझौता वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। कवयित्री चीन्ह रही है कि किस तरह फासीवाद बेहद चुपके से कुछ चेहरों के साथ मुल्क में अवतरित हो रहा है। ‘डर जो गुलाम बनाता है’ एक खूबसूरत कविता है जिसमें धर्म/ईश्वर की समाज में स्थापना के मनोवैज्ञानिक और तार्किक कारणों की पड़ताल की गई है। यह सही है कि भय और असुरक्षा ही वे रास्ते हैं जिन पर चलकर कथित भगवान या धर्म हममें बस जाता है। इस कविता की सबसे खूबसूरत युक्ति इसका क्लाइमेक्स है जब डर के खत्म हो जाने पर सारे प्रार्थना-स्थल मजदूरों के जो कि वाकई दर्शनीय हैं…असल में पूजा योग्य हैं, में तब्दील हो जाते हैं। कर्म और कर्मठता की यह काव्य स्थापना अनूठी है।
‘समय की सबसे सुंदर तस्वीर’ युवा कवयित्री की समसामयिक चिंताओं को समेटे है। देश के शिक्षण संस्थानों को जिस तरह नफरत और हिंसा में धकेला जा रहा है, कवयित्री इसके प्रोटेस्ट की तरह यह कविता लिखती है। यहाँ उथली नारेबाजी न होकर शिक्षा द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्वांतरण का प्रसंग अधिक है।
दूसरों के हक के लिए लड़ना किसी भी शिक्षा का सुंदरतम ध्येय हो सकता है, यह कविता हमें सिखाती है-‘विश्वविद्यालय से ही निकल सकती है/ इस धरती को सुंदर बनाने वाली/समय की सबसे सुंदर तस्वीर।’‘मनुष्यों का देवता’ कविता में जसिंता कथित देवता के अस्तित्व पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाती है। अभयदान और बलिदान की बाइनरी के बीच कवयित्री प्रश्नाकुल है ‘कि जोेे देेेवता मनुष्यता ही नहीं जानता/ वह मनुष्यों का देवता कैसे हो सकता है?’ ‘पहाड़ और पहरेदार’ कविता उस हकदार की कविता है जो वाकई किसी चीज का असली हकदार होता है। जिन लोगों ने पहाड़ पर अपना समूचा जीवन बिता दिया वे सूँघकर जंगल की गंध बता देते हैं। पहाड़ों की उम्र के बारे में पूछने पर एकमात्र विधिसम्मत जवाब यही हो सकता है कि ‘उनका प्यार ही पहाड़ की उम्र है।’ पहाड़ पर जीवन भर विचरण करता मनुष्य पहाड़ और उसके खिलाफ की गई साजिशों से बहुत वाकिफ होता है। युवा कवयित्री पहाड़ के खिलाफ़ लोगों से एक लड़ाई में शमिल होती है और यह लड़ाई प्यार की लड़ाई क्योंकि ‘ऐसे लोगों से पहाड़ के लोग लड़ते हैं/ सिर्फ़ इसलिए/ कि वे पहाड़ से प्यार करते हैं।’ जसिंता ने कुछ छोटी कविताएँ भी लिखी हैं-कथित क्षणिकाओं की तर्ज पर! लेकिन अपने तापमान और प्रभाव में ये छोटी कविताएँ भावों का स्फुरण भर नहीं हैं। ये एक सुदीर्घ विचार-सरणि को जन्म देती हैं जैसे कि ‘अखबार’ कविता। यह छोटी कविता इस समय हमारे मीडिया पर एक बड़ी टिप्पणी है। दरअसल ऐसी छोटी कविताएँ सत्ता और मीडिया की दुरभिसंधियों को बखूबी बेनकाब कर देती हैं।
जसिंता केरकेट्टा समकालीन हिन्दी कविता की वह महत्वपूर्ण युवा कवयित्री हैं जो अपनी जातीय स्मृतियों, शोषण, वंचना, व्यापार, राजनीति और अंततः छले जाने को अभिशप्त लोक के पक्ष में खड़ी कविता है। आप ध्यान दीजिएगा कि वह एक अहिंसक समाज की ऐसी प्रतिनिधि है जिसकी पीठ पर एक धनुष लटका है, वह धनुष जो ज़रूरत पड़ने पर हिंसा का नहीं एक कारगर प्रतिरोध का प्रतीक सिद्ध होगा।

 

जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ

 

1. सेना का रुख़ किधर है ?

युद्ध का दौर खत्म हो गया
अब सीमा की सेना का रुख़ उधर है
मेरा स्कूल-कॉलेज, गाँव-घर, जंगल-पहाड़ जिधर है

कौन साध रहा है अब
चिड़ियों की आँख पर निशाना ?
इस समय खतरनाक है सवाल करना
और जो हो रहा है उस पर बुरा मान जाना
क्योंकि संगीनों का पहला काम है
सवाल करती जीभ पर निशाना लगाना

खत्म हो रही है उनकी
बातें करने और सुनने की परम्परा
अब सेना की दक्षता का मतलब है
गाँव और जंगल पर गोलियां चलाना
और सवाल पूछते विद्यार्थियों पर लाठियां बरसाना

यह दूसरे तरीके का युद्ध है
जहाँ सम्भव है
गाँव में बहुतों के भूखे रह जाने का
किसानों के आत्महत्या कर लेने का
और शहर में आधे लोगों का
बहुत खाते हुए, तोंद बढ़ाते हुए
अपनी देह का भार संभालने में असमर्थ
एक दिन नीचे गिर जाने का
और अपनी ही देह तले दबकर मर जाने का

किसी युद्ध में बम के फटने से
यह शहर धुआँ-धुआँ नहीं है
यह तो विकास करते हुए
मंगल ग्रह हो जाने की कहानी है
इस विकास में न बच रहे जंगल-पहाड़
न मिल रही सांस लेने को साफ हवा
और लोग ढूँढ रहे कि कहाँ साफ पानी है

कोई युद्ध न हो तब भी सेना तो रहेगी
आखिर वह क्या करेगी ?
वह कैंपों के लिए जंगल खाली कराएगी
जानवरों की सुरक्षा के लिए
गाँव को खदेड़ कर शहर ले जाएगी
और शहर में सवाल पूछते
गाँव के बच्चों पर गोली चलाएगी

आखिर क्यों सीमा की सेना का रुख़ उधर है
मेरा स्कूल-कॉलेज, गाँव-घर, जंगल-पहाड़ जिधर है ?

 

2. क्यों महुए तोड़े नहीं जाते पेड़ से ?

माँ तुम सारी रात
क्यों महुए के गिरने का इंतजार करती हो ?
क्यों नहीं पेड़ से ही
सारा महुआ तोड़ लेती हो ?

माँ कहती है
वे रात भर गर्भ में रहते हैं
जन्म का जब हो जाता है समय पूरा
खुद ब खुद धरती पर आ गिरते हैं
भोर, ओस में जब वे भीगते हैं धरती पर
हम घर ले आते हैं उन्हें उठाकर

पेड़ जब गुजर रहा हो
सारी रात प्रसव पीड़ा से
बताओ, कैसे डाल हिला दें जोर से ?
बोलो, कैसे तोड़ लें हम
जबरन महुआ किसी पेड़ से ?

हम सिर्फ इंतज़ार करते हैं
इसलिए कि उनसे प्यार करते हैं।

 

3. पत्थर, आम और इमली के पेड़

अंग्रेजों ने जंगल पर जब कब्जा किया
लोगों ने उनके डर से जंगल छोड़ दिया
कई गाँव उजड़ गए, कई बिखर गए

एक दिन फिर शुरू हुई
जंगल पर अपने हक की लड़ाई
सरकार ने पूछा
जंगल में तुम्हारे पुरखों का गाँव बताओ
कोई कागज पत्र है तो दिखलाओ

लोगों ने कहा
जिन पत्थरों पर पुरखों के नाम खुदे हैं
देखिए, हम अपनी पीठ पर
वो पत्थर ढोकर आए हैं
हर गाँव में पुरखों ने जो
आम और इमली के पेड़ लगाए हैं
हम वही प्रमाण अपने साथ लाए हैं

वही पत्थर, आम और इमली के पेड़ आधार बन गए
लोग जंगलों में फिर से बस गए
फिर से अपने बच्चों के लिए
आम और इमली के पेड़ लगाए
पत्थरों पर अपने नाम खुदवाए
इस डर से कि फिर कोई सरकार
कल बच्चों से मांगने लगे
उनके होने का कोई प्रमाण
जब बारिश, आँधी, तूफान में
कोई कागज नहीं बचेंगे
सबूत के तौर पर, तब भी
यही पत्थर और पेड़ खडे़ रहेंगे

आज फिर से सरकार मांगती है प्रमाण
और जंगल के लोग खड़े हैं
आम, इमली के पेड़ और वही पत्थर लेकर
जिस पर खुदे हैं उनके पुरखों के नाम।

 

4. जब वह प्यार करता है

एक साधारण-सा आदमी
जब किसी के प्रेम में होता है
वह उसकी हर बात से प्रेम करता है
उसके बोलने से, चुप रहने से
उसकी हँसी, उदासी, खुशी से
हर उस चीज से प्रेम करने लगता है
जिससे उसे जरा भी प्रेम हो

पर ऐसा क्या हो गया है इन दिनों
जब कोई दावा कर रहा होता है कि
वह किसी से प्यार करता है
वह आदमी इस बात से डरता है
डरता है कि
जब भी कोई प्रेम का दावा करता है
कोई न कोई मारा जाता है

देखता है
जिसने कहा स्त्री से प्रेम है
वह मारी गई
कहा बच्चियाँ सुरक्षित होनी चाहिए
वे तेजी से बलात्कार की शिकार हुई
कहा नदियाँ साफ होंगी
वे और गंदी कर दी गई
कहा पेड़ बचाए जाएंगे
जंगल लकड़हारों को सौंप दिए गए
कहा प्रकृति से प्रेम है
वह और विकृत कर दी गई
और वह खुद क्या करता रहा
हत्यारों के साथ मिलकर हँसता रहा

अब जब कुछ लोग
चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं
कि वे इस देश से प्यार करते हैं
तब वह आदमी फिर डरता है यही सोचकर कि
इस प्रेम की आड़ में अब
वे इस देश के साथ क्या-क्या करेंगे?
किसके हाथों इसे बेच आएँगे?
किसके प्रति नफरत फैलाएँगे?
किसकी हत्या करवाएँगे?

एक साधारण-सा आदमी
किसी को जब भी चाहता है
बहुत कोशिशों के बाद भी
उसे बता नहीं पाता है
कि वह उसे प्रेम करता है

आज वह हर उस आदमी से डरता है
जो चिल्ला-चिल्ला कर सड़क पर कहता है
कि वह इस देश से प्यार करता है।

 

5. बच्चे अपने पिता को माफ़ न कर सके

हिटलर की मौत के बाद भी लम्बे समय तक
कई घरों में छिड़ी रही एक लम्बी लड़ाई
जहाँ चुप रहने और विरोध न करने के लिए
कई बच्चे अपने पिता को माफ़ न कर सके
वे माफ़ न कर सके उन पड़ोसियों को भी
जो बंद रहे अपने घरों में चुप
दूसरों के लिए सड़कों पर निकल न सके

एक दिन युवा सड़कों पर उतरे
अपने पिता और पड़ोसियों के
चुप रहने, प्रतिरोध न कर पाने का प्रायश्चित करने
जिनके लिए उनके पिता न लड़ सके
विश्वविद्यालयों से उनके बच्चे बाहर निकले
मारे गए लोगों को उनका हक दिलाने

और फिर एक दिन
जहाँ होता था कभी हिटलर का पुराना दफ्तर
युवाओं की मांगों ने उसके दफ्तर को ढा दिया
और ठीक उसी जगह
मारे गए हर आदमी के नाम का
पत्थर की सिल्लियों वाला विशाल स्मारक बनवाया

कुछ लोगों ने मिलकर हर उस घर को ढूंढा
जहाँ मारे गए लोगों में से कभी कोई रहता था
फिर ऐसे हर घर के सामने
उनके नाम का लोहे का प्लेट लगवाया
और फिर से उनकी यादों को जिंदा करवाया

एक आदमी जिसे जर्मनी ने पहले प्यार किया
फिर उसी आदमी से नफरत भी किया
जिसने देश को पूरी तरह गर्त में पहुँचाया
आज ठीक वैसा ही एक आदमी
जगह और समय बदलकर
एक-सी घटनाओं के साथ फिर नजर आया

इससे पहले कि वह आदमी
फिर से किसी देश को गर्त में ले जाए
इससे पहले कि पीढ़ियों को सदियों तक
उसके पापों का प्रायश्चित करना पड़े
इससे पहले कि बच्चे अपने पिता
और पड़ोसियों को
प्रतिरोध न करने के लिए
कभी माफ़ न कर सके
उस आदमी में बसे हिटलर को
पूरी ताकत के साथ
उसकी असली जगह दिखा देनी चाहिए।

6. डर जो गुलाम बनाता है

आखिर क्यों आदमी
भगवान ढूँढने जाता है?
कौन-सा डर है
जो उसे इतना डराता है?

दो जून की रोटी जुगाड़ न पाने का डर
पढ़ लिख रही दुनिया में
अपने बच्चों के अनपढ़ रह जाने का डर
अंधकार में डूब रहे सूरज की तरह
जीवन में उम्मीद की
कोई किरण न दिखाई पड़ने का डर
पीछे छूट जाने का डर
सीलन भरे कमरे में बीमार पड़े
चुपचाप मर जाने का डर

इन मुसीबतों के बीच
वो चार लोग जो आस-पास रहते हैं
उनसे बिगाड़ का डर
जो बच गई थोड़ी-सी इज्जत है
उसके खो जाने का डर
जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो
उनके सवालों का जवाब न दे पाने का डर
और सबसे बड़ा डर
अपने सवालों के लिए लड़ न पाने का डर

डरे हुए लोगों की भीड़ में
यही डर तेजी से
पहचान बनाने की भूख बढ़ाता है
और एक दिन अंधी दौड़ में भाग रहे
ऐसे लोगों को ही कोई धर्म
किसी गुम्बद के ऊपर चढ़ा देता है
फिर कोई प्रार्थना स्थल तोड़कर पहचान बनाता है
कोई मॉब लिंचिंग करता हुआ जाना जाता है
कोई ट्रोल करते हुए अपनी भूमिका निभाता है
आखिर किसी देश को कौन गुलाम बनाता है?

एक डर जो धीरे-धीरे आदमी को खाता है
वही डर उसे धर्म का गुलाम बनाता है
वही डर उसे मंदिर, मस्जिद
और गिरिजाघर की ओर ले जाता है
वही डर
आदमी को आदमी से नफ़रत करना सिखाता है
और कितना अजीब है
इसी डर से मुक्ति के नाम पर धर्म
सदियों तक अपना अस्तित्व बचाए रखता है

देख लीजिए दुनिया में चारों ओर
जहाँ भी वह डर खत्म हो जाता है
वहाँ सारे के सारे प्रार्थना स्थल
किसी दर्शनीय स्थल में बदल जाते हैं
लोग वहाँ भगवान की पूजा करने नहीं
मजदूरों की कारीगरी, मेहनत, उनकी कल्पना
और अद्भुत भवन-निर्माण की कला देखने आते हैं।

 

7. समय की सबसे सुंदर तस्वीर

वह समाज जहाँ
पुरूष केे भीतर के स्त्रीत्व की हत्या
बचपन से ही धीरे-धीरे की जाती है
उसके भीतर की स्त्री भी
एक दिन भागकर
किसी विश्वविद्यालय में ही बच पाती है

विश्वविद्यालय में ही युवा
इतिहास, भूगोल, गणित पढ़ते हुए
सीखते हैं समाज बदलना
और अपने ही नहीं
दूसरों के हक के लिए भी घर से निकलना
वे धीरे-धीरे पुरूष से मनुष्य होना सीखते हैं
और साथ संघर्ष करती स्त्रियों को भी
देह से ज्यादा जानने, समझने लगते हैं

विश्वविद्यालय के युवा
आदमी के हक की आवाज़ उठाते हैं
व्यवस्था के लिए किसी आदमी को
मशीन भर हो जाने से बचाते हैं
लाश बनकर घर से दफ्तर
और दफ्तर से घर लौटते आदमी को
जिंदा होने की वजह बताते हैं

एक आत्माविहीन समाज
जो पुरूषों को स्त्रियों से
सामूहिक दुष्कर्म करना सिखाता है
और उसकी हर हत्या पर
चुप्पी साधे रहता है
जहाँ सदियों से यही रीति चलती है
उसी समाज के किसी विश्वविद्यालय में
साथ पढ़ती, लड़ती स्त्रियाँ
घेरकर एक पुरूष को
पुलिस के निर्मम डंडों से बचाती हैं

विश्वविद्यालय ही पेश कर सकता है
किसी समाज को बेहतर बनाने की नज़ीर
विश्वविद्यालय से ही निकल सकती हैं
इस धरती को सुंदर बनाने वाली
समय की सबसे सुंदर तस्वीर।

 

8. मनुष्यों का देवता

वह जो देवता होना चाहता था
लोगों ने अपनी मुक्ति के लिए
एक दिन सचमुच उसे
अपना देवता बना लिया

पर देवताओं ने कब सबकी मुक्ति चाही है?
वे पूरे इतिहास में
कुछ लोगों के साथ
बाकियों के खि़लाफ़
लड़ते रहें हैं एक ही तरह का युद्ध
और हर बार लोग चढ़ाते रहे हैं
युद्ध में उनकी जीत के लिए
किसी न किसी आदमी की बलि

अब देवता
युद्धभूमि से उठकर
राजनीति में आ गया है
पर बदले समय में भी बदला नहीं है
बड़ा तो हुआ पर व्यापक न हो सका है
अब भी वह राजनीति में
कुछ लोगों के साथ
और बाकियों के खि़लाफ़ है

देवता भला
क्यों सबका भला नहीं चाह पाता!
क्यों कुछ के लिए चाहता है अभयदान
और बाकियों से मांगता है बलिदान?

वह आखिर किसका देवता है?
जो मनुष्यता ही नहीं जानता
वह मनुष्यों का देवता
कैसे हो सकता है?

 

9. पहाड़ और पहरेदार

पहाड़ के पहरेदार
जन्म से पहाड़ को जानते हैं
सूँघ कर जंगल की गंध बताते हैं
नाड़ी छूकर उसकी देह का ताप
और उसके चेहरे के बदलते रंग बताते हैं
पहाड़ों, पेड़ों, झरनों यहाँ तक कि
मिट्टी के नीचे दबे कंद मूल के नाम जानते हैं
वे पहाड़ के सीने में दिल की तरह बसते हैं
जिनके धड़कने से पहाड़ बचे रहते हैं

पहाड़ों की उम्र क्या है
पूछने पर वे क्या कहते हैं?
उनका प्यार उनके पुरखों के पुरखों के पुरखों से
शुरू होता है
पहाड़ की नसों में पीढ़ी दर पीढ़ी
उनका ही प्यार खून की तरह बहता है
इसलिए पहाड़ सदियों तक जिंदा रहता है

पर एक दिन शहर के चौकीदार
अपने मालिक का इशारा पाकर
पहाड़ पर आते हैं
और कई दिनों से भूखे खोजी कुत्ते की तरह
पहाड़ पर अकेली घूमती स्त्री को देख लार टपकाते हैं
स्त्रियों को मांस का लोंधा समझने को अभिशप्त
ये जंगल की स्त्रियों के मांस पर टूट पड़ते हैं
और भोर उठकर पेड़ से शलप उतारने जा रहे
उनके प्रेमियों को गोली मार देते हैं
ये शहर लौटकर गर्व से चिल्लाते हैं
देखो, जंगल से हम माओवादी मारकर आते हैं

ये पहाड़ पर अपने तमगे की तलाश में भटकते हैं
और आदमियों का शिकार कर लौटने के बाद
उनकी लाश बिछाकर, शहर से सम्मान लेते हैं
ये कौन हैं?
ये उस जमात के लोग हैं
जो जानवरों का नाम लेकर सदियों से
आदमियों को मारने के अभ्यस्त हैं
कागज़ के टुकड़ों के आगे जो
मालिकों के इशारे पर जीवन भर नाचते हैं
और देह के भीतर अपनी ही आत्मा का मुँह
कस कर पट्टियों से बांधते हैं

पहाड़ जानते हैं
जीवित आत्माओं का संघर्ष
आत्माविहीन ऐसी लाशों से है
जिन्होंने खुद को अनवरत बेचा है
जीवन को जुगाड़ ही देखा है
नौकरी करते हुए गुलामी कमाई है
और ऊपर से आदेश आते ही हमेशा
पहाड़ की समृद्ध संस्कृति पर गोली चलाई है

ये पहाड़ के कभी नहीं थे
न कभी हो सकेंगे
ऐसे लोगों से पहाड़ के लोग लड़ते हैं
सिर्फ़ इसलिए
कि वे पहाड़ से प्यार करते हैं।

10. अख़बार

समाज का आईना अख़बार
कहते थे जिसे, अब वह नहीं रहा
किसी खोजी कुत्ते में तब्दील वह
अब सिर्फ उस आदमी की गंध पहचानता है
जिसकी गंध, भात में सानकर खिलाई गई है उसे।

 

11. पालतू कुत्ते

आवारा कुत्तों के बनिस्बत
पालतू कुत्तों के
मारे जाने की संभावनाएँ कम हैं
क्योंकि वे पूरी ताकत के साथ
अपनी दुम हिलाते हैं।

12. हथियार

वे हथियार उठाये आते हैं
और जंगल के आदमी से कहते हैं
‘अपने हथियार डाल दो’
कहता है जंगल का आदमी
हाथ में हथियार लेकर
निहत्थों से डरे हुए लोग
तुम्हारे हाथ में जब तक हथियार हे
मेरी पीठ पर लटका मेरा धनुष
मुझसे अलग नहीं हो सकता।

 

 

(कवयित्री जसिंता केरकेट्टा , जन्मः 3 अगस्त 1983, खुदपोस गाँव, पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड। शिक्षाः सेंट जेवियर्स कॉलेज से मास कम्युनिकेशन में स्नातक, राँची विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन में एम.ए.
सृजनः दो कविता संग्रह ‘अंगोर’ एवं ‘जड़ों की जमीन’ प्रकाशित। कई विदेशी भाषाओं में कविताएँ अनूदित। 
सम्मानः इंडिजिनस वॉइस ऑफ एशिया, रविशंकर उपाध्याय स्मृति कविता पुरस्कार अपराजिता अवार्ड, वेणु गोपाल स्मृति सम्मान। सम्प्रतिः स्वतंत्र पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता ।
सम्पर्कः द्वारा मनोज प्रवीण लकड़ा, सरकारी स्कूल के पास, खोरहाटोली, ओल्ड एच.बी. रोड, कोकर, राँची (झारखण्ड) 834001
मोबाइलः 72509 60618
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य हैं. संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com)
(ये कविताएँ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाशित होने वाले जसिंता केरकेट्टा के तीसरे संग्रह
‘ईश्वर और बाज़ार ‘ का हिस्सा हैं।)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion