कामिनी त्रिपाठी
स्वभाव से सरल-सहज मृदुला सिंह छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल सरगुजा के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं | यूँ तो उनका जन्म और पढ़ाई–लिखाई रींवा, मध्य प्रदेश में हुई लेकिन सरगुजा आने के बाद वह यहीं की मिट्टी में रच-बस गईं और आदिवासी जीवन को करीब से समझने की प्रक्रिया में लगी हैं |
उनकी कविता इसी आदिवासी जमीन से बाकी दुनिया को देखने-समझने की कोशिश है | समाज का एक बड़ा वर्ग जीवन जीने की आधारभूत जरूरतें पूरी करने के लिए किस तरह संघर्षरत है, इसका चित्र हमें मृदुला की कविताओं में देखने को मिलता है |
यह संघर्ष-गाथा ही उनकी कविता का मूल स्वर है | विकास के चहुमुखी शोर के बीच मनुष्य-मनुष्य के बीच असमानता की खाई दिनों-दिन गहरी होती जा रही है | आजादी के इतने वर्षों बाद भी समानता की बात हमारे यहाँ केवल किताबों में है | मृदुला की कविताएँ इस विकास के पीछे छिपी वास्तविकता की पहचान करती दीख पड़ती हैं |
उनकी कविता में भूख की पहचान है | इस भूख की पहचान के चलते ही वे अपनी कविता में शोषक और शोषित के अंतर्संबंधों का बारीकी से पर्दाफाश करती हैं | बाजार की चमक कई बार उसके पीछे छिपे अँधेरे को हमसे ओझल कर देती है ,इस चमक-दमक के पीछे की पीड़ा और मजबूरी को मृदुला की कविता ‘स्वागत में खड़ी लड़कियां’ में हम देख सकते हैं –
कोई फर्क नहीं पड़ता इन्हें
कि चमचमाती बारात की धज
कितनी अच्छी है
मंडप में गुलाब की लड़ियों से परे
इनकी स्थिर पुतलियाँ
जुटा रही होती हैं
बिना बाप के भाई की पढ़ाई के लिए फीस
बीमार माँ की दवाइयाँ
और दो जून रोटी की जुगत
पटाखों की तीखी आवाज में गूँजती है
मकान मालिक के घर से निकालने की धमकी
इन महंगी शादियों के ठेके में
मैनेजर के इशारे पर दौड़ती
ये नन्ही कलियाँ अपने घर का छप्पर हैं
जिसके नीचे रह जाती है
दो जून के रोटी की उम्मीद
दो जून की रोटी का सवाल मृदुला की कविता का मुख्य स्वर है | कोरोना संकट के दौरान गैर जिम्मेदाराना लॉकडाउन ने हमारी पूरी व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी | देश के विभिन्न हिस्सों से घर लौटे मजदूरों के सामने आज आजीविका का बड़ा संकट मुँह बाये खड़ा है | आज यह समुदाय गाँव, कस्बों और छोटे शहरों में जीविका के नए साधनों की खोज में संघर्षरत है | मृदुला की कवि दृष्टि इन संकटों की गहराई से पहचान करती दीखती है |
गंवई जीवन की सादगी और भोलापन भी उनकी कविता में पहचाने जा सकते हैं | गाँव उनकी कविता में बार-बार आता है, उनकी कविता को ग्रामीण जीवन की कविता कहना शायद गलत नहीं होगा | उसमें एक तरफ अपने ग्रामीण जीवन की स्मृति है तो दूसरी तरफ प्रकृति की गोद में बसे सरगुजा की खूबसूरत छवि है | सरगुजा की माटी में जो उत्सवधर्मिता है ,वह मृदुला के अंतस्तल से गहरे जुड़ी है | करमा और माँदर की गूंज उनकी कविता में देखी –सुनी जा सकती है |
भूमंडलीकरण और बाजार की सांठ-गांठ ने गाँव की सहज बनी व्यवस्था और सौंदर्य को नष्ट कर डाला है | वे अपनी कविता में इस समस्या की पहचान भी करती हैं और हमें गाँव और उसकी खूबसूरती की सैर भी कराती हैं | भोलवा की आँख का सावन कविता दिखाती है कि कैसे भोलवा की तरह के लाखों लोग गाँव से उजड़ने और छले जाने को मजबूर हैं | नई पूंजीवादी व्यवस्था किस तरह प्रकृति और जीवन से खिलवाड़ कर रही है इसकी पहचान उनकी कविता बखूबी करती हैं –
भोलवा गाँव छोड़ गया है
उसकी जमीन खिसक कर जुड़ गई है
कार्पोरेटी विकास के पन्नों पर
एक लंबे समय से लड़कियों के कॉलेज में पढ़ाते हुए मृदुला ने उनके जीवन को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है | आर्थिक संकट के साथ-साथ हमारा सामाजिक ताना-बाना किस तरह से लड़कियों की शिक्षा को विवाह की योग्यता भर मान कर रह जाता है , यह यहाँ से ज्यादा अच्छे से देखा-समझा जा सकता है, अच्छी और गुणवतापूर्ण शिक्षा उनके लिए सपने जैसा है | इसीलिए जब कोई लड़की आगे बढ़ती दिखती है तो वह मृदुला की आँखों में एक रोशनी की तरह चमक उठती है | यह चमक एक गरीब आदिवासी बालिका के ‘विनर’ बनने की खुशी में दिखाई पड़ती है –
छमाही में जब टॉप किया था तुमने
तो जी चाहा था गले से लगा लूँ तुमको
स्पोर्ट्स डे पर जीत लिए थे सारे मेडल
और एक लोकल रिपोर्टर के पूछने पर बताया था
मवेशियों के पीछे दौड़ते फिरने की आदत ने
आज मुझे विनर बनाया है
मृदुला के यहाँ जो महिलाएँ आती हैं उनकी समस्या को लैंगिक दृष्टि से कम बल्कि वर्गीय दृष्टि से ज्यादा अच्छे से समझा जा सकता है | यहाँ स्त्री-पुरुष समानता से पहले जीवन जीने की जद्दोजहद है | शिक्षा के अधिकार के लागू होने की हकीकत मृदुला की कविता ‘गुलाबी के हिस्से की भूख वाली फाइल ‘में देखी जा सकती है –
गाँव की कच्ची दीवारों पर
गेरुआ रंग से लिखे हैं
शिक्षा अधिकार के
बहुत क्रांतिकारी नारे
उसकी पोती स्कूल नहीं जाती
लकड़ा की पत्तियाँ और फूल चुनती है
कोठार नहीं
अपना पेट भरने के लिए
‘फाइनल ईयर की लड़कियां’ कविता में वे जिस खुशी को दर्ज करती हैं वह मानो लड़कियों के उन्मुक्त जीवन की आकांक्षा की खुशी है | वे लड़कियों को मिले उनके हिस्से के थोड़े से समय की खुशी को भी दर्ज करती हैं और उनके जीवन संघर्ष और उनकी जद्दोजहद को भी |
मृदुला सिंह की कविताएँ
1. अनलॉक
रेलों का दृश्य है
दृश्यों का रेला है
पर्दा गिरता नही कोई
और नया पर्दा उठ जाता है
वह जवान जो गोलगप्पे का ठेला लगाता था
सब्जी का ठेला लिए जा रहा है
और वह बुजुर्ग जिसकी चाय की गुमटी
बन्द पड़ी है दो महीनों से
साइकिल के हैंडल में झोला टांगे
समोसे लिए घूमता है गली गली
उसकी आवाज में जोर है
जो खत्म होते मिन्नत में बदल जाती है
इनकी पीठों पर
परिवार के दो जून के भात का वजन लदा है
जो दृश्य में नही दिखता
वैसे भी भूख निराकार है
यह जिसका पेट है उसे ही समझ आता है
इन दिनों का स्ट्रीट मार्केट
ओ ईश्वर जानते हो!
यह तुम्हारी शक्ल सा दिख रहा है
पुरानी अधफटी धोतियों पर
लगे हैं जरूरी घरेलू सामानो की दुकाने
आत्मा को तर करने वाले माटी के बर्तन सजे हैं
और सजी हैं भाजी तरकारी
बिल्कुल बेतकल्लुफ कायदे कानून से
ये छोटे रोजगारी हैं दिहाड़ी हैं
खट रहे हैं कि काम काज में छूट मिली है
जिसे मोबाइल में घुसे लोग अनलॉक कह रहे है
बासी खाकर तपे इन लोगों की
इम्युनिटी बहुत मजबूत है
ये शुरू से आत्मनिर्भर लोग है
इनकी महामारी कोरोना नहीं भूख है
लड़ रहे हैं जिससे सदियों से
समझ नहीं है इनमे
पढ़ना लिखना नही आता
कोरोना की जगह खाना लिखते हैं
गणित में तो खैर कच्चे ही हैं
इन्हें नही आता गिनना
कि बड़ी बड़ी राशियों में से
कितना इन तक पहुंच पाता है
इन्हें बस आता है
आती जाती सांसें गिनना
और लगातार लड़ना
भूख की महामारी से !
2.सन्नाटे का शोर
सन्नाटा पसरा है हर ओर
यह गर्मियों की एक उदास रात है
मन बेचैन है बहुत
कोई कहीं रो रहा है शायद
सरहुल के दिन हैं
पर सरगुजा में मांदर की थाप चुप है
उन पर थिरकने वाले पांव चुप हैं
एक दूसरे से जुड़ने वाले हाथ चुप हैं
खेत खलिहान मौन
भयावह दृश्य है
दिखते हैं हर जगह ताले
बस ताले!
गौरैया का चुग्गा छत पर वैसा ही पड़ा रहता है दिनभर
झबरा अब भोंकता नहीं उदास रहता है
अगोरता है घर का बंद दरवाजा
आम और महुए में
गदगदा के नही आये फूल इसबार
फूल पौधे पेड़ जानवर भी
शामिल हैं मानव जाति की इस भयावह त्रासदी की चिंता में
त्यौहारी दिनों के उजले तन पर खरोचें हैं
ये प्रकृति से हमारी ज़्यादती के निशान हैं
संभलो अब भी
यह कोरोना का संकट !
समूची प्रकृति का
चुनौती भरा घोषणा पत्र है।
मेरे इतना बुदबुदाते ही
टेबल पर रखी बुद्ध
की काठे की प्रतिमा हंसती रही देर तक
3.दीवार के उस पार
सुना है दीवार के उस पार कहीं
असली भारत रहता है
जो इस ओर परोसे गए
सोने के वर्तनों के भोग का स्वाद
नही जानता
दिन रात पेट की जुगत में लगा
यह भारत मासूम है
नही देखना चाहता था वह
उस तरफ की साहबों की सवारी
पर दीवार ने अपनी गर्दन ऊंची कर
रोक लिया है उन्हें
और चेताया है उनकी हद
आओ! कर दें सुराख इन दीवारों में
कि अब बहुत हुआ खेल रोशनी का
दीवार के उस पार के हिदुस्तान को भी
रोशनी का हक है
दीवारें जड़ें जमाये
इससे पहले
इन्हें ढहा दिया जाना चाहिए
4. विनर
ख़ुद में सिमटी हुई सी तुम
क्लास की अगली बेंच पर बैठने से भी
कैसी सकुचाती थी !
नए तरीक़े से मांग भी नहीं काढती थी
न तराशती थीं भवें अपनी
जिसपर दिल वाला छल्ला लगा हो
ऐसा कोई नया बैग भी नही था तुम्हारे पास
इतनी दूर से पैदल आती हो
देखो, सलवार की किनारियाँ कितनी मैली हैं!
लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगा था
जब तुमने उस दिन कहा था
कि तुम रोपा लगा रही थी
इसलिए नहीं ले सकी थीं वक़्त पर दाखिला
कितनी बेफ़िक्र थी तुम्हारी आवाज़!
छमाही में जब टॉप किया था तुमने
तो जी चाहा था गले से लगा लूँ तुमको
स्पोर्ट्स डे पर जीत लिए थे सारे मेडल
और एक लोकल रिपोर्टर के पूछने पर बताया था
मवेशियों के पीछे दौड़ते फिरने की आदत ने
आज मुझे विनर बनाया है
उस रोज़ कॉरिडोर में क्लास टीचर से
जब मांगा था पैड तुमने
तो मुझे मत छूना कहते हुए
उसने दूर से पैड पकड़ाते हुए कहा था
हो सके तो छुट्टी ले लो, यह भी ताक़ीद की थी
तुमने सवालिया लहजे में देखा था –
आप भी तो एक औरत हैं
क्या आपको नहीं होता ?
तुम्हारी अना ने
चेता दिया था उनको
कि अब तुम शिक्षित हो रही हो
भर रही हो रंग
खेतों की तरह अपनी ज़िंदगी में भी
5. स्वागत में खड़ी लड़कियां
बड़े शादी समारोहों में
स्वागत में फूल छिड़कती
वेटर बन सर मैडम कहती
मुस्कुरा कर पेश आती लड़कियां
अपडेट रहती हैं
नकली मुस्कान से
हर आने वाले को सींच देती हैं
इत्र सने मंहगे फूलों से
ऊंचाई पर एक पांव में खड़ी
ये लगातार मुस्कुराती
घूंट घूंट पी रही होती हैं दुख
कम दर्जे में ही पढ़ाई छूट गई कही
किशोर उम्र का खिलदंडापन
जब सिर चढ़ कर बोलता है
तो उसे शादी के उत्सवों में
दूसरों के इशारों पर नाच कर
करती हैं पूरा
पलकों पर ढो रही मस्कारे की परत में
छुपा के रखतीं हैं अपनी नींदें
खयाल नही रहता कि
लकदक कपड़ों में आये मेहमानों की
नजरें भेद रही हैं उनका सीना
वे बारात के स्वागत में हैं
मैनेजर चूक बर्दास्त नही करेगा
सहना और रहना है अप टू डेट
इस तमाशे और पेट की भूख के बीच का
यह अंतर नही दिखेगा किसी को
इन जगमगाती रंगीन बिजलियों में
वे अप टू डेट नही है अपनी जिंदगी में
उनका मन
दिए गए डिजाइनर कपड़ों से कहीं दूर
चीथड़े में लिपटा सांसे ले रहा होता है
कोई फर्क नही पड़ता है इन्हें
कि चमचमाती बारात की धज
कितनी अच्छी है
मंडप में गुलाब की लड़ियाँ से परे
इनकी स्थिर पुतलियां
जुटा रही होती हैं
बिन बाप के भाई के पढ़ाई के लिए फीस
बीमार मां की दवाइयां
और दो जून रोटी की जुगत
पटाखों की तीखी आवाज में गूंजती है
मकान मालिक के घर से निकालने की धमकी
इन महंगी शादियों के ठेके में
मैनेजर के इशारे पर दौड़ती
ये नन्ही कलियाँ अपने घर का छप्पर हैं
जिसके नीचे रह जाती है
दो जून के रोटी की उम्मीद
6.चौथी लड़की
इंतजार का दिन पूर गया
हर कोई देख रहा है
एक दूसरे की आंख में
तैरता कुल का सवाल
लड़का या लडक़ी?
तीन पहले से हैं
इस बार रखना नही है
सबकी मौन सहमति
पसरी है वातावरण में
वह घबड़ाई हुई है
बार- बार सिमर रही है देवता
हे प्रभु! लड़का ही हो
पेट पर स्नेह से हाथ फिराती
बिकलता में टोहती है
शिशु की धड़कन
गहरी सांस में घुली
यह चिंता युगों की है
न जाने कितनी मांओं के
घुटते मौन में
कांपे होंगे ये शब्द
लड़की हुई तो…
तभी
हरे पर्दे से आधा झांकते
डॉक्टर की सूचना कहती है
जुड़वा हैं
एक लड़का और एक लड़की
बिटिया का स्वीकार
मजबूरी ही सही
निर्दोष की जान तो बची
चौथी बेटियां इसी तरह बचती हैं
मन भर खिलखिलाती हैं मां के मन में
नाल छोड़ थाम लेती हैं
भाई की नन्ही उंगलियां
जन्मदात्री की अधखुली आंखों में
भर आती हैं अथाह नदी बनकर
जुड़ा देती हैं धरती की छाती
7. मौन
कुछ बच्चे कुछ नही सुनते
कुछ बच्चे कुछ नहीं बोलेते
वे देखते है दुनिया अपनी आंखों से
दुनिया का अर्थशास्त्र और भूगोल
समझते है बिना सुने बिना बोले
नदी के शोर का मनोविज्ञान
बारिश का संगीत
खौफनाक समय की आवाजें भी
समझते है यूँ ही खेल खेल में
भाषा के गणित में
नही उलझता इनका मन
जानते नही भाषा की गिरावट
इनकी जुबान पर नही उगते
गालियों के कैक्टस
इन्हें बेचारे न कहिएगा
सारे संकेत समझते है ये
जुबान वालों से भी ज्यादा
देखा है मैंने इन्हें
मादर की थाप पर थिरकते
सावन सा झूमते
होस्टल के सिकुड़े कमरों में
रच रहे है नया समाजशास्र
आपसी मेल का
पढिये कभी इनकी आंखों में
तैरती आदिम लिपियाँ
मिलेगी आदमियत की परिभाषा
जो जुडती है
मानवता के पहले छोर से
इनका मौन
दुनिया को निःशब्द करता है
ये सलोने बच्चे
नही लड़ते स्वार्थ के लिए
ये बच्चे हासिल करते है
अपने सपने अपनी हैसियत से
8. स्मृतियों के कोठार की बारिश
बारिश में हरी होती हैं यादें गांव की
और मन मे उग आता है
रोपाया हुआ धान
क्षितिज से जुड़ते पानी से लबरेज खेत
जिसके आईने में
करवट लेते बादल उभरते थे
छप्पर से टपकता पानी
एल्मुनियम के कटोरे में
टूटकर नाचता था रात भर
मन की तरह
देर तक
चाची के हाथों का जादू था
महुए का लाटा
ऐसे सीलन भरे दिनों में
जिसकी गमक से
बौरा जाता था पूरा गांव
आती है अब भी वह
सुधियों की पालकी में
चूल्हे पर चढ़ाए भूंजा की तरह
काका की बैलगाड़ी में नधे
बैलों के गले की घण्टियों के सुरों पर
थिरकती बरसात की सांझ
तह कर के रखी है
स्मृतियो के कोठार में
खुल खुल जाती है जो
इन बूंदों के साथ
बाबा की चौपाल का विमर्श
और सुखई काकू की पुकार
मर गई सब बकरियां हुकुम
कैसे जियेगा परिवार
उनकी कातरता से सने शब्द
हूक उठाते है अब भी
ऐसे दिनो में सोचती हूँ
कोई सुखई काका अब भी
पुकारता होगा किसी को?
अकाश भर बादलो की झड़ी में
मन गांव हो जाता है
विचारों के फ्लेशबैक में
डूबती उतराती हूँ
अपने हरे भरे गांव के
नदी नालों पोखरों में
क्या वहां अब भी पानी होगा
स्मृतियों से भर आईं मेरी आँखों जैसा ?
9. बीज के स्वप्न
इन दिनों सरगुजिहा माटी में
खिलते हैं सुंदर आसमानी फूल
जिनकी उनमुक्त हंसी
बिखर गई है
यहां की कच्ची पक्की सड़को पर
इन बीज से फूटे नवांकुरों की
बन्द मुट्ठियों में
भरे हैं चमकीले सपने
जो इनके बढ़ते कदमों के साथ
सच के करीब होते जाते हैं
कल इनका ही है
नन्हे हाथों ने थाम ली हैं कलम
अपनी इबारत लिखने को
बस्ते की किताबें मुस्कुराती हैं
खुशी से भागते इनके
मिट्टी सने कदमों की आहट सुनकर
वे मुखातिब हैं स्कूल को
और जून की तपिश में
नरम हो रही जिंदगी की जमीन
अँकुआएँगे ये नन्हे बीज
जुलाई उर्वर हो उठेगा
बूंदों की सजेंगी लड़ियाँ
गमकती धरती करेगी प्रार्थना
अक्षर सीखें, समझें, बढे
बची रहे इनकी
सुबह सी निर्मल हंसी
और बचा रहे आंखों का पानी
मक्कारियों के पाठ से रहें अनजान
लग न पाए इनके सपनो में सेंध
पढ़ कर सहेजेंगे अपने अधिकार की जमीन
ये इस माटी के बीज हैं
इन्हें उगना होगा
ताकि हरी रहे
सरगुजा* की माटी
* सरगुजा – उत्तरी छत्तीसगढ़
10. शाहीन बाग की औरतें
शाहीन बाग की औरतें बिकाऊ नहीं
ये पितृसत्ता के भय का विस्तार हैं
मुक्ति का यह गीत बनने में
सदियां लगीं है
अब जान गईं हैं, जाग गई हैं
जाने कितने शाहीन बाग खिलेंगे अब
ये रास्ते हैं भविष्य का
यह मुखरता
लोकतंत्र की अभिव्यक्तियाँ हैं
इन औरतों ने
आँचल को बना लिया है परचम
और लहरा दिया है पीढ़ियों के हक में
सीखा है यह प्रतिरोध
चूल्हे की मध्यम आंच पर
भात पकाते पकाते
ये बिकाऊ नही हैं
ये जातियां नही हैं
ये साधनारत समूह हैं
इतिहास बनाती ये औरतें
निर्बंध नदी की धार की ध्वनियां हैं
ये मनुष्यता के पक्ष का
जीवित प्रमाण हैं
सीखें इनसे इंसान होनें का मंत्र
ताकि बचा रहे
हमारी नसों का नमक पानी
11. गुलाबी के हिस्से की भूख वाली फ़ाइल
थोड़ी सी जमीन कुछ मुर्गियां
और कुछ बकरियों की मालकिन है गुलाबी
बेतरतीब छप्पर वाली छानी
से बहते पानी की धार
जमी है उसके सूखे होठों पर
सफेदी लिए
वह बोलती कम है मुस्कुराती ज्यादा है
यह जो ज्यादा है
वही शोर है उसका
कहाँ है विकास ?
इधर आने से रोका है किसने
पुरानी धोती की तह में
संजो के रखा है उसने गुलाबी कार्ड
उसे नही पता उसके हिस्से की भूख
फाइलों में दर्ज है उसी के नाम से
घर की संगी है स्कूल
और स्कूल की घण्टियाँ भी
वहाँ से आने वाली प्रार्थनाओ के राग पर
दोहरी होती गुलाबी
गेहूँ की बालियों पर
बगरी जाड़ों की पीली धूप है
गांव की कच्ची दीवारों पर
गेरूआ रंग से लिखे हैं
शिक्षा अधिकार के
बहुत क्रांतिकारी नारे
उसकी पोती स्कूल नही जाती
लकड़ा की पत्तियां औऱ फूल चुनती है
कोठार नही
अपना पेट भरने के लिए
मोबाइल से हमने ली है
उसके जीवन वितान की रंगीन तस्वीरें
तस्वीरों में लकड़ा के फूल
और गुलाबी हो उठे हैं
माहू लगे खेतों का रंग काई हो गया है
उसके आंखों मे पीली नदी सोती है
लाख एडिट के बाद भी उभर आई है
वे एक जोड़ा आंखें
हजार आंखों की शक्ल में अनगिनत सवाल लिए स्क्रीन पर
हमे लौटना ही है
हम लौट रहे हैं शहर
गाड़ी की रफ्तार में तेजी से पीछे छूट गए गुलाबी के गांव से
हमने चुनी हैं पीले रंग की हरियाली
जुड़ी रहेगी उसकी याद
हमेशा गर्भ नाल सी
पोषित करती रहेगी
जीवन और जीवन की विडम्बनाओं को
*लकड़ा – छत्तीसगढ़ में होने वाली एक भाजी जिसके फल लाल रंग के होते हैं और फूल पीले होते हैं। इसकी चटनी स्वादिष्ट बनती है। इसे सुखाकर रखा जा सकता है और बाद में उपयोग किया जाता है। सरगुजा में यह बहुप्रचलित है।
12. भोलवा की आंख का सावन
भोलवा गांव छोड़ गया है
उसकी जमीन खिसक कर जुड़ गई है
कार्पोरेटी विकास के पन्नों पर
उसका कोई नही यहां
शहर की तरफ जाती
पिकअप में बैठ गया था भोलवा
बार बार पीछे पलटता मन
तेज हवा में सब हिल रहा था
कुदरत विदा कर रही थी उसे
अन्तस् की हूक गटकते
सोच रहा है भोलवा
अच्छा ही हुआ छोड़ आया गांव
फूस की झोपड़ी को
धुंए में बदलते देखता भी कैसे
शहर में टीन शेड की छाँह
अब उसका घर था
दया की बची रोटियां लोग डाल देते कुछ
तो कुछ मुँह फेर लेते
चिथड़े में लिपटा बचपन
और करिया गया था
पर क्या फर्क पड़ना था
गरीब की किस्मत में
मान लिया जाता है कि
यही उसका जीवन है
अभी सावन आया है
भोलवा शंकर जी बनेगा
जय भोले समिति ने उसे ढूंढ लिया है
देह में भभूत सर पर चाँद
मृगछाला कमंडल में वह समाधि में लीन मानो शिव हो
भीड़ बढ़ती झांकी के गिर्द
दोनो हाथ उठा आशीष देता भोलबा
ईश्वर हो गया था
गले में लिपटे सांप का लिजलिजापन
मिल रहे सुख की अनुभूति में
छुप गया था
सजे ठेले में भोलवा पर
पैसों की बरसात हो रही थी
वह शहर को चमत्कार मान रहा था
कि इतना बुरा भी नही होता शहर
सावन बीता
झांकी के पाल उतरे
भीड़ भी खत्म हो गई
भोलवा खुश था
शरीर अकड़ गया था तो क्या
अब मिलेंगे बहुत से रुपये
खा सकेगा पेट भर
और एक दरी एक कंबल खरीदेगा
कंक्रीट की जमीन
चुभती बहुत है कमबख्त
पर भोले का रूप उतारते ही
ठेला और समिति
सब गायब हो गए
भोलवा छ्ला गया
उसके मूर्छित मंसूबे को
वेंटिलेटर भी न हासिल हुआ
मुदित हर्षित जन
जिसके पास भरा पेट और भरपूर समय है
दूर दूर तक जाकर जल चढ़ा आया
पर अब सावन में भी पानी नही बरसता
सूख रही है धरती
भोलवा की आंखों की तरह
13.पोखर भर दुःख
आते जाते देखती हूँ
यह उदास पोखर
और उस पर गुजरते
मौसमों को भी
कुमुद का बड़ा प्रेमी
पुरइन पात पर लिए प्रेम उसका
अंतस में सोख लिया करता है
और पी लिया करता है
धरती का दुख भी
तपिश के दिनों में
करेजे पर उगे उसके प्रेम साँचें को
सौदाइयों ने नोच फेंका एक दिन
और रोप दिया कमल
क्योंकि यह जरूरी था दिवाली
और बाजार के लिये
खिल गए देखते ही देखते
अनगिनत गुलाबी कमल
पोखर भी मुस्कुराने लगा
कमलिनी कितनी खुश थी
पीले वल्वों से सजे घाट
मेल मुलाक़ातों से उभरी खुशी
बच्चों की खिलख़िलाहट देखकर
कार्तिक बीता
और बाजार को भेंट हुए कमल -कमलनी
कमलनाल के ठूंठों से बिंधी
बची रही पोखर की छाती
रोपी गई सुंदरता अस्थाई थी
जो बिक गई बाजार
अब कौन आएगा इस ठाँव
ठूँठ की बस्ती में भला कौन ठहरता है
गाय गोरु आते हैं
पूछते हैं हाल
दादुर मछली और घोंघे बतियाते है मन भर
पांत में खड़े बगुले किनारे से
सुनते हैं उसके मन का अनकहा
नया फरमान आया है कि
यहां अब बनेगा बारात घर
फालतू जगह घेरे है
स्विमिंग पूल तो हैं
फिर शहर में पोखर का क्या काम
ओ मेरे रास्ते के साथी!
तुम्हे देख कर ही सीखती आई हूँ
दुर्दिनों में खुश रहने का राग
तुम्हारे वजूद को नष्ट कर देना
जीवन की नमी को नष्ट कर देना है
तुम्हारे जाने के बाद
बजता रहेगा साज
जैसे शहनाइयों पर धुन
किसी
करुण विदागीत की
14 .फाइनल ईयर की लड़कियां
मुस्कुराती हैं
खिलखिलाती हैं
स्कूटी के शीशे में
खुद को संवारती
कॉलेज बिल्डिंग के साथ
सेल्फी लेतीं है
फाइनल ईयर की लड़कियां
ग्राउंड स्टाफ से सीखती हैं
जीवन का पाठ
विषमताओं से जूझने की कला
उनके मन के सपने
नीली चिड़िया के साथ
उड़ जाते हैं दूर आसमान में
भूगोल के पन्ने पलटते
कर लेती हैं यात्राएं असंभव की
सेमिनार और असाइंमेंट में उलझती
कविता की लय में
तिनके सी बहती
वर दे, वीणावादिनी वर दे
की तान में
सबसे प्यारा हिंदुस्तान की
लय के साथ
रस विभोर हो जाती
जी लेती है क्षणों को
निबंध और पोस्टर लेखन मे
नारी जीवन का मर्म अंकित करती
ये फाइनल ईयर की लड़कियां
अंतिम साल को जी लेने की
कामना से भरी
विदा के मार्मिक क्षणो में मांगती हैं
बिन बोले आशीष गुरुओं का
वे
खुश रहो ! के मौन शब्द
पढ़ लेती हैं और मुस्कुरा देती हैं
नीले पीले दुपट्टों वाली
गाढ़े सपनो वाली
तीन सालों की पढ़ाई के बाद
जाने कहाँ चली जाती है
ये फाइनल ईयर की लड़कियां।
15. प्रेम वलय
मेरी अन्तःयात्रा में
कोई मेरे साथ चल रहा है लगातार
गुलाबी वसंत हो या
पतझड़ी मौसमो की खिन्नता
वो राह की अड़चनों
को बहोरते हुए साथ है
घूमता है वो मेरी आँखों में
रेटीना के बीच काले बिंदु में
विषम तिराहे पर उसका
गोलाकार हो जाना
और थामना हाथ मेरा
बैसाखी हवा का बबंडर नही प्रेम है
उसकी समग्रता में मेरा वजूद
मिट्टी में बीज की तरह
एकाकार है
यहां आषाढ़ के दौगरे नही पड़ते
केवल जेठ की तपिस है
इसी में सींझ कर प्रेम पकता है
रिश्ते की भाप पर
जब प्रेम के उनींदे बीज आँखुयेगे
कोपलें सयानी होंगी
तब आएगा बरसाती मौसम
भरेगी उम्मीद की नदी
और फिर
गीत गायेगी चिड़िया
(कवयित्री मृदुला सिंह, शिक्षा- एम.ए., एम .फिल., पीएचडी.
साहित्यिक गतिविधियों में भागेदारी, व्याख्यान ,संचालन आदि।
देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लेख,कविताएँ लघुकथा का प्रकाशन और कई ऑनलाइन साहित्यिक मंचों से लाइवकाव्य पाठ
पुस्तक संपादन-
1. सामाजिक संचेतना के विकास में हिंदी पत्रकारिता का योगदान
2 .मोहन राकेश के चरित्रों का मनोविज्ञान (प्रकाशित पुस्तक)
3. ब्रम्हराक्षस – मुक्तिबोध पर केंद्रित पुस्तक (प्रकाशाधीन)
4. छत्तीसगढ़ की महिला कहानीकारों पर केंद्रित कहानी संग्रह (प्रकाशाधीन)
संप्रति -होलीक्रॉस वीमेंस कॉलेज अम्बिकापुर, सरगुजा, छत्तीसगढ़ में सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष( हिंदी)
ईमेल – mridulas439@gmail.com
टिप्पणीकार डॉ. कामिनी त्रिपाठी छत्तीसगढ़ के शासकीय नवीन कन्या महाविद्यालय बैकुंठपुर में हिंदी की सहायक प्राध्यापक। जन संस्कृति मंच से सम्बद्ध हैं। स्त्री प्रश्नों पर सक्रिय और मुखर हैं।)