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अर्नेस्तो ‘चे’ ग्वेराः नये मनुष्य के निर्माण का स्वप्न

संजय कुंदन


बीते नौ अक्टूबर को महान क्रांतिकारी अर्नेस्तो चे ग्वेरा की शहादत को दुनिया भर में याद किया गया। इस मौके पर बीस वामपंथी प्रकाशकों के एक समूह ने बीस भाषाओं में सामूहिक रूप से चे ग्वेरा पर एक निःशुल्क पुस्तक जारी की। इनमें दिल्ली का लेफ्टवर्ड बुक्स औऱ वाम प्रकाशन भी शामिल है, जिन्होंने क्रमशः अंग्रेजी और हिंदी में यह किताब निःशुल्क पीडीएफ के रूप में प्रकाशित की है।

आज की नयी पीढ़ी को चे ग्वेरा के विचारों से अवगत कराने में इस किताब की अहम भूमिका होगी।

चे ग्वेरा का उद्देश्य सिर्फ क्यूबा को अमेरिकी साम्राज्यवाद और पूंजीवाद से बचाना नहीं था। वह समस्त विश्व को पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के चंगुल से छुटकारा दिलाना चाहते थे।

उनका जन्म 14 जून 1928 को अर्जेंटीना के रोसारियो में हुआ था। वह डॉक्टर, लेखक, गुरिल्ला युद्ध के विशेषज्ञ, सामरिक सिद्धांतकार और कूटनीतिज्ञ थे। चिकित्सीय शिक्षा के दौरान चे पूरे लैटिन अमेरिका में घूमे।

यात्रा के अंत में 1953 में वह ग्वाटेमाला पहुँचे, जहाँ वह क्यूबा के निर्वासितों के एक समूह से मिले, जिन्होंने उन्हें “चे” नाम दिया। वह सीआईए द्वारा जैकब अर्बेंज़ के तख़्तापलट के गवाह बने।

जुलाई 1955 में वह फ़िदेल कास्त्रो से मिले और फुलगेन्सियो बतिस्ता की तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ाई में शामिल होने का फ़ैसला किया। 25 नवंबर 1956 को क्यूबा के सिएरा मेस्टरा पहाड़ों में फ़िदेल कास्त्रो के नेतृत्व में गुरिल्ला युद्ध शुरू करने के लिए चे “ग्रांमा” नाम की नौका में 81 अन्य लोगों के साथ सवार हुए।

जल्दी ही चे को पदोन्नति मिली और उन्हें कमांडर बना दिया गया। उन्हें कायरे रोडोंडी की आठवीं सैन्य टुकड़ी के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी दी गई। 24 फ़रवरी 1958 को चे द्वारा बनाई गई “रेडियो विद्रोही” का पहला प्रसारण हुआ।

29 से 31 दिसंबर 1958 को चे ने सांता क्लारा की लड़ाई का नेतृत्व किया। यह बतिस्ता के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई थी। 3 जनवरी 1959 को क्रांति की सफलता के साथ चे हवाना आए। उन्हें ला काबेना के सैन्य क़िले पर क़ब्ज़ा करने की ज़िम्मेदारी फ़िदेल ने सौंपी थी।

12 जून 1959 को वाणिज्यिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के लिए चे क्यूबा का एक प्रतिनिधिमंडल लेकर संयुक्त अरब गणराज्य, भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका, यूगोस्लाविया, म्यांमार, जापान, पाकिस्तान, सूडान और मोरक्को गए। फिर जनवरी – मार्च 1965 के बीच उन्होंने सरकारों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के प्रमुखों से मिलने के लिए चीन, माली, कौंगो, गिनी, घाना, डाहोमी, तंज़ानिया, मिस्र, अल्जीरिया की यात्रा की।

24 फ़रवरी 1965 को अल्जीरिया में चे ने द्वितीय एफ्रो-एशियाई एकजुटता सेमिनार में अपना वक्तव्य दिया। उसके बाद एक
अप्रैल 1965 को चे कौंगो के क्रांतिकारी संघर्ष में लॉरेंट कबीले के गुरिल्ला बलों में शामिल होने के लिए नये भेस में क्यूबा से चले गए।

21 नवंबर 1965 को कौंगो में लगभग सात महीने गुजारने और मिशन के विफल होने के बाद चे तंज़ानिया के लिए रवाना हो गए जहाँ वह कई हफ़्तों तक गुप्त तरीक़े से रहे। दिसंबर के अंत में उन्होंने चेकोस्लोवाकिया की यात्रा की, वहाँ भी वह कई महीनों तक गुप्त तरीक़े से रहे।

3 नवंबर 1966 को नानकाहुआज़ु क्षेत्र में सशस्त्र संघर्ष शुरू करने के लिए चे बोलिविया पहुँचे जहां 8 अक्टूबर 1967 को क्यूबर्डा डेल युरो में बोलिविया की सेना के साथ युद्ध के दौरान सीआईए की सलाह पर उन्हें क़ैदी बना लिया गया और 9 अक्टूबर 1967 को दोपहर 1:30 बजे ला हिगुएरा शहर के एक छोटे से स्कूल में सार्जेंट मारियो टेरान द्वारा चे की हत्या कर दी गई।

चे दुनिया भर में व्याप्त असमानता और गरीबी के लिए उपनिवेशवाद और साम्राज्वाद को जिम्मेदार मानते थे। उनकी सोच यह थी कि विभिन्न उपनिवेशों में स्वतंत्रता के लिए चल रही लड़ाई एक व्यापक स्वरूप ग्रहण करे। वह न सिर्फ राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हो बल्कि वह समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का भी एक अभियान हो।

उनका सोचना था कि तार्किक रूप से समाजवादी देश ही साम्राज्यवाद से लड़ सकते हैं। वह चाहते थे कि तीसरी दुनिया के सारे देश मिलकर साम्राज्यावाद का मुकाबला करें। उनके लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का आदर्श वियतनाम था। उन्होंने साफ कहा कि एक नहीं दो नहीं कई वियतनाम बनाएं।

चे मानते थे कि समाजवादी देशों को वियतनाम को खुलकर मदद करनी चाहिए सिर्फ बौद्धिक सहानुभूति काफी नहीं है।

चे के विचार में समाजवादी समाज के निर्माण के लिए सबसे जरूरी है ऐसे ‘नये पुरुष और स्त्री’ का विकास जो अलगाव से मुक्त हों , जिनमें क्रांतिकारी सामाजिकता की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो। उनका मानना था कि क्रांति का एक सबक है कि मनुष्य की चेतना को विकसित किया जाए।

चेतनासंपन्न व्यक्ति ही बदलाव का वाहक बनेगा।
उन्होंने क्यूबा में कायम नयी व्यवस्था को समाजवादी व्यवस्था के एक मॉडल के रूप में पेश किया। जाहिर है, पूरी दुनिया के लिए वह ऐसे ही समाज का स्वप्न देखते थे। अपने लेख ‘क्यूबा में व्यक्ति और समाजवाद’ में वह लिखते हैंः
‘नयी संस्कृति विकसित करने के क्रम में काम सबसे महत्व रखता है। अब मनुष्य को वस्तु समझने की धारणा खत्म हो गई है। अब एक ऐसी प्रणाली स्थापित हुई है जिसमें एक मनुष्य के सामाजिक दायित्व के रूप में उसके लिए काम का हिस्सा निर्धारित है। अब उत्पादन के साधनों पर समाज का नियंत्रण है और मशीन केवल एक मोर्चा है जहाँ काम किया जाता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति इस कष्टप्रद सोच से मुक्त होने लगता है कि एक प्राणी होने के नाते उसे अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काम करने की आवश्यकता है। व्यक्ति स्वयं को अपने काम में देखने लगता है और स्वयं द्वारा निर्मित वस्तु तथा किए गए काम में अपने मनुष्य होने की पूर्णता को महसूस करता है। तब काम किसी को बेची गई श्रम शक्ति के रूप में किसी को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर नहीं करता है। काम अब व्यक्ति से सम्बंधित नहीं रहता, बल्कि स्वयं की अभिव्यक्ति बन जाता है, यह आम जीवन में दिया गया योगदान होता है, जिसमें उसका प्रतिबिंब होता है, और उसके सामाजिक कर्तव्य का निर्वहन भी।’

वह सोवियत संघ और चीन के मतभेदों से खिन्न रहते थे। उन्हें लगता था कि इससे साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कमजोर पड़ा है।

उन्होंने साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई को लेकर सिर्फ सैद्धांतिक बातें नहीं कीं बल्कि उसकी रणनीति भी स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि युद्ध को गुरिल्ला स्वरूप दिया जाए और उन क्षेत्रों तक लड़ाई को खींच लिया जाए जहां तक आने में साम्राज्यवादी देश असुविधा महसूस करें। हालांकि जिस गोलबंदी की बात वह कर रहे थे, वह साकार रूप नहीं ले पाई।

उन्हें अपनी सीमाओं और परिणति का अहसास था। वह समझौता करने के बजाय लड़ते हुए मर जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने लिखाः “अगर हमें किसी दिन किसी भी भूमि पर-जो दरअसल हमारी ही होगी,हमारे ख़ून से सींची हुई – अंतिम सांस लेनी पड़े तो उसका यही संदेश होगा कि हम अपने अभियान में किसी भी हद तक जा सकते हैं। हम ख़ुद को महान सर्वहारा सेना का एक सिपाही समझते हैं। …. हमारा हर अभियान साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एक संघर्ष है और मनुष्य जाति के महान दुश्मन संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध लोगों की एकता के लिए युद्ध का स्तुतिगान है। अगर अचानक हमारे सामने मृत्यु आ जाए तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए, ये मानते हुए कि हमारी लड़ाई का शोर कुछ संवेदनशील लोगों तक पहुँचेगा, कुछ हाथ उठेंगे और हमारे हथियार थाम लेंगे। कुछ लोग मशीनगन की कर्कश ध्वनि के साथ मर्सिया की धुन मिलाते हुए शवयात्रा की तैयारी करेंगे और नये संघर्ष में युद्ध और विजय का सिलसिला जारी रहेगा।”

सिर्फ 39 की उम्र में ही उन्होंने कई तरह के कार्य किए। उन्होंने बड़े पैमाने पर लिखा, जो अभी भी दुनिया के सामने पूरी तरह नहीं आ पाया है। वह निरंतर कविताएँ लिखते थे। उनकी कविताओं में उनकी बेचैनी और स्वप्न की झलक मिलती है। ‘फिदेल के लिए एक गीत’ में वह लिखते हैंः

हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे ।
जब पहले ही धमाके की गूँज से
जाग उठेगा सारा जंगल
एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में
तब हम होंगे वहाँ,
सौम्य अविचलित योद्धाओ,
तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए ।
जब चारों दिशाओं में फैल जाएगी
तुम्हारी आवाज़ :
कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,
तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,
उसी स्वर में बोलते ।

 

 

 

लेखक : संजय कुंदन 

जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना में
पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए।
नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और राष्ट्रीय सहारा जैसे अखबारों में पचीस साल की पत्रकारिता के बाद फिलहाल
वाम प्रकाशन, दिल्ली में संपादक के रूप में कार्यरत।

प्रकाशित कृतियां:
कागज के प्रदेश में (कविता संग्रह)
चुप्पी का शोर (कविता संग्रह)
योजनाओं का शहर (कविता संग्रह)
तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह)
बॉस की पार्टी (कहानी संग्रह)
श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह)
टूटने के बाद (उपन्यास)
तीन ताल (उपन्यास)
पुरस्कार/सम्मान:
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार
हेमंत स्मृति सम्मान
विद्यापति पुरस्कार
बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार

अनुवाद: जौर्ज औरवेल के उपन्यास एनिमल फार्म, जेवियर मोरो के उपन्यास पैशन इंडिया और रिल्के की कृति लेटर्स औन सेजां का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद।
कुछ नुक्कड़ नाटकों का भी लेखन। अनेक नाटकों में अभिनय और निर्देशन।
लघु फिल्म इट्स डिवेलपमेंट स्टुपिड की पटकथा का लेखन।
रचनाएं मराठी, असमिया, पंजाबी और नेपाली में अनूदित।

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