( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की ग्यारहवीं क़िस्त में प्रस्तुत है लखनऊ महानगर में आ बसे कुमाऊंनी और आधे बंगाली संस्कृतिकर्मी नंदकुमार उप्रेती की कथा . सं.)
उप्रेतीखोला, पाँखू, पिथौरागढ़ में एक मार्च 1930 को जन्मे नंद कुमार उप्रेती की कहानी एक सामान्य पहाड़ी बच्चे का उस जमाने का लगभग आम किस्सा है लेकिन उसमें रहस्य, रोमाच का पुट भी खूब है. एक गरीब परिवार में जन्म और कम उम्र में शहरों की ओर पलायन. लखनऊ पहुंच कर ठोकरें खाने और सम्भलने से पहले बालक नंद कुमार ने जो अजीबोगरीब या दुस्साहसिक कदम उठाये तथा इस कारण जो झेला वह उनकी कहानी को विशिष्ट बनाता है. इस कहानी का बड़ा उजला और प्रेरक पक्ष यह है कि नंद कुमार के भीतर शायद कोई ऐसी चीज थी जो उन्हें हर भटकन से उबारती और रचनात्मक दिशा में ले जाती रही.
पिता कृष्णानन्द उप्रेती ने बालक नंद कुमार को पांखू के स्कूल में भर्ती कराया. अपर स्कूल यानी दर्जा चार तक वे वहीं पढ़े. उसके बाद मिडिल स्कूल में भर्ती होने काण्डा भेजे गये जो उस इलाके के बीसियों मील क्षेत्र में तब अकेला ही था. काण्डा के समीप खंतोली गांव में नंद कुमार की ननिहाल थी. मामाओं के साथ रह कर उन्होंने सातवां दर्जा यानी वर्नाक्युलर मिडिल पास किया. इतनी पढ़ाई तब काफी मानी जाती थी.
पिता ने किशोर नंद कुमार को गांव-घर के काम में लगाना चाहा. सातवीं पास बालक को यह पसंद नहीं आया. वह जंगलों में अकेले भटकता रहता था. ज्यादा टोका-टाकी पर एक दिन वह बिना किसी को बताये घर से भाग गया. अगले बारह-तेरह वर्ष वह लापता रहा. युवा नन्द कुमार उप्रेती लखनऊ में तनिक स्थिरता पाने के बाद ही 1954-55 में अपने गांव पांखू लौटे. तब-तक माता पिता जीवित नहीं रहे थे, दो छोटे भाइयों को भी लेकर वे लखनऊ आ गये, जहां वे खुद पैर टिकाने की जद्दोजहद में थे.
घर से भाग कर अपनी किशोरावस्था के 12-13 साल कहां-कैसे बिताये, बहुत बाद में इसका किस्सा उप्रेती जी खुद अपने निराले अंदाज में सुनाया करते थे. छिट-पुट फेरबदल के साथ कई बार सुनी इस कथा के अनुसार उनके मन में जोगी बनने की जैसी ठहरी थी. सिद्धि हासिल करने की बात जाने कहां से मन में बैठ गयी थी. वे किसी गुरु की तलाश में टनकपुर और हल्द्वानी के जंगलों में भटके. पेट भरने के लिए होटल-ढाबों में बरतन मांजे. फिर हल्द्वानी के जंगल में एक उड्यार (गुफा) में कोई संन्यासी मिला. उसके शिष्य बन कर सेवा में जुट गये. एक रात जब बाबा गुफा में नहीं थे कुछ चोर-अपराधी वहां आ गये. उन्होंने नन्द्कुमार से पूछा कि बाबा ने रुपये वगैरह कहां छुपा रखे हैं? उसने बताया कि बाबा रुपये-पैसे कुछ ग्रहण नहीं करते. भिक्षा में सिर्फ आटा-दाल-चावल मांगते हैं. चार दिन से बाबा लौटे नहीं हैं. लुटेरे चले तो गये मगर नंदकुमार को धमकाते गये कि सुबह होते ही यहां से चले जाना और फिर मत आना.
अगली सुबह-सुबह किशोर नंदकुमार वहां से भाग लिया. फिर कुछ समय लालकुआं-रुद्रपुर की तरफ भटके, बर्तन मांजे. फिर पता नहीं कैसे एटा पहुंच गये. एटा का किस्सा उन्होंने अपने एक कुमाऊंनी संस्मरण में भी लिखा है- “एटा जिले के ढकियान की बात है- ढाक का जंगल. गांव से चार-पांच मील दूर श्मशान के इर्द-गिर्द भटकता था मैं. न कोई नदी न नाला. लोग मुर्दे लाते और कण्डों ( गोबर के उपले) के ढेर में उसे जला कर, कुएं में नहा कर वापस लौट जाते. पता नहीं क्या सोच कर मैं उस श्मशान के पास रहने लगा. जलते मुर्दों को देखता रहता. आस-पास बेर की झाड़ियां थीं. वही बेरियां खाता. न कभी भूत दिखा न मशान, न खबीश. एक रात नींद में लगा कोई मेरा पैर घसीट रहा है. सोचा कि आज मिल गया भूत. उठ कर देखा तो सियार था.
“एक रात घोड़े में सवार, मुंह पर कपड़ा लपेटे कुछ लोग आये. उनके कंधों पर बंदूक थी. डकैत रहे होंगे. बोले- जब से आये हो तुम पर हमारी नजर है. कौन हो और क्यों यहां आये हो? मैंने कहा- आदमी हूं. मनुष्य चिता में राख कैसे बन जाता है, यही देखता हूं. उनमें से एक ने मुझे पांच रु दिये और चले गये. रुपये देख कर मेरी भूख जाग गयी. गांव की तरफ दौड़ा. एक हलवाई से पूरियां खरीदी लेकिन मुंह का ग्रास गले से नीचे उतरा ही नहीं. उस भूख की याद आज भी आती है.”
इस कहानी पर सहसा विश्वास नहीं होता मगर जिन लोगों ने उप्रेती जी को कुछ समय तक देखा-जाना है, जिन्होंने उनकी थोड़ी भी संगत की है, वे इसे उप्रेती जी का मनगढ़ंत किस्सा नहीं मान सकते. नियमित योगिक क्रियाओं के अलावा संन्यासियों, तांत्रिकों से सम्पर्क और मसाण (भूत) साधने की उनकी गतिविधियां अंत तक जारी थीं.
कुछ समय बाद उनके पैर लखनऊ की धरती पर पड़े. कुछ समय यहां भी बर्तन-भाण्डे मांज कर पेट की भूख मिटाई. ऐसे मौके भी आये जब उन्होंने सड़क निर्माण में लगे गिट्टी-ईटें ढोये. तभी एक रोज सड़क पर हुए हादसे ने उन्हें एक राह पकड़ा दी. खुद उनके शब्दों में- “ऐसा हुआ नबीन (वे मुझे ‘नवीन’ नहीं बुलाते थे) कि मैं सड़क किनारे-किनारे जा रहा था. एक ताँगे वाले का घोड़ा बिगड़ गया ठैरा. उसने पिछाड़ी मारी और यार नबीन, उसकी लात मेरे मुख पर पड़ी। ये देख, सामने का दाँत तभी टूटा।‘ वे पूरी बत्तीसी खोल कर सामने का टूटा दांत दिखाते. “तो मैं घोड़े की लात खा कर सड़क में पड़ा ठैरा. खुन्यौइ (खून ही खून) हो गयी ठहरी. भीड़ लग गई वहां. मैं ‘ओ इजा, ओ बबो’ करके रोने वाला हुआ. पहाड़ी लोग कहने वाले ठैरे-लड़का पहाड़ी है शायद. मगर यार, किसी पहाड़ी ने मुझे उठाया नहीं. खून से लथपथ मुझको उठाया एक आदमी ने जो बंगाली था. मेरा यहां कोई नहीं है जानकर वही अपने घर ले गया. अपने यहां रखा. खिलाया-पिलाया.’
तब से वे बंगालियों की संगत में रहे वे. कुछ दिन बाद एक बंगाली की दुकान में काम मिला. उसने घर में रहने की जगह भी दे दी. इस बीच पढ़ने-लिखने में उनकी रुचि बढ़ने लगी. यह देख कर बंगाली दुकानदार ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया. पढ़ाई और दुकान की नौकरी साथ-साथ चली. कुमाऊंनी की बजाय अब वे धारा प्रवाह बांग्ला बोलने लगे थे. बांग्ला साहित्य से भी परिचय बढ़ा. बंगालियों ने ही उन्हें बंगालियों के नामी कॉलेज विद्यांत में दाखिला लेने की सलाह दी. यहीं से उन्होंने हाई-स्कूल और इण्टर पास किया. बांग्ला साहित्य में उनकी अच्छी पकड़ होती गयी. बांग्ला में लिखना भी शुरू कर दिया था. कुछ बांग्ला रचनाओं का अनुवाद किया. बांग्ला पत्रिकाओं में छपने लगे. लखनऊ के बंगालियों में उनकी पहचान बढ़ी.
विद्यांत कॉलेज के संस्थापक बंगाली भद्रपुरुष विक्टर नारायण विद्यान्त तक उनकी ख्याति पहुंची. एक गैर-बंगाली युवक की बांग्ला में ऐसी पकड़ देख कर खुश हुए. विद्यांत जी ने उन्हें अपने कॉलेज में बतौर शिक्षक नियुक्त कर लिया. तब वे किसी प्रायमरी स्कूल में पढ़ा रहे थे. विद्यांत कॉलेज में आने के बाद धीरे-धीरे नंद कुमार जी विद्यांत दम्पति के करीबी हो गये, उनके घर आना-जाना होने लगा. बहुत बाद में कभी रंग में आ जाने पर उप्रेती जी हम लोगों को विद्यांत जी और श्रीमती विद्यांत के किस्से सुनाया करते थे. सबसे रोचक किस्सा श्रीमती विद्यांत के बाल रंगने का होता था.
विद्यांत कॉलेज में छोटी कक्षाओं को हिंदी और संस्कृत पढ़ाने के अलावा उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी और एम ए कर डाला. बाद में इण्टर तक के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे थे. इस दौरान उनका लिखना खूब हुआ. हिन्दी, संस्कृत और बांग्ला तो आती ही थी, उन्होंने अंग्रेजी में भी दक्षता हासिल की. सन् 1960-62 तक नंद कुमार उप्रेती अपने अध्ययवसाय के बलबूते बांग्ला लेखक के तौर पर स्थापित हो चुके थे. शीर्ष बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपती थीं. हिन्दी में भी धर्मयुग, सारिका, नवनीत जैसी पत्रिकाओं के अलावा उन्होंने कई अखबारों के लिए बांगला लेख और कहानियां अनुवाद कीं. कुछ अनुवाद अंग्रेजी से भी किये. तब तक भी लखनऊ के पर्वतीय समाज को उनकी प्रतिभा की कोई जानकारी नहीं थी. दरअसल उप्रेती जी स्वयं पहाड़ियों से दूर रहते थे. अपना नाम भी वे आम तौर पर सिर्फ नंद कुमार ही लिखते थे, जो बंगालियों के ज्यादा करीब लगता था.
कुमाऊँनी कविता का शीर्षक बांग्ला में .
बारह-तेरह वर्ष घर से लापता रहने और इस बीच लखनऊ में थोड़ा ठौर बना लेने के बाद सम्भवत: 1954-55 में अपने गांव लौटे. अपने पहाड़ को वे कतई भूले नहीं थे. लखनऊ में जितने बंगाली बने फिरते थे, भीतर बसा पहाड़ उतना ही जोर मारता था. शादी पहाड़ जाकर ही की. श्रीमती उप्रेती उस परिवार में ठेठ कुमाऊंनी बोलने वाली अकेली महिला हैं. पति-पत्नी का संवाद कुमाऊंनी में होता था, बस. चारों बच्चे पिता से और आदतन मां से भी बांग्ला बोलते. लखनऊ शहर में दो लड़कियों और दो लड़कों का परिवार मास्टरी के सीमित वेतन में पालना आसान न था. उस पर उप्रेती जी बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते थे. गृहस्थी के शुरुआती दिनों में उनकी आर्थिक हालत कैसी थी, इसका विवरण उप्रेती जी के दोस्त और पत्रकार रामकृष्ण ने अपने संस्मरण में इस तरह दर्ज किया है-
“उन दिनों लखनऊ में अंगरेजी में लिखने वाले एक पत्रकार हुआ करते थे. नाम था सैयद फरहत हुसैन. फरहत साहब को प्यार में हम लोग मौलाना के नाम से पुकारते थे. हम यानी मैं और नन्दकुमार उप्रेती. उप्रेती के बारे में मौलाना की धारणा थी कि वह महान हैं, प्रतिभा-सम्पन्न हैं, मेधावी हैं, जीनियस हैं. उप्रेती उन दिनों गिलोय चढ़ी नीम जैसे थे, यानी एक मामूली स्कूल में अध्यापक. मासिक वेतन होगा कुल साठ-सत्तर रुपए. लेखन का रोग ऊपर से. इस तफ़सील के बाद उनकी आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाने में आपको कोई दिक्कत नहीं महसूस होनी चाहिए. मौलाना उनके घर का सूक्ष्म अध्ययन पहले ही कर चुके थे. उनके विनम्र आग्रहों के बावजूद, इसीलिए, उनके यहां चाय पीने से उन्होंने पूरी तरह इंकार कर दिया. इतना ही नहीं, हर प्रकार के अनुनय-विनय को सर्वथा अमान्य करते हुए एक अधिकारी की भांति उलटे उप्रेती को ही वह चाय छोड़ने का उपदेश देने लगे. इसका कारण सपना भी हो सकती है – उप्रेती की पांच वर्षीय दुहिता. (सपना, जिसका असली नाम वासवी है, अब सपना अवस्थी बनकर पार्श्व गायिका के रूप में मुम्बई में स्थापित है)
“मौलाना से एक ही दिन में सपना की प्रगाढ़ दोस्ती हो गयी थी. मौका पाकर रसोई से कोयलों का साग और राख की रोटियां बना कर वह मुझे और मौलाना को खिलाने के लिए लायी थी उस दिन. उसके राख-पुते और कोयले से काले हाथों को देख कर मैंने अनुमान लगाया था कि मौलाना अब गन्दगी और उससे होने वाली बीमारियों पर लम्बा लेक्चर झाडेंगे. मगर हिना कुछ और ही रंग लायी. मौलाना झूठ-मूठ उन चीज़ों को खाने का अभिनय करने लगे. खाते-खाते ही उन्होंने सपना से पूछा – बेटे, तुम दूध पीते हो? ‘बाबू रोज़ दूध नहीं लाते’– अबोध ने न बताने लायक बात भी सच-सच बता दी थी.
“फिर यह घटना घट गयी. उप्रेती का पाजामा फट गया था. पुराना था, उसे फटना ही चाहिए था. और एक मामूली मास्टर की ज़िन्दगी से फटा पाजामा अच्छी तरह मेल भी खाता है. मौलाना ने उस फटे पाजामे को घर में घुसते ही देख लिया था. खड़े-खड़े ही बोले थे- ‘मजनूं बने क्यों फिर रहे हो? दूसरा पाजामा पहन लो. ‘ ;होता तो ज़रूर पहन लेता,’- उप्रेती ने कुछ सकुचाते हुए जवाब दिया था. बस, मौलाना दरवाज़े पर ही रुक गये, घर के अन्दर नहीं आये. उनके चक्षु-कोटरों में छिपी आंखों ने उप्रेती को सिर से पैर तक देखा. फिर अचानक वह अपना तेज खोकर निष्प्रभ सी हो गईं. हृदय के रहे-सहे जल ने उन्हें सहसा गीला कर डाला था. वह एकदम लौट पड़े. भर्राये हुए गले से उप्रेती की तरफ़ अपनी पीठ करते हुए वह बोले थे– आज बैठूंगा नहीं. तबीयत कुछ ठीक नहीं लगती.
“दूसरे दिन उप्रेती को खोजते हुए मौलाना फिर उनके पास पहुंच गये. बगल में आक्सफ़र्ड डिक्शनरी के साथ एक-दो मोटी पुस्तकें और थीं. और, उन पुस्तकों के नीचे कागज़ में लपेट कर रखी हुई कोई चीज़. उनका मुख उस समय पूरी तरह उद्भासित हो रहा था, आंखें पहले की तरह दप-दप चमक रही थीं. काग़ज के उस छोटे से बण्डल को उप्रेती के हाथों में थमाते हुए पूर्ण तृप्ति के स्वर में वह उनसे बोले थे- ‘तुम्हारे लिये पाजामे का यह कपड़ा लाया हूं. सिलवा लेना.’ अवाक, विस्मित और निस्तब्ध होकर उप्रेती मौलाना की ओर देखते ही रह गये थे…” फिर मौलाना को वहीं छोड़ कर किसी तरह का आभार प्रदर्शित किये बिना ही उप्रेती अंदर जाकर सिसकने लगे ….”
विद्यांत कॉलेज में पढ़ाने और बाकी समय ‘आवारागर्दी’ के दिनों में उप्रेती जी नवल किशोर रोड की एक गली में ‘कुमाऊं डेयरी’ की एक छोटी सी कोठरी में रहते थे. यह कोठरी अक्सर बड़े-बड़े लोगों का अड्डा बनती थी. वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण ने अपनी पुस्तक ‘सिने संसार और पत्रकारिता’ (ज्ञानपीठ प्रकाशन, 2006) में नंद कुमार उप्रेती और उस कोठरी की महफिलों का रोचक वृतांत लिखा है. रामकृष्ण से उप्रेती जी की मुलाकात सूचना विभाग की पत्रिका (सम्भवत: उत्तर प्रदेश) के सम्पादक शिवशंकर मिश्र ने कराई थी.
रामकृष्ण लिखते हैं- “एक दिन जब में उप्रेती से मिलने गया तो देखा कि उस कोठरी में, जहां एक चारपाई भी ठीक से नहीं आ सकती थी, उप्रेती के साथ पण्डित रविशंकर जैसे सितार वादक और लच्छू महाराज जैसे नृत्यकार आसीन हैं और मिट्टी के सकोरों में गर्मागर्म चाय पी जा रही है. दोनों तब तक प्रचुर प्रसिद्धि का अर्जन कर चुके थे और देश प्रदेश में उनका प्रचुर मान-सम्मान था. तभी मुझे पहली बार मालूम हुआ कि नगर के विविध संगीत-सर्जकों के साथ उप्रेती का अच्छा खासा घरोपा है और उस कोठरी में अक्सर इन लोगों की महफिलें जमा करती हैं.”
रामकृष्ण ने आगे विस्तार से बताया है कि शीर्ष कलाकारों के साथ उप्रेती जी के सम्बंध विक्टर नारायण विद्यांत के कारण बने थे. विद्यांत जी कई कलाकारों को आश्रय देते थे. प्रख्यात नृत्यकार उदयशंकर और रविशंकर अक्सर उनके घर ठहरा करते थे. विद्यांत जी चूंकि उप्रेती जी को बहुत पसंद करते थे इसलिए इन कलाकारों से उनका भी अच्छा परिचय हो गया था. रामकृष्ण यह भी लिखते हैं कि “लच्छू, शम्भू और बिरजू महाराजों से उप्रेती की जान-पहचान स्थानीय स्तर पर हुई थी और तीनों ही का उनके प्रति पर्याप्त अनुराग था.”
इससे भी रोचक किस्सा यह कि सितार के उस्ताद युसुफ अली खान से उप्रेती जी का बहुत करीबी रिश्ता था. वह यूसुफ अली खान जिनसे पण्डित रविशंकर और नौशाद ने संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी. लखनऊ में यूसुफ जी की सितार की दुकान थी. रामकृष्ण की किताब के अनुसार एक रात जब उस्ताद अपनी दुकान में सितार का रियाज कर थे तो उप्रेती जी उनकी दुकान के आगे सितार वादन सुनते खड़े रह गये. घण्टों बाद जब उस्ताद ने वादन बंद किया तो उप्रेती जी को खड़ा देख कर उनसे बात की. फिर तो उस्ताद उप्रेती जी को बहुत प्यार करने लगे. यह रिश्ता वर्षों चला और प्रगाढ़ होता गया.
यह किस्सा 1960-65 के दौर का होगा. उस्ताद ने कब-कब और किस तरह अपनी पहलवानी और फिर सितार प्रेम की कहानी उप्रेती जी को सुनाई, यह सब रामकृष्ण ने अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है. उस्ताद यूसुफ अली पर उप्रेती जी ने एक लेख भी लिखा जो रामानंद दोषी ने 1961 के अंत में ‘कादम्बिनी’ में छापा था. इस लेख की स्वीकृति का पत्र उप्रेती जी के निधन के बाद उन पुराने कागजों में मिला जो उनकी पत्नी ने सम्भाल कर रखे थे.
जाहिर है उप्रेती जी को संगीत की अच्छी समझ थी. इसकी झलक उनकी कविताओं, नाटकों, संगीत रूपकों, आदि में साफ तौर पर मिलती है. उन्होंने अपने बच्चों को भी संगीत की शिक्षा दिलवाई. सपना और मोहन ने संगीत को ही अपना करिअर बनाया है. सपना को संगीत की ओर उन्होंने ही ‘धकेला’ जबकि वह शुरू में रंगमंच की तरफ जाना चाहती थी. उसके लिए वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का आवेदन पत्र तो ले आये लेकिन कहा कि अगर तुम संगीत को अपना प्रोफेशन बनाओगी तो लोग तुम्हें सुनेंगे. तुम्हारी आवाज अलग-सी है. अंतत: भातखण्डे संगीत विद्यालय से प्रशिक्षित सपना दिल्ली जाकर मोहन उप्रेती के ‘भारतीय कला केंद्र’ में भर्ती हुई. अपने फिल्म करिअर का पहला गाना ‘बन्नो तेरी अंखिया सुरमेदानी’ उसने पिता की पसंद से ही गाया था.
अक्टूबर 1962 में आकाशवाणी, लखनऊ से कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली का ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरु हुआ था. वंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ इस कार्यक्रम के लिए प्रतिभावान कुमाऊँनी-गढ़वाली लेखकों की खोज में रहते थे. एक दिन आकाशवाणी के संगीतकार कालिदास ने जिज्ञासु जी से कहा कि आप नंदकुमार को ‘उत्तरायण’ के लिए बुक क्यों नहीं करते. जिज्ञासु जी ने आश्चर्य से कहा कि वे तो बंगाली हैं. कालिदास जी ने कहा- नहीं, वे तुम्हारी कुमाऊं के हैं.
जिज्ञासु जी बताते थे कि मैं नंदकुमार जी को अक्सर आकाशवाणी में देखता था. वे हिंदी कार्यक्रमों में भाग लेते थे और केंद्र निदेशक डी के सेनगुप्त, कार्यक्रम अधिकारी विमान घोष और लीला घोष के साथ बांग्ला में खूब गप्पें लगाते थे. मैं उन्हें बंगाली ही समझता था. पता चलने पर मैंने उनसे कुमाऊँनी में लिखने का आग्रह किया. उप्रेती जी ने शुरु में मना कर दिया. अपने शुरुआती अनुभवों के आधार पर पहाड़ी लोगों से उन्हें चिढ़-सी थी. लेकिन मेरे बार-बार कहने पर मान गये.
‘जिज्ञासु नहीं होता तो मैं कुमाऊँनी में कभी नहीं लिखता, नबीन.’ उप्रेती जी ने मुझे बताया था- ‘यह पीछे पड़ा रहा और मैं मना करता रहा. फिर इसकी लगन देखकर मुझे दया आ गयी. मैं कुमाऊँनी में लिखने लगा.’ बांग्ला उप्रेती जी ने लखनऊ के बंगालियों के बीच पलते-बढ़ते सीखी थी लेकिन कुमाऊँनी उनकी रग-रग में बहती थी. कुमाऊँनी में लिखना शुरु किया तो फिर क्या कहानी-किस्से, क्या कविता, क्या हास्य-व्यंग्य और क्या नाटक-सभी विधाओं में रचनाएँ प्रस्फुटित होने लगीं.
नंद कुमार उप्रेती और वंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ का यह रिश्ता धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गया- लंगोटिया दोस्ती. यह गहरी दोस्ती चालीस साल न केवल कायम रही बल्कि निरंतर प्रगाढ़ होती रही. उप्रेती जी के निधन (6 फरवरी 2005) के बाद से जिज्ञासु जी के पास कोई दोस्त नहीं रह गया था. जुलाई 2016 में अपनी मृत्यु तक जिज्ञासु जी अपने मित्र को बराबर याद करते रहे और जब तक पढ़ने की सामर्थ्य रही, उप्रेती जी की कुमाऊँनी रचनाओं को, जो उन्होंने ‘उत्तरायण’ के दिनों से सम्भाल रखी थीं, उलटते-पुलटते रहते थे.
उप्रेती जी ने अपने लेखन को कभी महिमामंडित नहीं किया, न ही कभी कोई साहित्यिक या लेखकीय दावे किये. उन्होंने सब कुछ लिखा- जो मन किया और जो लिखवाया गया. हिन्दी व कुमाऊँनी में उन्होंने वह सब कुछ लिखा जो चलता था या बिकता था. कहानी-कविता-नाटक-व्यंग्य, आदि के अलावा प्रचार सामग्री, विज्ञापन संवाद, डॉक्युमेण्ट्री-कथा, सरकारी प्रचार विज्ञप्तियां, वगैरह भी. नाका हिण्डोला में रहते हुए वे ‘आंका-बांका’ नाम से भी अखबारों-पत्रिकाओं में लिखा करते थे. ‘उत्तरायण’ के लिए उन्होंने बहुत सुन्दर कविताएँ, कहानियाँ, किस्से, संस्मरण, नाटक व रूपक लिखे. अपने बचपन और किशोरावस्था की भटकन के अनेक अजीबोगरीब किस्से उनके पास थे. जंगलों, गुफाओं, बाबाओं, तांत्रिकों, श्मशानों के भी जब-गजब किस्से. अपनी ठेठ कुमाऊंनी में जब वे ये किस्से पढ़ते तो श्रोता रोमांचित हो जाते.
बांग्ला में लिखने के अच्छे पैसे मिलते हैं, वे बताते थे. पता चलता था कि उनकी रचनाएं बांग्ला की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं. ‘राम ठाकुरेर कथा’ नामक पुस्तक के अलावा उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर समेत कई बांग्ला लेखकों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद ‘सारिका’, ‘नवनीत’ ‘धर्मयुग’, ‘मनोहर कहानियां’ आदि पत्रिकाओं के लिए किया था. बांग्ला लेखन के कारण ही विमल मित्र से उनकी दोस्ती हुई थी और उन्होंने अपने उपन्यास ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ का अनुवाद करने के लिए उप्रेती जी को दिया था. उन दिनों उप्रेती जी फिल्मी लेखन में हाथ आजमाने मुम्बई गये हुए थे. विमल मित्र भी तब वहीं रह रहे थे. यह सम्भवत: 1963-64 की बात है. तभी अपनी एक बेटी की अचानक मौत की खबर सुन उप्रेती जी लखनऊ लौट आये थे और फिर वापस नहीं गये.
सन् 1975-76 में ‘डिरेक्टर रामलिल’ और ‘मी यो गयूं मी यो सटक्यूं’ जैसे उनके कुमाऊँनी नाटकों को जब ‘आँखर’ ने मंच पर खेला था तो दर्शक हँसते-हँसते लोटपोट हो गये. उन्होंने ऐसे दर्जनों नाटक लिखे. दरअसल ये मूलत: हास्य नाटक नहीं हैं. इनमें गरीब पहाड़ी आदमी की त्रासद स्थितियों का मार्मिक चित्रण है लेकिन विलाप की तरह नहीं. वे हास्य और करुणा एक साथ प्रस्तुत करते हैं, जो पहले हँसाता है और फिर दिल में एक टीस छोड़ जाता है.
खुद के लिखे कुमाऊंनी नाटक ‘मी यो गयूं मी यो सटक्यूं’ में मुख्य भूमिका में नंदकुमार उप्रेती, 1975
उप्रेती जी ने गर्दिश के दिन हँसते-हँसते झेले और जिस तरह उन पर विजय पायी, उस अनुभव ने उन्हें यह अनोखा जीवन दर्शन दिया, जिसे वे अक्सर सुनाते थे कि ‘‘मैंने सारे दुखों की पोटली बनाकर उसे भेल के नीचे च्याप (दबा) दिया है और कहता हूँ अब दबाओ सालो मुझे.’’ दुखों की पोटली पर बैठकर वे हँसते थे और हँसाते थे. ऊपर से हास्य-प्रधान दिखने वाली उनकी रचनाओं में दरअसल आम पहाड़ी आदमी के हालात का रोचक किन्तु दर्दनाक बयान होता था. उनकी रचनाओं में पहाड़ की मधुर स्मृतियां टीसती हैं, भूख और गरीबी चीखती है और उनके पात्र शहरों के हालात से आजिज आकर पहाड़ लौटने को तरसते हैं लेकिन पेट की मजबूरी उन्हें रोक लेती है. इसके लिए वे ऊपर से हास्यप्रद लगने वाली शैली चुनते हैं जो थोड़ा हंसा चुकने के बाद गहरा दर्द छोड़ जाती है.
उनके विषय साहित्यिक तो थे ही, ज्योतिष, योग, धर्म-दर्शन, तंत्र-मंत्र और रहस्य वगैरह पर भी वे साधिकार बोलते- लिखते थे. हर साल गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ जाते तो जाने कहाँ-कहाँ की कन्दराओं में जोगियों-तांत्रिकों से मिलकर उनके अजीबोगरीब किस्से लाते थे. खुद नियमित रूप से योग करते थे. लखनऊ जैसे शहर में भी उनके पास तांत्रिकों-ज्योतिषियों और जगरियों की अच्छी-खासी मण्डली थी.
उन्होंने अपना लिखा-छपा कभी सँभाला नहीं. अक्सर वे कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लिखते और इस्तेमाल हो जाने पर उसकी साज संभाल की चिन्ता नहीं करते थे. ‘उत्तरायण’ के लिए लिखी रचनाओं को मित्र जिज्ञासु ने काफी हद तक सँभाला. ‘ऑखर’ पत्रिका ने कई कुमाऊंनी रचनाएँ छापीं. काफी सामग्री उनकी पत्नी और बेटी पुष्पा ने बण्डल बना कर रखी थीं जिन्हें डॉ प्रयाग जोशी ने एक तरतीब देकर 2010 में संग्रह का रूप दिया- “नंद कुमार उप्रेतिज्यूकि कुमाऊंनी रचनावली’ (प्रकाश बुक डिपो, बरेली) उनकी हिंदी और बांग्ला में प्रकाशित रचनाओं या पाण्डुलिपियों की सम्भाल शायद नहीं हो पायी. बांग्ला से अनूदित दो पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं.
इनसान भी गजब के थे उप्रेती जी. बेहद भोले, निष्कपट और प्यारे. न कुण्ठा, न कोई गर्व. इतने बरस लखनऊ में गुजारे लेकिन अकेले सड़क पार करने में डरते थे. जो साथ होता, बच्चे ही सही, उसका हाथ पकड़ लेते. मैंने उन्हें कभी जूता पहने नहीं देखा. सर्दियों में बन्द गले का कोट पहनते मगर पैरों में वही हवाई चप्पल फटफटाती रहती. बीड़ी पीते थे, तीन उंगलियों से हथेली में भीतर की ओर दबाकर. पीते नहीं, जैसे चूसते थे. बड़े-बड़े लोगों से परिचय था, आलीशान घरों में आना-जाना था, लेकिन हुलिया और अंदाज हमेशा वही और इसका कोई ख्याल भी नहीं. मन होता तो महँगे सोफे पर पैर रखकर बैठ जाते या पालथी लगा लेते. पैदल ही चलना पसंद करते. हर सवारी से बचते और बहुत मजबूरी होने पर ही बैठते. जब कभी साइकिल या स्कूटर पर बैठते तो साथ वाले को कस कर पकड़ रखते!
रिटायर होने के बाद उप्रेती जी ने कल्याणपुर में अपना मकान बनवाया. सपना और मोहन मुम्बई चले गये. श्रीमती उप्रेती छोटी बेटी पुष्पा और बेटे सिद्धार्थ के साथ कल्याणपुर के मकान में रहते हैं. फरवरी 2005 में उप्रेती जी मुम्बई में सपना के पास गये थे. बिल्कुल अच्छे-भले. नियमित योगासन लगाने वाले. अचानक एक सुबह दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल ले जाने तक प्राण पखेरू उड़ गये. जो अत्यन्त सरल आदमी साइकिल-स्कूटर में बैठने से डरता था, मौत की गोद में सोकर वह आराम से हवाई जहाज से लखनऊ लौटा था.
अपने भीतर बसे अत्यंत भोले, निष्कपट पहाड़ी आदमी को बरसों बरस एक महानगर में रहते हुए वे पूरी तरह बचाए रख सके, यह सोचकर सुखद आश्चर्य होता है. अपने किशोर-युवा दिनों को याद करते हुए जो रोशन चेहरे सामने आते हैं, उनमें नंदकुमार उप्रेती अग्रिम पंक्ति में आंखें मींचे, दांत निपोरे दिखाई देते हैं.
( इस लेख में प्रयुक्त सभी तसवीरें और कविता की छायाप्रति नवीन जोशी के सौजन्य से )