(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर निर्देशक गौतम घोष की पार । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की आठवीं क़िस्त.-सं)
पार (1984) प्रवासी भारतीय मजदूरों की उस दारुण दास्तान को बहुत हद तक हमारे सामने लाती है, जिसे आज हम कोरोना काल में देखने-सहने को विवश हैं। ‘पार’ वैचारिक रूप से काफी प्रतिबद्ध समझे जाने वाले फ़िल्म निर्देशक गौतम घोष की फ़िल्म है। उनकी अन्य चर्चित फिल्में यात्रा, दखल और अबार अरण्य हैं। फ़िल्म में प्रमुख भूमिका नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी, ओम पुरी, उत्पल दत्त और मोहन अगाशे ने निभाई है।
पार एक साथ दलित उत्पीड़न और प्रवासी मजदूर की समस्या को उठती है। लेकिन इसके चलते कोई फ़िल्म में कोई फांक या विखराव नजर नहीं आता। इसका कारण इस सामाजिक और आर्थिक तथ्य में निहित है कि उक्त दोनों समस्याएं बहुत हद तक भारतीय परिवेश में एक-दूसरे से जुड़ी हैं।
आजादी के बाद एक प्रगतिशील संविधान लागू हो जाने का असर ग्रामीण समाज पर पड़ना स्वाभाविक था। दलितों को उनके नवीन अधिकारों के प्रति चैतन्य बनाने का काम फ़िल्म में स्कूल मास्टर (अनिल चटर्जी) द्वारा किया जा रहा था, जो विचारों से गांधीवादी हैं। उनके इस प्रयास और दलित समाज की हिम्मत और एकजुटता का परिणाम यह हुआ कि एक दलित राम नरेश (ओम पुरी) मुखिया चुन लिया जाता है। इस नवीन स्थिति को स्वीकार करने के लिए परम्परागत भूस्वामी वर्ग तैयार नहीं है। फ़िल्म में जमींदार का किरदार उत्पल दत्त ने निभाया है।उसका मानना है कि “सरकार का काम है कानून बनाना, वह बना देती है। कानून का पालन कराना भी सरकार का काम है, लेकिन वह उतना ही करती है जिसमें उसका फायदा है।” इस तरह प्रभु वर्ग न तो कानून के मुताबिक न्यूनतम मजदूरी देने को तैयार है और न ही लोकतंत्र के निर्णय को स्वीकार करने को। फलतः जमींदार का छोटा भाई स्कूल मास्टर को समस्या की जड़ मानते हुए उसकी हत्या कर देता है। ध्यान देने की बात है कि लगभग इसी समय की फ़िल्म प्रकाश झा की ‘दामुल’ है और इसमें भी दलित-भूस्वामी विवाद के जड़ में उक्त दोनों समस्याएं ही हैं।
‘पार‘ में दलितों ने स्कूल मास्टर की हत्या का बदला हिंसक प्रतिरोध से लिया। उन्होंने जमींदार के भाई की हत्या कर दी। इसमें नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) भी शामिल था। बदले में प्रभु वर्ग ने भीषण हत्याकांड किया और दलित बस्ती को आग लगा दी।
यह वह परिस्थिति है जिसमें कोई ग्रामीण गरीब गांव से शहर भागता है। न तो न्यूनतम मजदूरी मिल पाती है और न कानूनी अधिकार। पुलिस-प्रशासन शक्तिशाली लोगों का साथ देता है। भारत में एक प्रवासी मजदूर इन्हीं स्थितियों में जन्म लेता है।
अंततः नौरंगिया और उसकी पत्नी रामा (शबाना आजमी) जान बचाने और पेट पालने कलकत्ता पहुँचते हैं। निरीह-निरक्षर भारतीय कलकत्ता जैसे भीमकाय शहरों में कैसा बेगानापन महसूस करते हैं, इसे फ़िल्म में बखूबी और विस्तार से दर्शाया गया है। नौरंगिया और उसकी बीबी भूखे, बेबस और बेघर हैं। लंपटों की युवा और गर्भवती स्त्री पर बुरी नजर है और इसी बीच भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने का जश्न है। फिल्मकार यह दर्शाना चाहता कि इस जीत और जश्न का इन मजदूरों के लिए क्या अर्थ है?
किसी तरह प्रवासी पति-पत्नी कलकत्ता के औद्योगिक क्षेत्र में पहुँचते हैं। दफ्तर के बाबुओं और शराब पीते, ताश खेलते दादाओं से काम के लिए बेतरह गिड़गिड़ाते हैं। लेकिन काम नहीं मिलता। कारण, हड़ताल और तालाबंदी। गाँव में यह गनीमत थी कि शोषक वर्ग आंख के सामने था। शहर में मरता हुआ मजदूर यह भी नहीं जानता कि वह कौन लोग हैं जो उनकी हालत को बदहाल बनाये हुए हैं।
इन विकट स्थितियों में नौरंगिया और रामा की कोशिश सिमट कर गाँव वापसी का किराया जुटा पाने पर आ जाती है। उसी गाँव में जहाँ मौत उनका इंतजार कर रही है। तीन दिन के इस भूखे दम्पत्ति को आखिर में 36 सुअरों को नदी पार कराने काम मिलता है। दो विराट जल धाराओं के पार गिनकर 36 सुअर पहुंचाना है; भूखे पति और गर्भवती पत्नी को मिलकर। मजदूरों के हाँके, सूअरों की चिंचिआहट, घाट के कीचड़ और नदी की धारा, सबने मिलकर इस दृश्य को बहुत स्वाभाविक और परम् कारुणिक बना दिया।विमल रॉय की फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन’ के उस दृश्य की, जिसमें अधिक पैसे के लोभ में बलराज साहनी तेज रिक्शा खींचते हैं, अत्यधिक प्रशंसा की जाती रही है। ‘पार’का यह दृश्य करुणा और स्वाभाविकता में समतुल्य है।
नसीरुद्दीन शाह का अभिनय यादगार है। बिहारी उच्चारण पर कुशल पकड़ के साथ उनका शहर में दर-दर भटकना और गिड़गिड़ाना निहायत स्वाभाविक और द्रवित करने वाला है। इसी स्तर का काम शबाना आजमी का है। सुअरों को नदी पार कराने का काम मिलने पर ही वह इस काम को लेने से मना करती है। नदी पार करते समय उनके चेहरे पर गर्भवती स्त्री की पीड़ा और थकान पूरी तरह व्याप्त रहती है। तैरने और पशुओं को हाँकने का अभिनय दक्षता से किया गया है।
इस तरह ‘पार’ एक ऐसी फिल्म के रूप में सामने आती है जिसमें ग्रामीण भारत में दलितों के सामंती शोषण और शहरों में मजूरों के पूँजीवादी शोषण को न केवल एक साथ प्रत्यक्ष करा दिया गया है बल्कि इन दोनों के अंतर्संबंधों की गहरी पहचान भी कर ली गई है।