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कीचड़ में खिल रहे गुलाब की कहानी जहाँ दिमाग को दिल में घोलकर प्रेम किया गया

एक डॉक्टर की मौत (1990) :- कीचड़ में खिल रहे गुलाब की कहानी जहाँ दिमाग को दिल में घोलकर प्रेम किया गया .

निर्देशक– तपन सिन्हा
लेखक– रामपदा चौधरी

पटकथा – तपन सिन्हा
कलाकार– शबाना आज़मी, पंकज कपूर, इरफ़ान खान, दीपा साही, अनिल चटर्जी
“मैं हर रोज इंतजार नहीं कर सकता कि हार्ट अटैक आये और मैं मर जाऊं”
बहुमंजिला बिल्डिंग के किसी फ्लैट से अधेड़ उम्र के एक शख्स की फंदे से झूलती लाश बरामद होती है. लाश के पास सुसाइड नोट भी मिलता है, जिसमें यही लाइन लिखी होती है. सुसाइड करने वाला शख्स डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय. भारत को टेस्ट ट्यूब बेबी देने वाला.

किसी डॉक्यूमेंट्री के अंदाज में शुरू होती यह फिल्म कोलकाता के डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय के जीवन पर आधारित कहानी है. फिजियोलॉजी में स्नातक डॉ. सुभाष दो बार डॉक्टरेट थे. मानसिक प्रताड़ना से गुजर रहे बे-औलाद मारवाड़ी दम्पति ने डॉ. सुभाष से गोद भर देने के की गुजारिश की. अपने छोटे से फ्लैट के एक कमरे की लैब में उन्होंने प्रयोग शुरू किया. इंग्लैंड में भी ठीक इसी समय ऐसा ही प्रयोग सरकारी सहायता से किया जा रहा था. 25 जुलाई 1978 को इंग्लैंड में टेस्ट ट्यूब के जरिये बच्चे को जन्म देने की घोषणा हुई. इसी समय डॉ. सुभाष की लैब में भी भ्रूण आकार ले रहा था. 67 दिन बाद ही 3 अक्टूबर को डॉ. सुभाष ने भी यही घोषणा की. कम संसाधनों और बिना किसी सहायता के डॉ. सुभाष ने यह उपलब्धि हासिल की. उन्हें जापान में अपने प्रयोग के विषय में बताना था लेकिन विभागीय जांच के नाम पर उनके प्रयोग को बोगस करार दिया गया और उनका स्थानांतरण किसी दूसरे संस्थान में कर दिया गया. अपमान की पीड़ा से मौत उन्हें आसान लगी और एक होनहार वैज्ञानिक डॉक्टर सीलिंग से लटक गया.

इसी मौत की कहानी पर रामपदा चौधरी ने सड़ चुकी उस व्यवस्था की कहानी लिखी जो केवल सड़ांध फैलाती है, और किसी को भी मौत के घाट उतार सकती है लेकिन खुद बनी रहती है. अँधेरे लैब में चूहों के साथ दिख रहे हाथ के साथ यह फिल्म शुरू होती है. फिल्म का किसी दस्तावेजी फिल्म के रूप में शुरू होना आपको बोझिल लग सकता है लेकिन व्यवस्था के इसी अँधेरे के बीच कुष्ठ (Leprosy) का टीका बनाने का सपना देखने वाले डॉ. दीपंकर रॉय (पंकज कपूर) के चेहरे पर पड़ रही रोशनी ही आशा की रोशनी है. उनके घोर परिश्रमी होने को दूसरे ही दृश्य में देखा जा सकता है. रात के दो बजे के घंटे की आवाज के साथ डॉक्टर की सोई हुई पत्नी सीमा (शबाना आज़मी) उठती है. पत्नी, पति को लेकर चिंतित होकर सो जाने के लिए कहती है तब डॉक्टर स्क्रीन से बाहर ही रहता है. व्यस्तता को दिखाए जाने का यह दृश्य यहीं से बांधना शुरू कर देता है. डॉक्टर अपनी पत्नी की तरफ भी न देखकर किसी इन्टरेस्टिंग रिजल्ट की बात करता है, लेकिन दस सालों से किसी नतीजे पर भी न पहुँच पाने को लेकर पत्नी कुछ खिचाई सी करती है. फिर भी दीपांकर के जूनून को उसके काम करने के अंदाज से देखा समझा जा सकता है.

इसी पति-पत्नी की नोंक झोंक के बीच कहानी आगे बढ़ती है, खाना खाते हुए भी उसका किसी पेपर पढ़ते हुए सीमा से ट्राम के लिए पैसे लेना डॉक्टर की अमीरियत वाली इमेज को तोड़ता है. इसी इमेज के बीच उसका न तो नींद पूरी होने न ही कोई रिजल्ट मिलने की झुंझलाहट और सीमा को टाइम न दे पाने को लेकर पति-पत्नी के बीच तनाव और आखिर में दीपांकर की खटकने वाली निश्चिन्तता सीमा के चेहरे पर दिखाई देती है. ट्राम में बस के साथ चढ़ चुकी उसकी बेसुधी अस्पताल में सक्रियता के रूप में ही सामने आती है जहाँ लेप्रोसी के प्रति समाज और डॉक्टरी पेशे से जुड़े लोगों की घृणा को वह सिरे से नकारता है.

दीपांकर के साथ होते हुए भी सीमा को अकेलापन महसूस होना उनके संबंधों की टूटन की ओर संकेत करता है लेकिन दीपांकर का खोज के लिए सीमा को पूरा श्रेय देना उनके प्रेम संबंधों की मजबूत नींव के सुन्दर चित्र भी खींचता है. उनका प्रेम व्यवस्था के कीचड़ में खिले गुलाब सा प्रतीत होता है. प्रेम के कुछ ही चित्रों में समर्पण और त्याग के संवाद ही उसके बेजान से रंगों को उनकी मुस्कराहटों में गहरा करते हैं.
फिल्म का लगभग हर सीन सीमा के त्याग और रिसर्च को लेकर दीपांकर की सनक को दिखाता है. ऑफिस से घर आकर दीपांकर का सीधे लैब में घुसना या पत्रकार अमूल्य को साइंस कमर्शियलिस्ट पत्रकार समझना या खाने के लिए भी समय न देना. यहाँ तक कि सीमा का सफाई के लिए लैब में घुसना भी उसे अखरता है. रात में उसका लैब में काम करते हुए बैकग्राउंड में बजते हुए संगीत से लगता है कि डॉक्टर किसी मिशन के तहत कार्य कर रहा है. वह सामाजिक समारोहों को भी स्टुपिड काम कह देता है. इन सबके इतर सीमा खुद को उसके प्रेम से मुक्त नहीं कर पाती है. उसका प्रेम केवल भावुकता की ज़मीन पर नहीं उगा हुआ होता है बल्कि तर्क की कठोर बारिश इसे सींचती है. यह जानते हुए भी कि दीपांकर कई मर्तबा उसके साथ वह व्यवहार नहीं करता है जो एक पति को करना चाहिए, वह दीपांकर से अलग नहीं होती है. वह दीपांकर की सनक और काम के प्रति उसके जूनून को भी जानती है सो खुद को भी दीपांकर के काम लिए झोंक देती है, यहाँ तक कि माँ बनने के सुख से खुद को वंचित रखती है.

लेप्रोसी की वैक्सीन बनाने में कामयाब डॉ. दीपांकर के प्रयोग अब तक केवल चूहों और बंदरों पर किये गए हैं. इसके साथ ही वह यह ऑब्जर्व (अवलोकन) करते हैं कि इन वैक्सीन से शायद बाँझपन का इलाज संभव हो. इस ख़बर को स्थानीय पत्रकार अमूल्य (इरफ़ान खान) अख़बार में छाप देता है. यह खबर इस तरह से छपती है मानो डॉक्टर दीपांकर बाँझपन पर ही काम कर रहे हों.

यहीं से ही दीपांकर की मुसीबतें शुरू हो जाती हैं. हेल्थ सेक्रेट्री की चिट्ठी ही व्यवस्था में कुष्ठ की चिट्ठी होती है. डायरेक्टर हेल्थ बधाई देने की जगह पर घटिया सवाल और किन्ही गायनाकोलोजिस्ट की बातों के आधार पर डॉ. दीपांकर की पूरी मेहनत को पागल की बकवास कह देता है. बेहूदा समझ का नमूना जब डायरेक्टर देता है तब दीपांकर भी पुरजोर तरीके से अपनी बात रखता है और लेमैन (अज्ञानी) उसे कह देता है.

फिल्म में बायोलॉजिस्ट डॉ. कुंडू (अनिल चटर्जी) साइंटिस्ट कम साइंस फिलोशोफिस्ट ज्यादा नज़र आते हैं. उनका सहज अभिनय सहजता से ही महसूस किया जा सकता है. डॉ. दीपांकर की बायोलॉजी लैब में जब तब मदद करने के साथ-साथ वह विज्ञान के लिए समर्पित भी होते हैं. डॉ. दीपांकर की वैक्सीन को मानव शरीर पर प्रयोग करने के लिए वह अपना शरीर ही दान कर देने की बात कर देते हैं. वह जॉन एंडरसन नाम के विदेशी फाउंडेशन को डॉ. दीपांकर के काम के विषय में भी पत्र लिख देते हैं.

अपना रिसर्च पेपर तैयार करने के बीच डॉक्टर दीपांकर को गायनाकोलोजिस्ट डॉक्टरों के एक झुण्ड का सामना करना पड़ता है. प्राइवेट क्लिनिक चलाने वाले डॉक्टरों की लॉबी की पहुँच सरकारी प्रशासन में गहरे होती है, इसीलिए वह डॉक्टर रॉय का ट्रान्सफर किसी गाँव में कर देते हैं.

पत्रकार अमूल्य भी इस पूरे डायरेक्टर हेल्थ के प्रपंच को समझ कर अख़बार में लिखना चाहता है लेकिन संपादक अख़बार की आर्थिक मजबूरियों का हवाला देते हुए मना करता है. इस पर अमूल्य नौकरी भी छोड़ देता है.

इसके बाद फिल्म की कहानी कोई साइंस बेस स्टोरी नहीं नहीं रह जाती है, वह उस प्रेम कहानी में बदल जाती है जिसमें प्रेम दिमाग को दिल में घोलकर किया जाता है. घोर निराशा के बीच भी सीमा दीपांकर के साथ गाँव चलने के लिए मना कर देती है और कहती है कि उसके बच्चों (ब्राउन माइस/चूहे, जिन पर डॉ. दीपांकर अपने प्रयोग कर रहे होते हैं) का ख़याल वहाँ कलकत्ता में कौन रखेगा. वह किसी स्कूल में भी नौकरी करने की बात करती है ताकि दोनों जगह के खर्च वहन करने में दिक्कत न हो. यहीं सीमा की भावुकता सहृदय के हृदय में प्रेम के प्रति विश्वास को जितना गहरा करती है व्यवस्था के प्रति घृणा को भी उतना ही.

व्यवस्था का अपने अधिक क्रूर रूप में आना अभी बाकी था. जब डायरेक्ट हेल्थ डॉ. दीपांकर के नाम जॉन एंडरसन फाउंडेशन के निमंत्रण को फाइलों के बीच चुपचाप बांध देता है.

गाँव के हॉस्पिटल में डॉ. दीपांकर दिन में मरीजों को देखता है तो रात में रिसर्च पेपर का काम कर रहा होता है. वहीँ सीमा भी रात के अँधेरे में लैब और लैब के चूहों, बन्दर को देख रही होती है.

किसी दिन सीमा डॉ. दीपांकर से मिलने पहुँचती है. वह कमरे पर न होकर समुद्र किनारे बैठा होता है. सीमा के वहीं आने पर वह देखती है कि डॉ. दीपांकर घोर निराशा में डूबा हुआ है लेकिन वह विश्वास दिलाती है. वह रोता है तो सीमा कहती है “ऐसा करोगे तो मैं तुम्हें छोड़ कर कैसे जा पाऊँगी?”

अगले दृश्य में ही मानवीय छुद्रताओं और स्वार्थों के मामूलीपन पर डॉ. दीपांकर सीमा से बात करता हुआ कहता है कि इन सवालों के जवाब उसके पास नहीं हैं. रात का वही अँधेरा डॉ. दीपांकर की समय को लेकर समझ को जितना साफ बताती है वहीं पीड़ाओं के बीच प्रेम को भी उकेरता है.

डॉ. दीपांकर को लिखी चिठ्ठी का प्रत्युत्तर न मिलने के कारण जॉन एंडरसन फाउंडेशन का एक प्रतिनिधि डॉ. दीपांकर के पास आता है. लेकिन दीपांकर के पेपर ही तैयार नहीं थे. सो सीमा चाहती है डॉ. अरिजीत अपनी पहुँच का इस्तेमाल कर के डॉ. दीपांकर का स्थानान्तरण वापस कलकत्ता करवा दे ताकि दीपांकर बीमार न हो जाय और अपना पेपर वर्क ठीक से समय पर कर ले.

डॉ. अरिजीत, डायरेक्टर हेल्थ के पास आकर फाइलों के अन्दर छिपाई चिठ्ठी के विषय में पूछता है. डर कर डायरेक्टर ट्रान्सफर कर देता है. लेकिन ट्रान्सफर के बाद पेपर की हाई लेवल जाँच के बाद ही विदेश जाने की अनुमति मिलेगी ऐसा डॉ. दीपांकर को बताता है. अपनी नौकरी छोड़ने की सम्भावना को ही ख़ारिज करते हुए अपने काम में वह लग जाता है.

पेपर तैयार करने के बाद उसे ऐसी इन्क्वारी समिति के सामने बुलाया जाता है जिसका कोई भी सदस्य लेप्रोसी का जानकर नहीं होता है. यहाँ भी उसे बेहूदा सवालों का सामना करना होता है. अपमानित होने के कारण डॉ. दीपांकर रॉय सरेंडर करना स्वीकार करते हैं. घर आकर अपनी लैब में उनका घूमना और सीमा, डॉ. कुंडू के सामने पत्रकार अमूल्य विदेश में लेप्रोसी के टीके की अधिकारिक खोज किसी और के द्वारा होने की बात करना ही डॉ. दीपांकर के काम का मोल खत्म कर देता है. निराश डॉ. दीपांकर रात में ही अपने सभी ब्राउन माइस को मार देता है. अगली सुबह डॉ. कुंडू जॉन एंडरसन फाउंडेशन से उनके पते पर आये हुए लेटर को लेकर डॉ. दीपांकर के पास आते हैं. यह लेटर फाउंडेशन से उनको काम करने के निमंत्रण के विषय में होता है. डॉ. दीपांकर शासकीय सेवा से त्यागपत्र देते हैं और फाउंडेशन चले जाते हैं. फिल्म समाप्त होती है.

पूरी फिल्म के साथ-साथ फिल्म के कुछ दृश्य विशेष रूप से प्रभावी हैं. फिल्म कई मर्तबा अपनी तकनीकी कमजोरियों के साथ भी सामने आती है लेकिन कई दूसरी बातें भी इन कमजोरियों के बावजूद फिल्म को सशक्त बनाती है. फिल्म में लाइट का बहुत अच्छा प्रयोग बहुत कम जगह दिखता है. संगीत भी कहीं कहीं लाउड लगता है. कई दृश्य इतने साधारण तरीके से फिल्माए गए हैं, लगता है बस निपटाए गए हैं. फिल्म का बजट कम होना भी इन सबका एक कारण हो सकता है.
संवाद की भाषा में केवल एक बार बंगाली पुट सुनाई दिया. पूरी फिल्म कलकत्ता के आसपास को लेकर है लेकिन कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता. गाँव में ट्रान्सफर होने पर डॉ. दीपांकर का बावर्ची ही बांग्ला पुट में बात करता है.
डॉ. कुंडू का संजीदा अभिनय अभिनय-सा नहीं जीवंत लगता है. दीपांकर की वैक्सीन को मानव शरीर पर प्रयोग करने के लिए वह अपना शरीर ही दान कर देने की बात जब करते हैं, उनकी गाम्भीर्य सहजता भी दर्शनीय है. वहीँ साइंस पत्रकार इरफ़ान का अभिनय बहुत संजीदा नहीं लगता है. कई बार उनकी गैर जरुरी उपस्थिति भी अखरती है.

लेप्रोसी का टीका बना देने पर उसका प्रेक्टिसिंग दोस्त डॉक्टर अरीजीत उसे बधाई देते हुए जब उसकी रिसर्च के बारे में सुनने की उत्सुकता जाहिर करता है तब वह मज़ाक में ही सही लेकिन “तेरे लिए रूपया ही मरीज़ और मरीज़ ही रूपया” कहकर पूरी व्यवस्था का बहुत साफ शब्दों में वर्णन करता है. आगे के संवाद भी हमारी सामाजिक व्यवस्था का सटीक चित्र बनाती है.

डॉ. दीपांकर जब गाँव में रहकर देर रात में रिसर्च पेपर का काम कर रहे होते हैं, ठीक उसी समय सीमा भी ब्राउन माइस, बन्दर के साथ लैब को भी देख रख रही होती है. यह दो जिस्म एक दिमाग का दृश्य है. दोनों एक दूसरे के पूरक होकर कार्य कर रहे होते है.
समुद्र के किनारे डॉ. दीपांकर का अकेले टहलना इटालियन फिल्म ला स्त्रदा (1954) के आखिरी दृश्य की याद भी दिला जाता है. जहाँ ला स्त्रदा में नायक लहरों के बीच शोर से निकल कर किनारे पर बैठता हुआ बेजान सा कभी यहाँ तो कभी वहाँ कभी आसमान में किसी शून्य की तरफ देखता है और तट पर ही लेटकर रोने लगता है तो यहाँ डॉ. दीपांकर समुद्र तट से सीधे ही मरीजों की लम्बी कतार के बीच वहीँ बेजान सी स्थिति में पहुँच जाता है. आह भरता हुआ वह कुर्सी पर पीठ टिकाता है, रो नहीं पाता है. लेकिन बाद के दृश्य में डॉ. दीपांकर सीमा के पास रोता है. यह दृश्य भी फिल्म की पूरी कहानी को छोटे दृश्य में समाहित कर देता है, मानो फिल्म का सार हो.

पंकज कपूर का अभिनय फिल्म की सारी कमजोरियों को ढक सा देता है. किसी चलते-फिरते स्कूल की तरह डॉ. दीपांकर का अभिनय है. फिल्म में शोधकर्ता के बतौर तंत्र से उनकी लड़ाई देखते ही बनती है. शबाना आज़मी का अभिनय हमेशा की तरह शानदार है. पूरी फिल्म को केवल इन दोनों के अभिनय के लिए ही देखा जा सकता है.
दो घंटे से कुछ अधिक समय आपके पास हो तो यह फिल्म तकनीकी रूप से ठोस न होने के बावजूद देखिए, देखिए एक कहानी के लिए, पंकज कपूर के ठोस अभिनय के लिए, इस समाज और व्यवस्था के कोढ़ के लिए देखिए और किसी संघर्ष के लिए, कीचड़ में खिल रहे गुलाब के लिए, दिमाग को दिल में घोलकर प्रेम करने के लिए.

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