आशीष कुमार
क्या उन सब्ज आंखों को भुलाया जा सकता है ? क्या उस बेतकल्लुफ़ और बेपरवाह हंसी को समेटा जा सकता है ?क्या कला की सरहदें होती हैं ? क्या कलाकार को सांचे में फिट किया जा सकता है ? और अगर वह अपने बनाए फ्रेम को तोड़ दे, तो निश्चित ही उसका नाम ‘ इरफ़ान खान ‘ होगा ।
यक़ीन नहीं, लेकिन सच है कि इरफ़ान इस फानी दुनिया को अलविदा कर अनंत यात्रा पर निकल चुके हैं ।’मौत का एक दिन मुअय्यन है ‘ लेकिन क्या ये रुखसत का वक्त है ?
शायद नहीं ! उदासी मेरे भीतर सांझ की तरह घिर रही है ।मै सच से अपना नाता नहीं जोड़ पा रहा हूं अभी तक । दुःख, अवसाद और पीड़ा से मुक्त इरफ़ान का इंतकाल बेहद चौंकाता है । अभी तो उनकी अम्मी को गए चंद रोज ही हुए । इतनी भी क्या जल्दी ?मानो हम बारूद के ढेर पर खड़े हों !कब और किसका प्लेटफॉर्म आ जाए, पता नहीं ।भला बीच सफ़र में कोई साथ छोड़ता है क्या ? अभी तो सफ़र मुकम्मल भी नहीं हुआ । किसी को क्या पता था कि बेहद अनगढ़ और इकहरेे बदन का हीरो अभिनय की परिभाषा को बदल देगा ।
अभिनय के हुनर भी उन्हें विरासत से नहीं, तालीम से मिली । इरफ़ान एन. एस. डी. के प्रोडक्ट हैं । यानी रंगमंच के कलाकार । मैं जब इरफ़ान की फिल्में देखता हूं तो खुद से प्रतिप्रश्न करता हूं कि मैं इनका मुरीद क्यों हूं ? क्या इसलिए कि ये चेहरा एक सामान्य आदमी के मानिंद है ? या हमारे और आपके बीच का इंसान है ? जवाब बिल्कुल सकारात्मक है । जी हां,इरफ़ान से आम दर्शक अपना नेह इसी कारण जोड़ पाता है ।
मुझे ये भी लगता है कि अभिनय की बारीकियां इरफ़ान के चेहरे में छिपी हैं । ख़ासकर कॉमिक सीन में उनके एक्सप्रेशन लाज़वाब होते हैं । स्वयं न हंसते हुए दूसरों को हंसाना मुश्किल होता है । इरफ़ान इस कला के मास्टर थे ।पीकू, लाइफ इन ए मेट्रो इसका बेहतरीन उदाहरण है । शेक्सपियर इसे ‘ कॉमेडी ऑफ एरर ‘ कहते थे।
अब जिस फिल्म का ज़िक्र मैं कर रहा हूं,हो सकता है आप इत्तेफ़ाक न रखते हो, लेकिन इरफ़ान छोटे रोल में भी बड़ा प्रभाव छोड़ते हैं ।फिल्म का नाम है – द क्लाउड डोर ।निर्देशक मणि कौल । इरफ़ान के अभिनय का अलग शेड है यहां ।
स्मृतियों से दूर छिटककर मैं अभिनय की पेचीदगियों पर बात करना चाहता हूं , लेकिन देखता हूं कि हैदर का रूहदार और सात खून माफ़ का रोमानी शायर मेरे ऊपर काबिज़ हो गए हैं । हालांकि, मकबूल, हासिल, पानसिंह तोमर, लंचबॉक्स और मदारी जैसे कई नायाब फिल्में उनके खाते में दर्ज़ हैं । मानो एक किरदार ही कहानी हो । बहुत कम अभिनेता किरदार को आत्मसात कर अभिनय में डूबते हैं । इरफ़ान इस कसौटी पर खरे उतरते हैं ।
याद कीजिए,’ बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में ।'(पान सिंह तोमर ) लगता है,भीतर की दुनिया का बौखलाया कलाकार जब तक परदे पर साकार नहीं होता उन्हें आत्मतोष नहीं मिलता । सहजता और सरलता से अभिनय की प्रस्तुति उनके कलाकार के कद को और ऊंचा कर देती है ।
मैं जब भी इरफ़ान की फ़िल्में देखता हूं तो मेरे भीतर का लेखक चौकन्ना होकर उनके संवाद अदायगी को देखने लगता है । आवाज और लहज़ उन्हें खास बनाता है ।किरदार को कंसीव और डिलीवर करना उनसे सीखने लायक है ।
कमर्शियल और गंभीर सिनेमा दोनों में सिद्धहस्त इरफ़ान में अभिनय का रेंज व्यापक था । वैसे, कलाकार को टाइप्ड होना भी नहीं चाहिए । हिंदी सिनेमा के अलावा हॉलीवुड में भी उन्होंने नाम कमाया । उनके न रहने से अभिनय की दुनिया में खालीपन आया है । कह सकते हैं अभिनय के एक युग का अवसान हुआ है । ओमपुरी के आस- पास के वैक्यूम को वे भरते हुए नज़र आ रहे थे । यह उनके अभिनय का उत्कर्ष काल था । लेकिन क्या उन्होंने अपने अभिनय का सर्वश्रेष्ठ दे दिया था ? क्या मृत्यु जीवन को नए सिरे से परिभाषित करती है ? बाहर – भीतर फैले सन्नाटे में मुझे कुछ और नहीं, सिर्फ ये चंद आवाजें ही सुनाई दे रही हैं – ‘दरिया भी मै, दरख़्त भी मैं, झेलम भी मैं, चिनार भी मैं, दैर भी हूं, हरम भी हूं, मैं था, मैं हूं, मै रहूंगा !’ (हैदर फिल्म से )
आमीन !
ऐसा लगा किसी ने मेरे रूह को छू लिया ।
ओह, रुहदार !
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(लेखक युवा आलोचक हैं। संप्रति: सहायक प्रोफ़ेसर
सुधाकर महिला पोस्ट -ग्रेजुएट कॉलेज,खजुरी, पांडेयपुर, वाराणसी ।)
(लेख में प्रयुक्त स्कैच दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भास्कर रौशन का है)
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