14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में डॉ. अंबेडकर ने तीन लाख से भी अधिक लोगों के साथ बौद्ध धर्म अंगीकार किया। आधुनिक भारत के इतिहास की यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना से भारत में चल रहा जाति प्रथा विरोधी आंदोलन एक नए चरण में प्रवेश कर गया। इसके साथ बौद्ध धर्म की पहचान दलित आंदोलन से जुड़ गई। डॉ. अंबेडकर के इस धर्म परिवर्तन ने हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा को एक गहरा आघात दिया था, जिसका निशान आज तक हिंदुत्ववादी राजनीति पर दिखाई देता है। इस आघात के असर को कम करने के लिए ही इन्हें ‘समरसता‘ का सिद्धांत गढ़ना पड़ा। आज की तारीख में हिंदुत्व की विचारधारा का सबसे मजबूत प्रतिपक्ष वामपंथ के अलावा अंबेडकरवादी विचार ही है, जिसके साथ बौद्ध धर्म की ब्राह्मणवाद विरोधी सांस्कृतिक परंपरा अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। नागपुर जहां हिंदुत्व की राजनीति का केंद्रीय मुख्यालय है, ठीक उसी जगह पर लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म को त्यागकर डॉ. अंबेडकर ने वे 22 प्रतिज्ञाएं ग्रहण कीं, जिसमें हिंदुत्व के मूलभूत सिद्धांतों को खुली चुनौती दी गई है। आज समूचे भारत में बौद्ध धर्म ही बहुजन-दलित अस्मिता की राजनीति का धार्मिक व सांस्कृतिक आधार है।
डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के बरक्स एक मानवीय, समतामूलक और जनतांत्रिक धर्म के रूप में स्वीकार किया था। इसके पहले उन्होंने भारतीय इतिहास में बौद्ध दर्शन की प्रगतिशील भूमिका का अध्ययन किया था। उन्होंने सन् 1935 में ही हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा कर दी थी। इससे पहले वे हिंदू धर्म में अछूतों को मानवीय अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ते हुए नजर आते हैं। इसी प्रक्रिया में उन्होंने कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह-1930, व चवदार सत्याग्रह-1927 चलाया था। इन आंदोलनों के अनुभव से उन्होंने यह सीखा था कि हिंदू धर्म में अछूतों के लिए बराबरी का अधिकार हासिल कर पाना संभव नहीं है। इसके परिणामस्वरूप महाराष्ट्र के येवला में अक्टूबर 1935 में अस्पृश्य वर्ग के प्रतिनिधियों के एक सम्मेलन में उन्होंने यह घोषणा की – ‘‘मेरा दुर्भाग्य है कि मैं एक हिंदू अस्पृश्य के रूप में पैदा हुआ। मैं इस तथ्य को नहीं बदल सकता। मगर मैं ऐलान करना हूं कि ऐसे हेय और अपमानजनक हालत में जीने से इनकार करना मेरी शक्ति के भीतर है। मैं दृढ़तापूर्वक आपको यह आश्वासन देता हूं कि मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा।’’1
उनकी इस घोषणा के बाद विभिन्न धर्मों व पंथों के धर्मगुरू डॉ. अंबेडकर को अपना धर्म स्वीकार करने के लिए आग्रह करने लगे और ऐसा करने पर अस्पृश्य वर्गों को होने वाले राजनीतिक फायदे का हिसाब-किताब भी समझाया गया। डॉ. अंबेडकर ने ईसाई व इस्लाम धर्म के पैगंबरीय व ईश्वरीय अवधारणाओं के कारण प्रथम दृष्टया ही अस्वीकार कर दिया था। सिख धर्म की ओर वे जरूर आकर्षित हुए थे। 1935 की धर्म त्यागने की अपनी घोषणा के बाद 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन करने तक उन्होंने इस संभावना पर काम भी किया, लेकिन सिख धर्म में पहले से मौजूद दलित जातियों की स्थिति को देखते हुए उन्होंने यह विचार भी त्याग दिया, इसके अतिरिक्त सिख धर्म स्वीकार करने पर पंजाब से बाहर अस्पृश्यों को कोई राजनीतिक विशेषाधिकार प्राप्त होने का आश्वासन भी वे ब्रिटिश सरकार की ओर से प्राप्त नहीं कर सके थे।
जिस समय डॉ. अंबेडकर सिख धर्म के प्रतिनिधियों से बात कर रहे थे और सिख धर्म पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर रहे थे, उस वक्त भारत में सबसे ज्यादा प्रसन्न हिंदू महासभा के नेता थे। हिंदू महासभा को अस्पृश्यों द्वारा धर्मांतरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले खतरे का अंदाजा था। उन्हें पता था कि अछूतों की बड़ी आबादी के द्वारा हिंदू धर्म त्यागने का मतलब था बहुसंख्यक हिंदुओं के संख्याबल में कमी। इस तरह जहां एक तरफ उनका वर्ण व्यवस्था पर आधारित धार्मिक ढांचा चरमरा जाता, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक होने का उनका दावा भी कमजोर पड़ जाता। इसके अलावा दूसरी समस्या यह भी कि डॉ. अंबेडकर ने अस्पृश्यों का अधिकार दिलाने के लिए हिंदू धर्म में जिन ढांचागत परिवर्तनों की मांग की थी, उसे पूरा करना किसी भी हालत में संभव नहीं था। इसलिए हिंदू महासभा यह चाहती थी कि डॉ. अंबेडकर यदि धर्म परिवर्तन करें तो ऐसे धर्म का चयन करें, जो भारतभूमि में ही उत्पन्न हुआ हो। उनकी पूरी कोशिश यह थी कि अस्पृश्य वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में अंबेडकर इस्लाम या ईसाईयत न ग्रहण कर लें। इसलिए जैसे ही उन्हें पता चला कि सिख धर्म के गुरूओं से डॉ. अंबेडकर की वार्ता चल रही है, वे इस प्रयास में लग गए कि अंबेडकर को सिख धर्म स्वीकार करने के लिए मना लिया जाए, क्योंकि सिख धर्म को वे हिंदू धर्म के एक पंथ के रूप में मानते थे। इसके जरिये वे दलितों की ‘पुण्य भूमि’ भारत से बाहर न जाने देने की रणनीति पर काम कर रहे थे। इसके लिए हिंदू महासभा के नेता बीएस मुंजे ने बाकायदा डॉ. अंबेडकर से मुलाकात की, जिसे दक्षिणपंथी विचारक मुंजे-अंबेडकर संधि के रूप में प्रचारित करते हैं। ऐसे बताया जाता है कि इस संधि में डॉ. अंबेडकर ने मुंजे को यह भरोसा दिलाया था कि वे किसी ‘अभारतीय’ धर्म या पंथ का चयन अछूतों के लिए नहीं करेंगे। डॉ. अंबेडकर के लिए इस संधि की कीमत कितनी थी यह अलग बहस का विषय है।
सिख धर्म को स्वीकार करने की कवायद को छोड़ने के बाद डॉ. अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन के कार्य को स्थगित कर दिया। 6 दिसंबर 1956 को अपने परिनिर्वाण से कुछ हफ्तों पहले अक्टूबर 1956 को उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इस अंतराल में उन्होंने भारतीय इतिहास, दर्शन व सामाजिक व्यवस्था के विकास क्रम में बौद्ध धर्म की प्रगतिशील भूमिका का गहन अध्ययन किया। उनके जाति संबंधी समूचे लेखन व लोकतंत्र, समाजवाद संबंधी चिंतन में बौद्ध दर्शन का प्रभाव अंतनिर्हित है।
डॉ. अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के निर्णय को लेकर हिंदूवादी विचारकों में ही नहीं बहुजन अस्मितावादी, वामधारा और कुछ ‘तटस्थ’ विदेशी लेखकों में भी असंतोष व्याप्त रहा है। क्रिस्तोफ जाफ्रलो, जो लंदन स्थित किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में भारतीय राजनीति व समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं और जिन्होंने डॉ. अंबेडकर की जीवनी भी लिखी है, वे डॉ. अंबेडकर द्वारा एक समतामूलक धर्म के रूप में बौद्ध धर्म के चयन को एक ‘छद्म समाधान’ मानते हैं। वे कहते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म इसलिए ग्रहण किया, क्योंकि इसके जरिये वे हिंदू धर्म से पूरी तरह विच्छेद के आरोप से बचना चाहते थे, और यह एक बीच का समाधान था। जेफ्रलो कहते हैं कि सिख धर्म के प्रति आकर्षण के पीछे भी यही कारण था कि वे हिंदू धर्म से ज्यादा दूर नहीं जाना चाहते थे, वे ज्यादा से ज्यादा सिख व बौद्ध धर्म तक जाते हैं। इसके बाद जेफ्रलो अपने निष्कर्ष में अतिवाद का शिकार हो जाते हैं और कहते हैं कि अंबेडकर का बौद्ध धर्म लगभग एक पंथ की तरह हिंदू धर्म के भीतर समेकित हो गया है।2 जबकि वर्तमान परिस्थिति जेफ्रलो के निष्कर्षों से बिल्कुल विपरीत है।
जेफ्रलो की बात अगर मान लें तो ऐसा मानना पड़ेगा कि अंबेडकर दलितों के प्रति कम मुंजे व गांधी को दिए गए वचन, जिसके तहत वे भारतीय मूल का ही धर्म ग्रहण करने का आश्वासन देते हैं, के प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध थे। क्रिस्तोफ जेफ्रलो के निष्कर्षों के पीछे चाहे जो विचार प्रणाली हो, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि समय व सामाजिक स्थिति ने उन्हें गलत साबित कर दिया है। भारत में हिंदुत्व की राजनीति के सबसे आक्रामक समय में बौद्ध धर्म व दर्शन ने एक मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई है। अंबेडकर के बौद्ध अनुयायियों ने इसे हिंदू धर्म के एक पंथ के रूप में नहीं, बल्कि उसके विकल्प के तौर पर स्वीकार किया है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अपनी तमाम सीमाबद्धताओं के बावजूद बौद्ध धर्म एक नए दलित जागरण का वाहक बना। आज लगभग पूरे भारत में दलितों के एक बड़े हिस्से को हिंदुत्व की ओर जाने से रोकने का काम अकेले बौद्ध धर्म और अंबेडकरवादी विचार ने किया है। आज यह समझा जा सकता है कि डॉ. अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म का चयन किस प्रकार एक दूरदर्शी निर्णय है। वर्तमान समय में सांस्कृतिक व राजनीतिक परिदृश्य में बौद्ध धर्म ब्राह्मणवादी विचारधारा का प्रगतिशील विकल्प की तरह उपस्थित है। इसी तरह सिख धर्म भी हिंदुत्व से अलग मानवीय और समतामूलक धर्म के रूप में अपनी स्वतंत्र छवि निर्मित करने में कामयाब रहा है। हालांकि समय-समय पर इसके बीच से कट्टरपंथी विचार सिर उठाता रहा है, लेकिन गुरूनानक की शिक्षाओं के अनुरूप यह धर्म किसी साम्प्रदायिक अभियान का हिस्सा नहीं बना। विभाजन की त्रासदी झेलने वाले सिखों के मन में भी मुसलमानों या किसी अन्य सम्प्रदाय के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। भारत में मुस्लिम विरोधी बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के खिलाफ उल्लेखनीय रूप से खड़ा रहा है। वर्तमान की अनेक घटनाएं इस धारणा को मजबूत करती हैं।
इसी तरह दलित अस्मिता विमर्श के अंदर से भी बौद्ध धर्म ग्रहण करने को लेकर डॉ. अंबेडकर की आलोचना होती रही है। हिंदी दलित विमर्श के एक अत्यंत विवादास्पद आलोचक-विचारक डॉ. धर्मवीर अंबेडकर के आलोचकों में प्रमुख हैं। डॉ. धर्मवीर दलितों के लिए एक अलग धर्म की जरूरत पर बात करते रहे हैं, जिसे उन्होंने आजीवक धर्म के रूप में प्रस्तावित भी किया। इस धर्म में मक्खिल गोसाल, कबीर, रैदास के वैचारिक प्रेरणा को वे शामिल करते हैं। बौद्ध धर्म को वे पराया धर्म मानते हैं, जो मूलतः ब्राह्मण धर्म का ही एक परिष्कृत रूप है। उनका मानना है कि दलितों का इससे कोई भला नहीं होगा और डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध को अपनाकर दलित चिंतन को नुकसान पहुंचाया है। वे लिखते हैं, ‘‘डॉ. अंबेडकर अपने समय के गांधी के रूप में जन्मे, बुद्ध से तो जुझारू होकर लड़े थे, लेकिन ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध के रूप में जन्मे पुराने गांधी के शिष्य बन गए थे। वास्तव में आज दलितों को अपने उन ऐतिहासिक डॉ. अंबेडकर की खोज करनी है, जो बुद्ध के समय में बुद्ध से ऐसे ही लड़े थे, जैसे कि आज के गांधी के सामने वे लड़े थे।’’3
यहां डॉ. धर्मवीर गांधी को आधुनिक बुद्ध बता रहे हैं और बुद्ध को गांधी की तरह वर्णाश्रम धर्म का समर्थक साबित करना चाहते हैं। गांधी और बुद्ध की यह तुलना व्यर्थ नहीं तो कम से कम बेतुकी अवश्य है। इस तरह वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि बौद्ध धर्म स्वीकार कर डॉ. अंबेडकर ने हिंदू धर्म को मजबूत किया। इस संदर्भ में वे यह लिखते हैं- ‘‘दलित चिंतन को सबसे पहला और भारी धक्का ढाई हजार साल पहले बुद्ध के चिंतन के रूप में लगा था। इस धक्के और धोखे से दलित चिंतन आज तक नहीं उभर सका है। उल्टे डॉ. अंबेडकर के रूप में वह इस धोखे में फंसता ही जा रहा है। इस दलदल से निकलने का उसके पास अभी कोई पक्का और मुकम्मल उपाय नहीं है। असल फर्क वही है कि राजकुमार बुद्ध संघर्षशील दलित का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। वास्तव में बुद्ध ने केवल अपनी लड़ाई लड़ी थी और वह भी ठीक तरह से नहीं लड़ी थी। उनका दलित की समस्या से लेना-देना नहीं था, बुद्ध की समस्या एक साधन संपन्न व्यक्ति की समस्या थी। ऐसी समस्या का समाधान दलित के लिए किसी मतलब का नहीं हो सकता। नुकसान यह हुआ है कि आज के दलित ने बुद्ध के बहकावे में आकर अपने स्वतंत्र चिंतन की खोज करनी छोड़ रखी है।’’4 इस तरह हम देखते हैं कि डॉ. धर्मवीर आजीवक धर्म को प्रस्तावित करने के चक्कर में डॉ. अंबेडकर और बौद्ध धर्म को ही प्रतिक्रियावादी सिद्ध करने लग जाते हैं।
बौद्ध धर्म के संदर्भ में मार्क्सवादी इतिहासकारों और चिंतकों में एक सकारात्मक आलोचना का भाव देखने को मिलता है। ज्यादातर मार्क्सवादियों ने बौद्ध दर्शन के प्रगतिशील भूमिका को मान्यता दी है। डी. डी.कोसंबी, जो एक प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार व दार्शनिक हैं, उन्होंने बौद्धकालीन चिंतन परंपरा को क्रांतिकारी चिंतन के रूप में स्वीकार किया, लेकिन बुद्ध के बाद परवर्ती काल में जब बौद्ध धर्म राज धर्म के रूप में स्वीकृत हुआ तब से लेकर हीनयान व महायान के रूप में विभाजित होने के बाद इसमें पैदा होने वाली विकृतियों को भी चिह्नित किया है। बौद्ध दर्शन की प्रगतिशील भूमिका को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘बौद्ध ग्रंथों में गृहस्थ और कृषक के जो कर्तव्य निर्धारित किए गए हैं वे जाति, संपत्ति तथा पेशे के दायरों से मुक्त हैं और कर्मकांड को तनिक भी महत्व नहीं दिया गया है। उनमें ब्राह्मणों के बाह्यांडबर तथा विशिष्ट कर्मकांड के विरूद्ध, जो तर्क पेश किए गए हैं, वे भी सरल भाषा में हैं। सामाजिक विभेद के रूप में जाति का अस्तित्व भले ही हो, परंतु इसमें कोई स्थायित्व नहीं था, न ही इसका कोई औचित्य था। इसी प्रकार सदाचारी जीवन के लिए कर्मकांड भी अनावश्यक और असंगत था। बौद्ध धर्मग्रंथ, जो सभी बुद्ध-वचन माने जाते हैं, बोलचाल की सरल भाषा में हैं और रहस्यात्मकता अथवा लंबे ऊहापोह से मुक्त हैं। ये एक नए प्रकार का धार्मिक वांग्मय था-ऐसे उपदेशों का संकलन जो तत्कालीन समाज के समस्त लोगों के लिए थे, न कि कुछ चुने हुए शिक्षित शिष्यों अथवा पंडितों के लिए।’’5
दलित विमर्श के अधिकांश चिंतकों ने भारतीय गांवों की संरचना को जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद का पोषक माना है, इसलिए दलित मुक्ति के लिए वे नगरीय सभ्यता व नगरीय जीवन को अपनाने पर जोर देते हैं। स्वयं डॉ. अंबेडकर ने भी अस्पृश्यों को गांवों से निकलकर अपने पारंपरिक पेशों का परित्याग कर औद्योगिक ईकाइयों में साफ-सुथरे काम करने के लिए प्रेरित किया था। ऐतिहासिक अध्ययन यह बताते हैं कि उत्तरवैदिक काल में बौद्ध धर्म के विकास ने भारत में नगरीकरण को बढ़ावा दिया था। इस संबंध में रामशरण शर्मा ने लिखा है, ‘‘बुद्ध के समय में नगरीय वातावरण ने नागरिक जीवन की कुछ ऐसी विशेषताओं को जन्म दिया, जिनका साधारण कृषक समाज द्वारा प्रतिबंधित ब्राह्मण दृष्टिकोण ने समर्थन नहीं किया। नागरिक जीवन सामान्य विशेषता है भोजनालय, जिन्हें वांछित नहीं समझा गया। उच्च वर्ग के लोगों को; संभवतः ब्राह्मणों को आपस्तम्ब सुझाव दिया गया कि वे दुकानों में बनाए गए भोजन को न ग्रहण करें। यद्यपि कुछ पदार्थों को अपवाद माना गया है। यह स्पष्ट करता है कि नवीन दुकानदार वर्ग तथा नगरों के सामान्य जीवन पद्धति के विरूद्ध कुछ पक्षपात था। किन्तु बौद्ध ग्रंथ इस प्रकार का दृष्टिकोण नहीं प्रकट करते।’’6
बौद्ध काल में वर्ण व्यवस्था के कमजोर पड़ने के विषय में रामशरण शर्मा ने लिखा है, ‘‘वर्ण संबंधी ब्राह्मण विचारधारा उत्पादन, कर उपहार इकट्ठा करने तथा वितरण को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई एक बुद्धिमत्तापूर्ण युक्ति थी। परंतु इस युक्ति के भेद मूलक विधान को बहुत दूर तक ले जाया गया, जिसके परिणामस्वरूप यह नवीन भौतिक परिवर्तनों की अवरोधक बन गई। इसकी तुलना में महत्वपूर्ण सामान्य बौद्ध शिक्षाओं ने नवीन भौतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को सहायता प्रदान की, और वर्ण व्यवस्था की कठिनाइयों को कम करने में भी सहायता की।’’7
राहुल सांकृत्यायन वर्ण व्यवस्था को कमजोर करने में बुद्ध की भूमिका को स्वीकार तो करते हैं, लेकिन वे इस बात की आलोचना करते हैं कि बुद्ध ने अपने प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत को सामाजिक सिद्धांत के रूप में सीमित रखा। आर्थिक क्षेत्र में इसे लागू न करने के कारण इसने आर्थिक विषमता को जारी रखा। आर्थिक मूलाधार को आमूल रूप से बदले बगैर बुद्ध ने सामाजिक ऊपरी ढांचे को बदलने की कोशिश की, जिसके कारण वास्तविक विषमता दूर नहीं हुई।8
डॉ. अंबेडकर बौद्ध धर्म को भारतीय इतिहास की पहली क्रांति मानते हैं। वे कहते हैं कि बौद्ध धर्म उतनी ही महान क्रांति थी, जितनी महान फ्रांस की क्रांति थी। भले ही वह एक धार्मिक क्रांति के रूप में प्रारंभ हुई थी, लेकिन वह एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति बन गई थी।9 स्पष्ट है कि डॉ. अंबेडकर के लिए बौद्ध धर्म का आध्यात्मिक पहलू जितना मायने रखता है। बौद्ध दर्शन को उन्होंने भारत में लोकतंत्र व समता के आदर्श का प्रेरणास्रोत मानते हैं। बुद्ध को प्रथम समाज सुधारक मानते हुए कहते हैं कि भारत में समाज सुधार का इतिहास बुद्ध से ही शुरू होता है।10 संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि ऐसा नहीं है कि भारत लोकतंत्र व संसदीय प्रणाली से परिचित नहीं है। भारत में बौद्ध काल में बौद्धभिक्षु संघों में लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली का प्रयोग होता था। एक अन्य जगह उन्होंने स्वीकार किया कि उनके लोकतांत्रिक विचारों का उत्स फ्रांस की क्रांति में नहीं, बल्कि बौद्ध दर्शन में है।
डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’ में बौद्ध दर्शन के आधात्मिक व सामाजिक पहलुओं का विस्तृत विवेचन किया है। इसमें वे बताते हैं कि बौद्ध धर्म इल्हामी धर्म नहीं है। उन्होंने कभी किसी को मुक्त करने का आश्वासन नहीं दिया। वे मार्गदाता हैं, मोक्षदाता नहीं। इल्हामी धर्म से बौद्ध धर्म का अंतर बताते हुए डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘‘2-कोई धर्म इल्हामी धर्म इसलिए कहलाता है कि वह भगवान का ‘संदेश’ या ‘पैगाम’ ताकि वे अपने रचयिता की पूजा करें कि वह उनकी आत्माओं को मुक्त करे। 3-अक्सर यह पैगाम किसी चुने हुए व्यक्ति के द्वारा प्राप्त माना जाता है, जो पैगाम-वर कहलाता है, जिसे यह पैगाम प्राप्त होता है और जो फिर उस पैगाम को लोगों तक पहुंचाता है। 4-यह पैगंबर का काम है कि जो उसके धर्म पर ईमान लाने वाले लोग हों, उनके लिए मोक्ष का लाभ निश्चित कर दे। 6-बुद्ध ने कभी भी अपने को खुदा पैगंबर होने का दावा नहीं किया। यदि कभी किसी ने ऐसा समझा तो भगवान बुद्ध ने उसका खंडन किया।’’11
डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि बुद्ध ने अपने या अपने धर्म के लिए किसी प्रकार की ‘अपौरूषेयता’ का दावा नहीं किया। उनका धम्म मनुष्यों के लिए मनुष्यों द्वारा आविष्कृत धम्म था। उन्होंने बौद्ध धर्म को एक भौतिकवादी, अनात्मवादी, अहिंसावादी व जनतांत्रिक धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं। धम्म क्या है? इसको स्पष्ट करते हुए डॉ. अंबेडकर ने जो कहा है, उसे इस प्रकार सूत्रबद्ध किया जा सकता है-
– जीवन की पवित्रता बनाए रखना धम्म है।
– जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धम्म है।
– निर्वाण प्राप्त करना धम्म है।
– तृष्णा का त्याग धम्म है।
– यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य है, धम्म है।
– कर्म को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना धम्म है।
डॉ. अंबेडकर ने नास्तिकता को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि समाज के नैतिक मूल्यों को स्थापित करने व अराजकता से बचने के लिए धर्म आवश्यक है, लेकिन वह धर्म कर्मकांड व पारलौकिक अवधारणाओं पर आश्रित नहीं होना चाहिए। हिंदू सनातन धर्म के कर्मकांडों और अंधविश्वासों से मुक्ति का रास्ता उन्हें बौद्ध धम्म में नजर आया। इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग को सर्वश्रेष्ठ जीवन पद्धति के रूप में मान्यता दी है। पुनर्जन्म के सवाल पर बौद्ध दर्शन की जो स्थिति है, उसको लेकर विवाद रहे हैं। इस विषय पर डॉ. अंबेडकर के आलोचक उन पर प्रश्न खड़ा करते रहे हैं। अपनी इस पुस्तक में डॉ. अंबेडकर ने पुनर्जन्म और आत्मा संबंधी आलोचना का उत्तर दिया है। वे बताते हैं कि बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, लेकिन पुनर्जन्म पर हामी भरी। अंबेडकर कहते हैं कि ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो बुद्ध पर यह दोष लगाते थे कि वे परस्पर विरोधी सिद्धांतों के प्रचारक हैं। उनकी शंका थी कि जब आत्मा ही नहीं है तो पुनर्जन्म कैसा होगा। इस संबंध में बुद्ध कहते हैं कि इसमें कुछ भी विरोध नहीं है। बिना आत्मा के पुनर्जन्म हो सकता है। जिस तरह से आम के बीज से आम का पेड़ पैदा होता है और फिर पेड़ पर आम के फल लगते हैं तो यह आम का पुनर्जन्म है।12 यानी पुनर्जन्म की एक अनात्मवादी व्याख्या करने की कोशिश की गई है। बौद्ध दर्शन में पुनर्जन्म को लेकर विवाद चलते रहेंगे, यहां उस विषय पर बात करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के निर्णय पर पक्ष-विपक्ष की बहस चलती रही है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि भारत जैसे देश में एक भौतिकवादी धर्म का प्रणयन हिंदुत्व के धार्मिक व सांस्कृतिक प्रतिक्रियावाद के बरक्स एक प्रगतिशील व क्रांतिकारी कदम है।
संदर्भ :
1- भगवान दास, दस स्पोक अंबेडकर, अवस-4 पृ.108
2-क्रिस्तोफ जाफ्रलो, भीमराव अंबेडकर : एक जीवनी, राजकमल प्रकाशन 2019, पृ.162
3-सं. चमनलाल, दलित और अश्वेत साहित्य, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, 2001, पृ.58
4-वही, पृ.59-60
5-डी. डी. कोसंबी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, राजकमल प्रका. 13वां संस्करण, 2019 पृ. 145
6-रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, राजकमल प्रका. 15वां संस्करण, 2019 पृ. 177
7- वही पृ. 220
8-राहुल सांकृत्यायन, दर्शन दिग्दर्शन, किताब महल, इलाहाबाद, 1947, पृ. 539
9- डॉ. अंबेडकर : संपूर्ण वांगमय, खंड 07, प्राचीन शासनप्रणाली में आर्यों की सामाजिक स्थिति, अंबेडकर प्रतिष्ठान 1998, पृ. 17
10- वही पृ. 30
11- डॉ. अंबेडकर : भगवान बुद्ध और उनका धम्म
12- वही पृ. 234-35
(उत्तर प्रदेश के शामली जिले में अध्यापन कर रहे डॉ. रामायन राम लम्बे समय से अंबेडकर चिंतन पर समकालीन जनमत और दूसरी पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. वर्ष 2019 में नवारुण प्रकाशन से उनकी किताब ‘डॉ. अंबेडकर : चिंतन के बुनियादी सरोकार’ प्रकाशित हुई है. वे आजकल इसके नए संस्करण के लिए लेखन रत हैं. रामायन राम जन संस्कृति मंच की उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव भी हैं.)