अभी तक कैसे भी कितने भी तरह के सांप्रदायिक हमले होते रहे हों लेकिन इस देश का जो लोकतांत्रिक ढाँचा था वो जस का तस बना हुआ था, क्योंकि इस देश के विधान पर लागू होने वाला संविधान अक्षुण्ण था। लेकिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हस्ताक्षर के साथ ही नागरिकता संशोधन अधिनियम न सिर्फ़ कानून बन गया बल्कि इसने संविधान की मूलभावना को ही नष्ट कर डाला। पंथनिरपेक्षता इस देश (‘राज्य राष्ट्र’) के स्वस्थ होने की निशानी थी। चूँकि पंथनिरपेक्षता को खत्म किए बिना इस देश को हिंदू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता था। अतः सीएए के जरिए पंथनिरपेक्षता की ही हत्या कर दी गई।
इस तरह नागरिकता संशोधन कानून ने हिंदूराष्ट्र को सैद्धांतिक मान्यता दे दी है। मौजूदा नागरिकता संशोधन कानून वायरस की तरह है जिसे इस देश के स्वस्थ्य शरीर में इंजेक्ट कर दिया गया है। अब ये देश उस हद तक बीमार हो चुका है जितना कि एक धार्मिक विधान वाला राष्ट्र होता है। दरअसल नागरिकता संशोधन कानून के साथ ही अब ये मुल्क़ हिंदू-पाकिस्तान बन चुका है। जहाँ अब देश के संसाधनों पर पहला हक़ बहुसंख्यक हिंदुओं का होगा।
इसे यूँ समझिए कि भारतीय संविधान के तीन भाग हैं। दूसरा भाग भारत की ‘नागरिकता’ के बाबत है। इस तरह नागरिकता संशोधन कानून संविधान के ‘दूसरे भाग’ को पूरी तरह हाईजैक कर लेता है। जबकि संविधान के दूसरे भाग (नागरिकता) में किसी भी तरह का फेर-बदल करने से संविधान का तीसरा भाग (नागरिक अधिकार) प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। इस तरह किसी भी व्यक्ति या समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता से वंचित करना दरअसल उसके नागरिक अधिकारों को छीन लेना भी है।
हम देख सकते हैं कि सिर्फ़ एक कानून (सीएए) के जरिए देश के संविधान का अधिकांश (दो तिहाई) भाग बुरी तरह प्रभावित होता है। संविधान के दूसरे भाग में ‘गैर-मुस्लिम’ शब्द का प्रवेश दरअसल हिंदुत्व का प्रवेश का है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि ‘राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर’ और ‘नागरिकता संशोधन कानून’ एक-दूसरे से अभिन्न न होकर एक हथियार के रूप में एक-दूसरे के पूरक हैं। पहले ‘एनआरसी’ वाहियात कागजात की बुनियाद पर मुस्लिम समुदाय को ‘विदेशी’ (घुसपैठिया) घोषित करके उनकी नागरिकता छीनेगी और फिर ‘नागरिकता संशोधन कानून उनके लिए शरणार्थी बनकर भारत में रहने या दोबारा भारतीय नागरिकता हासिल करने के भी दरवाजे बंद करती है। दरअसल नागरिकता संशोधन कानून , एनआरसी में छँटने वाले गैर-मुस्लिमों को फिल्टर करने का काम करती है. ‘नागरिकता संशोधन कानून सिर्फ़ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंग्लादेश से आने वाले गैर-मुस्लिम पीड़ित प्रवासियों के लिए नहीं हैं. इसे बहुत ध्यान देकर समझने की ज़रूरत है क्योंकि सरकार और मीडिया लगातार इस मामले में भारतीय जन-मानस को गुमराह कर रही है.
यहां एक चीज और ध्यान देने की है कि इस प्रावधान में केवल पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर-मुस्लिमों के लिए क्यों प्रावधान किया गया है ? इसकी मुख्य वजह ये है कि भारतीय मुस्लिम समाज का नजदीकी संबंध इन्हीं तीन मुल्कों के मुस्लिम समुदाय के साथ है. इनमें से पाकिस्तान और बंग्लादेश तो ब्रिटिश इंडिया से अलग होकर बने हैं और इन तीन मुल्कों के मुस्लिमों में एक सांस्कृतिक और समाजिक समानता है. भारतीय मुस्लिम समुदाय का वंश-बेल इन तीन मुल्कों में फैला हुआ है. जाहिर है एनआरसी में नागरिकता गँवाने के बाद ‘विदेशी’ घोषित किए जाने पर पीड़ित भारतीय मुस्लिमों का संबंध इन्ही तीन मुल्कों से जुड़ेगा और जोड़कर भी देखा जाएगा (जैसा कि असम के बंग्लाभाषी मुसलामानों के विदेशी घोषित किए जाने पर उनका संबंध बंग्लादेश से जोड़कर उन्हें बंगलादेशी कहा गया).
यूपी बिहार और दिल्ली जैसे हिंदी पट्टी के प्रदेशों में तो अमूमन मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तानी कहकर अपमानित किया जाता रहा है। कई मंचों से भाजपा और आरएसएस के दूसरे संगठनों के छुटभैये और बड़भैये मुसलमानों और सरकार विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की बात कहते आए हैं. आरएसएस और भाजपा मुस्लिम समुदाय को विदेशी, आक्रांता और आक्रमणकारी कहकर सामान्य जनमानस को दूषित करती आई हैं. मोदी सरकार के पहले शासनकाल में इसी धारणा के मद्देनज़र इतिहास और स्कूली पाठ्यक्रमों में फेरबदल किया गया था. वर्ना असम (असमी भाषी समुदाय लगातार एनआरसी की माँग करती आई थी) के बाद पूरे देश में एनआरसी थोपने की और क्या वजह हो सकती है.
एक लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण राज्य का उत्तरदायित्व होता है लेकिन आज स्थिति ये है कि ‘राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर’ और ‘नागरिकता संशोधन कानून ’ के जरिए राज्य ही अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों का दुश्मन बना बैठा है। मौजूदा हालात में मुस्लिम समुदाय सबसे ज़्यादा असहाय व असुरक्षित महसूस कर रहा है। उसे लग रहा है कि इस देश में अब कभी भी उनके सामूहिक खात्मे का सरकारी आदेश जारी हो सकता है। एनआरसी और अयोध्या ज़मीन विवाद केस फैसले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका के बाद स्पष्ट नज़र आता है कि इस देश के न्यायिक व्यवस्था भी सरकार का अंग बन चुका है। अब हैरानी न होगी ग़र किसी रोज इस देश में मॉब लिंचिंग को गैर-आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया जाए। क्या विडबंना है कि दो दिन बाद यानि 18 दिसंबर को जहां पूरी दुनिया अल्पसंख्यक अधिकार दिवस मना रही होगी वहीं भारत के विश्वविद्यालयों और सड़कों पर लोग अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर पुलिसिया बर्बरता का सामना कर रहे हैं।
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