अनुपम सिंह
आजकल जब भी समय मिलता है ,कविताएँ लिखने से अधिक कविताओं के विषय में सोचती हूँ. कोई कविता क्यों अच्छी लगती हैं और क्यों नहीं अच्छी लगती है?
जबकि जो कविताएँ नहीं भी अच्छी लगती हैं, उनमें भी विन्यस्त होता है शुभ विचार. खैर! मुझे लगता है कि कविता गहन संवेदन और पूर्व सघन स्मृतियों के आधार पर बनती है.
पूर्व स्मृतियाँ ही गहन संवेदन और चेतन ,अचेतन की प्रक्रियाओं द्वारा पुनर्सृजित होकर आ बैठती हैं कविता में. इसलिए कवि के लिए विस्तृत अनुभव लोक का होना भी आवश्यक है.
लेकिन कविता में सभी अनुभव जगह नहीं पाते, बल्कि विश्लेषित अनुभव जगह पाते हैं. कविता कोई कूड़ेदान नहीं जहाँ सुबह का खाया और शाम का पाया सब उलट दें उसमें. वह एक ‘कला’ भी है जहाँ सही रंगों का चुनाव सही मात्रा में करना होता है.
मैं कविता पढ़ते समय अपने लिए उसके सार तत्त्व ,भाषा के अलग-अलग ताप, भिन्न अनुभव संसार एवं सहज, निश्छल संवेदन को पकड़ना चाहती हूँ.
स्त्री कविता में वहीं ‘कविता’ होती है जहाँ गहन संवेदन और पूर्व स्मृतियों का ऐसा घोल तैयार हो जिसमें किसी एक का आत्म नहीं बल्कि आत्म की सामूहिक अभिव्यक्ति झलकती हो.
कविता वहां अधिक प्रमाणिकता पाती है जहाँ वह सृष्टि के कण-कण से अपने को जोड़ती है. शायद स्त्री कविता का यही मूल केंद्र भी है. स्त्री कविता ने अपनी उपस्थिति से प्रकृति और सृष्टि दोनों की गरिमा बढ़ायी है और वह स्वयं भी प्रकृति में ही अपनी पूर्णता को पाती है .
सविता भार्गव के कविता सग्रह –‘अपने आकाश में’ ‘सृष्टि’ शीर्षक से एक कविता है, इसे आप पढ़ सकते हैं –
“इस रात
नहीं कोई जब
पास
खुद में
मैं खुद
जनम रही हूँ”
एक स्त्री को उसके सम्पूर्ण जीवन में सृजन के लिए जिस एकांत और एकाग्रता की ज़रूरत होती है, वह एकांत उसे हासिल हो, कोई जरुरी नहीं.
यदि हासिल भी होता है तो बड़ी मुश्किल से, लेकिन जब कभी वह एकांत उसे हासिल होता है तो उसकी थाती बन जाता है. सबसे खूबसूरत क्षणों में एक, कीमती क्षण की तरह. उस एकांत के क्षणों में वह खुद को खोजती है.
वह सृष्टि प्रसवा तो है ही, वह आत्मप्रसवा भी है. भूख, प्यास, नींद और कविता अपने चरम पर जाकर ही अधिक सुखकर होती है.
एक माइने में सबसे कष्टकर भी. नींद जब अपने चरम पर होती है तो उसे किसी कीमत पर भी नहीं टाला जा सकता. कविता भी तभी चरम अभिव्यक्ति, सौन्दर्य और शुभता को प्राप्त होती है जब उसकी अभिव्यक्ति प्यास की तरह अनिवार्य हो जाय, और एक स्त्री इन्हीं पीड़ादायक, सुखदायक क्षणों में जन्म लेती है.
इस ‘सृष्टि’ शीर्षक कविता में स्त्री का सघन आत्म-प्रेम अभिव्यक्ति पाता है .
“इस रात
मैं हूँ
सबसे मनोरम
सृष्टि”
अपने को जब कोई स्त्री इस तरह से पा लेती है, तब उसकी कुछ और भी पाने की चाह थिर हो जाती है .
एक स्त्री सृष्टि में खुद को अकेले कभी नहीं पहचानती .यह अहम् का भाव उसमें है ही नहीं .वह छोटो-छोटी चीजों के बीच ही खुद को खोजती है. वह सृष्टि के कण-कण से ख़ुद को जुड़ा पाती है .
स्त्री सृष्टि का अधूरापन और पूरापन दोनों अपने भीतर महसूस करती है .सविता भार्गव की एक कविता है ‘अधूरा घोंसला’ घोंसले का अधूरापन किसी पुरुष को कभी नहीं साल सकता ,लेकिन एक स्त्री की उम्मीदें उस घोंसले भी जुड़ जाती हैं .वह उस घोंसले की गौरैया से खुद को जोड़ लेती है –
“मेरी किताबों के पीछे रैक में
एक जोड़ी काली गौरैया
बना रही थी घोंसला
यह जानते हुए कि रैक गन्दा हो जायेगा
थोडा नुक्सान हो जायेगा किताबों का भी
मन से मैं विवश थी
समझो कि मेरा मन उन पर आ गया था
मैं यहाँ तक समझने लगी थी
दोनों में जो मादा है
उसमें मैं हूँ”
लेकिन गौरैया जब अपना अधूरा घोंसला छोड़ उड़ जाती है तो स्त्री का मन भी उड़ जाता है उसके साथ ही. वह अपने को उस घोंसले की तरह ही अधूरा पाती है –
“पहले सोचा था
काली गौरैया में मैं हूँ
सोच रही हूँ कई दिनों से अब
गौरैया मुझमें है
रैक में किताबों के पीछे
ज्यों का त्यों है
अधूरा घोंसला”
स्त्री के भीतर सृष्टि में घुल-मिल जाने का भाव प्रमुख होता है .वह हर शोषित से अपने को जोड़ लेती है .सविता भार्गव के इस संग्रह में अपने को गौरैया से जोड़ती तीन कवितायें हैं .अगली कविता में वे खुद को ही किसी के घर की गौरैया बताती हैं –
“ये नहीं होतीं
नहीं होता घर इतना कर्मशील
और वानस्पतिक
और कम ही होती मेरी आँखों में
आकाश की नीली गहराई
मैं भी किसी घर की
गौरैया हूँ .” (गौरैया शीर्षक से )
अगली कविता है ‘इस घर में’ यहाँ भी स्त्री ,प्रकृति और सृष्टि का सहज ही जुड़ाव दिखाई देता है .इस प्रकृति और सृष्टि में अनंत जीव हैं ,अनंत वनस्पतियाँ ,अनंत चीजें ,लेकिन स्त्री का जुड़ाव जैसा मैंने पहले ही कहा कि शोषित चीजों से ही है . वह उसी में अपना चेहरा साफ़-साफ़ देख पाती है.और अपनी स्थिति को भी –
“इस घर में मैं रहती हूँ
चिड़िया की तरह
मैदान पेड़ गेहूं के दाने और
तालाब के पानी के बारे में
सोचते हुए
सांप की सरसराहट का
अनुभव करती हूँ
अक्सर .”
लेकिन स्त्री को स्वयं को खोज पाना आसन भी नहीं है .कठिन चुनौतियाँ हैं ,ऊँची चौखटे हैं ,मजबूत दरवाज़े हैं. ऐसा ही एक दरवाजा इस कविता में भी है और उसकी ऊँची चौखट भी. चौखट को पार की चुनौती भी.
यह कोई सामान्य दरवाज़ा नहीं है. यह संस्कृति और सभ्यता के विकास क्रम से हासिल मजबूत दरवाजा है. जो हमेशा फटाक से बंद होता है एक स्त्री के मुंह पर. यह सिर्फ घर का ही दरवाज़ा नहीं मन का भी दरवाज़ा है, जिसे संस्कृति के बढ़ई ने बहुत खूबसूरत नक्काशी काटकर बनाया है.
एक बारगी में कितनी सुन्दरता और सुरक्षा का भ्रम पैदा करता है यह दरवाज़ा. लेकिन इसकी सांकल खोलने की इजाज़त सिर्फ उनको है जिन्होंने इसे बनाया है, जो इस मन के मालिक हैं.
“ये दरवाजा
तुम्हारे खटखटाने के लिए
बना है
…………………..
इसके पीछे
खड़ी होकर
मैं एक मज़बूत
और सुन्दर औरत हूँ .”
इस कविता को आप पढ़ सकते हैं , यह एक अच्छी कविता है. विचार और विन्यास दोनों ही स्तरों पर. पहली नज़र में यह कविता सुन्दरता का आभास कराती है .जैसे-
“होती है इस पर
जब खट-खट
तुम्हारे कहे बगैर
मैं तुम्हें सुन लेती हूँ
तुम्हारी ये अनुगूँज
-मैं हूँ
भीतर आकर थम जाय
इसके लिए बना है ये दरवाज़ा”
यहाँ तक कितना सुरक्षा देने वाला लगता है यह दरवाज़ा, कहीं कोई पेंच नहीं इस दरवाज़े में .लेकिन अगला ही बंद आपके लिए खोल देगा वह द्वार जो दरवाज़े के भीतर जाने पर ही खुलता है . यहाँ अनामिका की ‘दरवाज़ा’ शीर्षक कविता याद आती है-
‘‘मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गयी’’
सविता भार्गव की कविता में वह पीटने की आवाज़ तो नहीं सुनाई पड़ती. धीरे-धीरे सत्ता सतर्क हुई है. वह निशान नहीं छोड़ती. उसके औजार माइक्रो लेवल के हुए हैं, बहुत सूक्ष्म जिसे नंगी आँखों से देखा ही नहीं जा सकता. वह बाहर से बहुत सुन्दर है, मजबूत भी. वह बहुत शाइस्तगी से बंद होता है. लेकिन –
“तुम्हारी आवाज़
‘मैं हूँ ‘
के घेरे में भटकने के लिए बनी हूँ मैं
……………………….
खड़ी होकर
इस दरवाज़े पर
मैंने तुम्हारे बिछड़ने के
दुःख झेले हैं
लौटने तक तुम्हारे
ये दरवाज़ा’
बंद रहने के लिए बना है .”
यहाँ पहुंचकर कविता अपना पूरा सन्दर्भ पाठक के सामने खोल देती है. फिर आप सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और इतिहास के मुहाने तक टहल आते हैं. जहाँ हर मजबूत दरवाज़े के भीतर एक स्त्री की घुटती, टूटती साँस है .
लेकिन कविता का अंतिम बंद एक चेतस स्त्री की आवाज़ है .वे लिखती हैं-
“मेरे बंद करने के लिए
बना है
यह दरवाज़ा”
यह संस्कृति कितने स्तरों पर विभाजित है, देखने से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है .जब कविता में आप छोटे- छोटे ,देखने में मामूली लगने वाले विषयों को एक नजरिए से उकेरा देखते हैं, तब लगता है कहाँ-कहाँ खींची गयी है विभाजन की यह लकीर.
एक ही वर्णमाला से बनने वाली भाषा एक ही अन्न से पकने वाला भोजन कितना अलग स्वाद देता है स्त्री और पुरुष को. पुरुष भाषा और स्त्री भाषा के अलग-अलग मानदंड होने की बानगी आप ‘गालियाँ’ शीर्षक कविता में देख सकते हैं-
“ड्रामा कोर्स में
एक वाचाल वेश्या का अभिनय करते हुए
मंच पर मैं बके जा रही थी
माँ बहन की गलियाँ
पूरी पृथ्वी एक मंच है
जिसमे पुरुष की यह
आम भाषा है
बोलने के लिए जिसे
स्त्री को
वेश्या के अभिनय का
सहारा लेना पड़ता है .”
ये गालियाँ पुरुष के लिए असामान्य नहीं बल्कि सामान्य भाषा की तरह ही हैं. घर, गली, नुक्कड़, ऑफिस कहीं भी धड़ल्ले से प्रयोग लायक.
फिर भी वह धारण करता है भद्र पुरुष की संज्ञा, लेकिन इसको बोलते ही स्त्री खास कोटि की स्त्री बन जाती है. जिसे मेरे गाँव की भाषा में ‘नंगिन’और कवयित्री की भाषा में ‘वेश्या’ कहते हैं .
स्त्री ने सबसे अधिक अपने स्वप्नों का पीछा किया है, लेकिन हर बार उसे सपनों की टूटी किरचें ही मिली हैं. हर बार सपने में उससे छूट जाते हैं उसके सुख या और अधिक चटक होकर आता दिन का दुःख .स्वप्न हाथ से छूटकर किसी घड़े की तरह बिखर जाते हैं ज़मीन पर, जिसे बटोरकर एक बार फिर फेक दिया जाता है घर के पिछवारे.
दरअसल स्वप्न में ही मूर्त होती है एक स्त्री की चाहत, जो हकीकत की दुनिया में पूरी नहीं होती .फ्रायड का मनोविज्ञान यहाँ तक तो सही राह बताता है, लेकिन इसके आगे या तो वह स्वयं भटक जाता है या जानबूझकर गुमराह करता है.
वह उन अधूरे सपनों और अधूरी इच्छाओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या छुपा ले जाता है ,इसलिए आगे समय की गति में फ्रायड की व्याख्या अधूरी पड़ जाती है .
‘व्यवस्था तो है’ शीर्षक कविता से पढ़ सकते हैं इस बंद को-
“मुफ़्त में नहीं मिलती औरत को ज़िंदगी
देना होता है बदले में उसे हमेशा
ठोस ,तरल ,वाष्प
किसी भी शक्ल में
सबसे जरुरी चीज है उसका स्वप्न
करना पड़ता है अक्सर
सत्यानाश उसका”
या
“सोया हुआ कोई स्पर्श
जागकर सो जाता है
मन की कोई सुन्दर-सी छवि
जागने से पहले ऱोज बिगड़ जाती है” (अनचाहा सामान शीर्षक से )
स्त्री की दुनिया में किसी और के स्वप्न तिरते हैं .स्त्रियाँ किसी और के डायरी का पन्ना होती हैं .कोई और आकर देता है उनकी वर्णमाला को .कोई और दर्ज़ करता है उनके माथे पर अपनी लिपि –
“उन दिनों
मैं डायरी थी
उसकी” (डायरी शीर्षक से)
स्त्री इस दुनिया से हमेशा ही बहिष्कृत रही .कौन कहे इस दुनिया में जगह पाने की वह तो अपनी ही दुनिया से बहिष्कृत कर दी गयी .
सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने कभी हार नहीं मानी .संग्रह की एक कविता है ‘जीने की जगह’ आप देख सकते हैं कि कैसे वह बहिष्कृत है इस दुनिया से –
“मैंने अपने भीतर
जीने की जगह बनायी
लेकिन उस पर घर किसी और ने बना लिया
एक दिन उसे निकालने में कामयाब हुयी
और दुसरे को आसरा दिया
चूँकि घर उसका नहीं था
वह कभी समझ नहीं पाया
किधर आँगन है और द्वार किधर है .”
“अपनी देह का ख़याल रखते हुए
कितना ख़याल रखा है
मैंने तुम्हारे मन का
मेरे मन का ख़याल
कम से कम अगले जन्म में
ज़रूर रखना” (मेरे मन का ख़याल शीर्षक से )
वैसे तो पूरी दुनिया ही ‘बधिया’ किया हुआ बैल जैसी है. सबके पैमाने हैं, जिसमे होती है पैमाइश सबकी. लेकिन स्त्री के सांचे सबसे अधिक कसे हुए हैं, साँस लेने भर की भी जगह नहीं है.
बहुत कम बची है स्त्री स्वयं में. यह अलग बात है कि अब वह बड़ी शिद्दत से खोज भी रही है खुद को .इसलिए स्त्रीत्व की रूढ़िगत,प्रचलित परिभाषाओं से अलग अपनी और नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं स्त्रिओं के द्वारा. इसलिए ‘स्त्रीत्त्व क्या है’ शीर्षक कविता एक सहज परिभाषा बन जाती है नयी स्त्री की-
“काश !मेरा स्त्रीत्त्व
परिवार टूटने से बचाने के नाम पर
तुम्हारे गुनाहों को छुपाने में न होता”
भाषा की एक नयी दुनिया से परचित करा रही है आज की स्त्री-कविता. स्त्री-कविता किसी बाह्य घटाटोप को नहीं रचती ,वह अपना लोहा आपसे नहीं मनवाती ,वह कोई चुहल भी नहीं करती ,न कोई रहस्य ,बल्कि धीरे से आपके कान में कहती है अब बदल लो अपने पुराने मुहावरे .अब ये किसी काम के नहीं.
वह साहित्य के पुराने, रुढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मुहावरे को बहुत सार्थक ढंग से बदल रही है, ऐसे बदल रही है कि कविता का सच न खंडित हो. क्योंकि कविता न विवरण है, न ठोस सच्चाई, न उड़न छू कल्पना, न सपाटबयानी है कविता, कविता बहार से आरोपित सच भी नहीं .वह इन सबके बीच कहीं, किसी कोंण पर घटित होती है.
संग्रह पढ़ते हुए मुझे अनेक अच्छी कविताएँ मिलीं जिसको उद्धृत करने से नहीं रोक पाई खुद को.
लेकिन संग्रह में दो-चार कमजोर कवितायेँ भी हैं .जैसा की अमूमन सभी संग्रहों में देखने को मिलता है .स्टैंड सही होने से हमेशा कविता अच्छी नहीं बनती. संग्रह की एक कविता है –‘बाँझ स्त्रियाँ’. इस कविता का स्टैंड बहुत ही अच्छा है ,लेकिन यह कविता बदलाव की जल्दबाजी में दिखती है.
इसलिए कविता बाँझ स्त्री के जीवन के तनाव, उसकी त्रासदी को पकड़ने के बजाय बाहर से किसी अविश्वसनीय सच का आरोपण करती है .
“बाँझ स्त्रियों का वेफ़िक्र अंदाज
बाकी स्त्रियों के लिए इर्ष्या का
विषय है”
आता है किसी बाँझ स्त्री में भी यह बेफ़िक्र अंदाज, लेकिन यह अंदाज आने तक एक कठिन घर्षण चलता रहता है उसके भीतर, स्वयं से और समाज से भी. यह अंदाज पाने में स्त्री के ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा चुक जाता है .
कहा जाता है कि सच को इस तरह से कहा जाना चाहिए कि सौन्दर्य खंडित न हो .लेकिन यह भी जोड़ना चाहिए कि सौन्दर्य भी इस तरह रचा जाना चाहिए की सच भी खंडित न हो.
‘अधूरा घोंसला’शीर्षक कविता में गौरैया के लिए काला विशेषण मुझे समझ में नहीं आया. यह भी हो सकता है मैंने ही ठीक से कविता को नहीं समझा .
इसी तरह ‘पुरुष दोस्तों की बीवियां’ शीर्षक कविता भी पूरी स्थिति को नहीं उकेर पाती है . जैसे –
“उनके पतिदेव जी लगाते हैं
पूरे शहर का दिन-भर चक्कर
तब जलता है
उनके घर का चूल्हा
पड़े -पड़े अपने विस्तर पर
वे सोचती रहती हैं
स्वामी का चल रहा होगा
कहीं पर रोमांस
मेरा चेहरा याद करके तो
वे बेहद कुढ़-भुन जाती हैं”
ये चंद बातें थीं, जो कविता को पढ़कर मैं समझ पायी. आपकी राय मेरी राय से ज़रूर अलग होगी यह उम्मीद करती हूँ. ये शब्द बस ! जरिया हैं आपसे किताब का परिचय करने के लिए. मैंने अपने हिस्से का सार ग्रहण किया. अपने हिस्से का सार ग्रहण करने के लिए डुबकी आपको लगानी होगी .
सविता भार्गव की कविताएँ-
1. सृष्टि
इस रात
नहीं कोई जब
पास
ख़ुद में
मैं ख़ुद
जनम रही हूँ
नींद की तरह जनम रही हूँ
प्यास की तरह जनम रही हूँ
कविता की तरह जनम रही हूँ
अनंत में
शुरू हो रही हूँ
किसी तारे की टिमटिमाती रोशनी में
हो रही हूँ समाप्त
खुल रही हूँ
बंद हो रही हूँ
किसी अज्ञात पक्षी के
पंखों को याद करके
इस रात
मैं हूँ
सबसे मनोरम
सृष्टि .
2. दरवाज़ा
मेरे खोलने के लिए
बना है
ये दरवाज़ा
बढ़ई ने
इसे बनाया है ख़ूब मज़बूत
और सुन्दर
इसके पीछे
खड़ी होकर
मैं एक मज़बूत और
सुन्दर औरत हूँ
ये दरवाज़ा
तुम्हारे खटखटाने के लिए
बना है
होती है इस पर
जब खट-खट
तुम्हारे कहे बग़ैर
मैं तुम्हें सुन लेती हूँ
तुम्हारी ये अनुगूँज
-मैं हूँ
भीतर आकर थम जाए
इसी के लिए बना है
ये दरवाज़ा
तुम्हारी आवाज़
-‘मैं हूँ’
के घेरे में भटकने के लिए
बनी हूँ मैं
खड़ी होकर
इस दरवाज़े पर
मैंने तुम्हारे बिछड़ने के
दुःख झेले हैं
लौटने तक तुम्हारे
ये दरवाज़ा
बंद रहने के लिए
बना है
क्या कोई और दरवाज़ा है
तुम्हारी निगाह में
क्या कोई और घर है
गूंजने के लिए जहाँ बेकरार है
तुम्हारी आवाज़
कोई हो तो बता दो
अभी बता दो
मेरे बंद करने के लिए
बना है
ये दरवाज़ा .
3. अधूरा घोंसला
मेरी किताबों के पीछे रैक में
एक जोड़ी काली गौरैया
बना रही थी घोंसला
यह जानते हुए कि रैक गन्दा हो जायेगा
थोड़ा नुकसान हो जायेगा किताबों का भी
मन से मैं विवश थी
समझो कि मेरा मन उन पर आ गया था
मैं यहाँ तक समझने लगी थी
दोनों में जो मादा है
उसमें मैं हूँ
दोनों में जो नर था
वह बहुत ही अपना लगने लगा
उसके पंखों की छाया का
करने लगी थी अनुभव
पता नहीं क्या हुआ
घोंसला अधूरा छोड़कर
गौरैयां कहीं और चली गईं
मैं सोचने लगी
क्या उडती गौरैया के अंडे
हवा में गिर गए
पहले सोचा था
काली गौरैया में मैं हूँ
सोच रही हूँ कई दिनों से अब
गौरैया मुझमें है
रैक में किताबों के पीछे
ज्यों का त्यों है
अधूरा घोंसला.
4. इस घर में
इस घर में
मैं रहती हूँ
घर नहीं था जब
यहाँ मैदान हुआ करता था
मैदान में एक बड़ा-सा
पेड़ हुआ करता था
पेड़ पर चिड़ियाँ हुआ करती थीं
गेंहूँ के खेत थे पास में
चिड़ियाँ वहां दाना चुगने जाती थीं
तालाब था पास में
चिड़िया वहां पानी पीती थीं
पेड़ पर कोई सांप चढ़ जाया करता था
चिड़ियों की फड़फड़ाहट सुनाई पड़ती थी
दूर तक
इस घर में
मैं रहती हूँ
चिड़िया की तरह
मैदान पेड़ गेहूं के दाने और
तालाब के पानी के बारे में
सोचते हुए
सांप की सरसराहट का
अनुभव करती हूँ
अक्सर .
5. गालियाँ
ड्रामा कोर्स में
एक वाचाल वेश्या का अभिनय करते हुए
मंच पर मैं बके जा रही थी
माँ-बहन की गालियाँ
पूरी पृथ्वी एक मंच है
जिसमें पुरुष की यह
आम भाषा है
बोलने के लिए जिसे
स्त्री को
वेश्या के अभिनय का
सहारा लेना पड़ता है .
6. व्यवस्था तो ये है
मुफ़्त में नहीं मिलती
औरत को ज़िंदगी
देना होता है बदले में उसे हमेशा
ठोस तरल वाष्प
किसी भी शक्ल में….
सबसे ज़रुरी चीज़ है उसका स्वप्न
करना पड़ता है अक्सर
सत्यानाश उसका
बचा-खुचा सच भी
सौंप देना पड़ता है
कुछ जिम्मेदार लोंगो के हांथों में
मुश्किल है
सतीत्व के ढोंग के सिवाय
स्त्री के पास की चीजों में से कुछ भी
अक्षत बच जाए
व्यवस्था तो ये है
स्त्री ख़ुद होकर दे या न दे
उसके अंग-दर-अंग
और सारी जज़्बाती चीज़ें
चली जाती हैं ख़ुद-ब-ख़ुद
उसके सौदागरों के पास
मैं कवि हूँ
लेकिन झिझक नहीं है मुझे कहने में
स्त्री की अनुमति के बग़ैर
आख़िर कवियों ने भी तो लिखे हैं
श्रृंगार के शतक-दर-शतक.
7. डायरी
एक दिन
मैंने अपनी डायरियों के पन्ने
पलटे
किसी की मैंने प्रतीक्षा की थी
इस बारे में
कई पन्ने थे
मेरे पश्चाताप का
सिर्फ़ एक पन्ना था
जिसके साथ मैंने दिन अनगिन बिताए
उसके बारे में
एक भी शब्द
नहीं था
उन दिनों
मैं डायरी थी
उसकी.
8. जून
हवा
कल के दिन
राख बनकर
झरेगी
पृथ्वी
कल के दिन
दिखाई देगी
अधजली स्त्री
सूरज !
कल के दिन
अपनी हद को
मत पार करना .
9. टूटा तारा
एक तारा
टूटा
जैसे आन्तरिक्ष से छूटकर
मेरी ओर दौड़ा हो
निहारते हुए
जैसे मैं उसमें
समा गई
क्षण में
जैसे आकाश पूरा
नाप गई
अपना जब नहीं होता
कोई पास
रहता है
टूटे तारे का सहारा .
10. अनचाहा सामान
औरतों की दुनिया
रोज़ बिगड़ती है
थोड़ी-थोड़ी
टूटते हैं जैसे रोज़ घर के
कुछ न कुछ सामान
औरत के अन्दर की रोज़-रोज़
टूटती है कोई न कोई इच्छा
सोया हुआ कोई स्पर्श
जागकर सो जाता है
मन की कोई सुन्दर-सी छवि
जागने से पहले
रोज़ बिगड़ जाती है
बढ़ती जाती है
औरत की दुनिया में
थोड़ी-थोड़ी चुप्पी
बढ़ती जाती है
रात की कालिख
औरत इकट्ठा करती है
रोज़-रोज़
अनचाहा सामान .
(कवयित्री सविता भार्गव, प्राचीन नगरी विदिशा में 5 सितम्बर को जन्म. हिंदी साहित्य में डी. लिट्. कविता के अतिरिक्त थिएटर और सिनेमा में काम. कुछ आलोचनात्मक लेखन. शमशेर पर एक आलोचना पुस्तक ‘कवियों के कवि शमशेर!’ एक कविता-संग्रह ‘किसका है आसमान’.
सम्प्रति : विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी उच्च शिक्षा विभाग, मध्य प्रदेश शासन, भोपाल !
टिप्पणीकार अनुपम सिंह समकालीन हिंदी कविता का उभरता हुआ चर्चित नाम हैं)
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