एक कलाकार/रचनाकार जीवन-जगत के क्रिया-व्यापार की पुर्नरचना करता है। हालांकि इस पुर्नरचना के लिए तत्संबंधी शास्त्रों में प्रशिक्षण की बात कही गयी है, यथा प्रतिभा, अभ्यास वग़ैरह! लेकिन अगर एक कलाकार/रचनाकार के वाह्य जगत के परसेप्शन और आम मानव के परसेप्शन को अलगियाने का एक सहज पैमाना जो समझ में आता है, वह होता है संवेदना या संवेदनशीलता का स्तर।
जीवन जगत के विभिन्न ऑब्जेक्ट को लेकर भी जो एक सहज बोध होता है, उसके आधार पर भी कलाकार/रचनाकार को एक भिन्न श्रेणी नहीं दी जा सकती। अर्थात यह अलग श्रेणी बनती है, फिर से उसी संवेदना के स्तर और प्रकटन की उत्कटता या चाहत/इच्छा से। संवेदना के साथ जो दूसरा तत्व होता है, वह है दृष्टि का। दृष्टि और संवेदना के प्रकार से जो परसेप्शन होता है, वह पुर्नरचना को अलग श्रेणी प्रदान करता है। इसमें भी प्रशिक्षण की कोई भूमिका नहीं होती। लेकिन, द्वन्द्व की भूमिका होती है। संवेदित होकर देखे गये और वाह्य जगत के अन्य भिन्न या समान घटना, क्रिया व्यापार के बीच द्वन्द्व की प्रक्रिया। सच्ची कला/रचना इसी में जन्म लेती है। यह पूरी प्रक्रिया निजी स्तर पर सम्पन्न होती है, इसलिए कुछ लोग मानते हैं कि कुछ कलाकार/रचनाकार स्व/आत्म का प्रकटन करते हैं, लेकिन यह स्व/आत्म दुनियावी ऑब्जेक्ट के बीच बनता है, इसलिए यह कितना स्व/आत्म बना रह सकता है- अनुभव से लेकर संवेदना सभी स्तरों पर। फिर वह पुर्नरचना क्या हो सकती है निज के स्तर पर! तो, वह स्व/आत्म का विस्तार, विगलन हो सकती है। युवा और चर्चित हिन्दी रंगकर्मी कला को आत्मविस्तार मानते हैं अपनी नयी आयी किताब, ‘रंग सृजन’ में।
” थिएटर एक कॅरियर, टेलीविजन या सिनेमा की ओर जाने का एक रास्ता, सीढ़ी किसी तरह स्वीकार किया जा सकता है लेकिन आत्मविस्तार, अपनी खोज, खुद को समृद्ध करने और जीवंत संवाद कायम करने की इच्छाएं किसी इंसान में कभी नहीं मरती। थिएटर में यह विस्तार और तलाश सम्भव है”
“मल्लिका ने जो रचनात्मक ऊर्जा और जमीन कालिदास को दी थी, वैसी ही दृष्टि और संवेदनशीलता थिएटर देता है जिंदगी के लिए”
“मल्लिका ने जो रचनात्मक ऊर्जा और जमीन कालिदास को दी थी, वैसी ही दृष्टि और संवेदनशीलता थिएटर देता है जिंदगी के लिए”
एक दूसरी बात आलोचक के सन्दर्भ में क्योंकि प्रवीण शेखर इस किताब में बतौर आलोचक/हिन्दी के बौद्धिक उपस्थित हैं। कोई कलाकार/रचनाकार वाह्य जगत या प्राकृतिक रचना को सीधे प्रत्यक्ष करता है और पुर्नरचित करता है। लेकिन आलोचक के लिए रचना और पुर्नरचना दोनों का प्रत्यक्षीकरण करना होता है। यह किसी सहज बोध तक सीमित नहीं रह जाता। दुनियावी ऑब्जेक्ट और पुर्नरचना दोनों के बीच से गुजरना होता है। प्रवीण शेखर अपनी किताब में इससे गुजरते हैं। शायद ही हिन्दी का कोई रंगकर्मी, रंगकर्म के आलोचक तथा हिन्दी समाज के एक बौद्धिक के रूप में अपने दाइत्व तय करके प्रस्तुत हुआ हो। दृष्टि, संवेदना और विचारधारा तीनों स्तरों पर बेहद जिम्मेदारी के साथ।
पुस्तकः रंग सृजन
लेखकः प्रवीण शेखर
प्रकाशकः आशु प्रकाशन
पृष्ठः 146
मूल्यः 300 रूपये
लेखकः प्रवीण शेखर
प्रकाशकः आशु प्रकाशन
पृष्ठः 146
मूल्यः 300 रूपये
रंग सृजन आशु प्रकाशन, पुराना कटरा, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई है। कुल 146 पेज की इस किताब को सिर्फ थियेटर ही नहीं बल्कि कला और साहित्य से जुड़ाव रखने वालों को भी पढ़ना चाहिए क्योंकि प्रवीण शेखर इस किताब में थियेटर का बहाना लेते हैं लेकिन बात वे कला, समाज और राजनीति के पूरे अन्तःसम्बन्ध पर करते हैं। हालांकि मूल्य इसका 300 रूपये है। मूल्य 150 रूपये रखा जाता तो थियेटर, कला और साहित्य के आम विद्यार्थी, पाठक तक की पहुंच में होती।
इस पुस्तक का पहला हिस्सा थियेटर, कला और संस्कृति के दार्शनिक/सैद्धांतिक/व्यावहारिक पहलुओ से सम्बंथित लेखों का है। पहला लेख है, ज़िन्दगी वाया थियेटर। इसी तरह के नौ लेखों से किताब का पहला हिस्सा बनता है। परफाॅर्मर से ऐक्टर की यात्रा, हम, जो दर्शक हैं न!, सार्थक कला-दृष्टि में प्रवीण शेखर ने जो बात-विचार डिस्कस किया है, उसमें कला और जीवन के समूचे सम्बन्ध को आलोच्य-विषय बनाया गया है। पहले ही लेख में वे लिखते हैं, कि मनुष्य की मंजिल कला है, ऐसी कला जो अपना ध्यान यथार्थ और समकालीन जीवन के प्रश्न और अस्तित्व पर केन्द्रित करे।
इस पुस्तक का पहला हिस्सा थियेटर, कला और संस्कृति के दार्शनिक/सैद्धांतिक/व्यावहारिक पहलुओ से सम्बंथित लेखों का है। पहला लेख है, ज़िन्दगी वाया थियेटर। इसी तरह के नौ लेखों से किताब का पहला हिस्सा बनता है। परफाॅर्मर से ऐक्टर की यात्रा, हम, जो दर्शक हैं न!, सार्थक कला-दृष्टि में प्रवीण शेखर ने जो बात-विचार डिस्कस किया है, उसमें कला और जीवन के समूचे सम्बन्ध को आलोच्य-विषय बनाया गया है। पहले ही लेख में वे लिखते हैं, कि मनुष्य की मंजिल कला है, ऐसी कला जो अपना ध्यान यथार्थ और समकालीन जीवन के प्रश्न और अस्तित्व पर केन्द्रित करे।
इस किताब का दिलचस्प पहलू है कि इसमें अपनी बात करते हुए थियेटर, कला, सिनेमा, जीवन से जुड़े जो प्रसंग प्रवीण शेखर चुनते हैं, थिएटर और कला के व्यापक फ़लक से होने के साथ वह कला की कसौटी, कलाकार की दृष्टि और संवेदना को बखूबी प्रकट कर देता है। यह सब वे इंटेंस इन्वाॅल्वमेंट के साथ करते हैं। यह गहरी आसक्ति ही है जिसके चलते वे आलोचना/समीक्षा जैसी विधा को रचनात्मक उत्पाद बना देते हैं। जो इसे सिर्फ अकादमिक कौशल मानते हैं उन्हें यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
प्रवीण शेखर की नज़र कला और थियेटर को लेकर जितना ग्लोबल है, उतना ही लोकल भी है। रामलीला, दीपावली जैसे थिएट्रिकल, कल्चरल चीजों पर बात करते हुए वे लोक-जीवन बोध से ही कसौटी बनाते हैं, हालांकि यहां वे लोक-जीवन के बहुत सीमित स्पेस तक ही अपनी नज़र ले जा पाते हैं। लोक में परम्परा, संस्कृति आदि के विविध रूपों की गहरी आलोचनाएं कला-रूपों और गीतों में मिलती है। और उसमें भी ढेर सारी अभिव्यक्तियां थिएट्रिकल फाॅर्म में हैं। नकटा, नौटंकी, स्वांग आदि कई ऐसे फाॅर्म हैं। लेकिन वे जहाँ तक नज़र ले गये हैं, उसमें उन्होंने कला से अपनी संसक्ति जाहिर करने के साथ सामाजिक सरोकार और बौद्धिक जिम्मेदारी को एक बार भी ओझल नहीं होने दिया है।
प्रवीण शेखर की इस किताब के अगले हिस्से में तीन रचनाकारों को वाया थियेटर फाॅर्म आलोचित-विवेचित किया गया है। भीष्म साहनीः थियेटर के इनसाइडर, विजय तेन्दुलकरः आत्मनिरीक्षण और आत्मालोचना के नाटककार, शिवमूर्ति की रचनाओं में ड्रैमेटिक स्पेस। इनके शीर्षक से ही प्रवीण शेखर ने कला समीक्षा की अपनी पहुंच जाहिर कर दी है। अपनी दो प्रस्तुति, काग़ज़ के पक्षी और तीस मार खां की रचना प्रक्रिया पर लेख के साथ इलाहाबाद के रंग- परिदृश्य पर एक लेख, अतीत के आतंक से मुक्त; बहुत महत्वपूर्ण है।
रतन थियाम, भानु भारती, ब व कारंत, राज बिसारिया, अलखनंदन, शम्शुर्रहमान फ़ारूक़ी, बद्री नारायण से संवाद इस किताब को अलग स्वाद तक ले जाते हैं। इस किताब का पूर्वरंग प्रभात सिंह ने लिखा है तथा तीन भरत वाक्य क्रमशः शम्शुर्रहमान फ़ारूक़ी, प्रोफेसर बद्री नारायण व प्रोफेसर संतोष भदौरिया ने लिखा है।
अंत में इस किताब के बारे में एक बात यह कि गद्य की ऐसी लाजवाब, आकर्षक, आधुनिक कम्पोजिट भाषा हिन्दी के गिने-चुने लेखकों के पास है। सिर्फ अपनी भाषा की खूबसूरती के लिए भी इस किताब को पढ़ा जा सकता है!
अंत में इस किताब के बारे में एक बात यह कि गद्य की ऐसी लाजवाब, आकर्षक, आधुनिक कम्पोजिट भाषा हिन्दी के गिने-चुने लेखकों के पास है। सिर्फ अपनी भाषा की खूबसूरती के लिए भी इस किताब को पढ़ा जा सकता है!