मैं जब इस शीर्षक से नामवर सिंह से जुडी यादों को सहेज रहा हूँ तो इस बात का बिल्कुल भी इल्म नहीं है कि और कितने लोगों ने नामवर जी से जुडी स्मृतियों को इसी शीर्षक के अन्तर्गत लिखा या सहेजा होगा। किन्तु यह जरूर जानता हूं कि मेरे जैसे असंख्य लोग होंगे जिनके पास नामवर जी से जुडा अनुभव और संस्मरण होगा और वे इसे लेकर गौरवान्वित अनुभव करते होंगे।
मैंने पहली बार नामवर सिंह का नाम तब सुना जब बीए का छात्र था। बीए की पढाई मैंने अपने निकट के कस्बे पडरौना (अब जनपद) से की है। अपने एक दो अध्यापकों के मुँह से नामवर का नाम सुना करता था। कभी कोई उद्धरण तो कभी कोई सन्दर्भ। इसी बीच मैं अपने महाविद्यालय में छात्रसंघ का अध्यक्ष चुन लिया गया। उन दिनों छात्रसंघ के उद्घाटन की परम्परा थी। हमारी इच्छा थी कि किसी बड़े साहित्यकार को ही उद्घाटन के लिए बुलाया जाय। हमारे एक अध्यापक श्री प्रेमचन्द सिंह ने नामवर सिंह का नाम सुझाया और उन्हें बुलाने की जिम्मेदारी भी ली। पर बात बनी नहीं। सच पूछिए तो उस समय तक मेरे मन में नामवर सिंह की छवि बडे लेखक के रूप में बनी ही नही थी। इसका एक बडा कारण यह समझ में आता है कि नामवर सिंह हमारे पाठ्यक्रम में नहीं थे। यह समझ बनी थी कि बडा लेखक वही है जो पाठ्यक्रम में है। जब मैं खुद पाठ्यक्रम बनाने वाली प्रक्रिया का हिस्सा बना तब यह समझ दुरूस्त हुई और पता चला कि पाठ्यक्रम में शामिल होने के इतर कारण भी हैं।
खैर बहुत जल्दी नामवर सिंह से पाठ्यक्रम में मुलाकात हो गयी। उन दिनों गोरखपुर विश्वविद्यालय के एम ए प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में प्राचीन भाषा अपभ्रंश विकल्प के रूप में मौजूद थी। अपभ्रश के पाठ्यक्रम में सिर्फ एक पुस्तक थी-हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, लेखक नामवर सिंह। उसी समय यह भी पता चला कि यह पुस्तक वास्तव में नामवर सिंह द्वारा एम ए की परीक्षा के लिए लिखा लघु प्रबन्ध है। पाठ्यक्रम में नामवर सिंह की यह पहली उपस्थिति ही इतनी जबर्दस्त थी कि वे सहज ही बडे और महत्वपूर्ण लेखक के रूप में हमारे मन में बैठ गये। ‘ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ हिन्दी भाषा और साहित्य दोनो के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने समझाने की दृष्टि से बेहद जरूरी किताब है।यह किताब एम ए के छात्र नामवर सिंह ने लिखी है और हम एम ए के छात्र इसे पाठ्यक्रम में पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ रहे हैं,यह बात अचरज की तरह हमारे दिल दिमाग में उतर रही थी।आगे चलकर मैंने अपभ्रंश साहित्य में शोध करने का निर्णय लिया,इसके पीछे प्रेरणा के रूप में नामवर जी की यह किताब ही थी।शोध के क्रम में मुझे यह भी पता चला कि नामवर सिंह की इस किताब का बीज रूप ही एमए के दौरान लिखे उनके लघु प्रबन्ध में आया था।किताब को मौजूदा शक्ल देने के लिए नामवर सिंह ने काफी श्रम किया था।
उन दिनों परमानन्द श्रीवास्तव हमारे सबसे चर्चित और प्रिय अध्यापक थे।वे कुछ भी पढा रहे हों ,उनकी कक्षाएं नामवर सिंह के नाम के बगैर पूरी ही नहीं होती थीं। हमारे अध्यापकों में परमानन्द जी ही थे जिनकी नामवर सिंह से नियमित मुलाकात हुआ करती थी। वे इन मुलाकातों की तफसील में चर्चा करते रहते। कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दी विभागों में ईर्ष्या करने वाले लोग परम्परा से होते आये हैं। परमानन्द श्रीवास्तव ऐसे लोगों के सहज आलम्बन थे। एक पूरा दल ही था जो परमानन्द श्रीवास्तव की निन्दा और व्यक्तित्व हनन में लगा रहता था। निन्दा के मूल में परमानन्द जी की नामवर सिंह से नजदीकी थी। फिराक का मशहूर शेर है-
आने वाली नस्लें रश्क करेगी तुम पर! ऐ हम अस्रों
कि तुमने फिराक को देखा है।
परमानन्द श्रीवास्तव के हम अस्रों ने रश्क करने का काम आने वाली नस्लों पर नही छोडा। वे खुद ही रश्क करने लगे। रश्क करने वाले अगर छोटे दिल दिमाग वाले हुए तो उन्हें ईर्ष्यालु होते देर नहीं लगती। ईर्ष्या उन्हें तुरन्त निन्दक के पद पर प्रतिष्ठित कर देती है। सो परमानन्द जी एक समूह के लिए निन्दा का स्थायी आलम्बन थे। परमानन्द की निन्दा के क्रम में इस समूह को नामवर सिंह तक पँहुचना ही था। लिहाजा निन्दा की यह डोर परमानन्द श्रीवास्तव से होते हुए नामवर सिंह तक पँहुचती थी। नामवर सिंह के बहाने यह डोर मार्क्सवाद की निन्दा तक पँहुंचती थी। एक तरफ नामवर सिंह से प्रभावित और अभिभूत लोग थे तो दूसरी ओर निन्दा सबद रसाल वाले लोग।
कुल मिलाकर यह कि नामवर सिंह का जो वृत्त हमारे सामने बना उसमें अभिभूत होने ,प्रशंसा करने से लेकर निन्दा करने और गरियाने तक का भाव शामिल है। नामवर से अभिभूत लोगों को हमने बतर्जे फिराक रश्क और गर्व करते देखाऔर पाया। मजे की बात यह कि नामवर के निन्दक भी निन्दा करते हुए लगभग उसी गर्व और अभिमान से भरे होते हैं जो प्रशंसकों में होता है। आखिरकार वे नामवर सिंह की निन्दा कर रहे होते हैं ।यह भी कोई मामूली काम नहीं है।
मैंने कई औसत और मझोले कद के लेखकों /अध्यापकों को नामवर की निन्दा कर अघाते हुए देखा है। मार्क्सवादी नामवर की निन्दा के लिए बिना जाने बूझे मार्क्सवाद की निन्दा की जाती रही है। इसका सबसे मजेदार पहलू यह कि अपने को मार्क्सवाद विरोधी के रूप घोषित और प्रचारित करने वाले भी नामवर को छोटा साबित करने के लिए मार्क्सवादी रामविलास शर्मा का लाठी की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। कि रामविलास शर्मा ने यह किया,रामविलास शर्मा ने वह किया ,नामवर सिंह ने क्या किया है ? रामविलास शर्मा का लेखन ठोस और स्थाई है नामवर सिंह के बयान हवा हवाई हैं-जैसी चलताऊ और सतही बातें। उस समय यह बात समझ से परे थी कि मार्क्सवाद का विरोध करने वाले कम्यूनिस्ट रामविलास शर्मा की तारीफ करते नहीं अघाते हैं।खैर आगे चलकर मेरे एक मित्र की अलिखित थीसिस ‘अकादमिक बहसों में जाति की भूमिका’ से परिचित होने पर इस अचरज का पटाक्षेप हुआ।
– [ ] किस्सा कोताह यह कि नामवर सिंह की छवि एक किंवदन्ती के रूप में बनती गई। नामवर सिंह को किंवदन्ती बनाने और उनकी महिमा गढने में उनके मित्रों ,प्रशंसकों, श्रद्धालुओं की तुलना में उनके निन्दकों और विरोधियों की भूमिका कहीं ज्यादे है। जैसे ईश्वर की महिमा स्थापित करने में नेति नेति की भूमिका कहीं ज्यादा होती है। कभी लगता है कि इस बात का इल्म सबसे ज्यादा नामवर सिंह को ही है। इसीलिए जब तब वे अपने विरोधियों/ निन्दकों के लिए कोई न कोई अवसर उपलब्ध कराते रहे और निन्दकों को कभी बेरोजगार नहीं होने दिया। वह नामवरसिंह और रामविलास शर्मा को लेकर होने वाली बहसों का दौर था।दो मार्क्सवादी लेखकों के बीच की बहस, दो व्यक्तित्वों के बीच की बहस बहुधा अकादमिक वातावरण की क्षुद्रताओं में तब्दील हो जाती। इन बहसों का सकारात्मक पहलू भी था।इससे हिन्दी के अकादमिक जगत में मौजूद श्रद्धा-भक्ति का घटाटोप कुछ हद तक छटता और विवेक के स्फुलिंग प्रकट हो जाया करते। इन बहसों ने हिन्दी जगत में आलोचना को लोकप्रिय बनाने में बहुत बडी भूमिका निभाई।
इसी वातावरण में और इसी पृष्ठभूमि में मैंने नामवर सिंह को पहली बार देखा। गोरखपुर विश्वविद्यालय का सिल्वर जुबली वर्ष था। विश्वविद्यालय स्तर पर बहुत से आयोजन हो रहे थे।इसी कडी में हिन्दी विभाग को कोई व्याख्यान आयोजित करना था।तय हुआ कि नामवर सिंह को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाय। नामवर जी ने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वह मार्क्स का निधन शताब्दी वर्ष भी था। इसे ध्यान में रख कर नामवर जी ने विषय तय किया-‘विचारधारा और साहित्य’।
आयोजन की तैयारियां जोर शोर से हो रहीं थीं।बाहर से आनेवाले विद्वानों के व्याख्यान अमूमन हिन्दी विभाग के ही किसी कमरे में हुआ करते थे। बहुत हुआ तो पंत भवन के 113 नम्बर कमरे में। यह व्याख्यान विश्वविद्यालय के विशाल प्रेक्षागृह में हो रहा था। कबीर और मध्यकालीन साहित्य के विशेषज्ञ प्रो रामचन्द्र तिवारी हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे। वे स्वयं नामवर सिंह को लेने एअरपोर्ट जाने वाले थे। तिवारी जी के अध्यापक और उनके वैदुष्य के लिए हम लोगों के मन में बहुत सम्मान था। हमें लगता था कि हिन्दी में उनसे बडा कौन हो सकता है ? हम लोगों ने तिवारी जी से पूछा कि आप क्यों नामवर सिंह को लेने जा रहे हैं,वे तो आप से छोटे हैं ? तिवारी जी ने कहा कि मेरे जाने की दो वजहें हैं। पहली तो यह कि नामवर जी मेरे निमन्त्रण पर आरहे हैं, मेरे अतिथि हैं, इसलिए मुझे जाना चाहिए। दूसरा यह कि नामवर जी उम्र में भले ही मुझसे छोटे हैं लेकिन ज्ञान और प्रतिभा में मुझसे बहुत बडे हैं,इसलिए मुझे जाना ही चाहिए। तिवारी जी के इस जवाब से हम लोगों के मन में दोनो ही लोगों का कद बढ गया। नामवर के महत्व पर तिवारी जी ने एक छोटा सा व्याख्यान ही दे दिया था।जाहिर है यह सब स्वयं तिवारी जी के बडे होने का प्रमाण था।
नामवर सिंह आये। उनका व्याख्यान हुआ। उन्हें सुनने पूरा विश्वविद्यालय उमड पडा था। इसके पहले हिन्दी विभाग का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसे सुनने विश्वविद्यालय के सभी अनुशासनों के लोग आये हों।व्याख्यान में और बातों के अलावा नामवर सिंह ने शकुन्तला की अँगूठी खोने की बिल्कुल अनूठी व्याख्या की। यह एक युक्ति थी जिससे दुष्यन्त के नायकत्व की प्रतिष्ठा हो रही थी। नामवर सिंह की इस व्याख्या ने आगे चल कर हमारे मिथकेतिहास में मौजूद ऐसी अनेक युक्तियों को समझने में मदद की जिनमें स्त्री और हाशिए के समाज को प्रवंच्त करने को महिमा मंडित किया गया था।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री और विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो एस पी नागेन्द्र समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में खींचतान कर नामवर जी की व्याख्या पर कुछ सवाल उठाये। नामवर जी उन सवालों से बेपरवाह मंच पर सुरती ठोक रहे थे। नामवर सिंह का अविचलित भाव देखने लायक था। इसी व्याख्यान में मैंने नामवर सिंह को पहली बार देखा था। वे हिन्दी के आत्म विश्वास की तरह लगे । वह आत्मविश्वास जिसे गहन साधना, अध्ययन और अध्यवसाय से अर्जित किया गया था।
नामवर सिंह को दूसरी बार देखने का अवसर भी जल्दी ही आया। मैं दिल्ली गया हुआ था। पता चला कि हरिवंश राय बच्चन की रचनावली का लोकार्पण प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के हाथों होना है। इस अवसर पर बच्चन के साहित्यिक योगदान और महत्व पर नामवर सिंह का वक्तव्य होना था। केदार जी के साथ मैं भी पंहुच गया। मेरे एक दो कतार आगे राजीव गाँधी और अमिताभ बच्चन बैठे हुए थे।
त्रिवेणी सभागार में मंच पर शीला संधू ,नामवर सिंह, इंदिरा गाँधी, बच्चन जी और अजित कुमार विराजमान थे। इंदिरा गाँधी तो खैर प्रधानमन्त्री थी हीं। वे आपात काल और सम्पूर्ण क्रान्ति के भंवर से निकल कर नये ताप और तेवर के साथ मौजूद थीं। उनकी देहभाषा और व्यक्तित्व में खास तरह की गरिमा और ताप तप रहा था। उनके ठीक बगल में नामवर सिंह ठेठ बनारसी ठसक के साथ बैठे हुए थे। बगल में प्रधानमंत्री की उपस्थिति नामवर सिंह को किसी तरह विचलित नहीं कर रही थी। न तो वे प्रधानमंत्री के बगल में बैठकर गदगद हो रहे थे और न ही इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व की आँच से पिघल कर मोम हो रहे थे। लग रहा था जैसे मंच पर दो प्रधानमंत्री बैठे हों। एक देश का प्रधानमंत्री और दूसरा हिन्दी भाषा और साहित्य का प्रधानमंत्री। एक को जनता ने चुना था दूसरे को जनता की भाषा ने।
अभी औपचारिकताएं ही चल रही थीं। शीला संधू के सामने कोई किताब या शायद कोई पैकेट पडा था। इंदिरा जी की उत्सुकता हुई उसे देखने की। वे हाथ बढाकर उसे खींच लेना चाहती थीं। पर उनका हाथ पैकेट तक पँहुच नहीं रहा था। बगल में बैठे नामवर सिंह यह सब देख रहे थे। वे अपने दोनो हाथ छाती पर बाँध से रखे थे और बिल्कुल अनासक्त से इन्दिरा जी को पैकेट की ओर हाथ बढाते देख रहे थे। नामवर जी की जगह कोई दूसरा होता तो वह पैकेट इन्दिरा जी की ओर सरका देता। प्रकटतया इसमें कोई अनौचित्य भी नहीं था। इन्दिरा गाँधी उम्र में भी बडी थीं, महिला थीं और प्रधान मंत्री तो खैर थीं ही। लेकिन नामवर जी ने इन्दिरा जी की ओर वह पैकेट न सरका कर एक अत्यन्त साधारण सी आयी गयी हो जाने वाली बात को असाधारण बन जाने दिया। तभी शीला संधू की नजर पडी और उन्होने इन्दिरा जी की ओर वह पैकेट बढा दिया। पूरी सभा सांस रोके इस दृश्य को देख रही थी। कुछ लोग (नामवर निन्दक ) इसे नामवर जी की धृष्टता और मगरूरियत करार दे रहे थे। कुछ लोग इसे उनके सोंठपने से जोड कर देख रहे थे। लेकिन बहुतेरे लोगों ने इसे साहित्य के स्वाभिमान के रूप में देखा-सत्ता के सर्वोच्च शिखर के सामने अविचलित अकम्पित। लेकिन सभा को अभी एक और ऐतिहासिक पल का गवाह बनना था। नामवर जी जब वक्तव्य देने उठे तो उन्होने सिर्फ और सिर्फ हरिवंश राय बच्चन को संबोधित किया। ‘कवि हरिवंश राय बच्चन और उनके साहित्य से प्रेम करने वाले काव्यप्रेमी साहित्यप्रेमी मित्रो !’ यह था नामवर सिंह का संबोधन। नामवर सिंह की नजर में वहां कवि हरिवंश राय बच्चन थे और थे उनके साहित्य से प्रेम करने वाले लोग। नामवर सिंह के संबोधन में इन्दिरा गांधी भी बच्चन जी के साहित्य प्रेमियों में से बस एक होकर रह गयीं। हाँलाकि इन्दिरा गाँधी सहज ही बनी रहीं लेकिन पूरी सभा हतप्रभ थी।
लेकिन नामवर सिंह यह संदेश दे चुके थे कि साहित्य की अपनी स्वायत्तता होती है और वह सत्ता के सर्वोच्च शिखर से भी बराबरी के स्तर पर संवाद कर सकती है। इसी क्रम में नामवर सिंह के एक और व्याख्यान की याद आती है। भारतेन्दु के निधन की शताब्दी का प्रसंग था। हिन्दी में जन्म या निधन शताब्दी समारोहों को कर्मकाण्ड की तरह मनाये जाने की रवायत रही है। ऐसे मौकों पर जय जयकार किया जाता है। नामवर सिंह ने अपने वक्तव्य की शुरूआत में ही कहा कि यह श्रद्धा निवेदित करने का समय है,लेकिन ध्यान रखें कि आलोचक की श्रद्धा भी आलोचकीय ही होती है। फिर उन्होने भारतेन्दु पर एक मूल्यांकन परक व्याख्यान दिया।
नामवर सिंह ने अपने व्याख्यान के आरम्भ में ही एक सूत्र दे दिया। आलोचक की श्रद्धा भी आलोचकीय होती है। हिन्दी विभागों में बजने वाले श्रद्धा भक्ति के ढोल के बीच विचार और विवेक की लौ जलाने का नामवर जी का अपना तरीका था।
इस तरह मैंने नामवर जी को पहले पहल देखा। हिन्दी के आत्मविश्वास की तरह, सत्ता के सर्वोच्च शिखर से संवाद करने वाले साहस की तरह ,विचार और विवेक के लौ की तरह।
आमतौर पर हिन्दी साहित्यकार की छवि सुदामा की रही है। वह जहां भी रहेगा याचक की तरह रहेगा। दयनीय और कृपाकांक्षी। नामवर सिंह की उपस्थिति हिन्दी के साहित्यकार की छवि बदल देती है। अब वह याचक नहीं एक चुनौती है-एक नयी भाषा में उतरते गहराते आत्मविश्वास की तरह।
( लेखक सदानन्द शाही बीएचयू में हिदी के प्रोफ़ेसर हैं )
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