दिल्ली पुलिस ने लगभग तीन वर्ष बाद ‘भारत विरोधी नारे’ लगाने के आरोप में जे एन यू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार तथा 9 अन्य छात्र-छात्रों के विरुद्ध 14 जनवरी 2019 को ‘राजद्रोह’ का आरोप लगाते हुए 1200 पृष्ठों का आरोप-पत्र (चार्जशीट) मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (राजधानी दंडाधिकारी) सुमित आनन्द को सौंपा है। इस आरोप-पत्र में उमर खालिद, अनिर्वान भट्टाचार्या, अपराजिता, जे एन यू छात्र संघ की तत्कालीन उपाध्यक्ष शेहला राशिद, रामा नागा, आशुतोष कुमार और वनजोतबा लाहिड़ी के भी नाम है।
9 फरवरी 2016 को जे एन यू कैम्पस में अफजल गुरु और मकबूल भट्ट की ‘न्यायिक हत्या’ के विरोध में हुए कार्यक्रम में कथित रूप से भारत विरोधी नारे लगे थे। इस आयोजन में जे एन यू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सात कश्मीरी छात्रों के नाम भी शामिल हैं। अगले दिन 10 फरवरी को अनुशासनिक जांच का आदेश दिया गया था। 11 फरवरी 2016 को भाजपा सांसद महेश गिरी और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) द्वारा नयी दिल्ली के वसन्त कुंज (उत्तर) पुलिस थाने में की गयी शिकायत पर अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए और 120 बी के तहत मामला दर्ज किया गया था। अगले दिन 12 फरवरी 2016 को जे एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को राष्ट्रद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया था।
15 फरवरी 2016 को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया कुमार की सुनवाई के दौरान वकीलों द्वारा पत्रकारों, जे एन यू के छात्रों-शिक्षकों पर आक्रमण किया गया। दो प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ आई आर) दायर हुए थे। कन्हैया द्वारा दी गयी जमानत की अर्जी को सुप्रीम कोर्ट ने 18 फरवरी को दिल्ली उच्च न्यायालय स्थानान्तरित किया। 23 फरवरी को उमर खालिद और अनिर्वान भट्टाचार्य ने दिल्ली उच्च न्यायालय से समर्पण के पहले सुरक्षा की मांग की। 26 मार्च को कन्हैया कुमार तिहाड़ जेल भेजे गए। 2 मार्च 2016 को कन्हैया कुमार को दिल्ली उच्च न्यायालय ने छह महीनों की अंतरिम जमानत दी। 26 अगस्त 2016 को दिलली कोर्ट ने कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्वान भट्टाचार्य को नियमित जमानत दी।
इस घटना-चक्र को तिथिवार लिखना इसलिए आवश्यक है कि जितनी तत्परता और सक्रियता 9 फरवरी 2016 के बाद रही, वैसी 26 अगस्त के बाद दिखाई नहीं देती और अब आगामी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले दिल्ली पुलिस द्वारा 14 जनवरी 2019 को कन्हैया, उमर, अनिर्वान आदि पर दायर आरोप-पत्र ‘राजनीति से प्रेरित’ माना जा रहा है। कन्हैया कुमार ने लगभग तीन वर्ष बाद आरोप-पत्र दायर करने के लिए दिल्ली पुलिस के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी धन्यवाद दिया है और ‘स्पीड ट्रायल’ की बात कही है। पी डी पी की अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस आरोप-पत्र में कश्मीरियों को शामिल करने को राजनीतिक अभिप्राय और निशाने के रूप में देखा है।
इस आरोप-पत्र को जे एन यू छात्र संघ के तत्कालीन अभाविप के संयुक्त सचिव सौरभ शर्मा ने ‘अभाविप की विजय’ कहा है। कन्हैया कुमार और अन्य के विरुद्ध दायर आरोप-पत्र पर 19 जनवरी को अदालत विचार करेगी। इन आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की 124 ए, 323, 465, 471, 143, 149, 147 और 120 बी धाराएं लगायी गयी है, जिनमें धारा 124 ए राजद्रोह है।
सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर 2018 में 150 साल पुराने समलैंगिकता और व्यभिचार-संबंधी कानून को यह कह कर समाप्त किया कि राज्य नागरिकों के निजी जीवन में तोक-झांक नहीं कर सकता। 150 वर्ष पहले के ऐसे कई कानून हैं, जिन्हें समाप्त करने की तत्परता न्यायपालिका में नहीं दिखाई दी। लार्ड टामस बैबिंगटन मैकाले (25.10.1800-28.12.1859) को हम सब उनकी शिक्षा-नीति और शिक्षा-भाषा के कारण याद करते हैं, पर इस ओर हमारा ध्यान कम जाता है कि मैकाले भारतीय दंड संहिता का भी जनक है। उसके पहले भारत में न्याय अधिकार राज प्रमुख को था।
ब्रिटिश भारत से पहले भारत में दंड था, दंड विधान नहीं था। पहले वर्ग को ध्यान में रखकर दंड विधान निश्चित किये जाते थे। एक प्रकार के अपराध की सजा सबके लिए समान नहीं थी। जो सजा शूद्रों को दी जाती थी, वह ब्राहमणों या उच्च वर्णों-वर्गों को नहीं दी जाती थी। मैकाले ने सबके लिए समान दंड विधान बनाया। भारतीय दंड संहिता या दंड विधान ग्रन्थ ‘द इंडियन पीनल कोड’ की पांडुलिपि उसी ने तैयार की।
यहां यह जानना जरूरी है कि इस्ट इंडिया कम्पनी के समय भारत में पहले विधि आयोग (लाॅ कमीशन) की स्थापना 1835 में हुई थी, जिसे 1837 में गवर्नर जनरल आॅफ इंडिया के समक्ष प्रस्तुत किया गया। इस कमीशन के प्रमुख लाॅर्ड मैकाले थे। भारतीय दंड संहिता के 1837 में पूरा करने की बात कही जाती है। संसद में इसे 6 अक्टूबर 1860 को पारित किया गया और 1857 के प्रथम स्वाधीनता-आंदोलन के बाद इसे 1862 में लागू किया गया। 1834 से 1838 तक मैकाले भारत की सुप्रीम कौंसिल में लाॅ मेम्बर और लाॅ कमीशन का प्रमुख था। वहाबी आन्दोलन के कारण भारतीय दंड संहिता 1862 में लागू हुई। भारतीय दंड संहिता के छठे अध्याय में 124 ए धारा है। यह राजद्रोह की धारा है। राजद्रोह पर कोई भी कानून 1857 से पहले नहीं बना था। यह कानून 1860 में बना और 1870 में इस कानून को भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया।
ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाया गया राजद्रोह का कानून आजाद भारत में सत्तर वर्ष बाद भी लागू है। इस कानून का इस्तेमाल सबसे पहले बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ किया गया था। बाद में महात्मा गांधी के खिलाफ भी इसे लागू किया गया। देशद्रोह के मुकदमे जितने अंग्रेजों ने नहीं लगाये, उससे कहीं अधिक स्वतंत्र भारत में इसे लागू किया गया है। बिहार सरकार ने 1962 में बिहार के केदारनाथ सिंह पर राजद्रोह का मुकदमा दायर किया था जिस पर उच्च न्यायालय ने रोक लगाई थी। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मुकदमे में भारत के छठे मुख्य न्यायाधीश भुवनेश्वर प्रसाद सिन्हा ने देशद्रोह के अपराध को संगीन मानते हुए यह कहा था कि ठोस प्रमाण के बिना किसी भी अभियुक्त की नीयत पर शक कर राज्यसत्ता के खिलाफ हिंसक तख्ता पलट का आरोप लगाना उचित नहीं है। पांच जजों की संविधान पीठ के उस आदेश का बार-बार स्मरण कराया जाता है, पर उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।
भारतीय कानून संहिता की धारा 124 ए ‘राजद्रोह’ से जुड़ा है, जिसका औचित्य अंग्रेजों के शासन-काल में था, पर स्वतंत्र भारत में नहीं है। अंग्रेजों ने यह कानून उनके लिए बनाया था, जो उनके खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे।
भारतीय संविधान में विरोधाभासों की कमी नहीं है। वहां मौलिक अधिकार के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। कन्हैया कुमार और अन्य आरोपियों पर जो आरोप-पत्र है, उसमें सी सी टी वी के फुटेज, मोबाइल फोन के फुटेज और कई दस्तावेज है, जिनकी प्रमाणिकता पर अदालत विचार करेगी। यह हमें समझना होगा कि सरकार देश का पर्याय नहीं है। कन्हैया कुमार से पहले गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल को गुजरात की पुलिस ने ‘राजद्रोह’ के मामले में गिरफ्तार किया था। 2010 में विनायक सेन और 2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर 124 ए की धारा लगायी गयी थी। 2012 में ही कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना का विरोध करने वाले 7 हजार ग्रामीणों पर देशद्रोह की धाराएं लगायी गयीं थीं। कश्मीर पर चर्चा आयोजित करने के सिलसिले में एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के खिलाफ देशद्रोह के आरोप दर्ज किये गये थे। 2014 में देशद्रोह के दर्ज 47 मामलों में जिन 58 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उनमें से सरकार केवल एक व्यक्ति को दोषी सिद्ध कर पायी। राजनीतिक विरोधियों को खामोश करने के लिए ‘राजद्रोह’ या ‘देशद्रोह’ सबसे बड़ा हथियार है।
असम में नागरिक संशोधन बिल के खिलाफ असमी विद्वान और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हीरेन गोहाइन, कृषक अधिकार सक्रियतावादी अखिल गोगोई आौर पत्रकार मंजीत महंता पर भारत सरकार के खिलाफ युद्ध के आरोप लगाये गये हैं। पिछले वर्ष विधि आयोग ने राजद्रोह की धारा पर पुनर्विचार करने की मांग की थी। भारतीय दंड संहिता में कुल 511 धाराएं हैं, जिनमें कई धाराएं अंग्रेजों के समय की हैं। अंग्रेज जिस प्रकार हम पर शासन करते थे, उस तरह हमारी सरकारें हम पर शासन नहीं कर सकतीं। सरकारें हमारी मर्जी और हमारे मतों से बनती हैं।
हमने इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका से भी कुछ नहीं सीखा जबकि हम उनके बनाये मार्गों पर चलने में गौरव महसूस करते हैं। अमेरिका-वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी छात्रों ने अमेरिकी झण्डे जलाये थे, पर उनमें से किसी पर भी देशद्रोह का मुकदमा नहीं चला। ब्रिटेन में यह कानून समाप्त हो चुका है। 1989 में संयुक्त राज्य अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक युगान्तरकारी केस में जो फैसला दिया, उसे भारतीय पुलिस, न्यायपालिका और विधायिका को सदैव याद रखना चाहिए।
यह मुकदमा टेक्सास बनाम जाॅनसन के रूप में प्रसिद्ध है। ग्रेगरी ली जाॅनसन उस समय, अस्सी के दशक में अमेरिकी क्रान्तिकारी कम्युनिसट युवा ब्रिगेड के एक सदस्य थे, जिन्होंने 1984 में डलास में रिपब्लिकन राष्ट्रीय सम्मेलन में, रीगन प्रशासन के समय प्रदर्शन किया था। सड़कों पर उन्होंने साथियों के साथ ‘मार्च’ किया, गीत गाये, सम्पति को क्षति पहुंचाई, तोड़-फोड़ की, खिड़कियां तोड़ीं, रद्दी चीजें फेंकी, बीयर की बोतले फेंकी और अनेक कम्पनियों के कार्यालयों के बाहर प्रदर्शन किये। डलास सिटी हाॅल पर प्रदर्शनकारियों के पहुंचने पर जाॅनसन को एक प्रदर्शनकारी ने अमेरिकी ध्वज दिया, जिस पर जाॅनसन ने मिट्टी का तेल डाला और अमेरिकी झण्डे को जला दिया। झण्डा जलाते समय प्रदर्शनकारी चिल्लाये – अमेरिका, लाल, उजला, नीला हम तुम पर थूकते हैं। तुम लूट और डकैती के साथ हो और तुम भीतर जाओंगे। जाॅनसन को दोषी ठहराया गया। उसे एक वर्ष की सजा मिली और दो हजार डालर का जुर्माना लगा। अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिकी झण्डे जलाने के जाॅनसन के कृत्य पर सुनवाई की।
21 मार्च 1989 से इस केस की सुनवाई आरम्भ हुई थी और फैसला 21 जून 1989 को सुनाया गया। जस्टिस विलियम ब्रेनान तथा अन्य चार जज मार्शल, ब्लैकमन, स्केलिआ और एंथनी केनेडी ने बहुमत से यह फैसला दिया कि अमेरिकी संविधान का पहला संशोधन (15 दिसम्बर 1791) इस प्रकार के क्रिया कलापों को प्रतीकात्मक भाषण के रूप में ‘प्रोटेक्ट’ करता है। पक्ष में 5 और विपक्ष में 4 जज थे। बहुमत के बाद भी जज एंथोनी केनेडी ने अलग से सहमति (कंकरेंस) लिखी, जिसके कारण यह मुकदमा उनके नाम भी जाना जाता है। अमेरिकी झण्डा जलाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सुरक्षित माना गया और 1989 में लगभग दो सौ वर्ष पहले के अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन को याद किया गया।
एंथोनी केनेडी ने कहा था कि झण्डा जलाना मार्मिक और ह्दय विदारक है पर मूल सिद्धान्त यह है कि झण्डा उनकी रक्षा करता है, जो उसका तिरस्कार करते हैं। 21 जून 1989 को अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिका के 50 राज्यों में से 48 में लागू अमेरिकी ध्वज को अपमानित करने पर प्रतिबन्धों को अमान्य कर दिया था।
राजद्रोह कानून हटाया जाना चाहिए और सरकारों को यह समझना चाहिए कि वे इसे लागू कर ब्रिटिश शासन की याद दिला रहे हैं। सरकार देश का पर्याय नहीं है और नागरिकों द्वारा सरकार की आलोचना राष्ट्रद्रोह नहीं है। उदार, सहिष्णु लोकतंत्र में भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इस धारा का बने रहना यह प्रमाणित कररता है कि भारतीय लोकतंत्र अनुदार और असहिष्णु है।