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हिन्दी के शेक्सपियर: रांगेय राघव

अभिषेक मिश्र 
हममें से अधिकांश लोग जिस उम्र तक अपने लक्ष्य को लेकर उधेड़बुन में ही रहते हैं, आज कल कई लोग जिस उम्र के आसपास प्री रिटायरमेंट का प्लान बना रहे होते हैं, वैसे में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास इतनी जिंदगी भी नहीं होती। फिर भी ऐसे लोग अपने छोटे से जीवन में इतना कुछ कर जाते हैं कि वाकई कहना पड़ता है कि ये न सोचो कि जिंदगी में कितने पल हैं, ये सोचो कि हर पल में कितनी जिंदगी है। रांगेय राघव भी एक ऐसी ही शख्सियत थे। नियति ने इन्हें भी अपने एक विशिष्ट कार्य के लिए चुना था, समय कम दिया था पर क्षमता इतनी दी थी कि इनकी उपलब्धियों और अवदानों से कोई भी अचंभित रह जाए।
मूलतः तमिल मूल के रांगेय राघव का परिवार तिरुपति, आंध्रप्रदेश के एक पुजारी परिवार से संबद्ध था। इनके पूर्वजों को लगभग 300 साल पहले भरतपुर (राजस्थान) के महाराज ने अपने यहां आमंत्रित किया था और वो जयपुर और भरतपुर के गांवों में बस गए थे। उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में 17 जनवरी, 1923 को जन्मे राघव का मूल नाम तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघवाचार्य था। उनके पिता का नाम रंगाचार्य और माता का नाम कनकवल्ली था। इनका विवाह सुलोचना से हुआ था। उन्होंने अपने पिता रंगाचार्य के नाम से रांगेय और अपने स्वयं के नाम राघवाचार्य से राघव शब्द लेकर अपना साहित्यिक नाम ‘रांगेय राघव’ रख लिया।
उनकी शिक्षा-दीक्षा आगरा से हुई। उन्होंने 1944 में ‘सेंट जॉन्स कॉलेज’ से स्नातकोत्तर और 1949 में ‘आगरा विश्वविद्यालय’ से गुरु गोरखनाथ पर शोध कर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी। उन्हें हिंदी, अंग्रेजी, ब्रज और संस्कृत के साथ-साथ तमिल और तेलुगू भाषा में भी महारत प्राप्त थी, जिसका लाभ उनके भविष्य के लेखन को मिला।
स्वतंत्रता संग्राम के चरम स्वरूप को नजदीक से देखते इस देश में हिन्दी के महत्व को समझते हुये उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी को ही चुना। अपने 39 वर्ष के जीवन काल में उन्होंने 38 उपन्यास और सैकड़ों कहानियाँ, कविताएँ आदि की रचना कर डाली। उनका पहला उपन्यास ‘घरौंदा’ था। 23 वर्ष की आयु में प्रकाशित इस उपन्यास के संबंध में उनकी पत्नी सुलोचना ने कहीं उल्लेख किया था कि पढ़ने में अच्छे होने के बावजूद भी अर्थशास्त्र में उन्हें कपार्टमेंट आया तो घर वालों को इसका कारण समझ न आया। बाद में पता चला कि अर्थशास्त्र की क्लास जाने के बजाए वह कॉलेज प्रांगण में ‘घरौंदा’ लिखने में व्यस्त रहते थे।
अपनी सृजन यात्रा में उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, नाटक, रिपोर्ताज, इतिहास-संस्कृति, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, अनुवाद, चित्रकारी आदि सभी विषयों को अपनी लेखनी से समृद्ध किया और स्वयं को एक विविधतापूर्ण तथा उत्कृष्ट लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया।
उनकी ‘तूफानों के बीच’ रचना हिन्दी की प्रथम प्रमुख रिपोर्ताज संकलन मानी जाती है। 1942 में बंगाल में भयानक अकाल के दिनों में आगरा से प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में डॉ. कुंटे के नेतृत्व में एक दल तत्कालीन पूर्वी बंगाल भेजा गया था। रांगेय राघव उस समय एक किशोर विद्यार्थी ही थे किन्तु इस दल में एक रिपोर्टर के तौर पर गये थे। उन्होंने इस विभीषिका का आँखों देखा हाल अमृत राय के संपादन में प्रकाशित ‘हंस’ में लिखा। एक संस्मरण में अमृत राय ने इन रिपोर्ताज के विषय में बताया कि- ‘जहाँ तक मैं जानता हूँ रांगेय राघव के उन्हीं रिपोर्ताजों से हिन्दी में रिपोर्ताज लिखने का चलन शुरू हुआ। मैंने और दूसरों ने रिपोर्ताज लिखे, लेकिन जो बात रांगेय राघव के लिखने में थी, वह किसी को नसीब न हुई।”
रांगेय राघव मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे, मगर उन्होंने स्वयं को किसी वाद या संगठन के अनुसरणकर्ता बनने से अलग रखा। उनकी रुचि इतिहास और संस्कृति विषयों में भी थी। किन्तु अपनी रचनाओं में उन्होंने अन्य समकालीन लेखकों की तरह मात्र भारत के गौरवशाली अतीत का गुणगान ही नहीं किया। उनकी रचनाएँ पौराणिक कथाओं में प्रगतिशील धाराओं की तलाश करती हैं और सांप्रदायिकता जैसे तत्वों से खुद को अलग रखते हुये इतिहास के मानवीय और प्रगतिशील स्वरूप को सामने लाती हैं। तत्कालीन समय में जब स्त्री विमर्श जैसी कोई धारा अपनी राह बनाने के प्रारम्भिक चरणों में ही थी अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने स्त्रियों तथा हाशिये पर पड़े आम जनों की आवाज को सबके सामने लाने का प्रयास किया।
 उन्होंने कई जीवनी प्रधान उपन्यास भी रचे। उदाहरण के लिए  ‘भारती का सपूत’ जो भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी पर आधारित है, ‘लखिमा की आंखें’ जो विद्यापति के जीवन पर आधारित है, ‘मेरी भव बाधा हरो’  जो कवि बिहारी के जीवन पर आधारित है, ‘रत्ना की बात’ जो तुलसीदास के जीवन पर आधारित है, ‘लोई का ताना’ जो कबीर के जीवन पर आधारित है, ‘धूनी का धुआं’ जो गोरखनाथ के जीवन पर केंद्रित है, ‘यशोधरा जीत गई’ जो गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित है, तो कृष्ण के जीवन पर आधारित ‘देवकी का बेटा’ आदि। अपने आंचलिक उपन्यासों ‘कब तक पुकारूं’ और ‘धरती मेरा घर’ में उन्होंने नटों के सामाजिक जीवन का जिक्र किया है।
अपनी लेखनी में कुछ नए प्रयोग करते हुये उन्होंने कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के उत्तर अपनी रचनाओं के माध्यम से भी दिए, जिसे हिंदी साहित्य में उनकी मौलिक देन माना जाता है। भगवतीचरण वर्मा द्वारा रचित ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ के उत्तर में ‘सीधा-सादा रास्ता’ और बंकिमचंद्र के ‘आनंदमठ’ के उत्तर में उनके ‘विषादमठ’ को ऐसी ही कृतियों के रूप में देखा जा सकता है।
लेखन में उनके अभिनव प्रयोगों और योगदानों में एक महत्वपूर्ण स्थान अनुवाद का भी है। उन्होंने अंग्रेजी के माध्यम से जर्मन और फ्रेंच आदि विदेशी भाषाओं की रचनाओं का अध्ययन कर उनका हिंदी में अनुवाद किया। उनका एक और अहम योगदान हिंदी पाठकों को शेक्सपीयर की रचनाओं से अवगत करवाना था। उन्होंने शेक्सपीयर के 10 नाटकों का हिंदी में ऐसा उच्चा स्तरीय  अनुवाद किया जो आज भी उनके हिंदी अनुवादों में श्रेष्ठ माने जाते हैं और मूल रचना से ही प्रतीत होते हैं। उन्हें इसी वजह से ‘हिंदी का शेक्सपीयर’ भी कहा जाता है।
उनके विषय में प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव ने कहा कि- “उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे।”
मात्र 39 वर्ष की आयु में उन्होंने विविध विषयों पर 150 से अधिक पुस्तकें लिखकर हिंदी साहित्य को आश्चर्यजनक रूप से इतना समृद्ध कर दिया कि उनके बारे में यह किंवदंती बन गई थी कि वे दोनों हाथों से लिखा करते थे।
‘जानपील’ नाम की सिगरेट उनकी पसंदीदा थी। परंतु अपने नाम के अनुरूप ही यह सिगरेट उनकी जान के लिए भी आफत बन गई। कहते हैं अत्यधिक सिगरेट पीने की उनकी आदत ने उन्हें कैंसर का मरीज बना दिया और 12 सितंबर, 1962 को मुंबई में उनका असामयिक निधन हो गया।
उनकी प्रमुख रचनायें निम्न हैं-
उपन्यास
‘कब तक पुकारूं’, ‘विषाद-मठ’, ‘मुर्दो का टीला’, ‘सीधा-साधा रास्ता’, ‘अंधेरे का जुगनू’, ‘बोलते खंडहर’ आदि ।
कहानी संग्रह
साम्राज्य का वैभव, देवदासी, समुद्र के फेन, अधूरी मूरत, जीवन के दाने, अंगारे न बुझे, ऐयाश मुरदे, इन्सान पैदा हुआ आदि।
यात्रा वृत्तान्त
महायात्रा गाथा
भारतीय भाषाओं में अनूदित कृतियाँ
जैसा तुम चाहो, हैमलेट, वेनिस का सौदागर, ऑथेलो, निष्फल प्रेम, परिवर्तन, तिल का ताड़, तूफान, मैकबेथ, जूलियस सीजर, बारहवीं रात आदि।
साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें मुख्य हैं- हिन्दुस्तान अकादमी पुरस्कार, डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957 व 1959), राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961) तथा मरणोपरांत महात्मा गांधी पुरस्कार (1966) आदि।
रांगेय राघव ने अपने अल्प जीवन काल में ही हिन्दी भाषा की दृष्टि से ही नहीं मानवीयता के दृष्टिकोण से भी कई समृद्ध रचनाएँ और विचार दिये जो सदा उनकी स्मृति दिलाते और आने वाली पीढ़ी को राह दिखाते रहेंगे।
उनकी स्मृति स्वरूप उनकी कविता ‘अंतिम कविता’ की चंद पंक्तियाँ-
“मैं पूछता हूँ सबसे—गर्दिश कहाँ थमेगी
 जब मौत आज की है दिकल हैं ज़िन्दगी के
 धोखे का डर करूँ क्या रूकना न जब कहीं है—
 कोई मुझे बता दो, मुझको मिले सहारा !”

(अभिषेक कुमार मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं। साहित्य, कला-संस्कृति, विरासत आदि में भी रुचि। विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘धरोहर’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘गांधीजी’ का संचालन।
मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और हमारी विरासत के बारे में लेखन। Email:abhi.dhr@gmail.com, ब्लॉग का पता ourdharohar.blogspot.com)

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