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पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव: मामूली लोगों का गैर मामूली संघर्ष- एक

जयप्रकाश नारायण 

कोविड-19 के दो वर्ष के समय ने जहां पूंजीवादी सभ्यता की क्रूरता, बर्बरता, उसकी मनुष्य-विरोधी प्रवृत्ति को नंगा किया, वहीं इस समय ने मामूली लोगों के अंदर निहित गैर-मामूली इंसानियत की शक्ति को भी देखा है।
इन दो विपरीत अंतर्विरोध और विरोधाभासों  के बीच पांच राज्य में चुनाव  हो रहे हैं।
इसलिए इन चुनावों का विश्लेषण करने के लिए निश्चित ही कुछ नये पैमाने ढूंढने होंगे।

सभी  राजनीतिक विश्लेषक पांच राज्यों के चुनावों पर पैनी नजर रखे हुए हैं। विशेष कर उत्तर प्रदेश पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया और पर्वेक्षकों की खास तौर से नजर है।

भारत का पिछला आठ वर्ष और उत्तर प्रदेश का पांच  वर्ष एक विशिष्ट समय है। जिसमें बड़ी पूंजी के मालिकों की शोषक दृष्टि  लोकतंत्र और भारत की राष्ट्रीय संपदा की लूट पर गड़ी है।

पिछला दो वर्ष कोविड-19 के नाम रहा। जो 21वीं सदी का सबसे भयानक समय था। जिसमें दुनिया का आर्थिक विनाश लगभग उतना ही हुआ है, जितना द्वितीय विश्व युद्ध के समय में हुआ था।

लेकिन 1921 में भारत का नजारा ही कुछ और था। यहां पूंजीवाद के जन्म  से आज तक
पूंजी के संकेंद्रण की तीव्रतम गति देखने को मिली। भारत में 1921 में एक कारपोरेट घराने ने 57 अरब डालर का मुनाफा इकट्ठा कर विश्व में ऐसा कीर्तिमान बनाया है, जिसे शायद दुनिया में कोई भी बड़ा से बड़ा कारपोरेट हाउस आने वाले सदियों में  तोड़ पाएगा। महामारी काल में मोदी जी के राज की विश्व की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि यही है।

दूसरी तरफ आमतौर से पिछले आठ वर्षों और खास तौर से विगत दो वर्षों में भारत में शासन तंत्र की सारी शक्तियां एक छोटे से गुट के हाथ में केंद्रित हो गई हैं।

मोदी के इर्द गिर्द केंद्रित मर्दवादी पौरुष के रचे गए नैरेटिव के राज्य के नीतिगत फैसलों पर पड़ने वाले प्रभाव हमने महामारी के इस कठिन काल में देखा। निर्णय लेने के तौर तरीके में निरंकुश राजशाही का लक्षण स्पष्ट दिखता है।

इस समय नोटबंदी,  जीएसटी, नीति आयोग आदि पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। इन्हीं संदर्भों में हम महामारी से निपटने के नाम पर 4 घंटे की सूचना से लागू किए गये पूर्णतया तालाबंदी को समझ सकते हैं।  लोकतांत्रिक दुनिया के इतिहास में किसी सरकार द्वारा ऐसे निरंकुश फैसले शायद ही कभी जनता पर थोपे गए होंगे।

तालाबंदी लागू करने वाली सरकार के सरोकार  में 135 करोड़ भारतीयों के जिंदगी, रोटी, रोजी के भविष्य के बारे में कहीं कोई चिंता नहीं दिखती है।  अगर उसकी सोच में जन सरोकार होता,  किसी तरह की लोकतांत्रिक संवेदना होती तो ऐसा क्रूर निर्णय कभी भी नहीं ले सकती थी।

यह बात साफ है, कि संघ-भाजपा नीत  सरकार ने महामारी की आड़ लेकर तालाबंदी द्वारा हिंदुत्व की योजना का परीक्षण किया। उसकी योजना यह समझने की थी, कि क्या इस विराट देश को एक पैरों पर खड़ा कर तानाशाही की  छड़ी से हांका जा सकता है।

या यूं कहें कि 135 करोड़ नागरिकों वाले देश को मानसिक-शारीरिक  रूप से बंदी बनाया जा सकता है। इस परीक्षण के परिणाम भारत के लिए कितने अमानवीय और विध्वंसक थे, उसे उस दौर के विचलित कर देने वाले मंजर को देखकर समझा जा सकता है।

तालाबंदी ने करोड़ों मजदूरों, छात्र, नौजवान, खोखे,  ठेले, रेहरी, पटरी, चाय, सब्जी, मैकेनिक, मिस्त्री, प्लंबर, दिहाडी और कंस्ट्रक्शन लेबर, पल्लेदार, ड्राइवर, ऑटो रिक्शा चलाने और फेरी वाले हजारों तरह के पेशे में लगे करोंड़ों मतदाताओं को (जिनके पास एक अदद  ठिकाना नहीं है) सड़कों पर ला दिया था।

लगता था कि मानवता ही धरती पर रेंगते हुए अनंत यात्रा पर निकल पड़ी हो। मैं नहीं समझता कोई भी संवेदनशील मनुष्य उस  दृश्य को देखकर सामान्य रह सकता है।  अपने घरों में चैन से सो सकता है । गीत गुनगुना  सकता है ।

यह अहंकारी सरकार द्वारा निर्मित निकट अतीत की सबसे बड़ी त्रासदी में से एक थी। सैकड़ों लोग मारे गये। हजारों किलोमीटर की अनचाही यात्रा मेहनतकश लोगों पर बर्बरता पूर्वक थोप दी गयी। पदयात्रा पर निकले करोड़ों लोग  क्या इस सरकार के अपने हिन्दू भाई नहीं थे । विधर्मी थे। देशद्रोही थे । टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग थे। जो अपने कंधों पर बच्चे, पत्नी, बूढ़ी मां लादे हुए अनजाने मार्ग से चले जा रहे थे।

सुभद्रा, साबरमती, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी, रावी, जमुना के तट  से गंडक, नारायणी, कोसी, कमला, राप्ती, घाघरा और दामोदर घाटी की तरफ करोड़ों इंसान चल पड़े । इस देश के मामूली इंसान अपनी ही चुनी हुई सरकार के क्रूर निर्णय से सुरक्षित जिंदगी की तलाश में असुरक्षित रास्ते पर चल पड़े । पुलिस प्रशासन के जुल्म सहे। हर नागरिक पूछ रहा था कि ये भूखे-प्यासे कहां जा रहे हैं।

यह किस सम्राट का राज था। किसके मतदाता थे। सुनते हैं इन्हीं 135 करोड़ लोगों ने एक बादशाह चुना है । वह कहां था।  क्या कर रहा था । महीनों पता ही नहीं चला ।  आत्ममुग्ध भिन्न-भिन्न रंग बिरंगे रुपों में प्रकट होने वाले महान मोदी कहां थे। सरकारी अहलकार और मंत्री-संत्री कहां थे। क्या वह  अनंत यात्रा पर निकले लोगों के  दृश्य को देख नहीं रहे थे ।
पटरियों पर कटी लाशें नहीं दिखी। मेंढक की तरह से उछलते हुए नौजवान नहीं दिखे।

जो पेगासस से हमारे घर के बेडरूम को भी देख सकता है।  सड़कों के इस विशाल त्राशद मंजर को नहीं देख पा रहा था ।

जिन्होंने वह दृश्य नहीं देखा है वह   इस सभ्यता की वीभस्तता की परिकल्पना नहीं कर पाएंगे। हम लोग अपना दुर्भाग्य कहें या जो भी इस तरह का दृश्य देखने के बाद भी अभी  मनुष्य बने हुए हैं ।

महामारी काल में 100 अरब डालर से ज्यादा आम भारतीयों की मेहनत की कमाई लूटने वाले पूंजीपतियों का पेट नहीं भरा। उनकी पूंजी की लिप्सा नहीं मरी। लाखों लाशे नदियों, श्मशानों और कब्रिस्तानों में पहुंचाने के बाद भी मुनाफे की हवस नहीं पूरी हुई ।
मोदी के महान मंत्र “आपदा को अवसर” में बदलते हुए इसी समय कृषि क्षेत्र के 12000 अरब डालर के व्यापार पर  कृषि कानून लाकर डाका डालने की कोशिश हुई।

लेकिन यहां से दृश्य बदल गया।

वही मामूली लोग, मामूली इंसान गैर-मामूली संघर्ष के रास्ते पर निकल पड़े। अलग-अलग प्रदेशों, भूखंडों, भाषा, पहनावे वाले  रंग-बिरंगे, काले, पीले, सफेद, तगड़े, दुर्बल, निर्बल, असहाय, महिलाएं, पुरुष, बच्चे न जाने कहां से यह अनाम लोग फिर सड़कों पर आ गये। जटा जूट तिलक रक्षा पगड़ी बांधे दाढ़ी बढ़ाएं दिल्ली पहुंचे लाखों मामूली लोगों से सरकार घबरा गयी।
आजादी के बाद की सबसे ताकतवर कही जाने वाली सरकार को चुनौती दे डाली इन्हीं मामूली लोगों ने। कहां से इन्हें ताकत मिली।

मोदी ने नोटबंदी और तालाबंदी करके देख लिया था कि 135 करोड़ लोगों को एक झटके में सड़क पर खड़ा किया जा सकता है।

ये मामूली लोग 13 महीने तक दिल्ली के राजा के राजमहल के चारों तरफ घेर कर  राजा को  कानून वापस लेने के लिए कैसे मजबूर कर सके।
उनके पास कौन सी शक्ति कहां से अचानक आ गयी थी।

कारपोरेट संपदा का दोहन करता है। संघ-भाजपा समाज का विखंडन करते हैं। किसान मजदूर एक होकर समुद्र मंथन करके समाज के लिए नवरात्र पैदा करते हैं।
त्याग, बलिदान, सहयोग, सहभागिता, आपसी प्रेम, भाईचारा और साझा दर्द, साझा संघर्ष। बस यही तो था इन निहत्थे लोगों के पास। जो हृदयहीन पूंजी की राज्य शक्ति के प्रतिनिधि के पास नहीं होता।
2019 का चुनाव जीतने के बाद भाजपा-संघ नीत सरकार उद्दंड और आक्रामक हो गयी। संविधान रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया। कश्मीर से पहला प्रयोग शुरू हुआ। जो नागरिकता कानून के रास्ते आगे बढ़ा।
नागरिकता कानून  के खिलाफ भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे उपेक्षित मामूली लोग सड़कों पर आ गये। खुद संघ के द्वारा रचे गये आख्यान के तहत सोचे तो भारत में सबसे उत्पीड़ित कमजोर प्राणियों में मुस्लिम महिलाएं हैं। जिन्हें कोई अधिकार नहीं। पुरुषों को चार-चार शादी करने का अधिकार है। घर में कैद रखता है । जब चाहता है मनमर्जी तलाक दे देता है। इस तरह का एक पूरा आख्यान संघ परिवार ने रचा है। मुस्लिम महिलाओं को केंद्र कर इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ।
लेकिन संघ-भाजपा द्वारा प्रचारित ये पीड़ित और मामूली औरतें कैसे इस बलवान सरकार के बनाये कानून के खिलाफ संपूर्ण राष्ट्र के कोने-कोने में सैकड़ों शाहीन बाग रच डालीं।
जबकि इसी समय मुस्लिम महिलाओं के दर्द से महान मोदी का ह्रदय फटा जा रहा था।

देश ने देखा सबसे कमजोर मामूली लोगों का एक विराट और अनुशासित सत्याग्रह। जो इतिहास में अपने अनूठे साहस के लिए याद रखा जाएगा।
इसके पहले छात्रों, युवाओं, कर्मचारियों का एकताबद्ध संघर्ष सामने आ चुका था। बनारस विश्वविद्यालय की छात्राएं, अलीगढ़, जामिया मिलिया, दिल्ली, जेएनयू के संघी गिरोहों और पुलिस प्रशासन की मार खाती लड़कियां, लड़के, शिक्षक,  बुद्धिजीवी सभी किसी न किसी संघर्ष के लिए मजबूर कर दिए गए थे।
मामूली और कमजोर मुस्लिम समाज के साथ  दलित, महिलाएं, नौजवान, बेटियां,  हिंदुत्व गिरोहों का शिकार बनते जा रहे थे।

हिंदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने के लिए ‌  2017 में  उत्तर प्रदेश में सरकार बनते ही योगी सरकार उतावली दिखी। आते ही सकारात्मक सवालों की जगह उसने  विभाजनकारी एजेंडे को आगे कर दिया।
लव जिहाद और गौ रक्षा कानून के कारण समाज के नौजवानों, किसानों के साथ व्यापारियों तक पर आर्थिक और कानूनी मार पड़ रही थी।
इन कानूनों के आते ही पुलिस और गौ रक्षक गिरोह आक्रामक अभियान में शामिल हो गये। जिससे जिंदगी और जीविका की तबाही से विभिन्न सामाजिक समूह कराहने लगे।

कारपोरेट परस्त नीतियों के कारण रोजगार का गहरा संकट खड़ा हो गया। नये रोजगार के क्षेत्रों के सृजन की तो बात ही छोड़िए पहले से रोजगार में लगे लोग रोजगार से हाथ धोने लगे।
देश के आर्थिक विकास की गति मंद पड़ गयी। जिससे महामारी काल में आर्थिक संकट नए क्षेत्रों में फैल गया।
लोग अपने संचित पूंजी पर अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर थे। देश और समाज में चौतरफा अफरा-तफरी और भय, आर्थिक तबाही का वातावरण मोदी सरकार की नीयत और नीतियों  के कारण बन गया।

मामूली और कमजोर आय वाले लोग आर्थिक मार और सरकारी क्रूरता से अंदर-अंदर उबलने लगे। सरकार से जनता का अलगाव बढ़ता गया और सरकार अपनी विश्वसनीयता खोती गयी।
सरकारी संस्थाओं जैसे ईडी, सीबीआई, पुलिस प्रशासन के एकतरफा प्रयोग ने समाज में सरकार के प्रति अनास्था को जन्म दिया।

इस परिस्थिति में  विपक्षी राजनीतिक दलों और संगठनों को जनता के लिए लड़ना चाहिए था, वहीं वे पस्त हिम्मत होकर सरकार के समक्ष नतमस्तक हो गये।

इस राजनीतिक खालीपन का फायदा उठाते हुए सरकार ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए निर्दोषों को जेलों में भर दिया। भीमा कोरेगांव और दिल्ली दंगे सहित अनेक ऐसे मामले आये जिसमें बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक नागरिक, महिलाएं, छात्र, नौजवान बेकसूर लोग बरसों तक जेलों में सड़ने और मरने के लिए मजबूर कर दिया गये।
मामूली इंसानों के गैर मामूली संघर्ष का उदय इसी के बीच हुआ।
भयानक अंधकार और क्रूरता के समय में किसानों के दिल्ली पढ़ाव से एक नये तरह का आत्मविश्वास संगठित होने और संघर्ष की प्रेरणा नागरिकों को मिली। किसानों की विजय और तीन कृषि कानूनों की वापसी अंधेरे में लोकतंत्र के लिए रोशनी लेकर आयी।

राजनीतिक दल पराजित, हताश,  दिग्भ्रमित तथा विभाजित थे। लेकिन नवंबर बीतते-बीतते किसान आंदोलन की जीत ने परिदृश्य को पलट दिया। यहीं से  मामूली इंसानों की गैर-मामूली विजय यात्रा शुरू हुई ।
किसानों के जीत से बने नये उत्साह के बीच बदलते हुए परिवेश में पांच राज्यों के चुनाव आ गये।
बदलती हुई परिस्थिति और बैकफुट पर आयी हुई सरकार ने कोविड के तीसरे दौर का एलान किया । महामारी नियंत्रण अधिनियम के तहत जनता की राजनीतिक पहलकदमियों, गतिविधियों को नियंत्रित करने की कोशिश शुरू हो चुकी थी।
जिससे लगा कि परिस्थिति फिर एकतरफा सरकार के पक्ष में मुड़ जाएगी । लेकिन चुनाव आचार संहिता लागू होते ही थोड़ा तरल माहौल बनना शुरू हो गया और मामूली इंसानों की गैर मामूली जीजिविषा सरकार के इरादे से टकरा गयी। विगत 8 वर्षों से पल रहा जनआक्रोश का तूफान  विस्फोट के लिए मौका पा गया ।
पांच राज्यों के चुनाव और इसकी संचालित करने वाले कारकों पर गौर करने से कुछ दिलचस्प प्रवृत्तियां उभर कर सामने आएगी। पंजाब, उत्तराखंड किसान आंदोलन के प्रभाव क्षेत्र थे। किसान आंदोलन का न्यूक्लियस पंजाब था । इसलिए वहां के चुनाव की संचालक शक्ति किसान आंदोलन की अजेय जिजीविषा है। जो पंजाब में चुनाव का फाइनल दिशा निर्धारित करेगी ।

उत्तराखंड  की तराई में किसान आंदोलन ने व्यापक प्रभाव डाला था। साथ में बेरोजगारी महंगाई और भाजपा सरकार की प्रशासनिक कुव्यवस्था के साथ कारपोरेट परस्त नीतियों ने उत्तराखंड में भी राजनीतिक माहौल को पलट दिया है ।

मणिपुर और गोवा दोनों छोटे राज्य हैं। जो भारत के दो अलग भू-क्षेत्रो में स्थित होने के कारण भिन्न राजनीतिक मूल्यों, संस्कृतियों और धार्मिक आस्थाओं वाले राज्य हैं। जहां सामाजिक, राजनीतिक शक्तियों के समायोजन और सांस्कृतिक, सामाजिक   जीवन प्रणालियां उत्तर भारत से भिन्न है। इसलिए वहां चुनाव के संचालक कारक   सर्वथा भिन्न  रूप में दिखेंगे।

मणिपुर में जहां यूएपीए और सेना के दुर्व्यवहार मुख्य कारक हैं। वहीं गोवा के सांस्कृतिक,  सामाजिक पहलू और भाजपा सरकार की अक्षमता एक बड़ी भूमिका निभा रही है। इसलिए इन राज्यों में भी चुनाव के निर्धारण करने वाले कारकों को संघ सरकार के कठोर राज्य की नीति और कारपोरेट परस्ती के अंदर ही तलाशी जानी चाहिए।

संघ और भाजपा की गणतंत्रात्मक भारत से दुश्मनी जगजाहिर है । पिछले 8 सालों से मोदी सरकार की नीतियां इस भारत पर गंभीर चोट कर रही है। जिस कारण से इन राज्यों में एक नये तरह के आत्मसम्मान, अपनी पहचान, अपने सांस्कृतिक, सामाजिक जीवन प्रणाली को सुरक्षित रखने की लड़ाई भी चुनाव के एक बड़े एजेंडे के रूप में दिख रही है।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

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