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अनुराधा ओस की कविताएँ: वर्जित इच्छाओं की सड़क पर स्त्री मन की मुखर और सहज अभिव्यक्ति

अनिल करमेले


हिन्दी कविता में इस समय में जितनी कवयित्रियाँ सक्रिय हैं उतनी पहले कभी नहीं रहीं। इस समय लगभग पाँच पीढ़ियाँ सक्रिय हैं। वे बहुतेरे विषयों पर लिख रही हैं और दुख की उस परम्परागत छाया से बाहर हैं जो पहले की कविता में दिखाई देती थी। उनके यहाँ विषय वैविध्य है। उनकी चिंताओं में जीवन और समाज के तमाम पहलू शामिल हैं और उनसे लगातार जूझते रहने से उत्पन्न आवाज़ उनकी कविता में खुल कर आती है। सोशल मीडिया एक बेहतर माध्यम है जिसके ज़रिए आज उनकी बेबाक और ज़रूरी अभिव्यक्ति  लगातार दिखाई देती है।

‘वर्जित इच्छाओं की सड़क’ अनुराधा ओस का दूसरा कविता संग्रह है। इन कविताओं को पढ़ कर लगता है कि उन्होंने अपनी पहली पुस्तक के बाद अपनी कविताओं पर काफी मेहनत की है। मोटे तौर पर उनकी कविताओं में स्त्री अस्मिता, श्रम, सौन्दर्य, प्रेम और प्रकृति दिखाई देते हैं। यह वर्जित इच्छाओं की सड़क पर स्त्री मन की मुखर और सहज अभिव्यक्ति है।

उनकी स्त्रीवादी कविताओं में आजकल चल रहे पितृसत्ता पर उलाहने और आक्षेप की जगह स्त्री के सामान्य जीवन की कई छवियां सामने आती हैं जो परंपरागत स्त्री की छवि को तोड़ती है। पितृसत्ता को लेकर उनकी कविताएँ आक्रामक नहीं प्रभावशाली हैं,  वे बहुत आसान और सीधी भाषा में सवाल करती हैं। वे कुछ सवाल उठाती हैं और उनके जवाब चाहती हैं। सोच लेती हैं औरतें, स्त्रियाँ और पलाश, बारिश में भीगती लड़कियाँ, खलिहर औरतें, ज़ुल्फ़ को लहराने दो, वेश्या का कुआं, उस स्त्री के बारे में जैसी कविताएँ उल्लेखनीय हैं। इधर बहुधा लिखी जा रही आक्रामक कविताओं से इतर इन कविताओं में स्त्री की अपनी शर्तों पर सहजता से जीने की कवायद दिखाई देती है।

ज़ुल्फ़ को लहराने दो
ज़माना तो कुछ भी
कहता ही रहेगा
देख लो जी भर कर
अपने हिस्से के आसमान को

देख लो वो हर जगह
जहां जाना वर्जित है
बरेली की बर्फी की तरह
तुम भी पूछ सकती हो
सवाल
वर्जिन हो क्या तुम ?
(कविता- जुल्फ को लहराने दो)

वेश्या समाज से तिरस्कृत स्त्री है जिसके पास पुरूष अपने सुख के लिए जाते हैं। वह केवल मनोरंजन का साधन है। वह भोग्या है इसलिए उसे समाज उपेक्षा से देखता है लेकिन वही वेश्या मनुष्यों को पानी की किल्लत से बचाने के लिए अपनी सारी कमायी सौंप देती है और फिर उससे कुआं खोदा जाता है। ‘वेश्या का कुआं‘ मार्मिक कविता है –
वह खर्च करती थी स्वयं को
रोज एक सिक्के की तरह
बदले में मिलते थे कुछ सिक्के
इन्हीं सिक्कों में से
कुछ सिक्के सहेज रही थी
धरती का कर्ज उतारने के लिए

प्यासे गले को तर करने के लिए
एक दिन वही सिक्के गलने लगे
और बनवाया गया रम्मा

एक वेश्या के शरीर से उतरे
खनखनाते सिक्के ढल रहे थे कुएं की भीत पर…

उनकी पुस्तक का शीर्षक कविता ‘वर्जित इच्छाओं की सड़क‘ स्त्री की इच्छाओं, कामनाओं, सपनों और अस्मिता का प्रतीक है।

वर्जित इच्छाओं की सड़क पर
कभी चल कर ज़रूर देखना
वहां भी चल कर देखना
जहां रात की रानी ने कहा होगा
अव सो जाओ मीत मेरे

जब कह सको तो कहना
अपना प्रेम अपना हक

 

उनकी कविताओं में गांव जवार, मजदूर, पेड़ पौधे, भय, दुख आदि बहुत सामान्य ढंग से आते हैं और जिससे जाहिर होता है कि ग्रामीण जीवन की आंतरिक लय को वे भलीभांति जानती पहचानती हैं। वे बहुत सहजता से चित्र उकेरती हैं जो एक दृश्य शृंखला की तरह हमारी आंखों के सामने चलते हैं।

ग्रामीण जन जीवन में प्रकृति कैसे सहचर है और एकाकार है वह इन पंक्तियों में देखा जा सकता है जहाँ पलाश की छाँव मानवीय संवेदना में रूपायित होती है-
भयंकर झुलसते दिन में
जब डामर की सडक पर भुन जाते हों
मकई के दाने
उस समय सबके तलवे सहलाता है पलाश

उनकी एक कविता है ‘अंतिम आदमी’ । यह अंतिम आदमी वही है जिसकी बात गांधी जी से लेकर तमाम लोगों ने की है। वही अंतिम आदमी जो इस तथाकथित सभ्यता से बाहर है और अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। वह अपने खेत, जंगल और पहाड़ बचाने की जद्दोजहद भी कर रहा है। इसमें कवयित्री की पक्षधरता साफ दिखायी देती है कि वे सामान्य जन के साथ खड़ी हैं –
रक्तरंजित युद्ध उन्हें नहीं लडने हैं
उन्हें लड़नी होती है भूख की लड़ाई
अपने अस्तित्व की लड़ाई
अंतिम आदमी
सिर्फ भूख से नहीं लड़ता
वो जंगल और पहाड़ के
अस्तित्व के लिए भी लडता है
ताकि धरती पर
कुछ हरियाली बची रहे।

अंतिम आदमी में शामिल ये ही वे लोग हैं जो सूखे से और बाढ़ से लगातार लड़ते रहते हैं। उनका जीवन ही प्रकृति पर निर्भर है। ‘बाढ़ में घिरे लोग’ कविता में वे कहती हैं-
बाढ़ में नहीं बहता केवल
अनाज बासन
बल्कि बह जाती हैं उम्मीदें कई
बाढ में डूब गया वो आंगन
जहां बेटी के ब्याह का मडवा
छवाने का सपना
दिन रात देख रही थी धनिया।

जीवन को आसान बनाने और दुख को कम करने के लिए वे छोटी छोटी परंपरागत चीज़ों से हौसला पाती हैं और अपनी जीवन यात्रा पर चलती रहती हैं- ‘हल की धार को याद करती हूं‘ कविता की ये पंक्तियां –
ज़िंदगी की कड़वाहट
कम करने के लिए
पानी को याद करती हूँ
दुख को हराने के लिए समुद्र को
तुरपाई करने के लिए
मकड़ी की जिजीविषा को
मन की बर्फ पिघलाने के लिए
कुम्हार के आवां को
याद करती हूं।

वही कविता जनोन्मुखी और प्रभावी होगी जिसमें आम जन दिखायी देंगे। जिनमें मनुष्य के जीवन के सुख और प्रेम के साथ सामान्य जन का जीवन भी होगा, क्योंकि वह भी समाज का एक सच है और उसके बिना कविता की बात पूरी नहीं होती है। कवयित्री ऐसे सामान्य जनों की, वंचित पीड़ित जनों की पीड़ा ‘कविता जन्म नहीं लेती’ कविता में लेकर आती हैं-
कविता जन्म नहीं लेती
एकांत में
कविता ठिठकती है
अंधेरी झोंपड़ी के सामने
टूटी पिचकी देगचियां
गढती हैं कुछ सौंदर्य
हमेशा फूल बादल प्रेम और रंगों को
ही नहीं ढूंढती कविता
वह वहां भी सौंदर्य ढूंढती है
जो सदियों से उपेक्षित हैं।

इसी तरह दुनिया में फैली तमाम हिंसा से चिंतित होकर मानवीयता के पक्ष में वे ‘क्रौंच वध की पीड़ा‘ कविता में साफ साफ कहती हैं-

हिंसा के पक्ष में खडे लोग
कविता नहीं लिख सकते

धरती की पीड़ा हरने के लिए
हिंसा के विरोध में
कविताएं लिखनी चाहिए।

इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएँ ‘क्या तुम नहीं जानते‘, ‘तुम्हारी हथेलियां‘ और ‘जब भी मिलूँ‘ भी हैं जो अपने देषज बिम्बों के प्रयोग से अच्छी लगती हैं।
जब भी मिलूँ
मैं तुमसे वैसे ही मिलूँ
जैसे नमक कटोरे में
चुटकी भर चीनी
जैसे धान की बाली में भरी दूधी
जैसे रोपनी के बाद
खुशी के गीत गाती
आदिवासी औरतें
(कविता – जब भी मिलूँ)

एक छोटी सी कविता ‘बातचीत‘ की सुंदर पंक्तियां हैं –
दुख की छाया को
छोटा करती हैं
प्रेम कविताएँ

अनुराधा की कविताओ में विषय वैविध्य है और उनकी कविता अपने अनुभवों से निकलती हुईं आसपास के जनजीवन से गहराई से जुड़ती हुई चलती हैं। उनका कथ्य और भाषा अच्छी है लेकिन उन्हें अभी अपनी शैली बनानी है। मुझे विश्वास है कि वे अपनी मेहनत और अनुभव से कविता में अपनी एक अलग पहचान बनाएंगी।

 

 

 

 

अनुराधा ओस की कविताएँ

 

1. तुम्हारी हथेलियाँ

तुम्हारी पसीजी हथेलियों को
छूती हूँ
तो महसूस करती हूँ
बारिश का सौंदर्य

जब पहाड़ की चोटी पर
खिले पलाश को देखती हूँ
महसूस होती है संघर्ष की परिभाषा

जब तुम्हारी आँखों में देखती हूँ
लगता है बह रही हो नदी
कंपकंपाती सी
जैसे अनगढ़ सौंदर्य प्रेम का

और तुम्हारा मौन
रेल की सीटियों सा
महसूस करती हूँ।

 

2. ज़ुल्फ़ को लहराने दो

ज़ुल्फ़ को लहराने दो
जमाना तो कुछ भी
कहता ही रहेगा

कैद करने की भूल न करना
देख लो जी भरकर
अपने हिस्से के
आसमान को

वहीं कहीं बैठकर
उंगलियों में लगा लो
नेलपॉलिश
जो घिस कर
बदरंग हो गयी है

अपने आंखों को
जी भरकर देख लो
जिनमे सपने
मुरझाने लगें हैं

अपने पैरों को
थिरकने तो
संगीत की धुन पर
नाप लो पूरी धरती

देख लो वो हर जगह
जहां जाना वर्जित है
बरेली की बर्फी की तरह
तुम भी पूछ सकती हो
सवाल
तुम भी पूछ लो
वर्जिन हो क्या तुम?।।

 

3. अंतिम आदमी

अंतिम आदमी
जोह रहा है सभ्यता की बाट

वो खड़ा है
आखिरी पंक्ति में

उसके पास पहुँचता है
सब कुछ सबसे अंतिम में

सरकारी योजना भी
वहां पहुंचते-पँहुचते
दम तोड़ देती है

रक्त रंजित युद्ध
उन्हे नही लड़नी है
उन्हें लड़नी होती है
भूख की लड़ाई

अपने अस्तित्व की लड़ाई
ताकि बचे रहे धरती पर
कुछ इंसान

अन्तिमआदमी सिर्फ
नही लड़ता भूख से

बल्कि वो जंगल और पहाड़ के
अस्तित्व के लिए भी
लड़ता है

ताकि धरती पर कुछ
हरियाली बची रहे।।

 

 

3. पलाश और स्त्री

पलाश सब कुछ देख रहा है
काठ होता मन
लाल होती सड़क
घर से हजारों मील दूर
प्रसव वेदना झेलती औरत
का दुःख बांटता है
भयंकर झलुसाये दिन में
जब डामर की सड़क पर भुन जाते हों
मकई के दाने
उस समय सबके तलुए सहलाता है पलाश
उसी समय न जाने किसके पैरों की आहट सुनकर चौंकता है
धरती दुःख से करवट
बदलती है
और छलकाती है मौन पीड़ा
उसी समय कोई
पका रहा था भात
अपने टूटी हांडी में
उसी समय कोई
घर नही पहुंचा
पलाश सब कुछ देख रहा है
जव पैंतालीस डिग्री में लाल
हो रहीं थी पहाड़ियां
उसी समय कोई लकड़ियां काट रहा था
स्त्री के दुःख कभी -कभी
पलाश की तरह सुर्ख दिखाई देते हैं।

 

4. हल की धार को याद कर लेती हूँ

बहुत पहले मां ने
कहा था कि
कुछ बनाते समय
उसको याद कर लेना चाहिए
जो उस काम को
अच्छे से करता हो

तो मैं
रसोई बनाते समय
माँ को याद कर लेती हूँ

जिंदगी की कड़वाहट
कम करने के लिए
पानी को याद करती हूँ

मन को समतल बनाने के लिए
हल की नुकीली धार को
दुःख को हराने के लिए
समुद्र को

काँटे हटाने के लिए
हंसिया और दराती को
उधड़ी सीवन ठीक करने के लिए
पेड़ की छाल को

कतरन -कतरन जोड़ कर
तुरपाई करने के लिए
मकड़ी की जिजीविषा को
मन की बर्फ पिघलने के लिए
कुम्हार के आंवा को।।

 

5.वेश्या का कुआँ

धरती अपनी पीठ पर
लिख रही थी
दुख की फेहरिस्त

आसमान प्रेम से
ताक रहा था
लोग कहते थे उस दिन

भीग गयी थी शहर की
काई लगी दीवारें
मिट्टी अपनी हथेलियों को
और नरम बना रही है

ताकि सोख लें
कुछ और नमक
रक्त से सनी सड़कें
वेदना से कांप रही थीं

कोई नया जन्म हुआ शायद
निरन्तर घूम रहें
अपने धुरी पर नक्षत्र

और वहीं से बदल
रहें हैं हमारा भाग्य

लोग उसे वेश्या कहते थे
नाम भी रहा होगा कुछ

खर्च करती थी स्वयं को
रोज एक सिक्के की तरह
बदले में भी मिलते थे
कुछ सिक्के

इन्ही सिक्कों में से कुछ सिक्के
सहेज रही थी
धरती का कर्ज उतारने के लिए

प्यासे गले को तर करने के लिए
एक दिन वही सिक्के गलने लगे
और बनवाया गया रम्मा*

कुआँ और गहरा होने लगा
नक्काशीदार
सुंदर पत्थरों से जगमग

एक वैश्या के शरीर से उतरे
खनखनाते सिक्के
ढल रहे थे कुँओं की भीत पर

समाज की नजरों में
गिरी हुई औरत थी वो
न जाने कितनी दुआओं के बाद
जन्म लिया था उसने।।

1-मिट्टी खोदने के लिए लोहे से बना लम्बा औजार

 

6. क्रौंच वध की पीड़ा

क्रौंच की पीड़ा पर
लिखी कविता
हिंसा के विरोध में थी
या प्रेम के पक्ष में

सदियों से इस कविता को
इंतजार था
अपने जन्म लेने का
पिघलने का

हिंसा के पक्ष में खड़े लोग
कविता नही लिख सकते

शायद रिक्त स्थानों में
भर गया है खौलता लावा
रिक्त स्थानों को
भरने के लिए चाहिए प्रेम

अन्यथा  रिक्त को
रिक्त ही रहने देना चाहिए

धरती की पीड़ा हरने के लिए
हिंसा के विरोध में कविताएँ
लिखनी चाहिए।।

 

7. कविता जन्म नही लेती

कविता जन्म नही लेती
एकांत में
वह भयानक कोलाहल में भी
जन्म लेती है

असहनीय प्रसव पीड़ा झेलकर
जन्म देती है मौन संवाद को

कविताएँ जन्मतीं हैं
पुराने जंग लगे
दरवाजों पर भी
जर्जर दीवारों पर भी

ठिठकती हैं कुछ पल
वहां भी,जहां जाना वर्जित है
किसी का भी
कविता ठिठकती है
अंधेरी झोपड़ी के सामने
जहां का सन्नाटा मौन तोड़ता है

टूटी पिचकी देगचियाँ
गढ़तीं है कुछ सौंदर्य

हमेशा फूल,बादल,प्रेम और रंगों को
ही नही ढूढती कविता
वह वहां भी
सौंदर्य ढूढती हैं
जो सदियों से उपेक्षित हैं।।

 

8. जब भी मिलूं

जब भी मिलूं
मैं
तुमसे वैसे ही
जैसे कोई पहाड़ी नदी
पत्थरों से

जैसे नमक के कटोरे में
चुटकी भर चीनी

जैसे धान की बाली में
भरी दूधी

मैं मिलना चाहती हूँ
वैसे ही जैसे
बीज बोती औरत

जैसे विदाई के गीत
गाती हो कोयल
अशोक के पेड़ों पर

जैसे पहाड़ों कीओर से
मिलने आए
बरसों से बिछुड़ा कोई

जैसे रोपनी के बाद खुशी के
गीत गाती
आदिवासी औरतें

वैसे ही
पसीने से पसीजे खत
जो हथेलियों में
बंधे रह गए हों
जैसे
पत्थरों को तोड़ कर
रोटी बनाता हो कोई।।

 

9. स्पर्श करती है

जैसे धान के पुआल को
अगहन की ठंडी हवा
स्पर्श करती है।

जैसे बाँस की फुनगी
भोर की चमकती ओस को।

जैसे ताज़ा -ताज़ा झड़े
महुए के पीले फूल गीली मिट्टी को।

जैसे गोरू के खुरों
से लिपटी धूल साँझ को।

जैसे दूर किसी ट्रक में
बजती कोई मधुर तान कानों को।

तुम्हारी आवाज़
स्पर्श करती है
ठीक उसी तरह।

 

10. वर्जित इच्छाओं की सड़क

वर्जित इच्छाओं की सड़क पर
कभी चलकर जरूर देखना

पाँव में कितने काँटे चुभे
जरूर देखना
देखना की कितने  गहरे
धंसी है कील वर्जनाओं की

वहां भी चलकर देखना
जहां रात की रानी ने कहा होगा
अब सो जाओ मीत मेरे

जब कह सको तो कहना
अपना प्रेम,अपना हक
चल सको तो चलना
कांटों पर भी। ।

 

11. बातचीत

किताबों से बातचीत
यादों के फूल करतें हैं
अक्षरों के कंधे पर सिर
रखकर बतियाते हैं

सदियों का दुःख
हल्का करतें हैं
स्याही की नोक से निकल कर

रक्त सने हुए हाथों
को पकड़ा देतें हैं
उजाले की स्याही

दुःख की छाया को
छोटी करती हैं
प्रेम कविताएँ।।

 

12. मुस्कराहटें

मुस्कुराहटें
महज होंठ
फैलने सिकुड़ने का
जरिया नही है
बल्कि मन के फैलने सिकुड़ने का भी जरिया है

धरती पर जिस रोज
सबसे पहले
मुस्कराया होगा कोई उस दिन
जरूर खिले होंगे  सतरंगी फूल

जरूर नदी
अपने पूरे वेग से चली होगी
पत्थरों पर
बादल टूट कर बरसे होंगे।

 

13. बाढ़ में घिरे लोग

बाढ़ में घिरे लोगों की

नही होती है कोई जाति

अकिंचन,बेबस दयनीय दृष्टि से

देखते हैं अपना सब कुछ

 

बाढ़ में  कैसे बचाएं हम

वो जगह जहां

तुलसी मैया का चौरा था

जहां रोज दिया जलाकर
शीश नवाते थे

 

जलमग्न हो गयी,

और जलमग्न हो गयी

हमारी प्रार्थनाएं

 

बाढ़ में वहीं कहीं

डूबा है गाय का खूँटा

मुक्त कर दिया प्रकृति ने

खूंटे से

 

कोठार में रखा धान

भीग कर फूल गया

भूसे में रखा गेँहू

अँखुआ कर बह रहा है

 

बाढ़ में नही बहता केवल

अनाज-बासन

बल्कि बह जाती हैं

उम्मीदें कई

 

बाढ़ में डूब गया वो आंगन

जहाँ बेटी के ब्याह का मड़वा

छवाने का सपना

दिन-रात  देख रही थी धनिया

 

बाढ़ में बह रही हैं

उम्मीदें और आशाएं कितनी।।

 

 

 

कवयित्री अनुराधा ओस, जन्म : मीरजापुर जनपद, उत्तर प्रदेश। शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, ‘मुस्लिम कृष्ण भक्त कवियों की प्रेम सौंदर्य दृष्टि’ पर पीएच. डी.।

कई पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी वाराणसी केंद्र और लखनऊ दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण। काव्यकृति: कविता संग्रह ‘ओ रंगरेज’, ‘वर्जित इच्छाओं की सड़क’ प्रकाशित.
आंचलिक विवाह गीतों का संकलन शीघ्र प्रकाश्य। संपादन: शब्दों के पथिक साझा संकलन ,मशाल सांझा संकलन। परिवर्तन साहित्यिक मंच के कार्यक्रम ‘आगाज-ए-सुखन’ का संचालन। परिवर्तन संस्था, छत्तीसगढ़ द्वारा सम्मानित। सम्प्रति : स्वतन्त्र लेखन।

सम्पर्क: सरस्वती विहार कॉलोनी, भरुहना
जिला-मीरजापुर-231001 (उत्तर प्रदेश)
ई मेल : anumoon08@gmail.com, मो.9451185136

 

टिप्पणीकार दुष्यंत कुमार पुरस्कार से सम्मानित कवि अनिल करमेले सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं  और ब्लॉग्स में इनकी कविताएँ, लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित चुकी हैं।  ‘ईश्वर के नाम पर’ तथा ‘बाकी बचे कुछ लोग’ कविता संग्रह प्रकाशित. प्रलेस से संबद्ध एवं वाट्सएप पर “दस्तक” समूह का संचालन. संप्रति :भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अंतर्गत महलेखाकार लेखापरीक्षा कार्यालय भोपाल में सेवारत.  सम्पर्क: 9425675622, ईमेल: anilkarmele@gmail.com

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