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‘गगन गिल ‘मातृमूलक’ दुःखों और उदासियों को रचने वाली कवयित्री हैं’

अनुपम सिंह


गगन गिल ने कविता में अपने ज़िम्मे जो काम लिया है, वह है स्त्री की पारम्परिक नियति को उद्घाटित करना. प्रकृति में इतने भाव थे, इतने रंग लेकिन उसके(स्त्री के ) हिस्से आये कुछ बुझे-बुझे से रंग, कुछ बीछ दी गयी रातें, कुछ क़त्ल किए गए दिन.

वह उन्हें सिल-सिलकर कुछ चिप्पी-चकती लगाकर रख लेती है , उस सन्दूकची में जिसमें बचपन की गुड़िया रखती थी. जिसे लेकर आई थी यहाँ, इस घर में, परायी संपत्ति बनकर. जैसे उसकी माँ, जैसे उसके माँ की माँ .गगन गिल अपनी कविता में उन सब से हमारा परिचय कराती हैं .वे लिखती है –

“रोती हुई
उठती है वह
एक दिन
नींद से
हो गयी है पार
इस बार
गर्दन से

इसी तरह
मरा करती थी
माँ
उसकी नींद में
बचपन में
माँ की माँ
माँ के बचपन में” (‘अँधेरे में बुद्ध’)

स्त्री के दुःख अमूर्त नहीं हैं .वह नश्वरता के रूपक में नहीं बल्कि अपनी यथा स्थिति और अनुभव से समझती है इस दुनिया को.

गगन गिल अधिक मूर्त होकर इसलिए नहीं आती हैं कविता में कि पढ़ते समय हमारी जीभ किरकिरी न हो जाय .गगन गिल ‘मातृमूलक’ दुखों ,उदासियों को अनुभव और संवेदना के ताप से रचने वाली कवयित्री हैं .

वे अपने पाठक को दुःखों, उदासियों और अकेलेपन के बीहड़ में छोड़ आती हैं. उदास भावों, दुःखों, धूसर और स्याह रंगों के कैनवास पर लिखी कविताएँ पाठक के मन को गहरे कुहासे में लपेट लेती है.

इस कविता में एक स्त्री के दुह:स्वप्न को दर्ज किया गया है .स्त्री के पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चले आ रहे दुःख को यह कविता कितने कम पंक्तियों में व्यक्त कर देती है .

यह स्वप्न स्त्री का नहीं बल्कि इस पुरुषसत्तात्मक दुनिया का भेद खोलता है . स्त्री का दुःख एक तरह का नहीं है .उसकी अनगिनत परते हैं ,अनगिनत रूप .दिन के अलग दुःख, रात के अलग. यहाँ दुःख की गति चक्रीय है, लौट-लौट आता है अपना भेस बदलकर .वे लिखती हैं –
“ कपाल के भीतर
टीला है एक
सूखे दुःख का
कभी-कभी उसे भिगोने
चढ़ बैठती है
रक्त-नदी उस पर

लौटता है पुराना
आधे सर का दर्द” (‘अँधेरे में बुद्ध’)

“तुम सुई में से निकलती हो
मैं धागे में से,माँ
कभी सुई में से मैं
धागे में से तुम”
कितना साझा भाव है स्त्री का स्त्री से. यह साझापन किसी उथले नारे या मुहावरे में नहीं, बल्कि दुःख में साझापन है. सूई और धागे का यह रूपक माँ और बेटी की नियति के लिए कितना सटीक बन पड़ा है . यही स्त्री का स्त्री से साझा भाव ही मूल भाव है.

यह नाभि-नाल बद्ध भाव है. यह ‘मातृमूलक’ भाव है. यह उस ‘बहनापे’ से अलग है. क्योंकि स्त्री की कोई एक पहचान नहीं है. वह भी एक विभक्त पहचान है. उसके अपने वर्ग-हित, जाति-हित, सप्रदाय-हित हैं. परन्तु वह किसी भी पहचान को धारण करे, वह मातृमुखी रहेगी ही .
गगन गिल ‘कुछ देर बुझ जाऊँ, माँ’ शीर्षक कविता में लिखती हैं-
“कुछ देर बुझ जाऊँ माँ ?
फिर साफ़ दिखे
रात और चाँद
साफ़ दिखे
तारे आसमान में
जाती हुई माँएं?”
‘एक पल में होना था’ शीर्षक कविता में कहती हैं –
“आकाश से बरसा एक कोड़ा
मैं डरी
हम डरे
जा दुबके भीतर तुम्हारे मृत गर्भ में.
एक पल में होना था
एक पल में हुआ अन्य यह संसार”.

इस बहुसत्तात्मक दुनिया में माँ का गर्भ अधिक सुरक्षित मालूम पड़ता है लेकिन सुरक्षा वहां भी नहीं. वहां भी बैठा है कोई सूक्ष्मदर्शी लगाकर ,जो मिटाना चाहता है उसके वजूद को ,जो उसके अस्तित्त्व पर हमलावर है .

यह सिर्फ कविता नहीं एक भयावह सच्चाई भी है ,जो कविता का रूप धर आयी है . यह दुनिया आभास तो कराती है अपने दोनों पैरों पर चलने का, भागने का लेकिन एक पहिया सिर्फ दिखावटी है या उस पर भार अधिक लादा गया है. स्त्री इस संसार में ‘सेकेण्ड सेक्स’ है, द्वितीयक, अनुपयोगी या सिर्फ उपयोगी. एक सचेत स्त्री खुद को खोज रही है, समझती है अपने दूसरे दर्जे की नागरिकता को. यह दुनिया किसी ‘अन्य’ के लिए बहुत क्रूर है. इस अन्यकरण की हजारों कड़ियाँ हैं, हजारों परते हैं उसकी. गगन गिल की सवाली निगाहें बहुत स्थिर होकर सवाल करती हैं. न उत्तेजना, न आक्रोश, बस! सवाल-दर-सवाल –

“मैंने नहीं पिया, माँ
अपने हिस्से का दूध
न पिया कभी छोटी ने
मेरे हिस्से का
इस रात से पहले क्यों नहीं कभी सोचा
क्यों नहीं कभी पूछा
कौन सुखा गया माँ
मेरे हिस्से का दूध .”

यह समाज हक़मारी करता आया है .स्त्री का हक़ मारने की शुरुआत आपने देखा की उसके गर्भ से ही शुरू हो जाती है .पहले जीने का हक़ ,बच गयी तो उसके दूध का हक़ भी कोई छीन लेता है.

इस कविता में यही सवाल तो पूछ रही है गगन गिल. इसे एक स्त्री का सवाल समझकर आप टाल भी सकते हैं .या तय कर सकते हैं अपनी जवाबदेही .

स्त्री की भाषा, उसकी चेतना सब प्रतिरूप होता है उसकी माँ का, जो उसे गर्भ-नाल से प्राप्त होता है. पुरुष भी बंधा होता है उसी गर्भ-नाल से लेकिन कब वो उस नाल की स्मृतियों से छिटककर शामिल हो जाता है पुरुष की दुनिया में ,पता ही नहीं चलता .नीचे की दो अलग-अलग कविताओं में गगन गिल उस विस्मृति को दर्शाती हैं ,वे लिखती हैं –

“जल था
देह थी
ग़नीमत थी
वहीँ कहीं देह में
किसी और का प्रारब्ध था
किसी और की विस्मृति थी
एक छोटी सी अंगूठी थी” (अँधेरे में बुद्ध )
यह कविता शकुन्तला के प्रति दुष्यंत की विस्मृति का बहुत ही त्रासद लेकिन काव्यात्मक उदाहरण है .

“जो भी था
जितना भी था
संसार सब
तुम्हारी आँखों में था
…………………..
तुमने कहा सूरज
तुमने कहा चाँद
मैंने देखा चाँद
जो भी कहीं था
तुम्हारे शब्दों से था
जो भी कहीं था
तुम्हारी उंगली पर टिका था.”

दुःखों और उदासियों के साथ ही गगन गिल की कविताओं में भारतीय चिंतन परम्परा की अनुगूँज, आत्मा की लय दिखाई देती है.

‘थोड़ी दूर’ शीर्षक कविता में यह लय सुनी जा सकती है यह ‘अँधेरे में बुद्ध’ की ही अनुगूँज है. इनकी कविताओं में बाहर की यात्राएँ उतनी दृश्य नहीं, जितनी कि भीतर की यात्रा है. बाहर की जिन यात्राओं के साक्ष्य मिलते हैं, वे उनके भीतर की बीहड़ता के ही ‘रिफ्लेक्शन’ हैं. लेकिन उनका भीतर किसी परमात्मा की खोज में लय नहीं बल्कि अपने ‘आत्म-पहचान’ की खोज/यात्रा है. जो बाहर की आरोपित पहचानों, दुनियाओं से जुदा है.

‘अंडे से निकलूं बाहर’ शीर्षक कविता इसकी गवाह है.
भीतर की यात्रा करने के कारण ही इनके कविता की प्रक्रिया बहुत धीमी है, यात्रा में ठहराव है .ये कहीं पहुँचने की बिना जल्दी किए ,ठहरकर दृश्यों को देखने ,उसे समझने में विश्वास रखती हैं-
“धीरे-धीरे दृश्य से
ओझल होता है
आदमी

पता भी नहीं चलता
कब दिन हुआ छोटा
लम्बी हुयी रात

फ़ैल गयी कब
मिट्टी में जड़
लिपट गयी
नागिन एक उससे
………………
अचानक नहीं बदलता कोई दृश्य
धीरे-धीरे होता है अदृश्य सब
दर्शक
अभिनेता
कथानक

पता भी नहीं चलता
कब चला गया एक आदमी
दूर
हर पुकार से ”
‘पिण्ड से पिण्ड मिलाया उसने’ शीर्षक कविता इसी अदृश्य की पहचान कराती है .
जिस तरह धीरे-धीरे बदलता है दृश्य, उसी तरह धीरे-धीरे कैनवास पर उतरती है कविता. इसलिए गगन गिल के दृश्य में नहीं, अदृश्य में घटित होती है कविता. वहीँ से, जहाँ अँधेरा है. जहाँ रहती है औरत. इनके पीढ़ी की स्त्री-कविता में इस अदृश्य का गाढ़ापन कम दृश्य का अधिक है –
“फैलना है बनकर
अँधेरे में जीवन”.
‘यही घूंट काफी है’, ’कोई रख रहा है पटरियां’ शीर्षक कविताएँ देखी जा सकती हैं.

“पटरियां ये अदृश्य
इन्हीं पर चलना है
जीवन भर तुम्हें .”
बाहर की इस क्रूर दुनिया में होते हुए भी कोई सचेत, संवेदनशील मनुष्य अधिक समय उस अन्दर की दुनिया में होता है. वहीँ वह जीवित रह सकता है. वहीँ से ग्रहण करता है प्राणवायु. गगन गिल अपने मन से वही अन्तःवासिनी हैं.
एक दिन में न यह दुनिया बनती है, न स्त्री. न ही धरती, न ही नक्षत्र ,न बनती है कविता. न दुःख पैदा होता है एक दिन में, न प्रेम पनपता है. सब कुछ के लिए बूंद-बूंद न्यौछावर करना पड़ता है खुद को. कभी किसी भाव को फ़ैलाने के लिए ,कभी किसी भाव को फैलने से रोकने के लिए. ये दोनों प्रक्रियाएं साथ चलती हैं धरती पर, स्त्री के भीतर और गगन गिल की कविता में भी .

“अँधेरे में बुद्ध” और “मैं जब तक आयी बहार” सग्रह के आधार पर कुछ बाते .

गगन गिल की कविताएँ

1-तुम सूई में से निकलती हो

तुम सूई में से निकलती हो
मैं धागे में से ,माँ

कभी सूई में से मैं
धागे में से तुम

कौन सी बखिया ,माँ
हम सिले जा रहीं
सदियों से

कौन सा टांका
पूरा होने में नहीं आता

कब उतरेंगे सितारे
मैली अपनी चादर पर

खिलेगा कोई फूल
अपनी इस फुलकारी पर

कब ओढ़ेगीं
हम चाँद और पंछी

खेलेंगी कब
लुकन-छिपाई
बीत गए दिन ,माँ
बीत गए बरस सब

न ख़त्म होने को ये तुरपाई माँ
न धागा
न कहीं छोर इस चादर का

इतनी लम्बी ये सूई
कभी उंगली में तुम्हारी
कभी नाख़ून में मेरे

छेद में से तुम निकलती हो
जैसे ईश्वर के द्वार से

तुम्हारे पीछे-पीछे मैं
तुम्हारा चिथड़ा

2-कुछ देर बुझ जाऊँ, माँ

कुछ देर बुझ जाऊँ,माँ?
फिर साफ़ दिखे
चाँद और रात

साफ़ दिखे
तारे आसमान में
आकाश गंगाएँ
जाती हुई माँएँ

किसी ओट हो जाऊँ
कुछ देर, माँ?

थम जाय भीतर
दरकती हुई धरती

चल पड़े रुका
आकाश में पंछी

जान ले शिशु
बैठा बीच सड़क
यह भूख है, यह दुनिया
यह थन
यह मरी हुई माँ

कुछ देर सरक जाऊँ
अंधेरे में
बड़ी हो लूँ थोड़ा
भट्ठ के भीतर?

कोशिश कर देखूँ
बन जाय कहीं जो
मज़बूत एक गागर?

रख लूँ एक बात
बिन छलकाए
अपने भीतर
न कही तुमने जो कभी
न मैंने

देख लूँ
पार होती है कि नहीं
तिड़कन यह
गहरी खड्ड जैसे
कुछ देर बुझ जाऊँ, माँ?

3 –एक पल में होना था

अचानक ख़त्म हो गये सब काम
रुकी रह गयी
हवा में साँस

न कहीं जाने को जगह
न पहुँचने को
न बची चिंता
न कोई
प्रार्थना

पहले अन्न हुआ अस्वीकार
फिर फल
दूध सब

कम हुए घंटे
घट और पल
लंगडी हुयी घडी
फिर लूली

काला हुआ चाँद
खिड़की के बहार
वनस्पतियाँ काली
दिन काला

डोर काट अकेली
उड़ी तुम गगन में
डूबी एक किस्ती गड़गड़ सीने में

उजली तुम्हारी साँस
आखिर तक दलदल में

होंठों पर नाम प्रार्थना का
आकाश से
बरसा एक कोड़ा

मैं डरी
हम डरे

जा दुबके भीतर
तुम्हारे मृत गर्भ में
क पल में होना था
एक पल में हुआ

अन्य यह संसार

4-जो भी था

जो भी था
जितना भी था
संसार सब
तुम्हारी आँखों में था
पहले चिड़िया उड़ी
फिर काग

फिर आये सरपट घोड़े
मेरी हथेली पर
दौड़ते बगल तक
गुदगुद गुदगुद
वहीँ उन्हें देखा
अनदिख
पहली बार
हवा में
वही था संसार सब

न गड्ढे दिखे
न खाई, माँ

न राक्षस
न चुड़ैल

तुमने कहा ,सूरज
मैंने माना सूरज
तुमने कहा, चाँद
मैंने देखा ,चाँद

जो भी कहीं था
तुम्हारे शब्द से था
जो भी कहीं था
तुम्हारी उंगली पर टिका था

पृथ्वी के समस्त फूल
पक्षी ,चीटियाँ
सब टिके थे तुम्हारी उंगली पर
तुम्हारे शब्दों के बाहर
कहीं कुछ न था

इसी में क्यों झड़ना था ,माँ
हमें किसी सूने काले दिन

लौटना था वापस
आकाश में
मिट्टी में

जाना था अकेले -अकेले
नदी के जल
मछलियों की कुतरन में

संसार
जिसके बारे में
चेताते रहे धर्मग्रन्थ

जिसे हमें छोड़ना था
एक दिन

बना था वह
पांच भूतों से नहीं
तुम्हारे शब्द से केवल

ढह गया
उसी में ,माँ

5- धीरे-धीरे दृश्य से

धीरे-धीरे से दृश्य से
ओझल होता है
आदमी

पता भी नहीं चलता
कब दिन हुआ छोटा
लम्बी हुयी रात

फ़ैल गयी कब
मिट्टी में जड़
लिपट गयी
एक नागिन उससे

चला गया कब एक आदमी
हवा में टंगी रस्सी पर
बांस से चढ़ ऊपर

फिर वही
बैठ गया उतरकर
ख़ाली दीर्घा में
इस खेल में उसकी
असल है छाया
कि काया
कुछ पता नहीं चलता

कभी हंसी ,कभी रुदन
कभी झगड़े ,कभी बहस
शुरू से अंत तक
एक ही संवाद

झोल नहीं कहीं भी

एक आदमी जाता हुआ रस्सी पर
इधर -से -उधर
अपने एकांत में

पता भी नहीं चलता

पीली कब पड़ गयी
एक पत्ती

हँस पड़ा दूर कब
अँधेरे में फूल

चीख पड़ी चिड़िया
कब अपनी नींद में

अचानक नहीं बदलता कोई दृश्य

धीरे-धीरे होता है अदृश्य सब
दर्शक
अभिनेता
कथानक

पता भी नहीं चलता
कब चला गया एक आदमी
दूर
हर पुकार से

6-कोई बना रहा है पटरियाँ

कोई बना रहा है तुम्हारी प्रतिमा
खींच रहा है रेखाएं
पीड़ा की
तुम्हारे मांस में

थपथपा रहा है
गीली मिट्टी
तुम्हारे चहरे पर

पटरियां ये अदृश्य
इन्हीं पर चलना है
जीवन भर तुम्हें

मत करो गीला
इस मिट्टी को
ऱोज-ऱोज लौटते
किसी बादल से

कोई उकेर रहा है तुम्हारी हड्डी
लिख रहा है अपनी लिपि
तुम्हारे माथे पर
दर्ज कर रहा है
तुम्हारा खाता
सफ़ेद स्याह

बार- बार उछलो मत
वेदन से

हथौड़ी लग गयी जो
उसकी उँगली पर?

सुखा रहा है
तुम्हारी मिट्टी कोई
अन्दर से बाहर तक
धूप में
छाया में

सिर्फ़ उसी को पता है
कितनी गर्म होनी चाहिए
तुम्हारी भट्ठी

कितना वह तपाये तुम्हें
कितने समय तक
कि बर्तन से तुम्हारे फिर
न भाप रिसे
न जल

एक दिन
वह लिपि
निकलेगी
राख में से बाहर

अनजान कोई हाथ
समेटेगा तुम्हारी अस्थियाँ
देखेगा
वह लिखावट

मछलियाँ कुतरेंगी तुम्हें
सूरज चमकेगा
जल के ऊपर

अभी तुम
न ऊपर
न नीचे

सिहरो मत

करने दो उसे
अपना काम

देखने दो
मूरत कोई
अब भी
बनी कि नहीं

गुज़र जाने दो
मुख पर से अपने
काल का घोड़ा

हिलो मत
कोई रख रहा है
रेल की पटरियाँ
तुम्हारे चेहरे पर

7-दिन के दुख अलग थे

दिन के दुख अलग थे
रात के अलग
दिन में उन्हें
छिपाना पड़ता था
रात में उनसे छिपना

बाढ़ की तरह
अचानक आ जाते वे
पूनम हो या अमावस

उसके बाद सिर्फ़
एक ढेर कूड़े का
किनारे पर
अनलिखी मैली पर्ची
देहरी पर

उसी से पता चलता
आज आये थे वे

ख़ुशी होती
बच गये बाल-बाल आज

रातों के दुख मगर
अलग थे
बचना उनसे आसान न था

उन्हें सब पता था
भाग कर कहाँ जायेगा
जायेगा भी तो
यहीं मिलेगा
बिस्तर पर
सोया हुआ शिकार

न कहीं दलदल
न धंसती जाती कोई आवाज़
नींद में

पता भी न चलता
किसने खींच लिया पाताल में
सोया पैर

किसने सोख ली
सारी साँस

कौन कुचल गया
सोया हुआ दिल
दुख जो कोंचते थे
दिन में
वे रात में नहीं

जो रात को रुलाते
वे दिन में नहीं

इस तरह लगती थी घात
दिन रात
सीने पर

पिघलती थी शिला एक

ढीला होता था
जबड़ा
पीड़ा में अकड़ा

दिन गया नहीं
कि आ जाती थी रात
आ जाते थे
शिकारी

8-पिण्ड से पिण्ड मिलाया उसने

पिण्ड से पिण्ड मिलाया उसने
आ गए सब अदृश्य लोग
दोनों वंशों के
सात पीढ़ियाँ
चौदह पीढ़ियाँ
कुछ अभी तक भ्रूण थे
कुछ विक्षिप्त
आत्महंता कुछ
दुर्घटनाग्रस्त कुछ

कुछ शांत
कुछ अशांत

सब का हुआ स्मरण
सब से मिलाया उसने पिण्ड
अंत में आये
भीष्म पितामह
धीरे -धीरे
निर्वश

जाने कैसे कहा था धर्मराज ने
यह संसार केवल जीवितों का है

9-हमारे लिए नहीं होगा जल

हमारे लिए नहीं होगा
जल
दूसरे लोकों में
हम नहीं होंगे
किसी की प्रार्थना में

हमारे लिए नहीं होगा
लौटने का
कोई रास्ता
कोई नहीं दिखाएगा हमें
अपना दिया

एक बार की उड़ान बस
और जल जायेंगे
पंख सब

एक बार का चलना बस
और जल जायेंगे
पुल सब

आकाश में फूटतीं
पटाखों की लड़ियाँ

एक कोई नदी
तकती होगी
हमारी राह

उसमें भी नहीं होगा
हमारे लिए
जल

10- मैं जब तक आयी बाहर

मैं जब तक आयी बाहर
एकांत से अपने
बदल चूका था रंग दुनिया का

अर्थ भाषा का

मन्त्र और जप का
ध्यान और प्रार्थना का

कोई बंद कर गया
बाहर से
देवताओं की कोठरियां

अब वे खुलने में न आती थीं

ताले पड़े थे तमाम शहर के
दिलों पर
होंठों पर
आँखें ढक चुकी थीं
नामालूम झिल्लियों से
सुझाई कुछ न पड़ता था

मैं जब तक आयी बाहर
एकांत से अपने
रंग हो चूका था लाल
आसमान का

यह कोई युद्ध का मैदान था
चले जा रही थी
जिसमे मैं

लाल रोशनी में
शाम में

मैं इनती देर से आयी बाहर
योद्धा हो चुके थे
लड़ते-लड़ते
अदृश्य
शहीद

युद्ध भी हो चुका था
अदृश्य
हालाँकि
लड़ा जा रहा था
अब भी
सब ओर

कहाँ पड़ रहा था
मेरा पैर
चीख़ आती थी किधर से

पता कुछ चलता न था
मैं जब तक आयी बाहर
ख़ाली हो चुके थे मेरे हाथ
न कहीं पट्टी
न मरहम

सिर्फ़ एक मन्त्र मेरे पास था
वही अब तक याद था

किसी ने मुझे
वह न दिया था
मैंने ख़ुद ही
खोज निकाला था उसे
एक दिन
अपने कंठ की गूं-गूं में से

चाहिए थी बस मुझे
तिनका भर कुशा
जुड़े हुए मेरे हाथ
ध्यान
प्रार्थना

सर्वम शांति के लिए

मन्त्र का अर्थ मगर अब
वही न था
मंत्र किसी काम का न था

मैं जब तक आयी बाहर
एकांत से अपने

बदल चुका था मर्म
भाषा का .

(वरिष्ठ कवयित्री गगन गिल का जन्म नवम्बर 1959, नयी दिल्ली में हुआ. इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से ही अंग्रेजी साहित्य में एम.ए.किया. ये लंबे समय तक ‘वामा’ पत्रिका और ‘संडे ऑब्जर्वर’ में साहित्य का संपादन करती रहीं . संपादन के साथ अनुवाद में भी इनकी विशेष रुचि थी. हिंदी साहित्य में विशेष नाम होने से इनको विदेशों में भी बतौर कवि, वक्ता, फ़ेलो बुलाया जाता रहा. इनके प्रकाशित कविता संग्रह ‘यह आकांक्षा समय नहीं’, ‘अँधेरे में बुद्ध’, ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, ‘मैं जब तक आयी बाहर’आदि प्रमुख हैं.

टिप्पणीकार अनुपम सिंह का जन्म उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ.इन्होंने बी.ए.और एम.ए.इलाहाबाद विश्वद्यालय से हिंदी साहित्य में किया. इनका शोध कार्य दिल्ली विश्ववद्यालय से संपन्न हुआ.इनकी कविताएँ और टिप्पणियाँ हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और ब्लॉग जैस -आलोचना, कथा, शुक्रवार, आधी ज़मीन, जनमत, इंडियन लिटरेचर(अनूदित कविताएं ), आजकल, युद्धरत आम आदमी, बिजूका, स्त्रीकाल, समालोचन आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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