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बादलों में आकार की खोज: रमणिका गुप्ता की कविताई

बजरंग बिहारी तिवारी


नारीवादी आंदोलन का दूसरा दौर था. ‘कल्ट ऑफ़ डोमिस्टिसिटी’ को चुनौती दी जा चुकी थी. राजनीति में स्त्री की उपस्थिति को औचित्यपूर्ण, आवश्यक ठहराया जा चुका था.

स्त्री के मताधिकार के सवाल पर बहस अपनी तार्किक परिणति की ओर मुड़ चुकी थी. अब स्त्री-श्रम के शोषण का प्रश्न उठाया जा रहा था.

समान कार्य के लिए समान मजदूरी का नारा बुलंद हो चुका था. स्त्री के कानूनी अधिकारों पर ज़ोर दिया जा रहा था.

स्त्री को अधिकारसंपन्न बनाने के लिए नए कानून बनाए जाने की मांग की जा रही थी. सबसे बड़ा बदलाव मुक्ति की अवधारणा को लेकर आ रहा था.

स्त्री की मुक्ति सिर्फ जेंडर की लड़ाई तक सीमित रहकर नहीं हासिल की जा सकती. इस लड़ाई को क्लास और रेस की लड़ाई से जोड़ना होगा- फेमिनिस्ट विचारकों और एक्टिविस्टों ने इस नुक्ते को समझ लिया था.

कम्युनिस्ट इसे धीरे-धीरे समझ रहे थे. वे मान रहे थे कि वर्ग-युद्ध को पितृसत्ता तथा श्वेत-वर्चस्व के विरुद्ध चल रहे युद्ध में शामिल होकर ही सार्थक बनाया जा सकता है. इस तथ्य को स्वीकार कर चुके लोग ‘न्यू लेफ्ट’ का निर्माण कर चुके थे. ‘न्यू लेफ्ट’ का नारीवादियों तथा ब्लैक आंदोलनकारियों से गहरा संवाद और सहयोग था.

भारत में न्यू लेफ्ट ने आंबेडकरवादियों से नाता जोड़ा था. वाम आंदोलन से निर्मित नव वाम के प्रमुख हस्ताक्षरों में रमणिका गुप्ता का नाम प्रथम पंक्ति में है.

उनका लेखन फेमिनिस्ट मूवमेंट के ‘सेकंड वेव’ (1960-1980) से संदर्भित है. सेकंड वेव की एक्टिविस्ट-रचनाकारों में वर्चस्ववादियों को खिझाने वाली हरकतें खूब थीं.

1968 और 69 में अमरीका के अटलांटिक शहर में ‘मिस अमरीका’ सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन हुआ. इस जवाब में नारीवादियों ने भेड़ों को रैंप पर घुमाया. यह बुद्धिहीन सुंदरता की पितृसत्तात्मक माँग को दर्शाने वाला कृत्य था. जैसे भेड़ों पर नियंत्रण रखा जाता है वैसे ही पितृसत्ता स्त्रियों की बाड़ेबंदी करती है.

न्यू यार्क केन्द्रित नारीवादियों के रेडिकल समूह रेडस्टाकिंग्स ने अपनी उक्त समांतर सौंदर्य प्रतियोगिता में एक भेड़ को ‘मिस अमरीका’ चुना और उसे ताज पहनाया, फिर उस पर अपने तमाम सौंदर्य प्रसाधन (लिपस्टिक, ब्रा, ऊँची एंड़ी वाले सैंडल आदि) न्योछावर कर दिए.

रमणिका के एक्टिविज्म, लेखन और भाषण में कुछ इसी दौर वाला तेवर दिखाई देता है.

जब हिन्दुत्ववादियों ने अपनी ‘धार्मिक’ गतिविधियाँ तेज कीं तो रमणिका ने अपने चुटीले अंदाज़ में उनकी खूब खबर ली.

जब एक स्वघोषित दलित शास्ता ने स्त्रियों पर बेहद अपमानजनक भाषा में विमर्श छेड़ा तो उन्होंने बिना समय गंवाए मुंहतोड़ जवाब दिया.

उनकी तमाम सक्रियताएं परस्पर एक साझे मकसद से गुँथी हुई हैं. यह मकसद है न्याय का, मुक्ति का संधान. वर्चस्व को भेदने का उद्यम.

तमाम वंचित अस्मिताओं में एका स्थापित करने का यत्न ट्रेड यूनियन नेता के रूप में रमणिका ने तीन दशक झारखंड में कोयला खदान मजदूरों के बीच बिताए.

संपादक के रूप में उन्होंने ‘युद्धरत आम आदमी’ का बेमिसाल संपादन किया, एक से बढ़कर एक यादगार विशेषांक निकाले.

बतौर रचनाकार रमणिका जी ने कहानी, उपन्यास, आलोचना, निबंध, यात्रा वृत्तांत आदि विधाओं में दर्ज़न से अधिक किताबें प्रकाशित कराईं. मराठी, पंजाबी आदि भाषाओँ से महत्त्वपूर्ण कृतियों का अनुवाद किया.आदिवासी भाषाओँ और द्रविड़ भाषाओँ से प्रभूत मात्रा में अनुवाद कराए और उनके प्रकाशन की व्यवस्था की.

कवि के रूप में उनका योगदान सर्वाधिक रहा. हाल में प्रकाशित काव्य संग्रहों को मिलाकर अब तक उनके कुल 16 संग्रह छप चुके हैं. अप्रैल महीने में वे 90 वर्ष की हो जाएंगी

इस वय में भी उनकी योजनाधर्मिता, रचनाशीलता, प्रतिरोध चेतना मंद नहीं पड़ी है|
पिछले बरस प्रकाशित रमणिका के दो काव्य संग्रहों में से ‘कोयले की चिंगारी’ उनके खदान मजदूरों के साथ एक्टिविज्म से अर्जित अनुभवों और विचारों का काव्यात्मक लेखा-जोखा है.

इसमें वे कोयले की जुबान से उसकी कथा सुनाती हैं. 17 हिस्सों में आत्मालाप शैली में रचित ‘कोयला’ शीर्षक कविता मानव की लोभ वृत्ति का आख्यान है तो प्रकृति की ख़ूबसूरती का रूपायन भी है.

इस रूपायन पर पूँजीवादी शोषण की छाया है. मजदूरों की जिंदगी की उतार-चढ़ाव भरी अंतरंग छवियाँ हैं और, अंत में ‘ब्लैक’ की महिमा का गायन है-
कभी काले की औकात को
आँका नहीं जमाने ने
पहचाना नहीं मोल इसकी ताकत का|
उसके भीतर छिपी आग
जब उसकी आँखों से फूटती है
तो मंडेला पैदा करती है
जो अँधेरों को मिटाने की
शक्ति रखता है
अन्याय को भस्म करने की
कुव्वत है जिसके पास|
मजदूरों के अतिरिक्त व्यवस्था की चक्की में पिसते अन्य सामजिक तबकों की बदहाली के चित्र भी कवि ने खींचे हैं.

होमगार्ड्स, गिरवी रखे बच्चे, आदिवासी, पिछड़े आदि की वेदना भी इस संग्रह की कविताओं में दर्ज हैं.

अभिव्यक्ति पर संकट, अवैज्ञानिक सोच, धर्म और ईश्वर का आतंक संग्रह के अन्य सरोकार हैं. एक कविता में हिंसक होते ‘धर्मप्राण’ भारत का यह दृश्य है. कविता 1965 के आसपास की है-
भारत दरिंदा बन गया है
राम की तरह छल में दक्ष हो
कर रहा है बालि का वध
वनमानुष बन गया है भारत
चूँकि आसान है वनमानुष बनना
बिना मेहनत जीना|
परंपरा में कवियों का विभाजन करते हुए आचार्य-कवि/शास्त्र-कवि और काव्य-कवि जैसी श्रेणियाँ बनाई गई थीं.

प्रगतिवादी आंदोलन ने एक नई श्रेणी जोड़ी- कार्यकर्ता-कवि/एक्टिविस्ट-पोएट रमणिका इसी श्रेणी की कवि कही जाएंगी, लेकिन उन्हें इस श्रेणी तक सीमित करके देखना उनके कवि के साथ नाइंसाफी है वे एकल रंगत की कवि नहीं हैं.

‘कोयले की चिंगारी’ में अगर उनका कार्यकर्ता-कवि वाला रूप प्रबल है तो उसी के साथ प्रकाशित दूसरे काव्य-संग्रह ‘मैं हवा को पढ़ना चाहती हूँ’ में वे ‘काव्य-कवि’ की भूमिका में हैं. इस संग्रह की कविताओं में समय, गति, स्थान और मृत्यु से सघन संवाद है. वायु-तत्व इस चारों में परिव्याप्त है इसलिए वह संवाद का माध्यम है. आकारों, सरहदों के परे जाकर निस्सीमता का अहसास हवा से मुख़ातिब होने पर होता है-
मैंने समय से कहा
जरा रुको
मैं हवा हो पढ़ना चाहती हूँ
समय मुस्कुराया
हवा ने सवाल किया-
“क्या पढ़ना चाहती हो?
मेरी न तो जमीं है न आकाश
न आदि न अंत
मेरे पास है
मेरे होने का अहसास”
व्यापक समाज में रमणिका की पहचान या तो प्रखर वक्ता/कार्यकर्ता की है या फिर संपादक की.

‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के साथ उन्होंने करीब बीस ग्रंथों का संपादन किया है. लेकिन, मुझे लगता है कि उनकी आत्म-छवि कवि की ही है.

प्रकट सामाजिक-राजनीतिक आशयों वाली कविताएँ लिखने के कारण उनके कवि को अभी तक गंभीरता से नहीं लिया गया है. प्रचलित अर्थों में किसी कवि को गंभीरता से तब लिया जाता है जब उसकी कहन शैली विलक्षण हो, उसकी पर्यवेक्षण-क्षमता असाधारण हो और उसमें पूर्ववर्ती काव्य-परंपरा की अनुगूँज हो.

उम्मीद है कि काव्यालोचक इस दृष्टि से उनकी कविताओं का मूल्यांकन करेंगे. प्रकृति के प्रति गहरा अनुराग रमणिका के यहाँ मिलता है. सूरज, बादल, धरती, पहाड़ और पानी के तमाम शेड्स उनकी कविताओं को विशिष्ट बनाते हैं.

उनकी एक कविता ‘सूरज और समय’ में सूर्य शिशु-सा उचक-उचक देखता है. धरती की गोद से टुकुर-टुकुर ताकता है. कवि की परछाई दोपहर सूरज के पाँव में पड़ी होती है. सुबह बड़ी बनकर सूरज के पीछे खड़ी हो जाती है. “और साँझ में/ डूब-डूब उतरने की चाह लिए/ उतर जाते हो तुम/ हमारी आँखों में निःसंकोच/ …शर्मा उठती है धरती/ …तब हमारी परछाई तुमसे आगे बढ़ जाती है|” इसी तरह एक कविता है ‘अवसान सूरज का’ कवि पहले सूर्यास्त के विभिन्न नामों का स्मरण कराती है| अंग्रेजी, तत्सम और बोली में इसे क्रमशः ‘सनसेट’, ‘अवसान’ और ‘डूबना’ कहते हैं| इसके बाद,
“अर्थ एक ही है
फिर
अवसान देखने को ही क्यों होते हैं हम
इतने आतुर?
इतने लालायित?
क्या मृत्यु इतनी खूबसूरत
और
मृत्यु-क्षण इतना सुंदर है?”
कविता पर विचार करते-करते हमें पूर्ववर्ती कवियों की अनुगूँज सुनाई देने लगती है. खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्यकार हरिऔध के यहाँ ‘दिवस का अवसान समीप’ आता है तो निराला की ‘संध्यासुंदरी’ ‘दिवसावसान’ के समय ‘मेघमय आसमान’ से परी की तरह उतरती है. भारत यायावर ने उनके संग्रह की भूमिका लिखते हुए ‘मनि मानिक मुक्ता छबि जैसी’ को यूं ही नहीं उद्धृत किया है!

रमणिका गुप्ता की कविताएँ

1.प्रतिरोध

हमने तो कलियाँ माँगी ही नहीं
काँटे ही माँगे
पर वो भी नहीं मिले
यह न मिलने का एहसास
जब सालता है
तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाता है मन—
भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर

हमने कभी वट-वृक्ष की फुनगी पर बैठकर
इतराने की कोशिश नहीं की

हमने तो उसके जड़ों के गिर्द जमे रहकर
शान्ति से
समय की शताब्दी काट लेने की चाह
पाली थी सदा
पर
निरन्तर बौछारों ने यह भी न माना
बार-बार हमारे जमे रहने की चाह को
ठुकराती रहीं
धकेल-धकेल कर—
बहाती रहीं धार में / साल-दर-साल
ठोकरें खाने के लिए
टिकने नहीं दिया हमें
किसी भी पेड़ की जड़ के पास

यह न टिक पाने का एहसास
जब सालता है तो
बौछार से अधिक ज़ोरदार
धक्का मारता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाते
सब मिट्टी के कण
जड़ों को उखाड़ देते हैं हम—
नंगे हो जाते हैं वन
और
चल देते हैं नये ठौर खोजने— हम
गिर जाते हैं
तब
बड़े-बड़े वट-वृक्ष भी
क्या बिगाड़ लेंगी बौछारें हमारा?
हम ठेंगा दिखाते चले जाते हैं—
हम तो आदी हैं न
बहने के
हर रोज़ ठौर बदलने के!
हमने तो नहीं कहा कभी
कि तर्क-हीन बात मान लो हमारी
जब तुम तर्क-संगत बात सुनने को भी
तैयार नहीं होते तो
यह न सुने जाने का—न पहचाने जाने का—एहसास
हमें मनुष्य माने जाने से भी इनकार—
जब सालता है— तो तर्क से अधिक धारदार बनकर
काटता है
तब—
प्रतिरोध में उठ जाता है
समूह बनकर जन

तब तुम—
तर्क-हीन शर्त मानने पर भी
तैयार हो जाते हो
हमें क्या?
हम तो—
जीवन-भर तर्क-इतर जीने के आदी हैं
तर्क-तर जीने की बात कब की थी कभी हमने?
अब तो तुम अपनी सोचो— अपनी?

2.रात एक युकलिप्टस

आदमी और पशु से पहले
पेड़ होते थे
शायद उसी युग का पेड़
एक युकलिप्ट्स
रात मुझसे मिलने आया
अपनी बांहों की टहनियों से
अपनी उंगलियों के पत्तों से
वह
रात भर मुझे सहलाता रहा
उसकी
सफेदी ने मुझे चूमा
और उसकी जड़ें
मेरी कोख में उग आईं
और मैं भी एक पेड़ बन गई

धरती के नीचे नीचे
अपने ही अंदर-अंदर

रात मैं एक घाटी बन गयी
जिसमें युकलिप्ट्स की सफेदी
कतार-बद्ध खड़ी थी
अपनी हरियाली से ढंके
अपनी जड़ों से मुझे थामे
झूम रही थी
और पृथ्वी और पेड़ों के
संभोग की कहानी सुना कर
मुझे सृष्टि के रहस्य
बता रही थी

बता रही थी
पृथ्वी ने आकाश को नकार कर
पेड़ों को कैसे और क्यों वरा
बता रही थी
गगन-बिहारी और पृथ्वी-चारी का भेद

क्यों पृथ्वी ने कोख़ का सारा खजाना
लुटा दिया पेड़ों को?
बनस्पतियों को क्यों दिया
सारा सान्निध्य और
कोमलता
रंग
ठण्डक
हरियाली…?
आकाश को दी केवल दूरी
मृगतृष्णा
चमक?
चहक लेकिन पेड़ों को ही दी…?

बता दी उसने पेड़ के समर्पण की गाथा
जो टूट गया
सूख गया
जल गया
पृथ्वी की धूल में मिल गया
पत्थर-कोयला-हीरा
बन गया
पर उसकी कोख़ से हटा नहीं
उसी में रहा
हवा में उड़ा नहीं

पृथ्वी का पुत्र और पति
दोनों रहा
पृथ्वी-जाया और पृथ्वी जयी
दोनों बना!

3.तुमने अपनी ईज़ल समेट ली

तुमने एक सपना रचाया था
सजाया था उसके गिर्द
तुमने कल्पनाएं रचीं थीं
प्यारी-प्यारी बातें गढ़ीं थीं
पौराणिक कथाओं से बिम्ब
परियों से शब्द
पंखों से रंग
पत्थरों से आकार लेकर
तुमने एक चित्र रचा था
बुत गढ़ा था
तुम्हीं चितेरे तुम्हीं छेनी
और उस पर तुम अपने ही सपनों का अपना ही
चित्र आंक रहे थे
अपनी ही मूर्ति गढ़ रहे थे
‘उसका’ नाम धर कर…
चित्र पूरा हुआ
मूर्ति खड़ी हो गई
तुम्हारी उम्मीद के विरुद्ध
वह उस पर उकिर आई
तुम्हारी समझ और सहन दोनों के बाहर

तुम अपने को देखने के अभ्यस्त
उसकी पुतलियों में अपनी नजरें खोज रहे थे
तुम अपनी मुस्कान पर मोहित
उसके होठों में खोज रहे थे अपनी हंसी
तुम अपना चेहरा देखने को बेकल
उसके मुंह पर टटोल रहे थे अपनी छवि
तुमने सपने गढ़े थे अपने
पर तुम्हारी कूचियों से वह उकिर आई
तुम्हारी कल्पना की उड़ान में
तुम्हारे पंखों पर वह कहीं लदक गई

तुम्हारी बातें तोता-मैना की कथा-सी
रोज एक ही इबारत दोहरातीं
जीवन की कथा के बाहर की चर्चा-सी
तुम्हारे शब्द परियों से पारदर्शी
पारे से तरल
ठोस मिट्टी के रंगों की पकड़ से बाहर
पहचान से दूर
पौराणिक कथाओं के बिम्ब से
महलों के खण्डहरों में भटकते समय के अभिलेख थे
जो वर्तमान को नहीं ढंक पा रहे थे
वर्तमान को ढंकने के लिए
चाहिए-ताजा रंग
जो खून से ही मिल सकता है
मुर्दा यादों पर ही-तस्वीरें रचने में पटु
मूर्ति गढ़ने में माहिर
यादों को ढोने के आदी
अपनी सूरत न देखकर घबरा उठे तुम…

तुमने भरा जो प्याला
उसके मुंह पर दे मारा था
रंगीला था कोमल था
तुमने जो छेनी फेंकी थी ना

तेज़ थी नुकीली थी छोटी थी नाजुक थी
पर चोट करने में घातक थी
तस्वीर हिल गई इस बार
रेखाएं हट गईं
घूम गईं
तुम जिधर कूची फेंकते रंग भरी लकीरें सरक जातीं
तुम रंग उड़ेलते खीझ कर
तो लकीरेंं धब्बों के नीचे चू जातीं
देह का कोई ना कोई कोना उघरा ही रह जाता
मिट नहीं पाता
ऊब कर तुमने कैन्वस ही फाड़ डाली
यह कह कर कूची तोड़ डाली
‘यह तस्वीर तो केवल अपने ही रूप से प्यार करती है
आप हुदरी कैन्वस पर मनमानी उभर आती है’
तोड़ डाली छेनी यह कह कर
‘यह मूरत तो अपना ही रूप गढ़ती है
बोलती है डोलती है
और सपनों में सशरीर जागती है
चलती है जड़ नहीं
मिट्टी का लोंदा नहीं
कि जैसे चाहों ढाल लो!’ और
तुमने अपनी ईज़ल समेट ली

तुमने एक-एक कर चित्र के अंग-भंग करना शुरू किया
सबसे पहले तुमने उसके पांव मिटाए
उसकी गति जकड़ी
एक बड़ा धब्बा घृणा का उसकी जांघों पर पोत दिया
कूची से मथ दी उसकी कोख़
उसके दूध में घोल दी स्याही
फिर एक-एक कर
उसके होंठ आंखें पुतलियां पलकें

केश कान माथा भवें
गोया कि पूरे चेहरे पर
कूची फेर छेनी से गोदने लगे चेहरा
अपनी पुरानी आदत के अनुसार

गढ़ना-तोड़ना
खेलना-मिटाना तुम्हारी आदत है
वह ही पागल थी जो तस्वीर अंकवाने
मूरत गढ़वाने
बैठ गई तुम्हारे सामने नंगी होकर
अपना रूप

इस बार तस्वीर की रेखाएं
मूर्ति की भंगिमाएं जिंदा हो गईं
उनकी आत्मा डोल गई
फितरत कांप गई प्रतिकार में
और तुमने अपनी हथौड़ी-छेनी बांध ली

तुम उसे वह तुम्हें
अपने आप को प्यार करने का दोष मढ़ते रहे
तुम्हारे रंग चुक गए
उसकी लकीरें फीकी पड़ने लगीं
आकृतियां भड़कने लगीं
परिवेश बदल गए…!

4.यादें

यादों की किनारी
दिन के चूल पर
रोशनी का जाल बिन देती है
ढंक जाती है रात की कालिख।

5.मेरी खोज

मैं बादलों में आकार खोजती हूँ
खण्डहरों में आगार खोजती हूँ
पत्थरों में प्यार खोजती हूँ
लकीरों में भाग्य, सितारों में मंजिल
अंधेरों में राह खोजती हूँ
मैं पत्थरों में प्यार खोजती हूँ
किनारों में धार, लहरों में पार
बालू में चाह खोजती हूँ
पत्थरों में प्यार खोजती हूँ।

6.

(i) ‘जरा कलम देना’

मैंने समय से कहा-

‘मैं हवा को लिखना चाहती हूं’

कि धीरे से मेरी तरफ

एक सरकंडा सरक आया

मैंने भागती हवा से कहा –

पकड़ो यह सरकंडा और लिखो

हवा- जो रेगिस्तान के टीले को उठाकर

एक जगह से रख देती है दूसरी जगह

ने लिखा –

‘ऊजड़ने का अर्थ’

 

(ii) ‘तनि  किताब देना,

मैंने समय से कहा-

‘ मैं हवा को पढ़ना चाहती हूं’

कि धीरे से मेरी तरफ

एक बंजर मरुस्थल खिसक आया

मैंने घिरनी सी चक्कर खाती हवा से कहा

‘लो यह किताब और पढ़ो’

हवा ने जो उलटने पलटने में माहिर

सरसरा कर पलट दिए किताब के बरक

और सनसनाती आवाज में पढ़ दिया

‘ बंजर होने का अर्थ’-

और उड़ा ले गई बालू का टीला

अपने संग

 

(iii) ‘तनि दिशा देना’

मैंने समय से कहा –

‘मैं हवा का रुख मोड़ ना चाहती हूं’

कि धीरे से उसने मेरी तरफ

झुका झुका क्षितिज घुमा दिया

और बोला –

‘लो मोड़ो’!

हवा

जो मुड़ने की अभ्यस्त

घूम गई बवंडर सी

और आँधी बनकर जा घुसी

आकाश की आंख में

धुंधला गई दिशाएं

और मैं रास्ता भूल गई !

 

(iv) मैंने उड़ती हुई हवा से कहा –

तनि  रुको और सुनो

अपने प्राणों में बंधी घंटियों की ध्वनि

जो पैदा करती हैं हर झोंके के साथ

एक नया गीत जिंदगी का

रुकोकि  अभी शेष है जिंदगी की

जिजीविषा प्राण और सांस

शेष है धरती आकाश और क्षितिज

और हवा लौट आई

श्वास  बनकर

और धड़कने लगी

मेरे दिल में

 

(v) मैंने इधर

पढ़ ली है हवा की फितरत

बहना और बहाना

उड़ना बस उड़ना

कहीं ना टिकना

है उसकी आदत

और मैं भी बहने लगी

उड़ने लगी

 

(vi) मैंने सरकंडे की कलम बनाई

मरुथल की किताब का बरक खोला

क्षितिज का रुख अपनी तरफ मोड़ा

और चल दी सूरज के रास्ते

समय मेरे संग चल रहा था !

(कवयित्री  रमणिका गुप्ता का जन्म 24 अप्रैल 1930सुनाम, पंजाब में हुआ था। मुख्य कृतियाँ 16 कविता-संग्रह, 2 उपन्यास, 1 कहानी-संग्रह, दो आत्मकथाएं। इसके अतिरिक्त विभिन्न-पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित।
समाजसेवा एवं ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका की संपादक।टिप्पणीकार बजरंग बिहारी तिवारी जी अस्मिता विमर्श और आलोचना के क्षेत्र का चर्चित और स्थापित नाम हैं और समकालीन जनमत के नियमित लेखक भी हैं.)

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