अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जसम द्वारा ‘जश्न-ए-फ़ैज़ ‘का आयोजन 

अम्बरीन आफ़ताब

अलीगढ (उत्तर प्रदेश) . जन संस्कृति मंच की अलीगढ़ इकाई ने 14 फरवरी को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एन आर एस सी क्लब में महान शायर फ़ैज़ के जन्मदिन के उपलक्ष्य में ‘जश्न-ए-फ़ैज़’ कार्यक्रम का आयोजन किया। कार्यक्रम दो सत्रों में संपन्न हुआ।

प्रथम सत्र में फ़ैज़ के रचना-कर्म को केंद्र में रखकर संगोष्ठी आयोजित की गई जिसका विषय था- ‘प्रतिरोध की कविता और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. अक़ील अहमद ने की तथा वक्ता के रूप में डॉ.प्रणय कृष्ण, श्री रामजी राय, अरुण आदित्य, डा.अली जावेद आदि ने अपने विचार रखे। वहीं दूसरे सत्र में, सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत डा. हरिओम ने फ़ैज़ के ग़ज़लों को मनमोहक ढ़ंग से प्रस्तुत किया।इससे पूर्व, प्रो.कमलानंद झा ने सभी अतिथियों का स्वागत किया।
संगोष्ठी में बतौर वक्ता अपने विचार रखते हुए अमर उजाला के संपादक एवं कवि अरुण आदित्य ने कहा कि फ़ैज़ का नाम सुनते ही घने काले बादलों के बीच चमकने वाली उस बिजली की याद आती है, जो ज़रा प्रेम से चमकती है तो अंधेरी रात को भी पल-भर के लिए ही सही जगमग कर देती है; लेकिन यही बिजली जब जुर्म के महलों पर गिरती है तो उन्हें नेस्तनाबूद कर देने का हौसला रखती है। फ़ैज़ की शायरी में प्रेम और प्रतिरोध को एक ही सिक्के के दो पहलू बताते हुए उन्होंने कहा कि रूमानियत ही वह शै है जो फ़ैज़ को प्रतिरोध की ताक़त देती है। इसी कारण, फ़ैज़ कठिन से कठिन समय में भी उम्मीद को मरने नहीं देते हैं।
जसम के पूर्व महासचिव तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आए प्रणय कृष्ण ने फ़ैज़ की शायरी को पारंपरिक ग़ज़ल से भिन्न बताते हुए कहा कि फ़ैज़ ने प्रेम की शायरी में भी एक डेमोक्रेसी लाने की कोशिश की। उनकी पूरी शायरी लोकतांत्रिक भावनाओं (democratic sentiments) की मिसाल है। फ़ैज़ ने ग़ज़लों को जनसामान्य से संवाद के माध्यम के तौर पर देखा। हिन्दी ग़ज़लों में प्रतिरोध के संस्कारों को रोपने का श्रेय फ़ैज़, अली सरदार जाफरी आदि को जाता है।

प्रणय कृष्ण ने फ़ैज़ को ‘आशा भरे अवसाद के कवि ‘ की संज्ञा देते हुए उन्हें समस्त भारतीय उपमहाद्वीप का शायर कहा। फ़ैज़ की रचनाओं में गहन उदासी के कारणों पर चर्चा करते हुए उन्होंने साम्राज्यवादी शक्तियों की स्वार्थपरक नीतियों पर प्रकाश डाला।
समकालीन जनमत के संपादक और मार्क्सवादी आलोचक श्री रामजी राय ने फ़ैज़ की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए कहा कि फ़ैज़ के पास संसार को सहज, सजग दृष्टि से देखने, पहचानने और उसे स्वयं में आत्मसात करने की अद्भुत शक्ति है जो उन्हें झंझावतों में भी टिकाए रखती है। फ़ैज़ का बहुआयामी व्यक्तित्व निरंतर संघर्षरत रहते हुए सुदूर कोनों से भी उम्मीद की किरणें ढ़ूंढ़ लेता है।फ़ैज़ की शायरी में तीव्र ललकार या हाहाकार नहीं है बल्कि उनका स्वर मद्धम होकर भी सशक्त है। उनकी शायरी में आवेश, बनावट के स्थान पर सहजता है। फ़ैज़ के व्यक्तित्व निर्माण में न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम बल्कि समूचे विश्व के जन-आंदोलनों ने योग दिया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय से आए एसोसिएट प्रोफेसर अली जावेद ने कविता में प्रतिरोध के स्वर पर विचार करते हुए सांझी विरासत को साहित्य के माध्यम से सहेजने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि फ़ैज़ देश,भाषा आदि की सीमाओं से परे एक यूनिवर्सल शायर हैं जो विश्व-बंधुत्व और वसुधैव कुटुंबकम की बात करते हैं। फ़ैज़ की शायरी में अगर नरम लहजा और रूमानी तेवर है तो ज़रूरत पड़ने पर घनघोर गर्जन भी है।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए उर्दू साहित्य के विद्वान प्रो.अक़ील अहमद ने कहा कि फ़ैज़ बहुत ज्यादा आसान शायर नहीं है जैसा कि समझा जाता है। फ़ैज़ की प्रगतिशील चेतना पर विचार करते हुए प्रो. अहमद ने फ़ैज़ की काव्य-यात्रा में समय के साथ आए उतार-चढ़ावों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उनके अनुसार, फ़ैज़ की शायरी बौद्धिक न होकर भावनात्मक है। प्रतिरोध की रचना की पहली शर्त प्रेम है, इसीलिए फ़ैज़ की शायरी में प्रतिरोध के साथ-साथ प्रेम है। इस तरह, फ़ैज़ की शायरी सब्लिमेटेड रियलिज़्म है।

दूसरे सत्र में, प्रशासनिक अधिकारी, प्रसिद्ध शायर तथा ग़ज़ल-गायक डा. हरिओम ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। लखनऊ से आए डा.हरिओम ने अपनी मनमोहक आवाज़ में फ़ैज़ के मशहूर ग़ज़लों को सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनकी स्वरचित ग़ज़ल “सिकंदर हूँ मगर हारा हुआ हूँ” की सभी ने मुक्त कंठ से सराहना की।
कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन डा.सिराजुद्दीन अजमली ने किया, वहीं डा.दीपशिखा सिंह ने कार्यक्रम का संयोजन किया। कार्यक्रम में शहर के गणमान्य अतिथि, जसम की आगरा-अलीगढ़ इकाई के सदस्यों सहित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के शिक्षकों के साथ-साथ बड़ी संख्या में शोधार्थी एवं विद्यार्थी भी उपस्थित रहे।

 

( अम्बरीन आफ़ताब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोध समिति के सह-सचिव हैं )