अनिल सिन्हा की सातवीं पुण्यतिथि पर जन संस्कृति मंच ने लखनऊ में आयोजित किया कार्यक्रम
लखनऊ. जाने-माने पत्रकार अनिल सिन्हा जनवादी और प्रगतिशील व्यक्तित्व के रचनाकार रहे हैं। उन्होंने अपने को डी क्लास करते हुए जिस तरह सहज-सरल व्यक्ति के रूप में अपने को ढ़ाला वह सबके लिए अनुकरणीय है।
यह बात वामपंथी चिन्तक सी बी सिंह ने 25 फरवरी को अनिल सिन्हा की सातवीं पुण्यतिथि पर जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कही।
कार्यक्रम दो सत्रों में बंटा था। पहला सत्र अनिल सिन्हा के जीवन और सृजनात्मक कर्म पर विचार का था। इसकी शुरुआत भगवान स्वरूप कटियार की कविता ‘उद्बोधन’ के पाठ से हुई जिसमें अनिल सिन्हा के विचारों को कविता में ढ़ालते हुए कुछ यूं व्यक्त किया गया ‘मेरे दोस्त ही मेरी ताकत रहे हैं/मैं हमेशा कहता रहा हूं/कि दोस्ती से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता/और न ही होता है/दोस्ती से बड़ा कोई धर्म।’
अनिल सिन्हा के साथ की यादों को साझा करते हुए कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि मेरे जन संस्कृति मंच के साथ जुड़ने में उनकी प्रेरणा रही है। उन्हीं दिनों मेरा कविता संग्रह आया। लखनऊ में उसके विमोचन की रूपरेखा उन्होंने ही तैयार की। पर यह कार्यक्रम उनके जीते जी नहीं हो सका। जब हुआ तब वे नहीं थे। इसने मुझे बहुत असहज बनाया। वे समर्पित मार्क्सवादी लेखक थे। उनसे बड़ी उम्मीदें थी। उनका असमय जाना सांसकृतिक आंदोलन के लिए बड़ी क्षति है।
नाटककार राजेश कुमार का कहना था कि अनिल सिन्हा से सम्पर्क तो बहुत पुराना था लेकिन 2006 के बाद यह सम्पर्क काफी जीवन्त हो गया। मैंने महसूस किया कि वे अपनी समस्याओं को पीते हुए काम में यकीन करते थे। उन्होंने कई विधाओं में काम किया। अपनी रचनाओं की व्यवस्थित के प्रति काफी सजग रहते थे। उनके लेखन का बड़ा हिस्सा आज भी अप्रकाशित है, उसे सामने लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
के के शुक्ला ने 1980 के दशक के आंदोलन के दिनों को याद करते हुए कहा कि वे मात्र लेखक ही नहीं आंदोलनकर्मी भी थे। इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ जो आंदोलन था, उससे वे जुड़े थे। विमल किशोर का कहना था कि उनका साथीपन ऐसा था कि अपनी बीमारी की परवाह किये बिना यदि किसी मित्र की समस्या का पता चलता तो वे उससे मिलने जरूर जाते। उनकी सरलता प्रभावित करने वाली थी। हमें इस पर जरूर विचार करना चाहिए कि उनकी बिखरी रचनाएं छपकर आ जाये। इंदू पांडेय ने भी उन्हें अपना श्रद्धा सुमन अर्पित किया।
कार्यक्रम के आरम्भ में जसम के प्रदेश अध्यक्ष (का) कौशल किशोर ने कहा कि विचारहीनता के इस दौर में जहाँ तमाम वामपंथी लेखकों व साथियों का मार्क्सवाद व वामपंथ पर से विश्वास डगमगा रहा है, उन्हें मौजूदा धक्के में सबकुछ खत्म होता या डूबता.सा नजर आ रहा है तथा हताशा.निराशा के शिकार हैं, वहीं अनिल सिन्हा के लिए एकमात्र उम्मीद मार्क्सवाद और रेडिकल वामपंथ ही था। बेशक वामपंथ में आ रहे झोल, ढ़ीलाढालापन, समझौतापरस्ती व अवसरवाद उन्हें स्वीकार नहीं था और इन प्रवृतियों की आलोचना करने से वे कभी नहीं चूकते थे।अनिल सिन्हा बाहर से जरूर शान्त से दिखते थे लेकिन उनके भीतर कितनी आग धधक रही है, इसका दर्शन उनके विचारों से रुबरु होने पर मिलता है। प्रतिरोध व संघर्ष के ऐसे ही जज्बे से भरे थे हमारे साथी। संघर्ष व सपने कभी नहीं मरते। इसीलिए अनिलजी जैसे सांस्कृतिक योद्धा भी कभी नहीं मरते और अपने काम और विचारों के साथ हमेशा हमारे बीच जिन्दा रहते हैं.
पूर्वोत्तर भारत की सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता है मीडिया : हिरण्मय धर
दूसरे सत्र में समाज विज्ञानी हिरण्मय धर ने ‘ पूर्वोत्तर भारत में अस्मिता का सवाल ’ पर अपने विचार प्रकट किया। उनका कहना था कि ‘नार्थ-इस्ट’ भारत सरकार द्वारा दिया गया नाम है। इसे सेवेन सिस्टर भी कहा जाता है, इस नामकरण पर भी विचार जरूरी है। इस क्षेत्र में नृजातीय विभाजन है। करीब 220 नृजातीय ग्रूप हैं और उनकी अपनी भाषा भी है। इन ग्रूपों के लिए भूभाग के साथ अपनी पहचान का सवाल प्रमुख है। केन्द्र सरकार द्वारा उनके सवालों कर उपेक्षा होती रही है। यहां विकसवाद मजाक बन गया है। ऐथेनिक मीलिशिया के यही स्रोत हैं। करीब 109 मीलिशिया इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। सरकार के पास आफस्पा जैसा दमनकारी कानूनी हथियार है। मीडिया वहां की सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता है। फौज की देखरेख में वहां लोकतंत्र है, नागरिक प्रशासन निष्प्रभावी है।
हिरण्मय धर से सवाल भी किये गये। इस अवसर पर आर के सिन्हा, वीरेन्द्र त्रिपाठी, उदय सिंह, भगवती सिंह, कल्पना पांडेय, लक्ष्मी नारायण, मधुसूदन मगन, राजीव गुप्ता आदि भी उपस्थित रहे। जसम लखनऊ के संयोजक श्याम अंकुरम ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
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