कौशल किशोर
नये साल का पहला दिन, चारों तरफ कोहरा फेैला था। हाड़ कंपाती ठंडी हवा हड्डियों को छेद रही थी।लखनऊ के गोमती नदी के किनारे शहीद स्मारक पर इस ठंड व कोहरे का असर कुछ ज्यादा ही था, पर इस क्रूर मौसम की तरफ से बेपरवाह नगाड़े की ढम..ढम.. और ढपली पर थाप देते अमुक आर्टिस्ट ग्रुप के कलाकार अनिल मिश्रा ’गुरूजी’ के नेतृत्व में शहीद स्मारक पर जुटे थे।
इनके द्वारा नुक्कड़ नाटक ‘मुखौटे’ का मंचन होना था। कलाकारों के हाथों में जो बैनर था, उस पर लिखा था ‘हम सब सफ़दर, हमको मारो’।
कलाकार अपने नाट्य प्रदर्शन के माध्यम से हमें याद दिला रहे थे कि पहली जनवरी के दिन ही सफदर हाशमी पर प्राणघातक हमला हुआ और दूसरे दिन वे शहीद हुए।
आज सफ़दर नहीं हैं, पर वह सांस्कृतिक संघर्ष आज भी जारी है। अपने नाटक ‘मुखौटे’ के द्वारा कलाकार हमें यह आभास दे रहे थे कि हम जिस सांस्कृतिक अंधेरे में जी रहे हैं, वह मौसम के कोहरे से कहीं ज्यादा घना है। जरूरत तो कला को मशाल बनाने की है जो इस अंधेरे को चीर सके।
ऐसी ही प्रतिबद्धता और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का साहस ही नुक्कड़ नाटकों को अन्य कला विधाओं से अलग करता है। रंगमंचीय तामझाम से दूर, थोड़ी बहुत साज-सज्जा के साथ बिल्कुल छापामार तरीके से कलाकारों का किसी चौराहे, नुक्कड़, मुहल्ले, स्ट्रीट कार्नर या किसी जन संकुल क्षेत्र में इकट्ठा होना और अपने अभिनय द्वारा जन जागृति का संदेश देना – नुक्कड़ नाटक की यही पहचान है।
आंदोलनों से ऊर्जा लेना तथा अपनी कला द्वारा आंदोलनों को गति देना, यह नुक्कड़़ नाटक की खासियत है। कहा जाय तो नुक्कड़ नाटकों का जन्म जन आंदोलनों से जुड़ी कला विधा के रूप में तथा नाटक को जनता तक पहुँचाने की जरूरत के रूप में हुआ।
सत्ता और मौजूदा व्यवस्था पर प्रहार, चुटीले व्यंग्य के पुट, चुस्त व छोटे संवाद और गतिशील अभिनय के द्वारा नुक्कड़ नाटक दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ता है।
70 के दशक में हम जन आंदोलनों का उभार देखते हैं और यही वह उर्वर जमीन है जिस पर नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन परवान चढ़ा।
इस कला विधा ने शोषक सत्ता, तंत्र, भ्रष्ट राजनीति व नेता, पुलिस-प्रशासन को अपना निशाना बनाया। इसीलिए कलाकारों को मालिकों, नेताओं, उनके गुण्डों और पुलिस-प्रशासन के हमले का शिकार होना पड़ा।
आज से पच्चीस साल पहले 1989 की पहली जनवरी को सफदर हाशमी और उनके नाट्य दल ‘जन नाट्य मंच’ पर उस वक्त हमला हुआ था, जब वे देश की राजधानी से सटे साहिबाबाद के झण्डापुर में ‘हल्ला बोल’ नुक्कड़ नाटक का मंचन कर रहे थे।
नाटक का मंचन करते समय राजनीतिक गुण्डों द्वारा सफदर हाशमी और उनके एक मजदूर साथी की हत्या कर दी गई। तब से सफदर हाशमी की नाट्य आंदोलन के क्षेत्र में ऐसे कलाकार के रूप में ख्याति है जिन्होंने रंगकर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
उन दिनों दिल्ली और उसके आसपास के औद्योगिक क्षेत्र में न्यूनतम मजदूरी की मांग को लेकर श्रमिकों का आन्दोलन चल रहा था। नाटक का मंचन उन्हीं के समर्थन में था।
सफदर का नाटक ‘हल्ला बोल’ जहां श्रमिक आंदोलन के लिए उत्प्रेरक था, वहीं वह मालिकों के लिए बेचैनी पैदा करने वाला था। इसीलिए सफदर पर हमला हुआ। हमले के दूसरे दिन सफदर की मौत हो गई। ‘हल्ला बोल’ नाटक का मंचन अधूरा रह गया।
सफ़दर की जीवन साथी मालााश्री हाशमी, जो स्वयं इस नाटक में अभिनय कर रही थी, सहित सारे कलाकार गहरे सदमे में थे।
यह उनके लिए दुख व संताप की घड़ी थी। लेकिन मलयश्री हाशमी ने अपने शोक को शक्ति में बदलने का जो उदाहरण पेश किया, वह अद्भुत था।
हमले के तीसरे दिन 4 जनवरी को पूरा नाट्य दल उसी स्थान पर पहुंचा जहां उन पर हमला हुआ था। उनके हाथों में जो बैनर था, उस पर लिखा था ‘हम सब सफदर, हमको मारो’।
उन्होंने उस अधूरे नाटक का मंचन किया। यह सफदर के प्रति उनकी श्रद्धांजलि ही नहीं थी बल्कि सफदर के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प भी था।
निधन के समय सफदर की उम्र महज 34 साल थी। उनका जन्म 12 अप्रैल 1954 को हुआ था। छात्र जीवन में ही वे वामपंथी छात्र आंदोलन और इप्टा जैसी नाट्य संस्था से जुड गये थे।
यहीं उन्होंने राजनीति और संस्कृति का ककहरा सीखा। आरम्भिक दिनों में उन्होंने अध्यापन का कार्य किया। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में भी नौकरी की। पश्चिम बंगाल सरकार में सूचना अधिकारी भी बने। पर कहीं मन नहीं जमा और चहारदीवारी को तोड़कर नाट्य आंदोलन के क्षेत्र में कूद पड़े।
सफदर ऐसे कलारूप का विकास करना चाहते थे जिसके द्वारा वे जन जन तक पहुंच सकें, उन्हें जाग्रत कर सकें। अपने इसी मकसद के तहत 1973 में जन जाट्य मंच ;जनमद्ध की स्थापना की। सफदर ने मशीन, औरत, गांव से शहर तक, राजा का बाजा, समरथ को नहिं दोष गोंसाई, हल्ला बोल आदि नाटकों की रचना की। लेकिन यह सफदर की सामूहिकता की भावना थी कि इन नाटकों को उन्होंने जनम की सामूहिक प्रस्तुति के रूप में पेश किया।
इन नाटकों के माध्यम से वे जन नाट्य आंदोलन के क्षेत्र में खासा चर्चित हुए और पूरे देश में नुक्कड़ नाटकों के प्रवर्तकों में अग्रणी के रूप में जाने गये। नाटक के अलावा उन्होंने रंग समीक्षाएं, कविताएं और बच्चों के लिए भी लेखन किया।
सफ़दर शहादतों की परम्परा के ऐसे नायक बनकर उभरे जिनसे लेखक व कलाकार खासतौर से नुक्कड़ नाटक करने वाले आज भी प्रेरणा लेते हैं और ‘हम सब सफदर, हमको मारो’ उनका ऐसा सूत्र वाक्य बन गया है जिसके द्वारा वे बताते हैं कि आज सफदर नहीं हैं, पर उनकी याद हमारे दिलों में जिन्दा है।
सफ़दर के शहादत दिवस पर अपने नाट्य मंचन के द्वारा वे आज के दौर की इस सच्चाई को सामने लाते हैं कि हम जिस सांस्कृतिक अंधेरे में जी रहे हैं, जरूरत है कला को मशाल बनाया जाय जो इस अंधेरे को चीर सके।
इसी तरह के हमलों का शिकार नुक्कड़ नाटक के कलाकारों को जगह-जगह होना पड़ा है,पर आज नुक्कड़ नाटकों की हालत वैसी नहीं है।
यहाँ सन्नाटा जैसी स्थिति दिखाई पड़ती है। आमतौर पर नुक्कड़ों पर नाटक के नाम पर जो प्रदर्शन हो रहा है, उसका नुक्कड़ नाटक से कुछ भी लेना देना है। इस लोकप्रिय कला माध्यम का उपयोग आज सरकारी-गैरसरकारी कम्पनियों व संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है जिनका मकसद अपने उत्पाद व कार्यक्रम का प्रचार करना है।
जहाँ तक सत्ता व व्यवस्था के चरित्र की बात है, वह कहीं से भी जन पक्षधर नहीं हुई है। बल्कि उसका चरित्र और भी जन विरोधी हुआ है। फिर नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में पसरा ऐसा सन्नाटा क्यों ? यह प्रतिबद्ध कलाकारों के समक्ष सवाल भी है और चुनौती भी।
आज का दौर ऐसा है जब दुनिया को युद्धों में झोंका जा रहा है, किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, आम आदमी मंहगाई व बेरोजगारी से परेशान है, मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं, धर्म व जाति के आधार पर लोगों को विभाजित किया जा रहा है, समाज को मनुष्य विरोधी और मनुष्य को समाज विरोधी बनाने का काम किया जा रहा है और शोषण व अन्याय पर आधारित इस पूँजीवादी व सम्राज्यवादी व्यवस्था को विकल्पहीन बताया जा रहा है तब इनका प्रतिरोध और नये विकल्पों की तलाश संस्कृति की अनिवार्यता बन गई है।
नुक्कड़ नाटक जैसी विधा इन्ही विकल्पों को पेश करती है। भले ही यह आंदोलन आज ठहराव का शिकार हो लेकिन आज के हालात ने इस विधा के पुनर्जीवन के लिए फिर से जमीन तैयार कर दी है।
सफ़दर की शहादत इस आंदोलन के लिए उत्प्रेरक है। तमाम शहरों व कस्बों में जनता के बीच कला को ले जाने के प्रयास शुरू हुए हैं।
संभव है आने वाले दिनों में नुक्कड़ों और चौराहों पर विचार व आंदोलन के ऐसे नाटक देखने को मिले जो आम आदमी की समस्याओं व संघर्ष की कहानी कहते हों, उनमें बदलाव की नई गूंज सुनने को और इन कलाकारों में ‘हम सब सफदर, हमको मारो’ के रूप में हमें एक साथ कई सफ़दर देखने को मिले।