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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: पांचवें चरण के बाद ध्रुवीकरण का खेल

जयप्रकाश नारायण 

पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश की  राजनीति एक त्रिकोण के इर्द-गिर्द घूम रही है। जो भारत की वर्ण व्यवस्था और हिंदू धर्म की धुरी पर केंद्रित है।  बारी-बारी से तीनों ध्रुव सत्ता के केंद्र में पहुंचते हैं, फिर सामाज की गतिशीलता के  कारण वापस आ जाते हैं। सरकार पेंडुलम की तरह से इधर-उधर इस सामाजिक श्रेणी से उस सामाजिक श्रेणी और फिर हिंदुत्व की आक्रामक गोलबंदी के इर्द-गिर्द लौटती रही है।
बस एक चीज इस बीच स्थिर रही है। वह आर्थिक नीतियों और कारपोरेट पूंजी के प्रति राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता।

बाबरी मस्जिद के इर्द-गिर्द बुनी गयी हिंदुत्व की राजनीतिक गोलबंदी और पिछड़ा दलित मोर्चा की राजनीति पिछले 30 वर्षों से उत्तर प्रदेश में सामाजिक, राजनीतिक ध्रुवीकरण का केंद्रीय तत्व है।

उदारीकरण ने सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों को जिस तरह से उलट-पलट दिया है, उसमें मध्यम वर्गीय व्यक्ति  विखंडित होते  व्यक्तित्व की पहचान और अस्मिता,  धर्म या जाति के अंदर ही  खोज पा रहा है। इस कारण नागरिकों के लोकतांत्रिक चेतना और आधुनिक दृष्टिबोध का विलोपन आज के दौर का कटु सत्य है।

दलित, पिछड़ी अस्मिता के उभार के साथ वित्तीय पूंजी के विस्तार ने सवर्ण सामंती वर्चस्व के ग्रामीण समीकरण में   बदलाव आने से नये सामाजिक समूहों का उदय हुआ। जो आक्रामक धार्मिक और जातिगत राजनीति के प्रतिनिधि हैं।

आप चट्टी-चौराहों  या शहरों के राजनीतिक अड्डों में जाइए तो कार्यकर्ताओं और  नेताओं के सामाजिक और वर्गीय पृष्ठभूमि को बदला हुआ देख सकते हैं । जो ’90 के बाद के उदारीकरण की नीतियों के कारण हुए सामाजिक परिवर्तन के बाद की नयी पीढ़ी है।

इस नये नेतृत्व का चाल-चलन, उदेश्य और वैचारिक समर्पण बिल्कुल भिन्न किस्म का है।
यह जनप्रतिनिधि उदारीकरण के बीच पैदा हुआ  विखंडित व्यक्तित्व वाला और (कर लो दुनिया मुट्ठी में) सब कुछ हासिल कर लेने की  इच्छा वाला नया वैश्विक नागरिक है। जो भौतिक संसाधनों पर हर कीमत में नियंत्रण चाहता है। जो एक नया उपभोक्ता वर्ग भी है।

 

इसलिए इसके नायक वैचारिक  सामाजिक  प्रतिबद्धता से मुक्त खूंखार और कारपोरेट पूंजी संरक्षित जातिवादी और धार्मिक पहचान वाले लोग हैं। इसी दौर में माफियाओं, अपराधियों और धन्ना सेठों का भी वर्चस्व राजनीतिक दलों में बहुत बढ़ गया।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा, सपा, बसपा का त्रिकोण पिछले 20 वर्षों में एक दूसरे से जुड़ते,  दूर जाते, टकराते हुए दिखेगा। लेकिन एक-दूसरे से बारीक आंतरिक संबंधों से जुडा हुआ भी है। ये सत्ता के खेल में एक दूसरे की जरूरत पड़ने  पर सहयोग और सहभागी बनने  के लिए तैयार रहते हैं।

इस त्रिकोण के राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक मूल्यों  के प्रति न प्रतिबद्धता है, न आस्था ही है। इन अर्थों में उत्तर प्रदेश में चल रहे चुनावी राजनीति के कुछ अदृश्य कारकों और लक्ष्णों पर नजर रखनी होगी।

पिछले कुछ दिनों से बसपा के किसी युवा कार्यकर्ता की तरफ से एक पोस्ट सोशल मीडिया में घूम रही है। जिसमें सपा सरकार कालीन विसंगतियों और उसके दलित विरोधी कार्यों को चिन्हित करते हुए यह कहा गया है कि दलितों के लिए भाजपा और संघ की नीतियों से ज्यादा खतरनाक समाजवादी पार्टी और उसके कारनामे हैं ।

हालांकि यह सोशल पोस्ट एक युवा बसपा प्रवक्ता की तरफ से जारी की गई है, लेकिन यह बसपा, संघ-भाजपा  के बीच के पिछले 30 वर्षों के चल रहे आंतरिक संबंधों को सामने ले आता है ।

मायावती के उत्थान और उन्हें मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाने में संघ नीत का बड़ा योगदान रहा है। 2007 में अपनी हार देखते हुए भाजपा ने प्रतिबद्ध  कार्यकर्ताओं को  बसपा के लिए समर्थन देने तक की अदृश्य यात्रा की थी। अतीत में भी कई बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  अपने दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाता आया है।

2007 में हमने कई विधानसभाओं में देखा था कि अचानक भाजपा के वोट बहुत निचले स्तर पर चले गए थे और उन जगहों पर सपा के मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव हार गए थे।

बसपा सरकार के दौर में संघ-भाजपा ने दलित आक्रामकता का नैरेटिव रचा।  एससी, एसटी ऐक्ट को केंद्रित करते हुए भाजपा ने दलितों के राजनीतिक उभार को रोकने के लिए एक बड़ी राजनीतिक गोलबंदी की।  पिछड़े और सवर्ण समाज को उत्पीड़ित के रूप में प्रस्तुत किया गया। जो एससी, एसटी एक्ट के दुरुपयोग के कारण अपमानित और दंडित किये जा रहे हैं।

संघ-भाजपा के द्वारा रचे  गए नैरेटिव में एससी, एसटी कानून ही उत्पीड़न का मूल कारण बताया गया। इसलिए इसे रद्द करने की मांग उठायी गयी।

जबकि बसपा इसी काल में ‘बहुजन से सर्वजन’ तक और ‘हाथी नहीं गणेश’ तक की यात्रा पूरी कर रही थी। बाद में तो ब्राह्मण चरण पूजन तक बसपा आगे बढ़ गयी।

बसपा सरकार के दौर में संघ-भाजपा के संरक्षित मीडिया संस्थानों द्वारा आरक्षण को भी भेदभाव मूलक बताते हुए योग्यता के हनन तक इसे ले जाने का प्रयास हुआ।

सवर्ण और ताकतवर पिछड़े सामाजिक समूहों के अंदर मौजूद दलित विरोधी प्रवृत्तियों का इस्तेमाल कर दलित  आक्रामकता का एक नैरेटिव भी संघ-भाजपा ने रचा था कि दलित समाज जो वर्ण व्यवस्था वाले श्रेणी गत समाज में कभी बराबरी और सम्मान हासिल नहीं कर पाए थे, आज सर उठा कर उन्हें चुनौती दे रहे हैं।

श्रेष्ठता के इस विचार को केंद्र कर भाजपा ने 2012 में अपने वोटरों को सपा के लिए प्रोत्साहित किया था। आमतौर पर पिछड़ी और उच्च जातियों में एक विचार देखने को मिला था, कि पिछड़े ही सर उठाए दलितों को ठीक कर पाएंगे। इस  वातावरण में ही सपा की सरकार अस्तित्व में आयी थी।

अति दलितों को भाजपा इस बात के लिए समझाने में कामयाब हुई थी कि कुछ ताकतवर दलित जातियों ने आरक्षण से मिलने वाली नौकरियां और सत्ता के सारे पदों पर कब्जा कर लिया है। यही विमर्श सपा की सरकार के दौरान भी आगे बढ़ाया गया और कहा गया कि ताकतवर यादव जाति ने सभी सरकारी नौकरियों सहित राजनीतिक पदों पर कब्जा कर लिया है।

कांग्रेस सरकार के कमजोर होने और कारपोरेट हितों के प्रति प्रतिबद्ध  होने के बावजूद भी आक्रामक ढंग से कारपोरेटपरस्त नीतियां लागू न कर पाने के कारण हिंदुत्व-कारपोरेट गठजोड़ भारत में मोदी को आगे कर चुनावी अभियान में उतरा और केंद्र की सत्ता पर 2014 में काबिज हो गया।

जाति के वर्चस्व और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों के चलते बने माहौल में हिंदू सुरक्षा के विमर्श को चरम पर पहुंचाते हुए 2017 में भाजपा ने अन्य पिछड़ों और अति दलितों के एक बहुत बड़े सामाजिक समूह को अपने पक्ष में गोल बंद कर उत्तर प्रदेश की सत्ता हथिया ली।

पिछले 5 वर्षों में भाजपा सरकार के सभी क्रिया-कलापों का केंद्रीय तत्व हिंदुत्व के सांस्कृतिक परियोजना को आगे बढ़ाना था।साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन से निर्मित सभी  प्रतीकों, मूल्यों और संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त करना भी है।

योगी सरकार ने लगातार  मुस्लिम विरोधी वातावरण बनाए रखा। कानून व्यवस्था के प्रश्न को  भी मुस्लिम माफियाओं तक सीमित करते हुए पूरे प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ राज कायम किया गया।

इस असुरक्षित और धुंध भरे वातावरण में  लोकतांत्रिक मान्यताओं से हटकर  हिंदुत्व के  पौराणिक, धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतीकों व त्योहारों  को राजकीय संरक्षित  आयोजन में बदल दिया गया। लंपट भगवा गिरोहों और युवा वाहिनिओं को खुलकर समाज में तांडव मचाने का मौका मिला।

कानून व्यवस्था के नाम पर अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और कमजोर वर्गों पर खुले हमले किये गये। जहां सामान्य विधिक मान्यताओं को भी ताक पर रख दिया गया। इस कारण सामाजिक तनाव सभी तरह के सामाजिक संस्तरों व संस्थाओं में अंदर-अंदर बढ़ने लगा।

प्रदेश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। कृषि और उद्योग तबाही की तरफ चले गये। कोरोना, जीएसटी और नोटबंदी के कारण छोटे-मझोले कारोबारियो की कमर ही टूट गयी।

चौतरफा आर्थिक संकट के  कारण रोजगार के अवसर  खत्म हो गये। शिक्षण और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की बुरी मार  सबसे ज्यादा गरीब और कमजोर वर्गों को झेलनी पड़ी।

योगी सरकार की दृष्टिहीनता और अवैज्ञानिक नजरिया के साथ दंभ ने कोढ़ में खाज का काम किया। 4 साल आते-आते चौतरफा तबाही के मंजर दिखने लगे। जिसे राजकीय आतंक के द्वारा ढकने की कोशिश की गयी।

अंततोगत्वा रोजगार मांगते हुए छात्रों-नौजवानों पर पुलिस की बर्बरता और सरकार की उपेक्षा ने नौजवानों में आक्रोश का सृजन किया।

सरकारी भर्तियों में राज्य की पूर्णतया असफलता, भ्रष्टाचार और आरक्षण  विरोधी दृष्टिकोण आमतौर पर सभी पढ़े-लिखे नौजवानों और खासतौर पर दलित और पिछड़े  छात्रों-नौजवानों के अंदर सरकार विरोधी राजनीतिक चेतना को उन्नत करने में मदद पहुंचायी।
उत्तर प्रदेश के दसियों लाख डिग्री धारी नौजवानों   में भविष्य को लेकर निराशाजनक हालात बन गए हैं। इस बीच रोजगार न मिल पाने की विवशता के चलते छात्रों-नौजवानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति देखने को मिली।

सामाजिक चेतना बढ़ने और शिक्षा  के प्रति बढ़ते आकर्षण से दलितों और पिछड़ों, अल्पसंख्यकों में शिक्षित नौजवानों की संख्या  बढ़ी है।  संख्या गत विकास से धर्म और जाति की चेतना के बीच से वर्गीय चेतना  जन्म ले रही है।

रोजगार, सम्मानजनक ज़िंदगी के सवाल अब राजनीति के सवाल बन रहे हैं। इसलिए जाति निर्मित विमर्श और सत्ता में भागीदारी का खोखला पन छात्रों-नौजवानों को  दिखने लगा है। राज्य की कारपोरेट वर्गीय प्रतिबद्धता अब समाज के विमर्श  का मुद्दा बन चुकी है। जो विभिन्न आंदोलनों  के नारों में साफ दिखता है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले एक बार फिर से जाति समीकरण अवसरवादी जाति नेताओं और सिद्धांतविहीन गठबंधनों को आगे करके चुनाव की दिशा तय करने की कोशिश हुई ।

लेकिन इलाहाबाद विश्व विद्यालय में रोजगार मांग रहे छात्रों पर पड़ी लाठियों ने विमर्श की दिशा ही बदल दी।

किसान आंदोलन की बहादुराना उपलब्धियों के साथ किसानों की मिशन उत्तर प्रदेश के नाम पर ली गई पहल कदमी महंगाई, भूखमरी और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्षरत अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों और कमजोर वर्गों  तथा रोजगार के लिए लामबंद होते छात्रों-नौजवानों के एकताबद्ध संघर्ष ने उत्तर प्रदेश के चुनाव की दिशा बदल दी है।

इसलिए आज अतीत के छिपे खुले गठजोड़ों, एक दूसरे को मदद पहुंचाने की राजनीतिक प्रवृत्तियों  का यूपी के चुनाव में प्रभाव लगभग समाप्त हो गया है ।
चुनाव का पांचवा चरण समाप्त होते ही परिदृश्य साफ हो चुका है ।

भाजपा की सांप्रदायिक विभाजन कारी सतत प्रयास के बावजूद और अयोध्या, बनारस को केंद्रित करते हुए हिंदुत्व के सांस्कृतिक उन्माद की कोशिशों के साथ योगी सरकार  का आतंक धराशाई हो जाने से संघ-भाजपा गठजोड़ भारी संकट में है ।

 

यही समय है, जब लोकतांत्रिक जन-गण आगे बढ़कर हमलावर नजरिया ले और किसानों, मजदूरों, छात्रों के सवालों को राजनीतिक एजेंडा बनाते हुए चुनाव और उसके बाद बदले हुए परिवेश में  नये तरह का आंदोलन खड़ा करने की तैयारी करे।   जिससे कारपोरेट हिंदुत्व की विध्वंसक राजनीति से भारत को मुक्त किया जा सके और लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक भारत और संविधान की गरिमा की सुरक्षा हो सके।

आजादी के 75 वें वर्ष में हमारे सामने यही महान कार्यभार है, जिसे महान भारतीय लोकतांत्रिक जन-गण अवश्य पूरा करेंगे!

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

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