नक्सलबाड़ी की क्रांतिकारी धारा के चर्चित कहानीकार और संपादक विजयकांत का 31 अक्टूबर 2024 को निधन हो गया। पिछले कई सालों से अस्वस्थता के कारण वे पटना में रह रहे थे। विजयकांत सत्तर के दशक के उन कहानीकारों में थे, जिन्होंने बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के लिए संघर्षरत जनता को अपनी कहानियों का नायक बनाया। विजयकांत नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और जन संस्कृति मंच की स्थापना के समय से ही इनके साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। 1974 से उनके द्वारा संपादित और प्रकाशित पत्रिका ‘पुरुष’ अपने समय के सृजनात्मक लेखन के साथ साथ सामयिक बहसों के लिए भी जानी जाती थी। 1972 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘हिस्सेदार चेहरे’ प्रकाशित हुआ था। ‘बीच का समर’, ‘ब्रह्मफांस’, ‘इंद्रजाल’ उनके उल्लेखनीय कहानी-संग्रह हैं। नई सदी में उनके दो कहानी संग्रह ‘लीलावती’ और ‘मायावती’ भी प्रकाशित हुए। कोशी अंचल के झलारी (पूर्णिया) में दिसंबर 1947 में जन्मे विजयकांत की साहित्यिक जिंदगी का ज्यादा समय निराला नगर, मुजफ्फरपुर, बिहार में गुजरा। 1970 से 1974 तक वे हिन्दी के प्राध्यापक भी रहे। हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी उनसे बेहद प्रभावित रहते थे। अपनी पत्रिका में उनकी रचनाएं छापने के साथ-साथ उन्हें क्रांतिकारी वामपंथी धारा और पार्टी से जोड़ने में भी उनकी अहम भूमिका रही। विजयकांत का निधन प्रगतिशील-जनवादी संगठनों, क्रांतिकारी-परिवर्तकामी कथा-धारा और वैकल्पिक पत्रिका आंदोलन के लिए अपूरणीय क्षति है।
विजयकांत एक ऐसे कहानीकार थे, जिन्होंने सत्तर के दशक के अपने समकालीन कथाकारों की तरह सामंती- वर्णवादी शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ ग्रामीण श्रमजीवी जनता के संघर्षों की कहानियां लिखीं। ‘ब्रह्मफांस’ के दादा ठाकुर, ‘बलैत माखुन भगत’ के बाबू बब्बन मड़र और उसके सहायक भैरो ठाकुर, ‘राह’ के खुशहाल सिंह, ‘कोई महफूज नहीं’ की ठकुराइन, ‘बान्ह’ के धनेसर मिसिर और ‘जाग’ के बाबू मदन मड़र इसके उदाहरण हैं, जिनके शोषण और अत्याचार के खिलाफ विजयकांत ने किसान-मजदूर, गरीब-दलित और सामान्य स्त्रियों के संघर्ष को चित्रित किया है।
विजयकांत की कहानियाँ ग्रामीण समाज को बुनियादी तौर पर बदलने की मंशा से प्रेरित हैं। इस बदलाव में मूल में शोषित-वंचित लोगों की जनतांत्रिक आकांक्षाएँ थीं। सामाजार्थिक स्तर पर ग्रामीण संरचना को बदलने की जरूरत उनकी ‘इंद्रजाल’, ‘भस्मासुर’, ‘बिरादरी’, ‘मरीधार’, ‘बीच का समर’, ‘बान्ह’ आदि अधिकांश कहानियों में देखी जा सकती है। शहरी पृष्ठभूमि की कहानियाँ उन्होंने बहुत कम लिखीं। ‘पहली हार’ में शहर है भी, तो वहाँ भी अधिकांश लोग गाँवों से आये हैं। इस कहानी में प्रेस के कर्मचारी मालिकों से अपने हक-अधिकार के लिए जूझते हैं।
विजयकांत ने स्त्री-प्रश्न को जमीन के साथ जोड़कर देखा है। वे दिखाते हैं कि स्त्री को भोग्या और हेय समझने वालों की असली ताकत जमीन ही है। उन्होंने बेहद निर्भीक और जुझारू स्त्रियों की रचना की है। मूलतः ये मजदूर औरतें हैं, जो जीवन की जिजीविषा से भरी हुई हैं। ये किसी का अन्याय बर्दाश्त नहीं करतीं, चाहे वह जमीन का मालिक हो या अपने ही वर्ग का कोई मर्द। विजयकांत ने ‘राह’ जैसी कहानी में साम्प्रदायिकता के सामाजिक-आर्थिक कारकों को भी चिह्नित किया है। उनकी कहानियाँ संकेत करती हैं कि भूमिहीन-किसान मजदूरों के अधिकारों की संगठित और सशक्त लड़ाई से ही सांप्रदायिक, सामंती-पूंजीवादी और वर्णवादी व्यवस्था बदलेगी। व्यापक जनप्रतिरोध को यही वर्ग गति देगा, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में प्रतिरोध इनकी जिंदगी की बुनियादी शर्त बनती जा रही है।
जीवन के उत्तरार्ध में असाध्य बीमारी के दौरान भी वे जनसंघर्षधर्मी कहानियाँ लिखते रहे, जो उनके दो कहानी संग्रहों ‘लीलावती’ और ‘मायावती’ में प्रकाशित हुईं। ये नयी सदी में लिखी गयी कहानियां थीं, जो नक्सलबाड़ी विद्रोह से उपजे किसान-मजदूरों के प्रतिरोधी संघर्ष वाली कहानियों से कुछ हद तक भिन्न थीं। इनमें उन्होंने आर्थिक उदारीकरण और सूचना साम्राज्य के दौर के गाँव-समाज, राजनीति और संस्कृति के बीच मेहनतकशों, खासकर- स्त्रियों की आजादी की जद्दोजहद को चित्रित करने की कोशिश की और पूंजी के तंत्र की अनैतिकता, बर्बरता और गलाजत को बड़े ही भीषण रूप में उजागर किया। ‘मायावती’, ‘केलिग्राम’, ‘प्रतिचक्र’, ‘फिरौती’, ‘सोशल जस्टिस बबुनी’ आदि अधिकांश कहानियां पूंजीवाद जनित गंभीर सामाजिक समस्याओं और व्यथाओं को लेकर लिखी गई हैं और अधिकांश में कसौटी स्त्री ही है, जो केवल सत्ताधारियों की आखेट है। इनमें सेक्स का पूरा एक बाजार मौजूद है, सेक्स सीडी बनाने के प्रसंग भी इन कहानियों में आते हैं, संबंधों के सारे सुरक्षित दायरे तहस-नहस होते दिखते हैं। ‘केलिग्राम’ की विद्रोहिणी नायिका रति उर्फ त्रिशाखा सोचती है- ‘‘क्या वाकई इस देश में न किसान होंगे, न छोटे-बड़े दुकानदार? सबके सब सिर्फ मजदूर होंगे? कारपोरेट के गुलाम मजदूर?…इस देश के निर्माता, निर्देशक और फायनेंसर तो सिर्फ पूंजी के बादशाह ही हैं। सरकारें तो उनके आगे कार्निश बजाती सुरक्षा गार्ड हैं। सरवाईवल ऑफ द फिटेस्ट की आदमखोर प्रणाली है- यह बाजार प्रणाली।…सत्तर फीसदी हिुदस्तानी अब सिर्फ नन्हीं मछलियां हैं, बड़ी मछलियों का नेचुरल ग्रास।’ जाहिर है ऐसी व्यवस्था में स्त्री की स्वतंत्रता, सुरक्षा और सम्मान की गारंटी तो नहीं ही थी, मजदूर-किसानों, छोटे-बड़े दूकानदारों की आजीविका की सुरक्षा और श्रम की वाजिब कीमत भी संभव न थी। बीते लगभग दस वर्षों में अस्वस्थता के कारण कहानीकार की लेखनी प्रायः थमी हुई थी, परंतु उनकी कहानियाँ मुखर थीं। कारपोरेट मीडिया और सरकारें जब लूट और अन्याय को बढ़ावा दे रही थीं, झूठ का प्रचार कर रही थीं, तब विजयकांत की कहानियां सच के पक्ष में मुखर थीं। अब भी जमीन पर हक के लिए गरीबों, दलितों को अपनी जान गंवानी पड़ रही हैं, उनकी बस्तियों को जलाया जा रहा है। गौर से देखा जाए तो उनकी कहानियां सुशासन, विकास, स्त्री-सशक्तीकरण, समरसता, गरीब किसान मजदूरों और गैरबराबरी, अन्याय, उत्पीडन, हिंसा को झेल रहे लोगों की जीवन की बेहतरी आदि के झूठे शासकवर्गीय प्रचार का सशक्त प्रतिवाद रचती हैं। इसलिए चाहे आरंभिक दौर की कहानियां हों या आखिरी दौर की, विजयकांत की कहानियाँ प्रासंगिक रहेंगी। विजयकांत अब सशरीर हमारे बीच न होंगे, पर उनका साहित्यिक-सांगठनिक महत्त्व बना रहेगा। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि!
जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी