हमारे देश में भोजपुरी बोलने वालों की संख्या करोड़ों में है। दुनियॉ भर में लगभग पॉच करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। नेपाल की बड़ी आबादी इस बोली–बानी में सोचती विचारती है। यह बोली मजूरों की बोली है। हम जानते हैं कि आदमी का रिश्ता बोली से कभी नहीं टूटता। ब्रिटिश राज्य में पूर्वांचल और बिहार के मजूर जहॉ – जहॉ गए, वहॉ – वहॉ भोजपुरी को लेते गए। इन्हीं मजूरों के माध्यम से आज यह बोली सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो और फिजी तक जा पहुंची है। बड़े आदमियों और मजूरों में यही फर्क भी है – बड़ा आदमी अपनी बोली-बानी छोड़कर शासकों की भाषा अपना लेता है और गरीब – मजूर जहॉ जाते हैं, अपनी बोली-बानी को रोप देते हैं। इतना ही नहीं भोजपुरी ही एक वह मात्र भारतीय बोली है, जो भारत के बाहर किसी दूसरे देश (मॉरीशस) की राज्य भाषा के पद तक आसीन हो चुकी है।
भाषा से आदमी का रिश्ता मतलब खून-पानी का रिश्ता। जैसे आदमी को अपने समाज का खानपान अच्छा लगता है, वैसे ही उसे अपनी बोली में हंसना-बोलना और गाना-बजाना मन को भाता है। जीवन का हर सपना आदमी अपनी बोली-भाषा में देखता है। मन – प्राण के पोर – पोर में बोली-भाषा की तासीर भीनी रहती है। बेगानी भाषा से जियरा-करेजा जलने लगता है। यही कारण है कि हर भाषा-क्षेत्र का आदमी अपने मनोरंजन के लिए अपनी भाषा में गीत लिखता है, गाता है, नाचता है, स्वांग करता है और कहानी कहता है।
भोजपुरिया समाज का जब तक चला, बेहतर गीत, नाच, स्वांग और कहानियॉ को रचा। भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिश्र और मोती बीए जैसे अनगिनत होनहार लोक कलाकारों द्वारा यह कार्य अपने समय में पूरा हुआ और फला-फूला। बाद में जब मनोरंजन, तकनीकी माध्यम अर्थात सिनेमा के हवाले हुआ तो इन माध्यमों पर पूंजीपतियों का अख्तियार होने के कारण निहंग भोजपुरी समाज को सिनेमा का विषय नहीं बनाया गया। कहीं-कहीं उनकी गीतों, कथाओं और स्वांगों का भोंडा और बेजा नकल नकल हुआ और हो रहा है। इस बात की पुष्टि के लिए जो उदाहरण हैं, वे कुछ इस तरह के हैं कि उन्हें यहॉ दिया नहीं जा सकता।
इस आलेख का उद्देश्य भोजपुरी भाषा और संस्कृति की पैमाइश नहीं करना है, बल्कि आलेख के माध्यम से पहली भोजपुरी फिल्म निर्माण की दशा-दिशा की चर्चा करते हुए भोजपुरी जनमानस के निर्माण पर यथासंभव-यशाशक्ति विचार विमर्श करना है।
भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ और पहली भोजपुरी ‘फिल्म गंगा मैया तोहरे पियरी चढ़ैबो’ के बीच लगभग पचास साल का अंतर है। राजा हरिश्चंद्र सन 1913 में आई और भोजपुरी की पहली फिल्म 1962 में आई थी। अर्थात सिनेमा वालों को भोजपुरी समाज की कहानी तक पहुंचने में आधी सदी लग गया, जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने भोजपुरी फिल्म निर्माण की इच्छा नाज़िर हुसैन से जाहिर की। इस बात को इस प्रकार कह सकते हैं –
1 – पहली भोजपुरी फिल्म का निर्माण नेहरूवियन विकास मॉडल से मोहभंग के समय हुआ। अर्थशास्त्री पीसी महालनोबिस का भारी उद्योग का सुझाव ठीक होते हुए भी अपने शुरूआती दौर में ही विस्थापन, बेदखली और बेरोजगारी का कारण बनता दिख रहा था।
2 – पहली भोजपुरी फिल्म का लेखन नाज़िर हुसैन के द्वारा हुआ। अर्थात भोजपुरी फिल्म गंगा-जमुनी तहजीब की पैदाइश है। नाज़िर हुसैन सुभाष चंद्र की फौज में सेवा दे चुके थे। कह सकते हैं कि भोजपुरी सिनेमा की आधारशीला सुभाष बाबू के फौजी सिपाही द्वारा रखी गई। हालॉकि वर्तमान समय की भोजपुरी फिल्मों के पतन के देखते हुए काफी परेशानी होती है, कि इतनी खूबसूरत आगाज़ के बाद हमने भोजपुरी सिनेमा को कितना बदसूरत बना दिया है। पोसे हुए सपनों का ऐसा अंत हर किसी को दुखी कर देता है।
अपने एक साक्षात्कार में भोजपुरी सिनेमा में लंबी (संभवत: सबसे लंबी) पारी खेलने वाले अभिनेता कुणाल सिंह कहते हैं कि भले ही गंगा मैया तोहे…. पहली फिल्म है, मगर इसकी भूमिका बहुत पहले अर्थात सन 1943 में फिल्म तकदीर (निर्देशक – महबूब खान) से बननी शुरू हो गई थी। जिस तरह यह फिल्म नरगिस की पहली फिल्म है, उसी तरह यही वह फिल्म है, जिसमें पूरी की पूरी एक भोजपुरी ठुमरी नरगिस पर फिल्माया गया था। इस तरह नरगिस वह पहली अभिनेत्री हैं, जिन्होंने पहली बार भोजपुरी गीत पर सिने-अदायगी की थी।
बात हिंदी सिनेमा के नरगिस की चली है, तो लगे हॉथ हिंदी सिनेमा के कोहेनूर दिलीप कुमार की भी कर ली जाए। दिलीप साहब की फिल्म ‘ नदिया के पार ’ (1948) में मोती बीए द्वारा लिखे कुल आठ भोजपुरी गीतों को रखा गया था, जिन्हें दिलीप कुमार और कामिनी कौशल पर फिल्माया गया था – ‘ कठवा के नैया बनैहे मलहवा, कर दिए नदिया पार। ’ फिल्म सामाजिक मुद्दे पर बनी थी, जिसका निर्माण किशोर शाहू ने किया था। फिल्म के आठो गीत खूब सराहे गए। पसंद किए गए। फिल्म और गीतों की अपार सफलता के बाद भी कोई भी फिल्म निर्माता भोजपुरी में फिल्म बनाने को तैयार नहीं हुआ। मुकम्मल भोजपुरी फिल्म के लिए अभी लंबा इंतजार करना था। हालॉकि हिंदी फिल्मों में भोजपुरी चरित्र नौकरों-चाकरों की छोटे-मोटी भूमिकाओं में आने लगी थे। साथ ही साथ भोजपुरी गीतों का इस्तमाल भी हिंदी फिल्मों में होता रहा।
भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो’ के बनने की पृष्ठभूमि में ‘मदर इंडिया’ (1957) ‘नया दौर’ (1957) और गंगा जमुना (1961) की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इन तीनों फिल्मों में कुछ बातें सामान्य हैं, मसलन तीनों में त्यौहार, खेत, गॉव, गरीबी और महाजन के साथ-साथ देहाती बोली बानी की रवानी है। ‘मदर इंडिया’ में महाजनी शोषण का चरम दिखाया गया है। इस फिल्म के नायक शामू (राजकुमार), राधा (नरगिस) और बिरजू (सुनील दत्त) कई मायने में गोदान के पात्रों – होरी, धनियॉ और गोबर की याद दिलाते हैं।
ग्रामीण जीवन की त्रासदी के मद्देनजर मदर इंडिया को हिंदी सिनेमा का गोदान कहना गलत नहीं होगा। फिल्म में महाजनी शोषण, दमन और कईयांपन का वीभत्स रूप दिखाया गया है। चलचित्र का खलचरित्र सुक्खीलाला (कन्हैया लाल) के कमीनेपन को देखकर दर्शक आक्रोश वर्ग से भर जाता है। सुक्खीलाला को नफ़रत लायक बनाने में कन्हैयालाल का अभिनय हिंदी सिने अभिनय के लिए दस्तावेजी महत्व रखता है। ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़ैबो’ की कहानी बनारस जिले के गॉव की है और सुक्खीलाला तो रहने वाले ही बनारस के थे।
उत्तर भारतीय ग्रामीण संस्कृति की मदर की ‘मदर इंडिया’
तीनों चलचित्र अपने समय की सुपरहिट फिल्में थीं। मदर इंडिया को ऑस्कर मिलते – मिलते रह गया। बहुत थोड़े अंतर (मात्र एक मत) से यह फेलीनी की फिल्म ‘नाइट ऑफ कैरबिया’ से पिछड़ गई। नया दौर और गंगा-जमुना दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला के अभिनय से सजी फिल्में थीं, जिसमें अवधी क्षेत्र के गॉव, भाषा और संस्कृति को बहुत गाढ़े रूप में रंगा गया था। नया दौर के सेठ मगनलाल (नज़ीर हुसैन) फिल्म ‘हे गंगा मईया तोहे…’ के कथा-पटकथा लेखक से साथ अभिनेता भी थे, जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है। तीनों फिल्मों की अपार सफलता ने फिल्मकारों को पूरब की देखने को मजबूर किया। हालॉकि भोजपुरी फिल्म निर्माण अभी भी अन्हियारे का सफर माना जा रहा था।
फिल्म मदर इंडिया हिंदी में बनी अवधी फिल्म थी, जिसमें अवधी फाग, कजरी, लाचारी से लेकर विवाह और विदाई के गीतों की गवनई ने उस समय के दर्शक को मोहपाश में जकड़ लिया था। सिने आलोचना और भाषा विज्ञान में सिमियोलॉजी की संकल्पना को विशेष महत्व दिया जाता है। सिने-आलोचना सिद्धांत के द्वारा अभिनय के अतिरिक्त कुछ दूसरे माध्यमों और संकेत चिह्नों से फिल्म को एक विचार, एक उत्पाद और एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखने का प्रयास किया जाता है। इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं। सन 1978 में संगीत प्रधान अग्रेजी रोमेंटिक फिल्म ग्रीज ( Grease – directed by Randal Kleiser) आई थी, जो उस साल की महासफल फिल्म थी। चलचित्र के एक दृश्य में फिल्म का नायक जॉन ट्रावॉल्टा लेदर का जैकेट और प्लेन पैंट और लेदर का जूता पहना हुआ है। वह अपने अंदाज में बेखौफ दिखता है। बेखौफ नायक की मुलाकात फिल्म नायिका ओलविया न्यूटन जॉन से होती है। ओलविया लाल कॉलर की फ्रॉक पहने हुए है। उसके बाल ढंग से बंधे हुए हैं। वह पोशाक से मध्यम वर्गीय परिवार की समझदार और सलीका पसंद लड़की जान पड़ती हैं। फिल्मकार द्वारा बिना किसी लब्ज बयानी के दृश्य में बता दिया जाता है कि फिल्म के नायक-नायिका मन से ही नहीं बल्कि हैसियत और विचार में भी काफी अलग हैं।
फिल्म मदर इंडिया की विवेचना भी सिमियोलॉजी के आधार पर होनी चाहिए, क्योंकि इस फिल्म में गाय-बैल, खेत-खलिहान, पुआल, बाढ़, सूखा, मादक प्रेम, समर्पण, क्रोध, पलायन और सुक्खी लाला, सबके सबके सब उत्तर भारत, खासकर अवध क्षेत्र के ग्रामीण जीवन की दिक्कतों को पेश करते हैं। कोहरे में शामू (राजकुमार) का पत्नी और बच्चे को छोड़कर जाना बुद्ध के गृहत्याग से अधिक कारूणिक दृश्य प्रतीत होता है, क्योंकि बुद्ध जगत भर की रौशनी के लिए लौटने वाले थे और मगर शामू को पता था कि अब कभी नहीं लौटेगा। पति के चले जाने का गम, नई उम्र और दो छोटे बच्चों के लालन – पालन के बीच जिंदगी की दौड़ भाग में फंसी राधा (नरगिस) को जब अपने प्रिय अर्थात शामू की याद आती है, तो उसका दुख आंसू बनकर नदी का रूप ले लेता है। दो बच्चों की बॉह थामे नरगिस और पृष्ठभूमि में कॉटेदार जंगलों की विशालता खामोश दुख की तरह जान पड़ती है। राधा (नरगिस) परदेश या हमेशा के लिए दुनियॉ छोड़ गए प्रिय को याद करते हुए, जिस तरह से उत्तर भारत की औरतें बिरह के गीत गाती हैं, उसी तरह से वह भी अपनी व्यथा खामोश जंगल को सुनाती है –
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सांवरिया
पिया-पिया रट के मैं तो हो गई रे बावरिया
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सांवरिया
बेदर्दी बालम ने मोहे फूँका ग़म की आग में
फूँका ग़म की आग में
बिरहा की चिंगारी भर दी दुखिया के सुहाग में
दुखिया के सुहाग में
पल-पल मनवा रोए छलके नैनों की गगरिया
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सांवरिया
आई थी अँखियों में लेकर सपने क्या-क्या प्यार के
सपने क्या-क्या प्यार के
जाती हूँ दो आँसू लेकर आशाएं सब हार के
आशाएं सब हार के
दुनिया के मेले में लुट गई जीवन की गठरिया
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सांवरिया
दर्शन के दो भूखे नैना जीवन भर न सोएंगे
जीवन भर न सोएंगे
बिछड़े साजन तुमरे कारण रातों को हम रोएंगे
रातों को हम रोएंगे
अब न जाने रामा कैसे बीतेगी उमरिया
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सांवरिया
पिया-पिया रट के मैं तो हो गई रे बावरिया….
शकील बदायुनी ने पुरकशिश अंदाज़ में अवध के गॉवों की ठेठ रंग से फिल्म ‘को रंग दिया है। जुताई-बुवाई-कटाई से जड़ी बहुत ही वास्तविक गीतों की छटा पहली बार मदर इंडिया से पूरे देश में गूंजा। किसानी गीतों के साथ – साथ अवध क्षेत्र के पर्व गीत फिल्म को दस्तावेजी महत्व प्रदान करते हैं। आजादी के मात्र दस साल बाद का जितना प्रामाणिक चित्र इस फिल्म में दिखाया गया है, वह दुर्लभ और उल्लेखनीय है। फिल्म का प्रतिनायक बिरजू नेहरूवियन विकास के मॉडल की चमक को खोखला साबित करता है और जता जाता है कि अब आजादी का ख्वाब चकनाचूर हो चुका है। वही प्रतिनायक अपने बड़े भाई का बियाह कराकर भौजाई और बरातियों सहित बैलगाड़ी से गॉव लौट रहा है और साथ में लौट रही हैं गॉव की नटखट छोरियॉ। बैलगाड़ियॉ कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती ताल-पोखर, खेत-खलिहान और पेड़-पौधों को पीछे छोड़ते भागी जा रही हैं और सोनौली धूप में जवान छोरे-छोरियॉ यह गीत गाते गॉंव की ओर बढ़े जा रही हैं –
खट-खुट करती छम-छुम करती
ये गाड़ी हमरी जाये
फर-फर भागे सबसे आगे
कोई पकड़ ना पाये
हो गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे
गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे
जिया उड़ा जाए लड़े आँख रे
होय
जिया उड़ा जाए लड़े आँख रे
काहे मुखड़ा खोले
देख नजर न लागे रे गोरी
काहे मुखड़ा खोले
ओ नैनों वाली घूँघट से
ना झाँक रे
होय
गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे
अर र र र र
यह गीत लंबा है, जो सवाल-जवाब के क्रम में आगे बढ़ता चलता है। गीत गाती हुई बड़भागी गोरियॉ रेणु की कहानी ‘लाल पान की बेगम’ की याद दिला देती हैं। मुहम्मद रफी और शमशाद बेगम के मधुर कंठों की ताजगी नौशाद के पूर्वी लोक धूनों का साथ पाकर धरती-आकाश को गुलाबी कर देती हैं – मन फॉग-फॉग होने लगता है। रंगहीन-गंधहीन दृश्यों से मोजरों की गंध फूटने-उमगने-उगने लगती है। फिल्म यथार्थ के उबड़-खाबड़ धरातल से गुजरते आगे बढ़ती है।
मनुष्य और मशीन के होड़ का ‘ नया दौर ’
फिल्म नया दौर मशीन के बूते तरक्की की इबारत लिखने कथा परोसती है। और दिखाती है कि कैसे मशीन का साथ और शह पाकर आदमी जन-जन में बिखरी पूंजी को समेट लेना चाहता है! कथा गॉव का संस्कार लिए होने के कारण रहन-सहन से लेकर खान-पान और पहनाया तक में उत्तर भारत के गॉवों की झलक से लबरेज़ है। कोई चाहे तो इसे हिंदी में बनी भोजपुरी फिल्म कह सकता है। गीतों में पूरी की पूरी भोजपुरी संस्कृति हिलोर्रा मार रही है।
वैसे तो फिल्म के सारे गीतों का पोर-पोर गंवई संस्कृति में पगा हुआ है, परंतु यह गीत मजूरी-किसानी का जनगीत लगता है। सामूहिकता का ऐसा गीत पर्दे पर तो कम हो ही गया है, पर्दे के बाहर की दुनियॉ में अब ऐसी सामूहिकता छिजती जा रही है –
साथी हाथ बढ़ाना, साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जायेगा मिल कर बोझ उठाना
साथी हाथ बढ़ाना …
१) हम मेहनत वालों ने जब भी मिलकर कदम बढ़ाया
सागर ने रस्ता छोड़ा परबत ने शीश झुकाया
फ़ौलादी हैं सीने अपने फ़ौलादी हैं बाहें
हम चाहें तो पैदा करदें, चट्टानों में राहें, साथी …
२) मेहनत अपनी लेख की रखना मेहनत से क्या डरना
कल गैरों की खातिर की अब अपनी खातिर करना
अपना दुख भी एक है साथी अपना सुख भी एक
अपनी मंजिल सच की मंजिल अपना रस्ता नेक, साथी …
३) एक से एक मिले तो कतरा बन जाता है दरिया
एक से एक मिले तो ज़र्रा बन जाता है सेहरा
एक से एक मिले तो राई बन सकती है परबत
एक से एक मिले तो इन्सान बस में कर ले किस्मत, साथी …
४) माटी से हम लाल निकालें मोती लाएं जल से
जो कुछ इस दुनिया में बना है बना हमारे बल से
कब तक मेहनत के पैरों में ये दौलत की ज़ंज़ीरें
हाथ बढ़ाकर छीन लो अपने सपनों की तस्वीरें, साथी …
गॉव की इस लज्जत को निगलने की तैयारी में लगा पूंजीवाद पॉव धीरे–धीरे आगे बढ़ रहा है, जिसे फिल्म में बहुत सलीके से दिखाया गया है। चूंकि इस लेख का उद्देश्य पहली भोजपूरी फिल्म की चर्चा करना है, इसलिए इस फिल्म पर अभी बस इतना ही। इसने फिल्म ने भी भोजपुरी फिल्म निर्माण के लिए परिवेश बनाने का कार्य किया। पहली भोजपुरी फिल्म के लेखक नज़िर हुसैन इस फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए थे।
‘गंगा-जमुना’ में दो हंसों का जोड़ा
नितिन बोस निर्देशित फिल्म गंगा-जमुना आठ दिसंबर 1961 को भारत में, सन 1965 में सोवियत रूस में और पच्चीस अगस्त 1966 को मैक्सिको के सिनेमा हालों में रिलीज हुई। फिल्म का निर्माण और लेखन दिलीप कुमार ने किया था। फिल्म भले हिंदी की मानी जाए मगर गीत-संगीत से लेकर कहानी और संवाद सब कुछ अवधी में था। दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला नासिर खान और नज़िर हुसैन के अभिनय से सजी फिल्म ने देश और विदेश में सफल रही।
उत्तर भारत खासकर अवध क्षेत्र आज भी सामंतवादी सोच से मुक्त नहीं हो पाया है। सामंतवादी सोच का जातिवाद से गठजोड़ हो गया है, जिससे गरीबों, औरतों और वंचित जातियों की जिंदगी विषैली और तेजाबी हो गई है। आज के पचास साल पहले स्थितियॉ और भी खराब थीं। गरीबों, किसानों और मजूरों की जिंदगियॉ जटिल हो चुकी थीं। उनके सामने दो ही रास्ते बचते थे –
(क) जमींदारों और गॉव के बड़े घराने की गुलामी ।
(ख) जुल्म के खिलाफ विरोध
पहली स्थिति को स्वीकार कर लेने पर मजबूरी, गुलामी और बेकदरी का विस्तार होता था। दूसरी स्थिति को अपनाने पर सामंत, जमींदार, बड़े घराने और राज्य की शक्तियॉ विरोध करने वाले को गैर-कानूनी साबित करके या तो जेल में डाल देतीं या फर्जी मुठभेड़ दिखाकर विरोध की आवाज़ को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर देतीं। आजादी की लड़ाई से लेकर सामंतों की खिलाफत में अवध क्षेत्र कभी पीछे नहीं रहा। किसानों-मजूरों और वंचित जातियों की ओर से हमेशा विरोध होता रहा। फिल्म में गंगा (दिलीप कुमार) जमींदार के शोषण से मुक्त होने के लिए दूसरा रास्ता अपनाता है – वह डकैत बन जाता है। हिंदी सिनेमा में व्यवस्था के खिलाफ एंग्री यंग मैन की शुरूआत इसी फिल्म से हुआ माना जाता है। बाद की फिल्मों सत्ता के खिलाफत में उठी गरीब आदमी की आवाज को बार-बार अलग – अलग रूपकों में दोहराया गया।
फिल्म में अवध क्षेत्र के किसानों की सरलता, उनकी मेहनत के साथ बड़े घरानों द्वारा उनके शोषण के तंतुओं को बहुत सूक्ष्म ढंग से तो दिखाया गया है। साथ – साथ अवध के आम आदमी का उल्लास और आम औरत के बिरह को भी बहुत शिद्दत से पेश किया गया है।
उदाहरण के रूप में पति बियोग में तड़पती औरत को फिल्म में इन शब्दों में बयां किया गया है–
दो हँसो का जोड़ा बिछड़ गयो रे
गजब भयो रामा, जुलम भयो रे
मोरा सुख चैन भी, जीवन भी मोरा छिन लिया
पापी संसार ने साजन भी मोरा छिन लिया
पिया बिन तड़पे जिया, रतिया बिताऊँ कैसे
बिरहा की अगनी को असुअन से बुझाऊँ कैसे
जिया मोरा मुश्किल में पड़ गयो रे
रात की आस गई, दिन का सहारा भी गया
मोरा सूरज भी गया, मोरा सितारा भी गया
प्रीत कर के कभी प्रीतम से ना बिछड़े कोई
जैसी उज़डी हूँ मैं, ऐसे भी ना उजड़े कोई
बना खेल मोरा बिगड़ गयो रे
जीते जी छोडूँगी सैंया ना डगरीयाँ तोरी
बीत जाएगी यूँ ही सारी उमरीयाँ मोरी
नैनों से होती रहेगी यूँ ही बरसात बलम
याद में रोती रहूंगी तेरी दिनरात बलम
नगर मोरे मन का उजड़ गयो रे….
गीत को भले शकील बदायुनी ने लिखा है, मगर गीत को अवधी और भोजपुरी क्षेत्र की बिरहणियॉ थोड़ा हेरफेर के साथ सैकड़ों साल से गाती आ रही हैं।
अपनी सफलता से इस फिल्म ने बंबईया सिनेमाकारों को यकीन दिला दिया कि उत्तर भारत की कहानी को पर्दे पर कहकर मोटी कमाई की जा सकती है। भोजपुरी फिल्म की राह को आसान करने में इस फिल्म का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उत्तर भारत की कहानी की इतनी बड़ी सफलता और खुद दिलीप कुमार का अवधी माटी के सपूत के किरदार में उतरना बहुत बड़ी सिने-परिघटना थी। अब सिने-निर्माताओं को उत्तर भारत की ओर ध्यान देना फायदे का सौदा लगने लगा।
सामाजिक रूढ़ियों से लड़ती औरत की कहानी – ‘हे गंगा मैया तोहें पियरी चढ़ैबो’ –
इतनी सारी फिल्मों में उत्तर भारत के जीवन की सफल सिने-प्रस्तुति ने भोजपुरी फिल्म निर्माण का रास्ता थोड़ा आसान कर दिया। माना जाता है कि नाजिर हुसैन को भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा भोजपुरी चलचित्र निर्माण की इच्छा जताई गई थी। इसलिए ‘हे गंगा मैया तोहें पियरी चढ़ैबो’ संभव हो पाई। इस बात में सच्चाई बस इतनी रही होगी कि फिल्म निर्माता (विश्वनाथ प्रसाद साहाबादी) और फिल्म के लेखक (नाजिर हुसैन) को भरोसा हो गया होगा कि अब भोजपुरी सिने – दर्शक निर्मित हो चुका है, जो अपनी बोली-बानी में फिल्म देखना पसंद करेगा। सिनेमा की संभावना सिने-दर्शक के अभाव में फलीभूत नहीं हो सकती है। फिल्म ‘हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैबो’ भोजपुरी समाज और दर्शकों का अपनी माटी की फिल्म के प्रति अदम्य इच्छा का परिणाण है।
फिल्म का मुहुर्त शॉट 16 फरवरी 1961 को शहीद स्मारक पटना में संपन्न हुआ। फिल्म की शूटिंग आरा और बनारस में संपन्न हुई। फिल्म शुरूआत में फिल्म की नायिका कुमकुम अर्थात जेबुन्निसा का चयन हुआ। कुमकुम बिहार के बड़े रियासतदार की बेटी थीं। वह बहुत ही सलीकेदार खातून थीं। इतनी खानदानी औरत का सिनेमा में काम करना हैरान करता है। अगर उनके वालिद उन लोगों को छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए होते, तो वे शायद ही सिनेमा में आतीं। खैर उनके आने से फिल्म की यूएसपी में इजाफा ही हुआ। अब तक वह हिंदी सिनेमा का बड़ा नाम बन चुकी थीं। उनके पिता के किरदार में फिल्म के कथा और संवाद लेखक नाजिर हुसैन स्वंय थे। नायक के रूप में असिम कुमार और नायक के पिता के रूप में रामायण तिवारी फिल्म से जुड़ गए।
भोजपुरी के पहली फिल्म होने के नाते कई नामचीन सिने-कलॉकारों का जुड़ाव फिल्म से होता गया, जिसमें लीला मिश्रा, पद्मा खन्ना, यूनुस परवेज़ और टुनटुन प्रमुख थीं। एक बार कलाकारों का चयन पूरा होने के बाद एक साल की कड़ी मशक्कत के बाद 5 फरवरी 1962 को बनारस के प्रकाश छविगृह में फिल्म प्रदर्शित हुई। और प्रदर्शित होते ही शोहरत की बुलंदियों को छूने लगी।
अपनी प्रस्तुति में यह फिल्म कई जगह देवदास की याद दिलाती है – खासकर उस समय, जब सुमित्रा (कुमकुम) की शादी उसके पिता के दोस्त मुनेसरा से होती है और श्याम (असिम कुमार) सब कुछ देखता रहता है। बेमेल विवाह को जिस गवंई मुहावरे से पुष्ट किया जाता है, वह पितृसत्ता की नंगई को उजागर कर देता है –“मरद के उमिर ना देखल जाला। मरद तो साठा पर पाठा होखेला।” मजेदार बात यह है कि जान से भी बढ़कर चाहने वाला बाप बेटी की शादी ताड़ी पीकर नशे में तय करता। नशे में दो पुरूष औरत के भाग्य का फैसला करते हैं और औरत की जिंदगी तबाह हो जाती है (बाद की कहानी और फिल्मी मोड़ इस कुकृत्य का डैमेज कंट्रोल भर है)। यह पूरा दृश्य फिल्म देवदास के रिफरेंश दृश्य की तरह लगता है (देवदास में भी धन और जाति के नशे में पारो की शादी देवदास से नहीं करी जाती यहॉ भी अमीर बाप दहेज के लालच में श्याम की शादी सुमित्रा से नहीं होने देता)। कहीं शराब का नशा, तो कहीं दौलत का नशा, प्रेम की तबाही और जिंदगी की बर्बादी की इबारत लिखता है।
हालॉकि यह फिल्म सामाजिक संदेश की दृष्टि देवदास से कहीं बेहतर है। कोख और किस्मत से लड़ती नायिका विधवा होने के बाद तवायफ तक बनती है, मगर अंत में उसे बचपन का प्यार श्याम मिलता और तवायफ के कोठे से वह जमींदार के घर की पतोह बनकर उसी गॉव में लौटती है, जहॉ वह एक बूढ़े व्यक्ति के साथ व्याहा दी गई थी। सन साठ में भोजपुरी फिल्म के माध्यम से इस तरह का सामाजिक संदेश देना फिल्मकार की सामाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
इस फिल्म को सिर्फ इसलिए नहीं देखना चाहिए कि यह भोजपुरी की पहली फिल्म है। या इसलिए भी नहीं देखें कि यह एक कल्ट फिल्म है। बल्कि इसे इसलिए देखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें गॉव, खेत, खलिहान, बैल, हल, रोपनी – सोहनी, मड़ई, कच्चे घर और जटिल सामाजिक संरचना है, जहॉ ताड़ी, शराब और औरत को लेकर दूसरे दर्जे की मानसिकता काम कर रही है। जब कभी पचास साल पूराने गॉव और गॉव के लोगों की वास्तविक छवि देखने की जरूरत होगी, तब इस फिल्म को इतिहास की तरह या साक्ष्य की तरह देखा जाएगा।
फिल्म में कई विषय उठाए गए हैं, जैसे शराब, महाजनी सभ्यता, विद्यालय की प्रति सरकार की बेरूखी और पढ़े-लिखे आदमी की बेकदरी। इतनी सारी बुराइयों के कारण स्वस्थ हवा-पानी और खेत-खलिहान के बावजूद गॉव में खुशहाल जिंदगियों का अभाव दिखता है। यह अभाव संविधान के नीति – निर्देशक तत्वों के प्रति राज्यों की बेरूखी और ग्राम पंचायत व ग्रामीण विकास के खोखले वादों को दर्शाता है। फिल्म का नायक श्याम शहर से पढ़कर गॉव आया है। वह वैज्ञानिक खेती करना चाहता परंतु जिस तरह से उसका माखौल उड़ाया जाता है, उसके प्रेम पर चुस्कियॉ और फबतियॉ कसी जाती हैं, उससे पता चल जाता है कि गॉव में ज्ञान, प्रेम और परिवर्तन के लिए कोई स्पेश नहीं है। गॉवों को अंधे सुरंग से निकालने के लिए जिस तैयारी की जरूरत फिल्म दिखाई गई, वह तैयारी आज भी अधूरी है। फिल्म में पंचायत के द्वारा सुमित्रा के प्रेम का अपमान होते दिखाया गया है। जिस तरह पंचायत आठ दिन में उसकी शादी करा देने का फरमान सुनाती है, वह संस्था अब खाप पंचायत और वह फरमान अब ऑनर किलिंग का रूप ग्रहण कर चुकी है।
अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ इस फिल्म को भोजपुरी संस्कृति के वाहक के रूप में भी याद किया जाता है। शैलेंद्र की कलम से निकले गीत और चित्रगुप्त के लोकधुनों ने सगरो जहान में भोजपुरिया बयार बहा दिया था। वैसे तो फिल्म के सारे गीत बेहद लोकप्रिय हैं, मगर इस गीत के द्वारा औरत की दुर्दशा का जो आख्यान गढ़ा गया है, वह कवि की संवेदनशीलता का परिचायक है –
सोनवा के पिंजरा में बंद भईल हाय राम
चिरई के जियरा उदास
टूट गईल डालियाँ छितर गईल डरिया
छूट गईल नील रे आकाश
सोनवा के पिंजरा मां …
छल-छल नैंना निहारे चुपके रही
चलली बिदेसवा रे मईया के दुआर -२
आँसुओं के मोतियाँ निसानी मोरे बाबुला -२
धारी गईनी हमको रे पार
सोनवा के पिंजरा मां …
छल-छल रह गईली संग कि सहेलियाँ
ले गई बाँध के निठुर रे बहेलिया -२
मोरे मन मितवा भुला दे अब हमरा के -२
छोड़ दे मिलन की तू आस
सोनवा के पिंजरा मां …
यह विदाई गीत है, जिसे गाया है मुहम्मद रफी ने, शब्द दिया है शैलेंद्र ने और संगीत चित्रगुप्त का है। मॉ – बाप, सहेलियॉ, खेत-खलिहान, ताल-पोखर और बचपन का नेह-नार सब कुछ रेत की तरह मुट्ठी से छिजता चला जा रहा है। लड़की को ससुराल का जो सब्जबाग दिखाया जाता है, उसके खोखलेपन को वह बेहतर तरीके से समझती है। ससुराल का सब्ज़बाग सोने का पिंजड़ा नहीं तो क्या है !
सुमित्रा आरा से विदा होकर रेल द्वारा बनारस पहुंचती है। रेल गंगा पर बने लोहवा के पुल (मालवीय पुल) को पार करके बनारस में दाखिल होती है। इस तरह फिल्म में पहली बार गंगा नदी दृश्यमान होती है। शहर बनारस में दाखिल होते ही सुमित्रा के बूढ़े पति मुनेसर को लू मार देता है। वह घर – घर पहुंचते ही दम तोड़ देता है। शैलेंद्र के शब्द जैसे मूर्तिमान होकर नाचने लगते हैं – सोनवा के पिंजरा में बंद भईल हाय राम….। पति के मरने के बाद सुमित्रा की किस्मत अंधे सुरंग को रास्ता धर लेती है – लेखनी खराब हो गईल !
फिल्म में पति की मृत्यु मध्यांतर के ऐन पहली होती है। मतलब असल खेला अभी बाकी है – असल खेला मतलब – असहाय विधवा औरत को किनारे लगाने का खेला, जिसे समाज सदियों से खेलता आ रहा है – कहीं सती प्रथा के नाम पर, कहीं डायन प्रथा के नाम पर तो कहीं औरत के छू भर देने से स्टोव फट जाने के नाम पर। हॉलांकि इस फिल्म में दूसरा रास्ता अपनाया गया है – घर की नई नवेली विधवा बहू को गुंडा के हॉथों कत्ल का रास्ता। मुनेसर की मृत्यु के बाद सब कुछ उसकी व्याहता के नाम हो जाने के भय मुनेसर की बहन और उसका बेटा सारी संपत्ति को कब्जाना चाहते हैं, इसीलिए सुमित्रा को रास्ते से हटाने के लिए गुंडे का सहारा लेने का फैसला लिया जाता है। आम औरत की जीवन लीला ऐसे ही मोड़ पर थम जाती है। मगर जैसाकि ऊपर कहा गया है कि खेला अभी भी बाकी है – बहुत कुछ दिखाया जाना है। इस मोड़ पर वास्तविक जिंदगी परदे की जिंदगी में दाखिल होती है और फिल्मी कहानी खूबसूरत मोड़ लेते हुए अंजाम तक पहुंचती है।
फिल्म जब बनारस के चलचित्र गृहों में लगी, तो सिनेमाहालों में पहले गंगा मैया और हर हर महादेव का जयकारा लगता फिर फिल्म शुरू होती। धर्म और मनोरंजन का कॉकटेल पहली बार एक साथ जुगलबंदी कर रहे थे, जिसे सन 1976 जय मॉ संतोषी के समय और बाद में रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों के समय चरम पर देखा गया, जो बाद में उन्माद का रूप लेता गया।
भोजपुरी की यह फिल्म जिन हिंदी फिल्मों की निरंतरता में बनी वह सांप्रदायिक उन्माद का शिकार नहीं बनीं, मगर उत्तर भारत की धरती में यह सिफ़त है कि यहॉ अच्छी कलॉकृतियॉ भी सांप्रदायिक आईने से देखी जाने लगती हैं।
विचार करना जरूरी है कि–क्या नाजिर हुसैन, विश्वनाथ प्रसाद साहाबादी और कुंदन कुमार (फिल्म निर्देशक) सांप्रदायिक फिल्म बनाने का ख्वाब लेकर भोजपुरी फिल्म निर्माण में आए थे ?
मेरे ख्याल से उत्तर है – नहीं। बिल्कुल नहीं। सच्चाई इसके एकदम उलट है। आज हम जिस जगह खड़े हैं, वहॉ इतना घना अंधेरा है कि हर कुछ और हर कोई संदेहास्पद दिखाई पड़ने लगा है। अगर फिल्म को किसी रूप में याद करना है, तो वह यह हो सकता है कि फिल्म का लेखन नाज़िर हुसैन ने किया है। वे फिल्म के माध्यम से गंगा-जमुनी तहज़ीब को जिंदा करना चाहते थे। दो कौमों की दूरियों को कम करना चाहते थे। कमी कहीं ना कहीं हम में ही थी (है)। दरार हम में था और है, क्योंकि उन्माद में इंसानियत भूल कर हम ही उन्मादी बन जाते हैं (बार-बार बने हैं)। हमने अपने पूर्वजों की अच्छी कोशिशों को भी जाया कर दिया, क्योंकि सन बासठ में बनारस की छविगृहों में जिन कंठों ने जै गंगा मैया की अलख जगाई-लगाई थी, उसमें बारहों बरन के आदमी थे – खाली आदमी और कुछ भी नहीं!