“मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकतांत्रिक स्वराज्य में किसानों के पास राजनीतिक संस्था के साथ हर किस्म की संस्था होनी चाहिए।……. किसानों को उनकी योग्य स्थिति मिलनी ही चाहिए और देश में उनकी आवाज ही सबसे ऊपर होनी चाहिए”1। -मो.क.गाँधी
भारतीय कृषि का संकट संरचनात्मक और नीतिगत दोनों तरह का है। आजादी के पूर्व महात्मा गाँधी ने जिस ग्राम केन्द्रित भारत के विकास की परिकल्पना की थी, उसे ठुकराते हुए जिस तरह एक तरफा औद्योगीकरण और नगरीकरण का रास्ता अख्तियार किया गया उसने कृषि को तबाह और गाँवों को बर्बाद कर वीरान और उजाड़ बना दिया। रही सही कसर साम्राज्यवाद द्वारा दिशा निर्देशित भूमण्डलीकरण, उदारीकरण की नीतियों ने पूरी कर दी। विश्व व्यापार समझौतों के तहत बड़े पैमाने पर राज्य समर्थित, विकसित देशों की उन्नत कृषि के समक्ष भारत की पिछड़ी, अरक्षित कृषि को प्रतिस्पर्धा में उतार दिया गया। परिणामस्वरूप औपनिवेशिक दौर में बहादुराना संघर्ष करने वाला किसान व्यापक पैमाने पर आत्महत्या की प्रवृत्तियों का शिकार हुआ। भारतीय कृषि का बुनियादी संकट सामंती उत्पादन सम्बन्धों को कायम रखते हुए पूँजीवादी उत्पादन के तौर-तरीकों को बढ़ाव देने में निहित है। कृषि क्षेत्र में सामंती, पूँजीवादी और नव साम्राज्यवादी स्थितियों के घाल-मेल ने संकट को जटिल और गहरा बना दिया है। एक तरफ कृषि के क्षेत्र में खुले व्यापार, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश, ठेका खेती, अग्रवर्ती व्यापार और हरित क्रांति के अन्तर्विरोधों को हल किये बिना ’दूसरी हरित क्रांति’ को ऊपर से लादने की कवायद चल रही है तो दूसरी तरफ किसान बुनियादी जरूरतों और सुविधाओं से भी वंचित है। देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों की चाकरी और दलाली में व्यस्त हमारे शासक वर्ग में उस दूर दृष्टि, दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास की कमी है; जिससे संकट का समाधान किया जा सके। इसलिए हर तरफ लूट, झूठ और खोखली, बेशर्म भाषा के विराट छल का बोलबाला है।
भारतीय कृषि आज चैतरफा संकटों से घिरी है। विकसित और पिछड़े सभी राज्यों को इसने चपेट में ले लिया है। इस संकट का मूल कारण उदारीकरण और भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर से जारी वे नीतियाँ हैं जो बहुसंख्यक किसान और मजदूर जनता के जीवन को निरंतर दूभर बनाते हुए मुट्ठी भर काॅरपोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय निगमों, उद्योगपतियों, व्यापारियों एवं संस्था के दलालों के हित में चलायी जा रही है। भूमि सुधार की विलम्बित और निरंतर टाली जा रही प्रक्रिया, हरित क्रांति से उपजे अन्तर्विरोध, कृषि क्षेत्र में निरंतर घटता सार्वजनिक निवेश, कृषि उत्पादों को विश्वव्यापार से जोड़ा जाना, किसानों की सब्सीडियों में कटौती, नगद और व्यापारिक फसलों को बढ़ावा देना, किसानों की संस्थागत और गैरसंस्थागत ऋणग्रस्तता, उपज की लागतों में वृद्धि, कृषि उत्पादों के अलाभकारी मूल्य, खाद-बीज आदि के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बेलगाम लूट की छूट तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और काॅरपोरेट घरानों द्वारा सरकार समर्थित भूमि हड़प अभियान के कारण निरंतर कम होती कृषि योग्य भूमि ने आज भारतीय कृषि को मरनासन्न और लगभग लाइलाज स्थिति में ला खड़ा किया है।
हमारे नीति निर्धारकों और सरकारी अर्थशास्त्रियों की यह परम्परागत सोच रही है कि खेती में कार्यरत लोगों की संख्या आवश्यकता से अधिक है। अतः उन्हें वहाँ से बाहर निकाला जाये। ये बाहर निकाले गये लोग शहरों में निर्माण और सेवा क्षेत्र को सस्ते दिहाड़ी मजदूर के रूप में उपलब्ध होंगे। यह सोच साम्राज्यवादी संस्थाओं की भी रही है। 2008 में वर्ल्ड बैंक ने भारतीय शासक वर्ग को यह दिशानिर्देश दिया था कि आपके यहाँ जमीन अयोग्य लोगों के हाथों में है। कृषि क्षेत्र में कार्यरत अयोग्य लोगों को वहाँ से बाहर निकाला जाए। 1996 में वर्ल्ड बैंक का अनुमान था कि अगले बीस वर्षों में भारतीय गाँवों से शहरों में पलायन करने वाले लोगों की संख्या इंग्लैण्ड, फ्रांस और जर्मनी की आबादी से लगभग दुगुनी 40 करोड़ के आस-पास होगी। विस्थापित होने के लिए मजबूर की गई इस आबादी को प्रशिक्षित करने के लिए इन्ड्रस्ट्रियल ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट (आई.टी.आई.) को खोलने की सलाह दी गयी थी और 2009 में हमारे वित्त मंत्री ने 1000 नये आई.टी.आई. खोलने का निर्णय लिया था। हमारे यहाँ ऐसी सोच रखने वालों की कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि जिस तरह अमेरिका में 2 प्रतिशत लोग खेती करते हैं, उसी तरह हमारे यहाँ की काॅरपोरेट खेती बड़ी आबादी की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा कर देगी।
यह क्लासिकल पूँजीवाद का आजमाया हुआ तरीका है। कार्ल मार्क्स ने ’पूँजी’ के प्रथम खण्ड में इंग्लैण्ड के देहाती इलाकों के किसानों को जबरन उनकी जमीन से बेदखल कर उनके खेतों को बड़े-बड़े सौदागरी चारागाह (मर्चेंट फार्म या कैपिटल फार्म) में बदले जाने और शहरों में बेघर, आवारा भीड़ के रूप में विस्थापित किये जाने का अत्यन्त ही त्रासद चित्र खींचा है। इस आवारा भीड़ को जेलों में बंद कर यातनाएं देकर फैक्ट्रियों में मजदूर के रूप में कार्य करने के लिए मजबूर किया गया-“खेती करने वाले लोगों की सबसे पहले ज़बर्दस्ती जमीनें छीनी गयी, फिर उनको उनके घरों से खदेड़ा गया, आवारा बनाया गया और उसके बाद उनको निर्मम और भयानक कानूनों का उपयोग करके कोड़े लगाये गये, दहकते लोहे से दागा गया, तरह-तरह की यातनाएँ दी गयी और इस प्रकार उनको मजदूरी की प्रणाली के लिए आवश्यक अनुशासन सिखाया गया”2। इन मुसीबतज़दा दयनीय किसानों की दुर्दशा का अंदाजा शेक्सपीयर के मशहूर नाटक ’किंग लियर’ से भी लगाया जा सकता है। लियर ने अपनी गद्दी छोड़कर राजधानी से बाहर निकलने के बाद इन्हीं उजड़े हुए किसानों से अपना तादात्म्य स्थापित किया था। अभी-अभी गाँवों से भारतीय शहरों में विस्थापित मजदूरों के गाँव लौटने के दिल-दहलाने वाले दृश्य ने उस इतिहास को फिर से ताजा कर दिया।
अमेरिका और यूरोप की तरह हमारी जनसंख्या छोटी नहीं है। अभी भी हमारे देश में 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग कृषि पर आश्रित हैं। कृषि का निगमीकरण कर इतनी बड़ी आबादी के लिए हमारे पास विकल्प क्या है? हमारे निजी और सरकारी क्षेत्र दोनों मिलकर ज्यादा-से-ज्यादा चार-पाँच प्रतिशत आबादी को रोजगार दे सकते हैं। शेष लोगों का क्या होगा? हमारे यहाँ निर्माण, सेवा और उद्योग क्षेत्र में रोजगार निर्माण की स्थिति गाँवों से शहरों में किसी बड़ी आबादी के हस्तांतरण की इजाज़त नहीं देता। अतः कृषि को ज्यादा सक्षम और लाभप्रद बनाकर ग्रामीण आबादी को गाँव में ही खेती से जुड़े रोजगार उपलब्ध करवा कर विकास का नया वैकल्पिक माॅडल क्यों नहीं पेश किया जा सकता? यहीं महात्मा गाँधी याद आते हैं। उन्होंने आजादी के पूर्व जवाहर लाल नेहरु को लिखे पत्र में सचेत किया था-“मेरी दृढ़ मान्यता है कि अगर भारत को सच्ची आजादी प्राप्त करना है और भारत के जरिए संसार को भी, तो आगे या पीछे हमें यह समझना होगा कि लोगों को गाँवों में ही रहना है, शहरों में नहीं; झोपड़पट्टियों में रहना है, महलों में नहीं। करोड़ों लोग शहरों या महलों में कभी एक दूसरे के साथ शांतिपूर्वक नहीं रह सकते। उस परिस्थिति में उनके पास सिवा इसके कोई चारा नहीं होगा कि वे हिंसा और असत्य दोनों का सहारा लें”3।
आजादी के बाद हमारे देश के कृषि क्षेत्र में निरंतर घटती हुई सार्वजनिक निवेश की दर ने कृषि को खस्ताहाल बना दिया। अगर निवेश ही नहीं किया जायेगा तो आश्चर्यजनक परिणाम की आशा कहाँ से की जा सकती है। सार्वजनिक निवेश की कमी के कारण इस क्षेत्र में निहित संसाधनों और संभावनाओं का सही इस्तेमाल नहीं हो पाया। वर्तमान सरकार कह रही है कि लागू किये गये कृषि कानूनों से इस क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा। निजी और बाहरी निवेश हमेशा अपनी शर्तों पर आता है। ये शर्तें कृषि और किसानों की स्थिति को और भी चिंताजनक बना देगा। सवाल यह है कि सरकार कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश से अपना पल्ला क्यों झाड़ रही है, जबकि इस पर अभी भी लगभग आधी आबादी आश्रित है? उत्सा पटनायक मानती हैं कि-“स्वतंत्र भारत के पहले चार दशक तक पंचवर्षीय योजनाओं में बड़े स्तर पर सार्वजनिक व्यय कर विकास को प्रोत्साहित किया गया। यह योजनाएँ व्यापक सामाजिक आधार पर तय होती थीं। राज्य विस्तार वाली राजस्व नीति का अनुसरण करते हुए ग्रामीण विकास वाली परियोजनाओं पर अधिक खर्च करता था तथा सार्वजनिक क्षेत्र में उत्पादन आधार के विकास पर राज्य का जोर होता था”4 लेकिन भूमंडलीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से कृषि क्षेत्र में निरंतर घटते सार्वजनिक निवेश ने भारतीय कृषि की रीढ़ तोड़ दी। विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दिशा-निर्देशों पर आँख मूँदकर चलने वाली हमारी सरकारों की यह सोच रही है कि कृषि क्षेत्र की उपेक्षा करके भी जी.डी.पी. के वर्तमान विकास दर को बनाये रखा जा सकता है।
कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा ने भारतीय रिजर्व बैंक के एक अध्ययन का जिक्र करते हुए बताया है कि 2011-12 से 2017-18 के बीच सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.4 प्रतिशत का सार्वजनिक निवेश कृषि क्षेत्र में हुआ है। वे कहते हैं कि काॅरपोरेट क्षेत्र को सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत कर में छूट दे देते हैं। अगर यह 6 प्रतिशत की छूट का निवेश कृषि क्षेत्र में किया गया होता तो कृषि की दशा और दिशा कुछ और होती। कृषि क्षेत्र की जानबूझकर की जा रही घातक उपेक्षा और सार्वजनिक निवेश में भारी कमी के कारण कृषि वृद्धि दर में भारी गिरावट आयी है। “1950-51 में जी.डी.पी. में कृषि का हिस्सा 45 प्रतिशत था। इस क्षेत्र में कार्य करने वालों की संख्या 70 प्रतिशत के आस-पास थी। सात दशकों के बाद जी.डी.पी. में कृषि की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत से भी कम है लेकिन अभी भी उस पर 50 प्रतिशत लोग आश्रित हैं।……. इस क्षेत्र में हुए निवेश देश के दूसरे क्षेत्रों में हुए निवेश से निरंतर नीचे गिरता गया है। 1950 में यह 18 प्रतिशत था, 1980 में 11 प्रतिशत से कुछ ऊपर। आगामी दशकों में स्थिति और भी खराब होती गयी। यह कभी दहाई के अंक को नहीं छू सकी। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों (2014-15 से 2018-19) में कृषि का औसत हिस्सा 7.6 प्रतिशत है। आजादी के बाद की लगभग सभी सरकारों ने संस्थागत रूप से कृषि में निवेश की आवश्यकताओं को नजरअंदाज किया।”5
हमारे यहाँ कृषि और किसान कभी भी सरकारों की चिंता के केन्द्र में नहीं रहे। एक दूरगामी कृषि नीति का हमेशा अभाव रहा है। हमारी सरकारें सोचती हैं कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा सिर्फ 14 प्रतिशत है। अतः उस पर ध्यान दिये जाने की जरूरत नहीं है। इस तर्क पर अमेरिका को तो अपने कृषि पर बिल्कुल ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि उनके यहाँ जी.डी.पी. में कृषि का हिस्सा मात्र 4 प्रतिशत है और वहाँ कार्यशील आबादी के सिर्फ 2 प्रतिशत लोग कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं लेकिन वहाँ 1933 के ’एग्रीकल्चर एडजस्टेमेंट एक्ट’ के बाद प्रत्येक 4 वर्ष में कृषि सम्बन्धी नये कानून बनाये जाते हैं। हर वक्त अमेरिका का कृपाकांक्षी हमारे देश का शासक वर्ग उनकी कृषि सम्बन्धी चिंताओं से सीख क्यों नहीं लेता? “अमेरिका की जी.डी.पी. भारत के मुकाबले 10 से 20 गुनी बड़ी है। कृषि क्षेत्र का समर्थन किये बिना उनका भी गुजारा नहीं। 2014 में यू.एस. कांग्रेस ने एक बिल लाया था, जिसमें कृषि क्षेत्र को एक ट्रिलियन डाॅलर दिया था। यह अगले दस साल के लिए भारत की आधी जी.डी.पी. है।”6
आम तौर पर सरकारों की यह समझ रही है कि खाद्य वस्तुओं की कीमत बढ़ने पर मजदूरी और वेतन में वृद्धि करनी होगी। अतः जान-बूझकर अनाजों की कीमतें नियंत्रित की जाती हैं। आखिर देश को सस्ता अनाज खिलाने की कीमत किसानों को क्यों चुकानी पड़े? वह कृषि में प्रयुक्त सामग्रियों एवं अपनी जरूरत की वस्तुएँ उत्पादकों द्वारा तय की गयी कीमतों पर खरीदता है पर मुद्रा स्फीति को रोकने के नाम पर उसे शहादत क्यों देनी पड़ती है? बाजार में अन्य वस्तुओं की कीमतें जितनी तेजी के साथ बढ़ती है, किसानों की उपज का मूल्य उस अनुपात में नहीं बढ़ता। 1967 में एक क्विंटल गेहूँ बेचकर उस समय का किसान 212 लीटर डीजल खरीद सकता था लेकिन आज उतना गेहूँ बेचकर वह सिर्फ 21 लीटर डीजल खरीद सकता है। ढाई क्विंटल गेहूँ के समर्थन मूल्य से उस समय एक तोला सोना खरीदा जा सकता था पर आज एक तोला सोना खरीदने के लिए उसे 22 क्विंटल गेहूँ बेचने की जरूरत होगी। स्पष्ट है किसानों के उत्पाद का मूल्य जिस मापदण्ड पर तय किये जाते हैं, उसमें खोट है। जान-बूझकर उसके हितों की अनदेखी कर उसके साथ अन्याय किया जाता है। देवेन्द्र शर्मा के एक आकलन के अनुसार किसानों को हर वर्ष 12 लाख 80 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। वे कहते हैं कि सातवें वेतन आयोग में अगर 1.3 प्रतिशत लोगों को नया वेतनमान दिया जाता है तो उसे अर्थव्यवस्था के लिए बूस्टर डोज कहा जाता है। अगर यही बूस्टर डोज देश के 52 प्रतिशत किसानों को दिया जाता तो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कितना बड़ा बूस्टर डोज होता। उनके अनुसार 1970 में गेहूँ की कीमत 76रु. प्रति क्विंटल थी जो 2015 में 1450रु. प्रति क्विंटल हो गयी। इन पैंतालीस वर्षों में सरकारी मुलाज़िमों की तनख़्वाह 120 से 150 गुना, स्कूल शिक्षकों का 280 से 330 गुना तथा काॅलेज और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों का 150 से 170 गुना बढ़ी। किसानों के कृषि उत्पादों की कीमत में सिर्फ 19 गुना की वृद्धि हुई। अगर उपर्युक्त सरकारी सेवकों की आय में भी सिर्फ 19 गुना वृद्धि हुई होती तो या तो वे नौकरी छोड़ देते या आत्महत्या कर लेते। इन 45 वर्षों में किसानों की आय अगर 100 प्रतिशत भी बढ़ी होती तो उनके एक क्विंटल गेहूँ की कीमत आज 7000 रुपये से ज्यादा होती। सरकारी अधिकारियों, कर्मचारी के वेतन में गृहभाड़ा, बच्चों की पढ़ाई का खर्च, स्वास्थ्य पर होने वाला व्यय जोड़ा जाता है। क्या किसानों के घर नहीं होते? वह बीमारियों का शिकार नहीं होता?
पूँजीवादी व्यवस्था में कृषि उत्पादन के बेहतर संसाधन और भरपूर उत्पादन ही सिर्फ समस्या का समाधान नहीं है। आवश्यक है किसानों को उसके उत्पादन के बेहतर मूल्य मिले और उसकी आय में समाज के अन्य वर्गों और समूहों के अनुपात में उचित वृद्धि हो। उत्पादन ही अगर मुख्य पहलू होता तो पंजाब के किसान आत्महत्याएँ नहीं करते। पंजाब में सिंचाई की सुविधाओं के साथ कृषि की उत्पादकता विश्व स्तर की है लेकिन वहाँ भी प्रतिदिन दो-चार आत्महत्या की घटनाएँ घटती हैं, क्योंकि उत्पादन का लागत अधिक है और उससे किसानों की आय कम होती है। देश के दूसरे हिस्सों में किसानों की स्थिति और भी बदतर है। सरकार के खुद के 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश के 17 राज्यों अर्थात् आधे देश के किसानों की सालाना आय बीस हजार रुपये है। यह मासिक सत्रह सौ रुपये से भी कम होती है। इसी आय पर पाँच सदस्यों के एक परिवार में एक माह तक गुजारा करना कितना मुश्किल है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। एक सरकारी कर्मचारी का न्यूनतम मासिक वेतन 18,000 रुपये है। ऐसे में दिन रात मेहनत करने वाले किसानों का मात्र सत्रह सौ रुपये प्राप्त होना सरासर अन्याय नहीं तो और क्या है? ’आर्गेनाइजेशन फाॅर इकोनाॅमिक कोपरेशन एण्ड डेव्हलपमेंट’(ओ.ई.सी.डी.) की रिपोर्ट कहती है कि अगर मुद्रा स्फीति की दर को घटा दें तो लगभग चार दशकों से किसानों की आय स्थिर है। अगर किसानों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य मिलता तो जी.डी.पी. में उनका योगदान भी ज्यादा परिलक्षित होता। जान बूझकर हम उनके उत्पादों की कीमत कम रखते हैं और जी.डी.पी. में उनके योगदान को कमतर आँकते हैं। दरसअल मूल समस्या यह है कि सरकार चाहती है कि काॅरपोरेट घराने और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने मनमाने कीमत पर किसानों को खाद, बीज और कीटनाशक बेचकर अकूत मुनाफा कमायें तो दूसरी ओर विश्व बाजार में अनाजों की कम कीमत और बाजार में उतार-चढ़ाव का फायदा उठाकर वे लागत से भी कम कीमत पर उनके उत्पादों की खरीद करें। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था में दोनों तरफ से किसान मारे जाते हैं। कृषि संकट का मूल कारण खेती का अलाभकारी होना और किसानों को उससे कम आय प्राप्त होना है।
पिछले कई वर्षों से कृषि क्षेत्र की जान-बूझकर की जा रही उपेक्षा साफ-साफ दिखती है। बहुत बड़ी आबादी को अपने भीतर समाहित करने वाले कृषि के प्रति सरकार का रवैया सौतेला है जबकि उद्योग और सेवा क्षेत्र पर वह बहुत मेहरबान है। इसका परिणाम यह है कि सेवा क्षेत्र 15 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है और उद्योग 6 प्रतिशत की रफ्तार से पर कई वर्षों से कृषि विकास की गति 1.7 प्रतिशत से भी कम रही है। इसका कारण कृषि और ग्रामीण विकास के प्रति सरकार का पक्षपातपूर्ण रवैया है। 1989 में ग्रामीण विकास पर जी.डी.पी. का 14.5 प्रतिशत व्यय होता था जो 2004 तक आते-आते मात्र 5.9 प्रतिशत रह गया। प्रतिवर्ष लगभग 30,000 करोड़ रुपये की उसमें कटौती की गयी। कहा जाता है कि भारत गाँवों का देश है पर ग्रामीण अधिरचना विकास निधि मात्र 4000-5000 करोड़ रुपये की है जबकि औद्योगिक आधारभूत ढाँचे की विकास निधि 460 अरब डाॅलर या लगभग 20 लाख करोड़ रुपये के आस-पास है। दोनों के बीच तकरीबन 400 प्रतिशत का अंतर है। कृषि और ग्रामीण विकास की तुलना में उद्योग पर लगभग 400 गुना ज्यादा निवेश किया जा रहा है। सरकार की सोच का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि जब उद्योग को सब्सिडी दी जाती है तो उसे ’इन्सेन्टिव फाॅर ग्रोथ’ कहा जाता है जबकि कृषि को दी गयी सब्सिडी को सरकारें बोझ समझती हैं। हमारी सरकारें यह क्यों नहीं समझती है कि कृषि और ग्रामीण विकास पर बल दिये जाने से इस व्यापक क्षेत्र में माँग की वृद्धि होगी और इससे उद्योग में भी गतिशीलता आयेगी।
ठण्डे यूरोपीय देशों की अपेक्षा उष्ण कटिबन्धों वाले देश जैव विविधता की दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। वहाँ विभिन्न प्रजातियों की फसलें और वनस्पतियाँ मिलती हैं। इस समृद्ध जैव विविधता पर नियंत्रण तथा बहुफसली जमीनों के दोहन को ध्यान में रखकर ही यूरोपीय देशों ने अतीत में उन्हें अपना उपनिवेश बनाया और अपने उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति के स्रोत के रूप में उनका इस्तेमाल किया। आज बदली हुई परिस्थितियों में पूँजी निवेश और पूँजी निर्यात के माध्यम से अमेरिकी और यूरोपीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पुनः इन देशों को नवउपनिवेश बनाकर उनकी जैव विविधता और संसाधनों की डाकेजनी कर रही है। इन नवऔपनिवेशिक और नव साम्राज्यवादी साजिशों को इस बार विश्व व्यापार समझौतों के माध्यम से सफल बनाया जा रहा है। विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इस नव साम्राज्यवाद के कारगर हथियार हैं। इन्हीं संस्थाओं के दिशा-निर्देशों पर विकासशील देशों की कठपुतली सरकारें साम्राज्यवादी हस्तक्षेप, शोषण और संसाधनों की लूट के लिए अपने देश में अनुकूल वातावरण बनाती हैं तथा अपनी जनता के विरूद्ध जन विरोधी फैसले लेती हैं। इन देशों के काॅरपोरेट घरानों, बिके हुए राजनीतिज्ञों, चापलूस नौकरशाहों, मानसिक रूप से गुलाम बुद्धिजीवियों तथा बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों का अपनी जनता के विरूद्ध इस नव-साम्राज्यवाद से अपवित्र समझौता है। ये सभी स्वार्थी तत्व इस साम्राज्यवादी लूट में तरह-तरह से हिस्सा बंटाते हैं। साम्राज्यवादी देशों द्वारा आई.एम.एफ., वल्र्ड बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से हमारी सरकारों पर दबाव डाला जाता है कि खाद्यान्नों पर सब्सिडी कम की जाये। समर्थन मूल्य, सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त किया जाये। आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कृषि के क्षेत्र में उत्पादन से लेकर व्यापार तक को अपने कब्जे में ले लिया है। कृषि क्षेत्र में साम्राज्यवादी पूँजी की घुसपैठ बढ़ती जा रही है। बीज, खाद, कीटनाशकों के क्षेत्र में पूरी तरह से साम्राज्यवादी पूँजी का प्रभुत्व है। विश्व व्यापार समझौता के दोहा बैठक के बाद से हमारी सरकारों पर दबाव था कि खाद्यानों की सरकारी खरीद में कमी लायें। उपभोक्ताओं और किसानों के हितों को देखते हुए पिछली सरकारें इस दिशा में कदम उठाने से हिचकिचा रहीं थीं। लेकिन अपार बहुमत की लहरों पर सवार ’लोकल को वोकल’ बनाने के मंत्र का जाप करने वाली अहंकारी सरकार ने साम्राज्यवाद और उसकी दलाली करने वाले काॅरपोरेट घरानों के पक्ष में यह निर्णायक कदम उठा लिया। साम्राज्यवादी देशों और संस्थाओं की यह रणनीति रही है कि अपने यहाँ इफरात में उत्पादित होने वाले अनाजों को हमारे देश में सस्ता निर्यात कर हमारी खाद्य आत्मनिर्भरता को समाप्त कर दें और हमारी जमीनों पर अपनी जरूरतों के अनुरूप निर्यात योग्य फसलों को उगाने क लिए विवश करें।
कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार की शुरूआत इन तर्कों के साथ हुई कि अक्षम प्रतियोगियों की आर्थिक सहायता बंद कर दी जायेगी। सरकारों द्वारा नियंत्रित सुरक्षित अन्न भंडारों को समाप्त कर दिया जायेगा तथा सीमा शुल्क हटा लिया जायेगा। इससे विश्व व्यापार उस दिशा की ओर मुड़ जायेगा, जहाँ माँग अधिक होगी। किसानों को विनियमित बाजारों से लाभ होगा और उनके उत्पादों का बेहतर मूल्य मिलेगा। बाजार की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के कारण उपभोक्ताओं को भी सस्ते मूल्य पर खाद्य-सामग्रियाँ प्राप्त होंगी। विकासशील देशों को यह भी विश्वास दिलाया गया कि विकसित राष्ट्र कृषि पर दी जाने वाली सहायता को नियंत्रित करेंगे, जिससे विकासशील देश के कृषि उत्पादों को विकसित राष्ट्रों के बाजारों में प्रवेश मिलेगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि विकसित देशों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से अपने किसानों को आर्थिक सहायता जारी रखी तथा विश्व व्यापार में बहुराष्ट्रीय निगमों को उतार कर समान प्रतियोगिता के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी। अमीर देशों ने विकासशील देशों को अपना बाजार उपलब्ध कराने की जगह उनके बाजारों पर कब्जा कर लिया।
विश्व व्यापार समझौते के तहत हमारे देश के शासक वर्ग ने विकसित देशों के इफ़रात सब्सिडी प्राप्त उन्नत पूँजीवादी कृषि के समक्ष अरक्षित, उपेक्षित और अविकसित भारतीय कृषि को अचानक असमान प्रतिस्पर्धा में उतार दिया। यहीं से भारतीय कृषि और किसानों की लोमहर्षक त्रासदी शुरू हुई। विकसित राष्ट्रों ने तरह-तरह के बहाने बनाकर अपने किसानों को भारी सहायता जारी रखी। अतः उनके किसानों को व्यक्तिगत उत्पादन लागत कम हुई और बाजारों में कम कीमत पर अपने उत्पादों को बेचकर भी वे मुनाफे में रहे। हमारे किसान अपनी अत्यधिक लागत और कम बाजार भाव के कारण ऋणग्रस्त होकर आत्महत्या करने को मजबूर हुए। विश्व व्यापार समझौतों के तहत यह भी प्रावधान है कि हर देश अपने कुल घरेलू उपयोग का 2 प्रतिशत अनाज विश्व व्यापार से खरीदेगा। विपरीत स्थितियों के कारण हमारे किसानों को प्रतिस्पर्धी विश्व बाजार में तो प्रवेश मिला ही नहीं, वे अपने घरेलू बाजार के 2 प्रतिशत हिस्से से भी वंचित रह गये। यही वह मूल कारण है जिससे खेती में निरंतर घाटा सहते हमारे किसान खेती छोड़कर दिहाड़ी मजदूर बनने शहर-दर-शहर विस्थापित होकर भटकने को मजबूर हुए। विश्व व्यापार समझौतों से प्रभावित सन् 2000 तक पूरी दुनिया के लगभग 3 करोड़ किसान अपनी जमीनों से हाथ धो बैठे।
भारतीय देशी और विदेशी कम्पनियाँ एक तरफ लागत सामग्रियों की कीमतें बढ़ाकर किसानों को लूटती हैं, दूसरी तरफ सरकार थोड़ी बहुत बची हुई सब्सिडियों में कटौती करके, समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद बंद करके, उनके संकट को और भी बढ़ा देती है। विदेशों से आयातित सस्ते दर के कृषि उत्पाद रही-सही कसर भी पूरी कर देते हैं। भारतीय किसानों की रक्षा के लिए सब्सिडियाँ बढ़ायी जानी चाहिए, लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव में और वित्तीय पूँजी को प्रसन्न करने के लिए भारतीय किसानों को दी जा रही सब्सिडियों में निरंतर कमी की जा रही है। विश्व व्यापार समझौतों के पूर्व 1990 के दशक तक खेती को दी जाने वाली सब्सिडी 200 हजार करोड़ थी, जिसमें 2011 तक 100 हजार करोड़ की कटौती कर दी गयी। कृषि के नाम पर कुछ सब्सीडियाँ मिलती भी हैं तो उन्हें उद्योगों के द्वारा डकार लिया जाता है। खादों पर दी जा रही सब्सीडियाँ इधर किसानों को न दिया जा कर खाद कम्पनियों को दी जा रही है लेकिन इससे किसानों को कोई खास राहत नहीं मिल पाती।
विकासशील देशों में सब्सिडी का विरोध करने वाले पश्चिमी देशों के द्वारा वहाँ के किसानों को हर वर्ष लगभग 65,000 डाॅलर की सब्सिडी प्रत्यक्ष रूप से दी जाती है। भारत अपने किसानों को मात्र 300 डाॅलर की सब्सिडी देता है वह भी अप्रत्यक्ष रूप से पानी, बिजली आदि पर। विश्व में किसानों को सर्वाधिक सब्सिडी अमेरिका और यूरोपीय संघ के द्वारा दी जाती है। “अमेरिका ने 2017 में 131 बिलियन डाॅलर और यूरोपीय संघ ने 2017-18 में 93 बिलियन डाॅलर की सब्सिडी दी। “मूल्य संवर्द्धन (वैल्यू एडीशन) के बतौर भारत ने 2017 में 12.4 प्रतिशत कृषि सब्सिडी दी जबकि अमेरिका ने 90.8 प्रतिशत और यूरोपीय संघ ने 45.3 प्रतिशत दी। यह भारत में कृषि क्षेत्र को दी जा रही सब्सिडी की वास्तविकता है।”7
प्रायः कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या का समाधान कृषि के विविधीकरण तथा नकदी फसलों के उत्थान में देखा जाता है। सरकार अनाजों के उत्पादन में कम आबादी वाले विकसित पश्चिमी देशों की नीतियाँ अपना रही हैं। सरकारी तंत्र लगातार किसानों में यह भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहा है कि गेहूँ, चावल आदि खाद्य फसलों की जगह उच्च मूल्य वाले निर्यात योग्य फसलों का उत्पादन करो। इसके माध्यम से किसानों को जल्दी अमीर बनने का सपना दिखाया जाता है। अधिकांशतः नकदी फसलों का लागत मूल्य ज्यादा होता है, जिसके लिए किसानों को कर्ज की जरूरत होती है। इन निर्यात योग्य नकदी फसलों के वैश्विक मूल्य पर विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का नियंत्रण होता है। इन फसलों के उतार-चढ़ाव भरे मूल्य के भँवर में फँसकर किसानों को अक्सर घाटा लगता है। अब यह तथ्य पूरी तरह प्रमाणित है कि खाद्य फसलों के उपजाने वाले किसानों की अपेक्षा नकदी फसल उगाने वाले विदर्भ, तेलंगाना, कर्नाटक और केरल के किसानों ने ज्यादा आत्महत्याएँ की हैं।
नकदी फसल उगाने का यह दबाव अतीत की नील खेती की याद दिलाता है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि आज के विश्व ग्राम में आवश्यक नहीं है कि हर देश हर वस्तु का उत्पादन करे। अमेरिका और आस्ट्रेलिया अगर ज्यादा अनाज उत्पादित करने की स्थिति में हैं तो हम अपने संसाधनों को इस पर क्यों बर्बाद करें और क्यों न उनके सस्ते अनाज को आयातित कर अपनी जरूरतों को पूरा करें और उपभोक्ताओं को भी राहत दें? यह तर्क ऊपर से लुभावना जरूर लगता है पर यह हमारी कृषि को बर्बाद करने वाला तथा विकसित देशों के हाथों अपनी खाद्य जरूरतों को गिरवी रखने जैसा है।
यह सच है कि हरित क्रांति के बाद कृषि में अत्यधिक रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग का मानवीय स्वास्थ्य, जमीन की उर्वरता तथा भू-जल पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। अतः कुछ लोग जैविक, प्राकृतिक या आर्गेनिक खेती का विकल्प भी सुझाते हैं। इसमें खेती के लिए बाहर से इनपुट लेने की मनाही होती है। खेत या गाँव से ही खेती की जरूरतें पूरी की जाती है। जमीन की उर्वरा शक्ति को नष्ट करने वाली आधुनिक खेती और जीन सवंर्द्धित खेती के विकल्प के रूप में आज पुनः जैविक खेती की बात की जा रही है। घूम-फिर कर हम पुनः उसी सस्ती या परंपरागत खेती की ओर लौट रहे हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इस बार खेती की बागडोर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ में है। जी.एम. फसलों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए आज यूरोप और अमेरिका में जैविक उत्पादों को लेकर एक जुनून जैसा है। वहाँ के डिपार्टमेंटल स्टोरों में इसके लिए अलग से काउंटर होते हैं और इन उत्पादों की कीमत 25 प्रतिशत से भी ज्यादा होती है।
आज जैविक खेती भी वस्तुतः मुनाफा कमाने का धंधा बन गया है। आधुनिक खेती की अपेक्षा इसमें मुनाफा कमाने की संभावना कम है पर यूरोप, अमेरिका तथा दुनिया के अन्य देशों में अभिजात्य वर्ग की ओर से इसकी बढ़ती हुई माँग को देखते हुए इसके जोर पकड़ने की संभावना है। खाद्य की दृष्टि से आज पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी नजर आ रही है। गरीब तबके और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए स्वास्थ्य पर विपरीत असर डालने वाले, भारी मात्रा में उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग से उगायी गयी जी.एम. फसलें होगी तो अमीरों के लिए जैविक उत्पाद। यह एक नयी तरह की साम्राज्यवादी साजिश है कि जमीन हमारी होगी, लागत और उपज भी हमारी पर उपभोग यूरोप और अमेरिका के साथ-साथ हमारे देश का नवधनाढ्य वर्ग करेगा। किसान इस तरह की खेती में भी पूँजी के गुलाम और इच्छित दास बने रहेंगे। उनसे इसके लिए ठेके पर खेती करायी जायेगी।
खेती के बढ़ते लागत मूल्य और कम आय ने किसानों को ऋण लेने के लिए मजबूर किया। अधिकतर छोटे किसानों, बटाईदारों, किराये पर खेत लेकर खेती करने वालों को उचित दस्तावेजों के अभाव में बैंकों से ऋण नहीं मिल पाते और वे गैर संस्थागत फायनेंस कम्पनियों, ग्रामीण सूदखोरों के चंगुल में फँसकर चक्रवृद्धि ब्याज पर कर्ज लेने को मजबूर होते हैं। बैंकों के द्वारा दिये जाने वाले ऋण की स्थिति यह है कि 2 लाख से नीचे के ऋण धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है और 1 करोड़ से 10 करोड़ और 10 करोड़ से 25 करोड़ तक के कृषि ऋण में वृद्धि हो रही है। स्वाभाविक है इतनी बड़ी राशि में ऋण प्राप्त करने वाले लोग किसान न होकर उद्योगपति हैं। किसानों के ऋण को कृषि व्यवसाय की तरफ मोड़ दिया गया है। वैसे भी सरकारों और बैंकों कीे झोली उद्योगपतियों के लिए उदारता के साथ खुली होती है। टाटा की नैनो फैक्ट्री को गुजरात सरकार ने 520 करोड़ रुपये का कर्ज 20 वर्षों में चुकाने के लिए 0.1% के ब्याज दर पर दिया पर वहीं जब ग्रामीण महिला, पुरुष किसान पशुपालन के लिए या अन्य व्यवसाय के लिए बैंकों से ऋण लेने जाता है तो उसे 26% ब्याज दर पर ऋण मिलते हैं। 7 लाख करोड़ रुपये के ऋण में सिर्फ 6 प्रतिशत ऋण किसानों को प्राप्त होते हैं। 2006 से 2015 तक सरकार ने उद्योगपतियों के राजस्व में 43 अरब रुपये माफ किये।
हाल फिलहाल कृषि ऋण को लेकर एक नयी प्रवृत्ति उभरी है। ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरों और महानगरों में इसे बाँटकर समर्थ लोगों को उपकृत किया जा रहा है। पी. साईनाथ के अनुसार “2008 में लगभग आधा कृषि कर्ज महाराष्ट्र के ग्रामीण बैंकों द्वारा नहीं, बल्कि शहरी और महानगरीय शाखाओं द्वारा वितरित किया गया था, सिर्फ मुम्बई में इसका 42 फीसदी से अधिक हिस्सा छोटे किसानों के बजाय बड़े निगमों के नाम दिया गया है।8 जाहिर है मुम्बई के लोग खेती तो करते नहीं। लेकिन यह सिर्फ मुम्बई तक सीमित नहीं है, दिल्ली और चण्डीगढ़ की भी यही स्थिति है।” दिल्ली और चण्डीगढ़ में कितनी खेती होती होगी, यह बताने की जरूरत नहीं है। मगर खेती के लिए दिये जाने वाले कर्जें में इनकी हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। इन दो शहरों में 2009-10 में जितना कृषि ऋण दिया गया वह उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड को मिले कुल कृषि ऋण से अधिक है”9। स्पष्ट है कि कृषि ऋण पर ब्याज दर कम है। अतः बैंकों से साठ गाँठ करके फार्म हाउस के मालिक और अन्य सफेदपोश लोग किसानों के हक की चोरी करके इसका अन्यत्र उपयोग कर रहे हैं और किसान ग्रामीण महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फँसकर अपनी जान दे रहे हैं।
सातवें दशक में हरित क्रांति की शुरूआत के बाद से सरकार का ध्यान सतह की सिंचाई परियोजनाओं से हटकर पूरी तरह भूमिगत जल के दोहन पर केन्द्रित हो गया। यह एक तरह से सिंचाई का निजीकरण था। जो समर्थ और सम्पन्न थे उन्होंने सामूहिक भूमिगत जल पर पूँजी के सहयोग से नियंत्रण कायम कर लिया। डीजल पम्प सेट और विद्युत पम्प सेट के भरोसे सिंचाई के बोझ को किसानों के कंधे पर डाल दिया गया। बिजली और डीजल की बढ़ती कीमतों ने आज सिंचाई को अत्यन्त मँहगा और खर्चीला बना दिया है। सिंचाई राज्य की जिम्मेदारी है। वह इससे बच नहीं सकती। लेकिन आज केन्द्र और राज्य सरकारों के पास वैकल्पिक सिंचाई की कोई दूरगामी योजना नहीं है। दूसरे अन्य देशों ने कृषि सुधार कार्यक्रमों में सिंचाई को अत्यधिक महत्व दिया। अतः उनके यहाँ स्थिति अच्छी है। “इजरायल में 99 प्रतिशत जमीनें सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत आती हैं। दक्षिण अफ्रीका में 76.9 प्रतिशत, फ्राँस में 52.9 प्रतिशत जबकि भारत में सिर्फ 13.1 प्रतिशत जमीनें सिंचित हैं। यह सिर्फ एक उदाहरण है कि हम कृषि संकट का सामाना क्यों कर रहे है“10? अभी सरकार बिजली संशोधन बिल लेकर आयी है। यह बिल बिजली वितरण का पूरी तरह से निजीकरण करने जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली सिंचाई का महत्वपूर्ण साधन है। इसका निजीकरण सिंचाई को और भी मँहगा बना देगा।
जब भी हम किसानों के बारे में सोचते हैं हमारे मन-मस्तिष्क में पुरुष किसानों की तस्वीर उभरती हैै। हम मानते हैं कि पुरुष ही कृषि का कार्य कर सकता है। हमारे समाज की तरह हमारी सरकारें भी पुरुष प्रभुत्ववादी सोच की शिकार हैं। वह भी स्त्रियों को किसानों के रूप में मान्यता नहीं देती। धार्मिक, सांस्कृतिक कारणों से विरासत में मिलने वाली जमीनों पर भी स्त्रियों को अधिकार नहीं दिया जाता। मशहूर कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने 2011 में संसद में किसान स्त्रियों के संदर्भ में एक निजी बिल लाया था। लेकिन वह चर्चा का विषय नहीं बन पाया। स्वामीनाथन की मान्यता है कि अधिकांश इतिहासकार इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्त्रियों ने ही खेती की शुरूआत की। पुरुष जब भोजन की तलाश में शिकार के लिए बाहर जाता था तो स्त्रियाँ आस-पास की वनस्पतियों, पेड़-पौधों के बीज इकट्ठा करती थीं। बाद में भोजन, चारे, तेल और रेशे के लिए उन्हें उगाना शुरू किया। तत्पश्चात खेती की कला और विज्ञान का विकास हुआ। यह वास्तविकता है कि आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं कृषि और कृषि से जुड़े हुए कार्यों में बड़े पैमाने पर पुरुष का हाथ बटाती हैं। ”कृषि जनगणना के अनुसार भारत में 73.02 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं कृषि कार्य से जुड़ी होती हैं। लेकिन इनमें सिर्फ 12.8 प्रतिशत लोगों के पास ही अपनी जमीनें होती हैं। ……… मानव विकास सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के मुताबिक परिवार में 83 प्रतिशत खेती की जमीन विरासत में सिर्फ पुरुषों को प्राप्त हुई। इनमें सिर्फ 2 प्रतिशत स्त्रियों को प्राप्त हुआ। ….. 81 प्रतिशत अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़े वर्ग की महिलाएं खेत मजदूर के रूप में कार्य करती हैं”11 लेकिन सरकार उन्हें किसान के रूप में मान्यता नहीं देती। इस कारण शासन की कृषि सम्बन्धी ऋण, ऋण माफी, फसल बीमा, सब्सिडी, क्षतिपूर्ति आदि की योजनाओं का वे लाभ नहीं ले पातीं। अतः महिलाओं को किसान के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए तथा जल, जंगल और जमीन पर उनका बराबरी का अधिकार होना चाहिए। महिलाओं की तरह दलितों, आदिवासियों को भी कृषक नहीं माना जाता। दलितों को जमीन तो दे दी जाती है पर उन्हें उसके पट्टे नहीं दिये जाते। आदिवासी हजारों वर्षों से जिस जंगल और जमीन पर रहते आये हैं उन पर उनका अधिकार नहीं माना जाता। उनसे बिना पूछे और बिना राय लिये उनकी जमीनें उद्योगपतियों, बड़े बांधों और आरक्षित वनों के लिए ले ली जाती हैं और वे त्रासद विस्थापन के शिकार होते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय कृषि चौतरफा संटकों से घिरी है। इसका स्वरूप नीतिगत और संरचनात्मक दोनों है। हमारी सरकारें अभी भी उस क्लासिकल पूँजीवादी सोच से संचालित हैं कि कृषि में आवश्यकता से अधिक लोग संलग्न हैं, जिन्हें या तो बाहर निकालना है या निकलने के लिए मजबूर कर देना है। आजादी के बाद से ही कृषि और किसान सरकारों की चिंता के केन्द्र में नहीं है। उद्योग की अपेक्षा कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बहुत कम हुआ है। मँहगाई रोकने, मजदूरी और वेतन कम देने की नीयत से किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं दिया गया और जानबूझकर कृषि को अलाभकारी बना दिया गया। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद आज नये संदर्भ में अपनी नई रणनीति के साथ पुनः हमारे जनगण को आर्थिक बदहाली, कंगाली और गुलामी की ओर धकेल रहा है। वर्ल्ड बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं के द्वारा संकट को सुलझाने के लिए जो सुझाव दिये जा रहे हैं, वे संकट को और भी गहरा बनाने वाले हैं। जब से निजीकरण, उदारीकरण और मुक्त बाजार की नीतियाँ अपनायी गयी हैं, किसानों के जीवन की दुश्वारियाँ बढ़ती गयी हैं। उनका असंतोष कई रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। व्यापक पैमाने पर किसानों की आत्महत्याएँ इस संकट की गंभीरता का अहसास दिलाती हैं पर हमारा शासक वर्ग अभी भी देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों के हित साधने में व्यस्त है।
तीन नये कृषि कानूनों का निहितार्थ
कोरोना की महामारी जब अपने चरम पर थी तब जून 2020 में सरकार ने कृषि से जुड़े अध्यादेशों को लागू किया। अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्यों थी? इन अध्यादेशों ने सरकार के खतरनाक इरादों का संदेश दे दिया था। संसद का सत्र चलते हुए भी बिल को संसद में लाकर कानून बनाया जा सकता था। सरकार का अलोकतांत्रिक रवैया तब सामने आया जब लोकसभा में बिना किसी पर्याप्त चर्चा के बहुमत के आधार पर बिल को पास करा लिया गया। सरकार की मुख्य चुनौती राज्य सभा में थी। वहाँ उसे बहुमत नहीं है और वह अन्य दलों के भरोसे पर बिल पास कराती है। 20 सितम्बर 2020 को विपक्षी सांसदों ने राज्य सभा में तीनों कृषि बिल पर मत विभाजन की मांग की पर उपसभापति ने बिना मत विभाजन कराये बिल को ध्वनिमत से पारित होने की घोषणा कर दी। परिणामस्वरूप राज्य सभा में अभूतपूर्व हंगामा हुआ। इस प्रकार कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक (शक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता एवं कृषि सेवा करार विधेयक पर संसद की मुहर लगी। प्रधानमंत्री ने इसे ’कृषि इतिहास का बड़ा दिन’ बताया तो विपक्षी दलों ने इन विधेयकों को किसानों के लिए ’मौत का फरमान’ बताया। कोविड-19 के भयावह दौर से जब पूरा देश एक दूसरे से अलगाव में पड़ा पामाल और परेशान था तब जानबूझ कर इस बिल को इसलिए पास करवाया गया कि व्यापक पैमाने पर इसका विरोध और प्रतिरोध न हो। ठीक ही ’आपदा को अवसर में बदलने’ की यह मौकापरस्त कोशिश थी। सरकार इन विधेयकों की खूबसूरत पर खोखली शब्दावली के निहितार्थ से अच्छी तरह वाकिफ थी और उसे इसके विरोध का अंदाजा भी था। इसीलिए उसने इस संकटपूर्ण समय को चुना ताकि संगठित तरीके से सार्थक विरोध न हो। इसी उद्देश्य से 23 सितम्बर को तीन मजदूर विरोधी तथाकथित ’श्रम सुधार विधेयकों’ को भी मंजूरी दी गयी।
2007 में किराना के व्यवसाय की आपूर्ति श्रृंखला को छोटा कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बड़े औद्योगिक घरानों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। इनका उद्देश्य भारत के सुदूर गाँवों तक फैली और बिखरी हुई आपूर्ति श्रृंखला को सीमित और व्यवस्थित करना था। उस समय इस क्षेत्र में निवेश की जो नयी लहर आयी उसमें टाटा, बिड़ला और अम्बानी जैसे पुराने औद्योगिक घराने ही नहीं बल्कि जी.पी.जी. और फ्यूचर समूह जैसे नवागन्तुकों ने भी उत्साह के साथ प्रवेश किया। लेकिन बहुत ही शीघ्र बड़े घरानों की यह रणनीति विफल हुई। रिलायंस का सब्जी एवं फल के क्षेत्र में खुदरा व्यापार की कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी। फ्यूचर समूह जिसके कर्ता-धर्ता किशोर बियानी, जिन्हें रिटेल का बादशाह कहा जाता था, उनकी आपूर्ति श्रृंखला भी बुरी तरह ध्वस्त हो गयी। इन दूरदर्शी औद्योगिक और व्यापारिक घरानों की इस विफलता के कई कारण थे पर सबसे प्रमुख कारण यह था कि इस क्षेत्र में पहले से फैली कृषि उत्पाद बाजार समितियों (ए.पी.एम.सी.) को समाप्त किये बिना इनका प्रवेश हुआ था। अतः ये जड़ें नहीं जमा पायीं। सुदूर ग्रामीण अंचलों तक छोटे-छोटे खेतों में फैले मूल्य प्रभावी उत्पादन ने इन व्यापारिक समूहों की अक्षमता को सिद्ध कर दिया।
आज निजीकरण और निगमीकरण के इस नये आक्रामक दौर में इन बड़े घरानों को इस क्षेत्र में आधिपत्य के लिए पहले से कहीं अधिक बड़े पूँजी निवेश की जरूरत है। स्वाभाविक है उनकी नजरें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ओर भी लगी हैं। वे उनके साथ मिलकर इस क्षेत्र पर पूर्ण रूप से कब्जा चाहती हैं। बड़े निवेश इस क्षेत्र में उसी स्थिति में आयेंगे जब लाभ कमाने की पूरी गारंटी हो। इसके लिए वे कृषि उत्पाद सामग्रियों की खरीद पर एकाधिकार चाहते हैं। अतः पूर्व में स्थापित कृषि उत्पाद बाजार समितियाँ इनके समक्ष सबसे बड़ी बाधा हैं। अतः इनकी सफलता की गारंटी के लिए इन्हें ध्वस्त करना अति आवश्यक है। अतीत से शिक्षा लेते हुए खुदरा बाजार के क्षेत्र में इनकी सबसे बड़ी बाधा कृषि उत्पाद बाजार समितियों को कमजोर करते हुए अप्रासंगिक बना देना ही इन कानूनों का सबसे बड़ा उद्देश्य है। उन्हें लागू करने के पीछे सरकार की मंशा यही है कि कृषि उत्पाद बाजार समितियों के बाहर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया जाये तथा व्यापार में सहूलियत और मुनाफे में बढ़ोत्तरी के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम को कमजोर कर आवश्यक वस्तुओं के भंडारण से जुड़े प्रतिबंध को हटा कर ज्यादा से ज्यादा जमाखोरी की छूट दी जाये। इसके साथ ही ठेके की खेती को प्रश्रय दिया जाये।
कृषि उत्पादों को ए.पी.एम.सी. मंडियों में बेचकर किसान जो थोड़ा बहुत लाभकारी मूल्य प्राप्त करते हैं, उसका गला घोंटना ही इन कानूनों का मूल मकसद है। जब सरकार का खुदरा बाजार पर कोई नियंत्रित नहीं होगा और न ही सरकारी खरीद होगी तो बाजार की कीमतों में काफी अस्थिरता रहेगी और लाभकारी मूल्य प्राप्त करना किसानों के लिए अत्यन्त मुश्किल हो जायेगा। उनकी आय पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इस कानून से किसानों की नाराजगी इसलिए है कि यह कृषि उत्पाद बाजार समितियों को आप्रासंगिक बनाकर उन्हें समाप्त करने वाला है। नये खुले बाजार में सही मूल्य को प्राप्त करने के लिए सभी किसानों को लम्बे समय तक प्रतीक्षा करना और अपने अनाजों का उचित भंडारण करना संभव नहीं होगा। ठेके की खेती का करार असमान लोगों के बीच किये जाने के कारण उनकी मोल-तोल की क्षमता प्रभावित होगी और बड़े काॅरपोरेट घरानों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दुष्चक्र में उन्हें फँसने का अंदेशा है। इसी प्रकार आवश्यक वस्तु भंडारण की सीमा समाप्त कर दिये जाने से कृषि उत्पादों का कृत्रिम अभाव पैदा कर बड़े व्यापारिक घराने असीमित मुनाफा कमाएंगे। यह कानून अन्तर्राज्यीय व्यापार को बढ़ावा देता है जो हमारे संघीय ढाँचे के विरूद्ध है। यह राज्यों को संविधान द्वारा प्रदत्त स्वायत्तता के खि़लाफ है।
नया कृषि कानून कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया, खरीद और व्यापार से सम्बन्धित है। इसका उत्पादन के क्षेत्र में सुधार और विकास से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। पिछले कई दशकों से उपभोक्ता सामग्रियों, इलेक्ट्राॅनिक उपकरणों, परिधानों आदि के क्षेत्र में बड़ी पूँजी को खुलकर खेलने का अवसर प्रदान किया गया। अब सरकार द्वारा व्यापक जनता की मूलभूत दैनंदिन की आवश्यकताओं के क्षेत्र पर इन कानूनों के माध्यम से एकाधिकार का अवसर दिया जा रहा है। ये कानून पहले से ही खस्ता हाल किसानों की आय पर काॅरपोरेट घरानों की डाकेजनी का अवसर प्रदान करता है। इन तीनों कानूनों का एकीकृत सुधार पैकेज आपूर्ति श्रृंखला पर एकाधिकार हेतु उन्हें उपहार स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। किसान नेता जगमोहन सिंह ने ठीक ही कहा है-“नया कृषि कानून एक ही साथ तीन तरह की-कृषि क्षेत्र, केन्द्र राज्य सम्बन्ध तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली की- हत्या करने का अवसर प्रदान करता है। सरकार बड़े पूँजीपतियों की मदद करना चाहती है और ऐसा करने के लिए किसानों, खेतिहर मजदूरों, केन्द्र राज्य सम्बन्धों तथा शहरी गरीबों के हितों को नुकसान पहुँचा रही है”12।
प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम.एस.स्वामीनाथन की अध्यक्षता में 2004 में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग ने 2004 से 2006 के बीच 5 रिपोर्ट प्रस्तुत की। इन्हीं रिपोर्टों में उन्होंने C2+50% फार्मूले के अनुसार कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाने की सिफारिश की थी। लेकिन हमारे देश में सी.ए.सी.पी. (कमीशन आन एग्रीकल्चर काॅस्ट एण्ड प्राईसेस) के द्वारा तीन तरह से कृषि उत्पादों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित किया जाता है। पहला सूत्र है A2, जिसमें किसी एक फसल में बीज, खाद, कीटनाशकों आदि का जो उत्पादन लागत लगता है, उसके आधार पर कीमतें तय की जाती है। दूसरा सूत्र है A2+FL जिसमें A2 के उत्पादन लागत के साथ-साथ किसी खास फसल के लिए जो परिवार का श्रम लगता है, उसकी कीमत को भी मूल्य निर्धारित करते समय आँका जाता है। तीसरा सूत्र समन्वित उत्पादक मूल्य का है जिसमें A2+FL के साथ जमीन का किराया, लीज पर लिये गये जमीन का मूल्य और उत्पाद के लिए जो पूँजी लगायी जाती है उसका ब्याज भी शामिल किया जाता है। एम.एस.स्वामीनाथन की सिफारिशों में इसी C2 पर 50 प्रतिशत अतिरिक्त जोड़कर समर्थन मूल्य निर्धारित करने की बात की गयी थी। आज तक किसी भी सरकार ने C2+50 प्रतिशत के अनुसार कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं किया। हमारे यहाँ प्रथम सूत्र A2 के अनुसार ही समर्थन मूल्य तय किये जाते हैं और सरकारें दावा करती हैं कि हमने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। यह किसानों के साथ सरासर धोखा है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) का मुद्दा आज किसान संघर्ष का केन्द्रीय मुद्दा बन गया है। इसके पीछे की मूल अवधारणा यह है कि किसानों के उत्पाद के लागत मूल्य के साथ कुछ अतिरिक्त तर्क संगत मूल्य भी मिलना चाहिए। सरकार द्वारा घोषित यह मूल्य बाजार के उतार चढ़ावों से उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है। विश्व व्यापार समझौतों के बाद भारी मात्रा में कृषि सब्सिडी प्राप्त देशों के सस्ते अनाज से प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए भारत के बहुत ही सीमित सब्सिडी प्राप्त किसानों के लिए यह व्यवस्था उनके जीवन-मरण का प्रश्न है। एक समय में जब भारत में खाद्य सुरक्षा नहीं थी तब इस व्यवस्था ने हरित क्रांति को सफल बनाया। इस प्रोत्साहन मूल्य के कारण अनाज की उत्पादकता में वृद्धि हुई और आज हमारे पास अतिरिक्त अन्न भंडार है।
सरकार की ओर से यह कहा जा रहा है कि इन कानूनों में एम.एस.पी. समाप्त करने की बात नहीं है। इसे समाप्त नहीं किया जायेगा यह वह लिखित में भी देने को तैयार है। सवाल यह है कि सरकार भी जब मानती है कि एम.एस.पी. समाप्त नहीं किया जायेगा तब किसान संगठनों की इसे कानूनी दर्जा दिये जाने की माँग को मानने में क्या दिक्कत है? इस माँग से सरकार पीछे क्यों हट रही है? वस्तुतः एम.एस.पी. को लेकर सरकार की नीयत में खोट है। वह इसे लेकर इतनी बार अपना पक्ष बदल चुकी है कि किसानों का सरकार पर बिलकुल भरोसा नहीं है। उनके नीति निर्धारक और भाड़े के बुद्धिजीवी भी दिन रात इसकी निरर्थकता सिद्ध करने में जी जान से लगे हैं।
2014 के चुनाव में प्राप्त सफलता के पीछे बहुत बड़ा कारण यह भी था कि भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि जब हमारी सरकार आयेगी तो स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश के आधार पर C2+50 प्रतिशत का न्यूनतम समर्थन मूल्य देंगे। लेकिन सत्ता में आते ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह हलफनामा दिया कि ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि इससे बाजार का मूल्य बिगड़ जायेगा। 2016 में तत्कालीन कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा कि हमने कभी ऐसा कोई वादा किया ही नहीं था। 2017 में सरकार के द्वारा कहा गया कि स्वामीनाथन कमीशन से हमारा बेहतर माॅडल म0प्र0 के शिवराज सिंह चौहान का है। 2018-19 के बजट भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि हमने स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया है। 2018 में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि हमने सभी तरह के वादे किये थे। हमें उम्मीद नहीं थी कि हम चुनाव जीतेंगे। 2020 में वर्तमान कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा कि हम सिर्फ अकेली पार्टी हैं, जो स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट का सम्मान करते हैं।
सरकार द्वारा अभी जो एम.एस.पी. दी जा रही है, वह पर्याप्त नहीं है। इससे किसानों का लागत मूल्य भी नहीं निकल पाता। C2+50 प्रतिशत तो बहुत दूर की बात है। यह सच है कि पूरे देश में एम.एस.पी. पर सर्वाधिक खरीद पंजाब और हरियाणा में होती है। पंजाब में 99 प्रतिशत और हरियाणा में 75 से 80 प्रतिशत किसानों को एम.एस.पी. मिलती है। इसीलिए वहाँ विरोध ज्यादा है। वास्तविकता यह है कि पूरे देश में सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को एम.एस.पी. की सुविधा प्राप्त है। देश के 94 प्रतिशत किसान अभी भी खुले बाजार में अपने उत्पाद बेचते हैं। तो क्या यह नया कानून सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों के लिए लाया गया है? सवाल यह है कि अब तक ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों में ए.पी.एम.सी. मंडियों का विस्तार क्यों नहीं किया गया और भारत के अन्य राज्यों के किसान इतने दिनों से इस सुविधा से वंचित क्यों है? प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि खुले बाजार के नये कानून से किसानों को लाभ होगा। सवाल यह है कि 2006 से अब तक बिहार के किसानों को लाभ क्यों नहीं हुआ? नितीश सरकार ने वर्ष 2006 से ही बिहार में मंडी व्यवस्था खत्म कर दी थी। सरकार वहाँ अनाज का एक प्रतिशत भी एम.एस.पी. पर नहीं खरीदती। उसका परिणाम यह है कि पंजाब और हरियाणा के किसान जब एम.एस.पी. पर प्रति क्विंटल 1,828 रुपये में धान बेच रहे हैं तो बिहार का किसान 600 से 800 रुपये प्रति क्विंटल घाटा सहकर धान बेच रहा है। इन्हीं कारणों से बिहार में गरीबी बढ़ी और बड़े स्तर पर पलायन और विस्थापन हुआ। किसान मजदूरी करने को बाध्य हुए। बिहार ही नहीं दूसरे अन्य राज्यों में भी किसान निजी व्यापारियों को अपनी फसलें एम.एस.पी. से कम कीमत पर बेचने को बाध्य हैं। सरकार द्वारा जारी किये गये बाजार के आंकड़ों के अनुसार “कई राज्यों में खरीफ की फसलें धान, बाजरा, मक्का, काला चना, सोयाबीन आदि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बेची गयी। उदाहरण के लिए 8 दिसम्बर को मक्का 1200 से 1600 रुपये प्रति क्विंटल बेचे गये जबकि एम.एस.पी. की कीमत 2150 रुपये थी। इसी तरह बाजरा 1300 से 1400 रुपये प्रति क्विंटल गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में बेचा गया जो 2,150 रुपये प्रति क्विंटल के एम.एस.पी. दर से 37 प्रतिशत नीचे था”13। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद एक आधार मूल्य तय कर देता है, जिससे किसानों को यह आश्वासन रहता है कि इससे कम कीमत उसे नहीं मिलेगी। इसलिए पी. साईनाथ की यह माँग उचित है कि-“अगर सरकार सचमुच किसानों की हितैषी है तो अन्य अनाजों को भी इसके दायरे में लाना चाहिए और उन राज्यों में भी इसे लागू करना चाहिए, जहाँ यह व्यवस्था पहले ही खत्म की जा चुकी हैं”14।
अभी-अभी न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा और खरीफ फसलों की सरकारी खरीद इस बात की गारंटी नहीं है कि आगे भी एम.एस.पी. जारी रहेगी। सरकार इसकी समाप्ति की घोषणा भले ही औपचारिक रूप से न करे पर प्राईवेट मंडियों को बढ़ावा देकर तथा ए.पी.एम.सी. मंडियों में खरीद-बिक्री पर शुल्क लगाकर एम.एस.पी. को अप्रासंगिक अवश्य बना देगी। सरकार ने एक बार सरकारी खरीद बन्द कर दी तो फिर किसी प्रकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं रह जायेगा। ए.पी.एम.सी. मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य का भी वही हाल होगा जो दूरसंचार, अस्पतालों और विमानन कम्पनियों के निजीकरण के बाद सार्वजनिक उपक्रमों का हुआ। अतः किसानों की यह माँग अत्यन्त उचित है कि अगर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त नहीं करना चाहती तो इसे कानूनी दर्जा दे दे और मंडी या मंडी के बाहर इससे नीचे की खरीददारी को गैर कानूनी घोषित करे। दिल्ली की सीमा पर एक किसान ने ’फ्रंटलाईन’ की एक पत्रकार से कहा था कि “अगर सरकार पराली-जलाने पर हमें दंडित करने की बात करती है तो उन्हें दंडित करने की बात क्यों नहीं करती जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीदी करना चाहते हैं”। सरकार अगर इससे पीछे हट रही है तो उसकी कथनी और करनी में अंतर है। वह जो कह रही है उससे उसकी वचनबद्धता नहीं है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि किसानों को अब कहीं भी फसल बेचने की आजादी होगी। असली आजादी तो किसानों के लिए यही है कि वह कहीं भी अपनी फसल बेचे पर एम.एस.पी. से कम कीमत उसे प्राप्त न हो। किसानों का यह तर्क लाजवाब है कि जब उद्योगपतियों और व्यापारियों को एम.आर.पी. की सुविधा दी जा सकती है तो उन्हें एम.एस.पी. की क्यों नहीं?
सरकार द्वारा लाये गये नये कानून कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया को उलट देने वाले हैं। पहले वस्तुओं का मूल्य निर्धारण उनके उत्पादन के लागत मूल्य के आधार पर होता था पर अब जिन व्यापारियों की उत्पादन में कोई भूमिका नहीं है, उनके द्वारा किया गया भण्डारण, परिवहन और उनके स्वीकार्य मुनाफा के आधार पर कीमतें तय होंगी। छोटे किसानों की मोल-तोल की क्षमता कम होने के कारण उनके उत्पादों की कीमत कम मिलेगी। देशी-विदेशी काॅरपोरेट घराने कृषि यंत्रों, खाद, बीज, कीटनाशक का तो पहले मूल्य तय करते ही थे, अब किसानों के उत्पाद का मूल्य भी वही तय करेंगे।
हमारे देश में हरित क्रांति की शुरूआत से ही सरकारी खरीद के लिए कृषि उत्पाद बाजार समितियों (ए.पी.एम.सी.) का निर्माण किया गया। अभी इसकी संख्या 7,600 है, जो मूलतः पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और पश्चिमी उत्तरप्रदेश तक सीमित है। यह हैरान कर देने वाला तथ्य है कि शेष प्रदेश इसकी सुविधाओं से वंचित क्यों रहे? देश के ज्यादातर किसानों को इन मंडियों के अन्तर्गत मिलने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा से वंचित क्यों रखा गया? यह हमारे किसानों के साथ किया गया ऐतिहासिक छल है। हर पाँच वर्ग कि.मी. पर अगर ए.पी.एम.सी. मंडियों का निर्माण किया जाये तो हमारे यहाँ 42,000 मंडियों की जरूरत है। अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने माँग की है कि “कृषि उत्पाद बाजार समिति (ए.पी.एम.सी.) के अन्तर्गत आने वाली मंडियों का विकास किया जाये, न कि उससे मुक्ति का प्रयास हो”। इसके साथ ही किसान संगठन यह भी चाहते हैं कि सरकार ए.पी.एम.सी. मंडियों का नियमन कर दे, जिससे किसानों के हित सुरक्षित हो जायें। लेकिन वर्तमान सरकार ने घड़ी की सूई को उल्टा घुमा दिया है।
केन्द्र सरकार के नये कानून ’कृषि उत्पाद बाजार समितियों’ (ए.पी.एम.सी.) की मंडी से बाहर अनाज की खरीद बिक्री को प्रश्रय देते हैं। फसल को बाहर से खरीदने-बेचने पर मंडियों में जो विशेष नया शुल्क लगाया गया है वह उन्हें नहीं देना होगा। मंडी में क्रेता को एम.एस.पी. देने के साथ ही 6 प्रतिशत शुल्क भी देना होगा, जो अंततः व्यावहारिक रूप से किसानों के मूल्य से ही कटौती कर चुकाया जायेगा। इस तरह कृषि क्षेत्र में एक देश दो बाजार की व्यवस्था लागू की जा रही है। यह कानून कीमतों को लेकर बाजार में भेदभाव पैदा करने वाला है। बाहर की खरीद शुल्क मुक्त होने के कारण ज्यादातर व्यापारी मंडियों से बाहर फसल खरीदने लगेंगे और धीरे-धीरे मंडी अपने आप ही खत्म हो जायेगी। मंडियों से बाहर खरीद की छूट देने की बात समझ में आती है पर मंडियों पर अतिरिक्त शुल्क लगाना उसे समाप्त करने की दिशा में ही उठाया गया अन्यायपूर्ण कदम है। मंडियों के समाप्त होते ही न्यूनतम समर्थन मूल्य अपने आप समाप्त हो जायेगा। सरकार कह रही है कि किसान जहाँ चाहें, वहाँ फसल बेच सकते हैं पर सवाल यह है कि ट्राँसपोर्ट का खर्च कौन देगा? क्या छोेटे किसानों के लिए यह संभव है कि बाहर के बाजार में ले जाकर अपनी फसलें बेचें। क्या उत्तरप्रदेश का किसान हरियाणा की ए.पी.एम.सी. मंडी में ले जाकर अपनी फसलें बेचने को स्वतंत्र है? कन्नौज के एक किसान ने इस कानून पर तंज कसते हुए कहा कि अगर सरकार यह अश्वासन दे कि हम तमिलनाडु में अपनी फसलें बेच सकते हैं और सरकार इसका किराया वहन करे तो यह कानून हमें स्वीकार है।
उक्त कानून लागू होने के बाद एक-दो वर्ष काॅरपोरेट खरीददार अधिक कीमत पर फसलें खरीद सकते हैं पर आगे चलकर जब ए.पी.एम.सी. मंडियों का दबाव नहीं होगा तो वे किसानों से मनमाने दाम पर फसलें खरीदेंगे और किसानों के समक्ष कोई और विकल्प नहीं होगा। वर्तमान मंडियों की खूबियों, कमजोरियों से किसान परिचित हैं पर आगे आने वाले बाजार के दुष्चक्र के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं है, जिसे नियंत्रित करने वाला कोई भी नहीं होगा। वे बाजार की क्रूरता से भयभीत और अरक्षित महसूस कर रहे हैं।
वर्तमान कानून का एक अहम पहलू है ठेके की खेती। सरकार की कोशिश है कि छोटे किसानों को कृषि से अगर पूरी तरह खदेड़ा न जा सके तो कम से कम उन्हें ठेके की खेती के मातहत तो कर ही दिया जाये। नये दौर के काॅरपोरेट जमींदार रिलायंस, भारती, टाटा, वालमार्ट, मोंसैंटो और कारगिल जैसी दैत्याकार कम्पनियाँ होंगी। भूमंडलीकरण की कोख से उपजे मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की विशाल संख्या देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों को कृषि क्षेत्र में निवेश के लिए तेजी से आकर्षित कर रही है। विश्व की कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ डेढ़ दशक पूर्व से ही ठेकेे की खेती के माध्यम से इस क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी हैं। पेप्सी, नेस्ले, माक्र्ज, स्पेंसर, कैलोग, गैडफरे, कैडबरीज इंडिया, आई,टी.सी., हिन्दुस्तान लीवर, गोदरेज एग्रो, रिलायंस एग्रोटेक, यूनाइटेज ब्रिवरीज, डीसीएम श्रीराम, मार्कफेड पंजाब, जे.के.पेपर और ए.वी.थाॅमस नेचुरल प्रोडक्ट्स आदि कम्पनियाँ पहले से ही इस क्षेत्र में सक्रिय हैं।
वर्तमान कृषि संकट के समाधान के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा सुझाये गये उपायों और हमारे शासक वर्ग द्वारा अपनायी गयी नीतियों में से यह एक महत्वपूर्ण नीति है। खाद, बीज आदि को मँहगा बनाकर तथा किसानों के लिए सस्ते ऋण की उपलब्धता को मुश्किल बनाकर जबरन किसानों को ठेके की खेती की तरफ धकेला जा रहा है। ठेका उत्पादन या ठेका खेती के साथ-साथ अग्रिम ठेका, खेती के क्षेत्र में प्रचलित उत्पादन और व्यापार की दो भिन्न प्रणालियाँ है। अग्रिम ठेका किसी निश्चित दर पर निश्चित गुणवत्ता के साथ भविष्य में होने वाली खरीददारी का आश्वासन या समझौता है। ठेका उत्पादन या ठेके की खेती उत्पादन का वह नया माॅडल है जिसमें कोई कम्पनी निश्चित दर पर निश्चित गुणवत्ता का माल भविष्य में खरीदने का आश्वासन देने के साथ-साथ उत्पादक को उत्पादन में लगने वाले आवश्यक संसाधनों को भी उपलब्ध कराती है तथा उत्पादन की समस्त प्रक्रिया को अपने दिशा-निर्देशन में सम्पन्न कराती है। इस प्रक्रिया में सरकार भोले-भाले किसानों को इन धूर्त मुनाफाखोर कम्पनियों के हवाले कर खुद अपने दायित्व से मुक्त हो जाना चाहती है। ये कम्पनियाँ जमीन को बिना खरीदे और बिना मालिक बने किसानों को अपना इच्छित दास बना लेती है। इसके तहत किसान अपने फसल उत्पादन तथा बिक्री की स्वतंत्रता को गिरवी रख देता है। यह कृषि के क्षेत्र में ’नील की खेती’ की वापसी का दौर है। इसके अन्तर्गत किसान की सिर्फ जमीन होगी और उसका श्रम होगा लेकिन उत्पादन की प्रक्रिया और बिक्री में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। उसका अपने उत्पाद के बारे में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होगा।
ठेके की खेती के सम्बन्ध में नया कानून बड़ी कम्पनियों, काॅरपोरेट घरानों के पक्ष में झुका हुआ है। इसमें हर तरफ से किसान को नुकसान है। अगर कोई कम्पनी 2000रु. प्रति क्विंटल धान की खरीदी के लिए किसान से करार करती है और भारत या विश्व बाजार में धान की कीमत भविष्य में गिरकर 1500रु. क्विंटल हो जाती है तो कम्पनी धान की क्वालिटी खराब होने, अधिक नमी होने या अन्य किसी भी बहाने से करार से पीछे हट सकती है। इसकी विपरीत स्थिति में कीमतें अगर बढ़कर 2500रु. क्विंटल हो जाती हैं तो किसान को न चाहकर भी घाटा उठाकर उसी करार की कीमत पर फसलें बेचनी होगी। इनमें दोनों तरफ से किसान मारा जाता है। कम्पनी के पास करार तोड़ने के सौ बहाने होंगे पर किसानों के पास एक भी रास्ता नहीं है। क्वालिटी नापने के पैमाने से लेकर उत्पाद की जाँच करने वाले प्रयोगशालाओं पर बड़ी कम्पनियों का ही नियंत्रण होगा।
इस कानून की दूसरी सबसे बड़ी खामी यह है कि अगर किसान और कंपनी के बीच में कोई विवाद होता है तो इसे 30 दिन के भीतर सुलझाना होगा। किसान को कंपनी के विरूद्ध न्यायालय जाने का अधिकार नहीं है। वह ज्यादा से ज्यादा स्थानीय एस.डी.एम. तक अपनी शिकायत लेकर जा सकता है। एस.डी.एम. के लिये गये निर्णय को किसी अदालत में न तो किसान के द्वारा और न ही उसके किसी प्रतिनिधि के द्वारा चुनौती दी जा सकती है। यह कानून निम्न स्तर की कार्यपालिका को न्यायपालिका की जिम्मेदारी सौंपता है। यह भारतीय संविधान में निहित संवैधानिक उपचार के अधिकार के भी विरूद्ध है। हमारे यहाँ प्रशासनिक अधिकारियों में भ्रष्टाचार का जिस तरह बोलबाला है, वैसे में एस.डी.एम. स्तर के अधिकारी को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा अपने पक्ष में झुका लेना अत्यन्त आसान है। यह कानून किसानों और निगमों के बीच पहले से ही व्याप्त अन्यायपूर्ण असंतुलन को और भी बढ़ा देता है। इसीलिए दिल्ली बार कांउसिल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर कार्यपालिका को न्यायपालिका की शक्ति को हस्तांतरित किये जाने का विरोध किया है और इसे खतरनाक भूल की संज्ञा दी है।
खेती की इस व्यवस्था के तहत बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किसानों को खाद, बीज, कीटनाशकों को अपने द्वारा निर्धारित शर्तों और मूल्य पर देकर उन्हें कर्ज के जाल में फँसाकर अपनी मनमानी के आधार पर कीमतें तय कर किसानों से फसलें खरीदेंगी और सरकार मूक दर्शक बनी रहेगी। इस दुष्चक्र में फँसकर किसानों को जमीन बेचकर भागने या आत्महत्या करने के सिवा कोई और चारा नहीं रहेगा। पूँजी के बड़े खिलाड़ियों के समक्ष सरकार ने किसानों को उनके शिकार के लिए असहाय छोड़ दिया है। किसानों की स्थिति कई सारे खरीददारों के बीच माल बेचने वाले स्वतंत्र उत्पादक की न होकर एक ऐसे सर्वहारा की हो जायेगी जिसके पास कोई विकल्प नहीं होगा।
प्रारंभ में जब कई कम्पनियाँ एक ही तरह के उत्पाद के लिए आपस में संघर्ष कर रही हो तो संभव है कुछ समय तक उसका फायदा किसानों को हो! लेकिन जैसे-जैसे कम्पनियों का एकाधिकार बढ़ता जायेगा उनकी गुलामी का दायरा और परतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक नुकसान भी बढ़ता जायेगा। ठेके की खेती में मात्रा, गुणवत्ता और निश्चित समयाविधि की शर्तों पर प्रायः किसानों का नियंत्रण नहीं रहता और कम्पनियाँ अपने पक्ष में इन शर्तों की व्याख्या कर किसानों को लूटने का कार्य करती हैं। पंजाब के टमाटर उत्पादित करने वाले किसानों का पेप्सिको के द्वारा और बंगाल में आलू पैदा करने वाले किसानों का फ्रि़टोले द्वारा ठगा जाना इस पद्धति से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य हैं।
बाजार की माँग के अनुरूप ये दैत्याकार कम्पनियाँ किसानों से फसल चक्र में परिवर्तन की माँग कर सकती हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान हमारी खाद्यान्न सुरक्षा को होगा, क्योंकि ये कम्पनियाँ उन्हीं उत्पादों की खेती को प्रश्रय देंगी जिसकी विश्व बाजार में माँग हो तथा जिसमें ज्यादा मुनाफा हो। ज़ाहिर है मोटे अनाजों के उत्पादन में उनकी रूचि नहीं रहेगी। इससे देश के समक्ष खाद्यान्न का संकट उभर सकता है।
ठेके की खेती का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इसमें किसान या उत्पादक की भूमिका सक्रिय न होकर निष्क्रिय हो जाती है। वह खुद मुख्तार न होकर कंपनी के हाथों की कठपुतली बन जाता है। उसका अपने ही उत्पाद पर कोई नियंत्रण नहीं होता। यह उत्पादन की वह पूँजीवादी प्रक्रिया है जिसमें अपने ही उत्पाद से उत्पादक का अलगाव हो जाता है। इसे मार्क्स ने ’एलियेनेशन’ कहा था। ठेके की खेती में इस एलियेनेशन को स्पष्ट करते हुए आर.सी.लिवाॅन्टिन कहते हैं-“किसान जिस उत्पादन प्रक्रिया में लगा है उसकी वास्तविक प्रकृति और गति के विकल्प को गँवाता है और साथ ही अपने उत्पाद को खुले बाजार में बेचने की क्षमता खो देता है, वह किसान एक निर्धारित श्रृंखला का महज एक कर्मी भर हो जाता है, जिसका उत्पाद उत्पादक से विलग हो जाता है यानी किसान का सर्वहाराकरण हो जाता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि जमीन और भवन का कानूनी अधिकार किसान के पास ही हो और इस तरह शब्दशः वह उत्पादन के साधनों में से कुछ का मालिक ही हो। सर्वहाराकरण का सार है अपनी खुद की श्रम प्रक्रिया पर नियंत्रण गवाँ देना और श्रम के उत्पाद से बेगाना हो जाना”15। पुराने जमाने का दस्तकार बाजार से उत्पादन के साधनों को खरीदता था और खुले बाजार में उसे कहीं भी उत्पाद बेचने की स्वतंत्रता होती थी। लेकिन ठेके की खेती में किसान न तो कुछ खरीदता है, न कुछ बेचता है। वह कंपनी का सिर्फ एक पुर्जा होता है।
जून 2020 में एक अध्यादेश के माध्यम से आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के दायरे से अनाज, आलू, प्याज, दलहन, तिहलन को बाहर निकाल दिया गया। आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक 2020 को संसद ने मंजूरी दे दी है। इसी के साथ उक्त वस्तुओं पर सीमा से अधिक भण्डारण पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। यह चकित करने वाला है कि सरकार भोजन की सामग्रियों को आवश्यक वस्तु नहीं मानती। उसका कहना है कि जब देश में अकाल पड़ता था, भुखमरी थी, हम अनाज बाहर से मँगवाते थे तो इस अधिनियम की जरूरत थी। अब हमारे पास अतिरिक्त अनाज भंडार है और हम निर्यात करने की स्थिति में हैं। इस अधिनियम के प्रावधानों के कारण आपूर्ति श्रृृंखला के क्षेत्र में निजी निवेश नहीं हो पाया। बड़े शीत भंडार और भंडारण केन्द्र भी नहीं बन पाये क्योंकि निवेशकों को भंडारण पर पाबंदी का डर सताता था। अब प्रतिबंध हटा दिये जाने से सब्जियों, फलों की आपूर्ति श्रृंखला में विस्तार होगा तथा भंडारण की सुविधाएँ बढ़ेगी।
जहाँ तक भारत में अब भुखमरी न होने की बात है तो अभी भी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 117 देशों में 102 है। निजी क्षेत्र जब भंडारण की सुविधा बढ़ायेगा तो इसका फायदा भी वही उठायेगा। सीजन के प्रारंभ में किसानों से कम कीमत पर भरपूर सामग्रियों की खरीद कर उसकी बेतहाशा भंडारण करेगा और कीमतें बढ़ने पर ज्यादा दाम पर उपभोक्ताओं को बेचकर अकूत मुनाफा कमायेगा। इससे किसान और उपभोक्ता दोनों लूटे जायेंगे और फायदा सिर्फ बड़े व्यापारियों और काॅरपोरेट घरानों का होगा। वस्तुतः सरकार भंडारण की सुविधा बढ़ाने की अपनी जिम्मेबारियों से भाग रही है। सार्वजनिक भंडारण सुविधा का विकास कर इसका लाभ किसानों को पहुँचाया जा सकता था। लेकिन इस दिशा में सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की और उपभोक्ताओं के साथ-साथ किसानों को लूटे जाने के लिए रास्ता साफ कर दिया है।
सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर बड़े निगमों और व्यापारियों को जमाखोरी के माध्यम से भारी मुनाफा कमाने का अवसर दे रही है। यह सर्वविदित है कि किसानों की फसलें जिस समय आती हैं, बाजार भाव बहुत कम रहते हैं। उत्पादन लागतों के लिए, लिए गये ऋण को चुकाने तथा अपनी अन्य जरूरतों के लिए उसी समय किसानों को मजबूरन कम कीमत पर फसलें बेचनी पड़ती है। इन कृषि उत्पादों की सस्ती खरीद और अनियंत्रित जमाखोरी के बाद बढ़ी हुई कीमतों पर इन्हीं अनाजों को बेचकर मनमाना मुनाफा कमाने का अवसर बड़े निगमों को सरकार ने दे दिया है। लेकिन बहुत बेशर्मी के साथ वह बार-बार प्रचार कर रही है कि इससे किसानों को कृषि उपज का ज्यादा दाम मिलेगा। निगमीकरण के इस दौर में सरकार बाजार के जिस स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की बात कर रही है वह छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है। इसमें कोई शक नहीं है कि बाजार पर इन्हीं बड़े निगमों का नियंत्रण रहता है और वे अपनी जरूरत के अनुसार बाजार संचालित करते हैं। इनसे न सिर्फ किसान लूटे जायेंगे बल्कि उनके द्वारा बाजार में कृत्रिम अभाव पैदा कर वस्तुओं की मनमाना कीमतें बढ़ाकर ये कंपनियाँ उपभोक्ताओं को भी लूटने का काम करेगी। सरकार द्वारा लागू यह कानून न सिर्फ किसान विरोधी है बल्कि उपभोक्ता विरोधी भी है। सरकार ने अनियंत्रित भंडारण से बड़े निगमों को मुनाफा कमाने की खुली छूट दे रखी है।
कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा का मानना है कि जब भी खुदरा बाजार की भंडारण सीमा खत्म की जाती है तो किसानों को नुकसान होता है। उसकी मोल-तोल की क्षमता समाप्त हो जाती है। एक बड़े खुदरा व्यापारी के पास जब बड़ा भंडार मौजूद होता है तो वह नहीं चाहता कि किसानों को अच्छा दाम देना पड़े। अमेरिका में ’वाल मार्ट’, ’टेस्को’ जैसे बड़े खुदरा व्यवसायी हैं जिन पर स्टाॅक लिमिट नहीं है। लेकिन इससे वहाँ के किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिली। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस कानून से ग्रामीण गरीबी बढ़ेगी तथा जन वितरण प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस कानून में दिखावे के लिए कहा जाता है कि अति विशिष्ट परिस्थितियों में भंडारण पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। कोरोना जैसी महामारी को, जब करोड़ों लोगों के रोजगार गये, विस्थापन हुआ विशिष्ट परिस्थिति नहीं माना गया तो प्रतिबंध लगाये जाने की संभावना बहुत कम है।
कृषि सम्बन्धी तीनों कानून अन्तर्सम्बन्धित और अन्तरावलम्बित हैं। साम्राज्यवादी हितों और काॅरपोरेट घराने की सेवा में इन्हें समन्वित ढंग से लाया गया है। कृषि उत्पाद बाजार समितियों एवं सरकारी खरीद के बेअसर होने पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होगी। साम्राज्यवादी देशों द्वारा आई.एम.एफ., वर्ल्ड बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से हमारी सरकारों पर निरंतर दबाव डाला जाता रहा है कि खाद्य सब्सिडी, सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त किया जाये। यह महत्वपूर्ण है कि एक तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार ने साम्राज्यवादी और काॅरपोरेट हितों को साधने की दिशा में निर्णायक कदम उठा लिया है। क्या किसान, मजदूर और गरीब इनके राष्ट्र के अंग नहीं हैं? “सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ वास्तव में जरूरत मंदों तक पहुँचाने के लिए एक जून 1997 से लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) शुरू की गयी थी। इसका मुख्य उद्देश्य गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को ज्यादा रियायती दामों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना था। ……… वर्तमान समय में देश भर में गरीब लोगों को पाँच लाख उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से खाद्यान्न वितरण किया जा रहा है। भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुनिया का सबसे बड़ा वितरण तंत्र है”16
कोविड-19 के बहुत ही बुरे वक्त में जब करोड़ों लोगों की नौकरियाँ चली गयी। करोड़ों मजदूर बेहाल-परेशान अपने गाँव लौटकर आये तो इसी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से उन तक न्यूनतम जरूरत के सामान पहुँचाये गये और उस भयावह दौर में उन्हें थोड़ी राहत मिली। क्या होता अगर सरकार के पास यह सुरक्षित अन्न भंडार नहीं होता और वितरण की यह व्यवस्था नहीं होती? जिस पंजाब के किसान आज नाराज हैं, वहीं से रेल के बैगनों में भर-भरकर खाद्य सामग्री देश के दूसरे इलाकों में पहुँचायी गयी। जिस समय सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने सबसे बेहतर प्रदर्शन किया उसी समय सरकारी खरीद को हतोत्साहित कर उसकी जड़ें खोदने का प्रयत्न जारी था। अगर मोदी सरकार के इ़रादों को समझें तो वह ’डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ (डीबीटी) या प्रत्यक्ष लाभान्तरण की दिशा में आगे बढ़ रही है। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि लाभार्थियों के बैंक खातों में अगर नाम मात्र की राशि डाली जाये और बाजार में खाद्यान्नों के कीमत बढ़ी हो तो वे उससे कितना अनाज खरीद पायेंगे! उनकेे समक्ष भुखमरी का संकट उठ खड़ा होगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त कर हमारे यहाँ भी अमेरिका की तरह कूपन व्यवस्था लागू करने की बात जोर-शोर से उठायी जा रही है। इसमें लाभार्थियों को निश्चित राशि का कूपन दिया जायेगा, जिसे दुकानों में जमा कर उस राशि के अनुरूप राशन प्राप्त कर सकेंगे और वे दुकानें कूपन की राशि सरकार से प्राप्त करेंगी। क्या इस कूपन व्यवस्था से अमेरिका में भूख की समस्या समाप्त हो गयी? वहाँ अभी भी सात में से एक व्यक्ति भूख की रेखा के नीचे है। वस्तुतः प्रत्यक्ष लाभान्तरण या कूपन व्यवस्था लागू किये जाने से सरकारी खरीद और एफ.सी.आई. के माध्यम से अनाज भंडारण की अपनी जिम्मेदारियों से सरकार बचना चाहती है। वह अनाज की निजी खरीद को बढ़ावा देकर उसकी कीमतों को बाजार के रहमोकरम पर छोड़ना चाहती है। कृषि उत्पाद बाजार समितियों के माध्यम से की गयी सरकारी खरीद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह जुड़ी हुई है। अतः सरकारी खरीद बंद होगी तो उसकी अगली अनिवार्य परिणति सार्वजनिक वितरण प्रणाली की तिलांजलि होगी। “जब खाद्यान्न बाजार की स्थितियों के अनुरूप खरीदी जाने वाली वस्तु बन जायेगा तो उन शहरी और ग्रामीण गरीबों को जिन्हें राशन की जरूरत है, वे खाद्यान्न पर अपना अधिकार खो देंगे”17।
औपनिवेशिक जमाने में अकाल और भूख से मौतें भयावह सच्चाई थी। आजादी के बाद भूख और कुपोषण के अभिशापों से मुक्ति तथा किसानों की सहायता के लिए सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं की शुरूआत की गयी। इसके माध्यम से जरूरतमंदों तक उचित मूल्य पर खाद्य सामग्रियाँ पहुँचायी गयीं। सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली किसान और उपभोक्ता दोनों को बाजार के उतार-चढ़ाव के खतरों से महफूज रखते हैं। “सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मूल्य नियंत्रण रखने में प्रभावी भूमिका है। सरकार के हाथ में आवश्यकता से अधिक खाद्यान्न का जमा होना मुद्रास्फीति को रोकने में सहायक सिद्ध होता है। जो जमाखोर या सट्टेबाज जमाखोरी से कीमतें बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें लगता है कि सरकार बाजार में खाद्यान्नों को जारी कर उनके प्रयास को विफल कर सकती है। जब सरकार खरीद ही नहीं कर पायेगी तो ऐसी स्थितियों में मूल्य पर नियंत्रण कैसे कर पायेगी। यही कारण है कि ये तीनों कृषि कानून एक दूसरे से जुड़े हैं। किसान इन्हें समझ रहे हैं और दूसरों को भी शिक्षित कर रहे हैं कि सरकार ने जो रास्ता अपनाया है, वह कितना खतरनाक है“18! इस कानून ने किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को संकट में डाल दिया है। इसलिए किसानों का संघर्ष सिर्फ उनका न होकर उपभोक्ताओं के लिए भी है।
भौगोलिक स्थितियाँ, किसानों की मेहनत तथा जमीन की उर्वरता के कारण हमारे देश में अनाज का उत्पादन बेहतर है। लेकिन उत्पादन की प्रचुरता किसानों की खुशहाली की गारंटी नहीं है। उसके जीवन में प्रसन्नता आयेगी उत्पादों के उचित मूल्य से। “2018-19 में भारत ने 283.37 मिलियन टन खाद्यान्न को उत्पादित किया। मोटे अनाजों, ज्वार-बाजरा के उत्पादन में हमारे देश का प्रथम स्थान है, चावल और गेहूँ में दूसरा स्थान। हाॅटीकल्चर, फल और सब्जियों में हमारे देश का उत्पादन आवश्यकता से अधिक 313 मिलियन टन रहा”19। भारत विश्व के लगभग 73 देशों में अपना खाद्यान्न बेचता है। इसके साथ ही अनाजों का सही रख-रखाव न होने के कारण बड़े पैमाने पर अनाजों की बर्बादी भी होती है। 2011 से 2017 के बीच एफ.सी.आई. के गोदामों में 62,000 टन अनाज बर्बाद हो गये। सिर्फ 2016-17 में 8,600 टन अनाज की बर्बादी हुई। लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। “सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इकाॅनाॅमी (सी.एम.ई.) के आँकड़ों के अनुसार पिछले कुछ महीनों में लगभग 12 करोड़ नौकरियाँ चली गयी। ….. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ने इस तथ्य को उजागर किया है कि देश की लगभग कुल जनसंख्या के 05 प्रतिशत भाग के पास दो समय का भी भोजन नहीं है। वर्तमान समय में इस संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है”20। “भारत में कुपोषण की स्थिति कई अफ्रीकी देशों से भी ज्यादा ख़राब है। ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2020 के अनुसार 107 देशों में भारत का स्थान 94 है; जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी बहुत नीचे है। संयुक्त राष्ट्र की यू.एन.एफ.ए.ओ. रिपोर्ट के अनुसार यहाँ 194 मिलियन लोग प्रतिदिन भूखे रहते है”21।
उपर्युक्त आँकड़ों से स्पष्ट है कि हमारे देश में अनाज उत्पादन की स्थिति काफी संतोषजनक है। लेकिन भूख और कुपोषण भी एक भयावह सच्चाई है। पर्याप्त अनाज के बावजूद देश के नागरिकों में भूखमरी कुपोषण का होना सरकार विफलता है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने आर्टिकल 21 के अनुरूप भोजन के अधिकार को जीवन के अधिकार के रूप में मान्यता दी। इस अधिकार को बनाये रखने के लिए सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बनाये रखना अति आवश्यक है। भारत में खाद्य सुरक्षा गारंटी के लिए दोहरी नीति की आवश्यकता है। एक तो कृषि उत्पादों को बेहतर मूल्य मिले। इसके लिए अधिकतर खाद्यान्न उत्पादों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली के अन्तर्गत लाना चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सरकारी खरीद को बेहतर बनाने की आवश्यकता है। कई अध्ययन यह दर्शाते हैं कि छोटी खेतियाँ खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से ज्यादा व्यावहारिक हैं। तब फिर सरकार काॅरपोरेट घरानों को कृषि क्षेत्र में लाने के लिए इतनी उतावली क्यों है? वे सिर्फ हमारी मिट्टी, भूजल को ही नहीं करोड़ों गरीबों की खाद्य सुरक्षा को भी बर्बाद कर देगा।
’प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ पूर्व से ही काॅरपोरेट घरानों और बड़ी पूँजी को मुफ्त में फायदा पहुँचाने का एक जरिया है। केन्द्र और राज्य सरकार इसके माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई से इंश्योरेंस कंपनियों का घर भर रही हैं। फसलों की बीमा के क्षेत्र में कार्य कर रही ज्यादातर निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ हैं। 18 इंश्योरेंस कंपनियों में सिर्फ तीन सार्वजनिक क्षेत्र की हैं। आई.सी.आई.सी.आई तथा एच.डी.एफ.सी. जैसे कुछ बैंक, बैंकिंग के साथ बीमा का कार्य भी करते हैं। इन बीमा कम्पनियों के द्वारा की जा रही सार्वजनिक सम्पत्ति की लूट को पी.साईनाथ ने राफेल से बड़ा घोटाला कहा है। “राफेल घोटाला 58,000 करोड़ रुपये का था पर फसल बीमा योजना में अब तक की लगी कुल सार्वजनिक पूँजी 86 हजार करोड़ रुपये की है। यह सारा पैसा किसानों को नहीं बीमा कम्पनियों को जा रहा है। चण्डीगढ़ ट्रिव्यून अखबार द्वारा लगायी गयी आर.टी.आई. से खुलासाा हुआ कि पहले के 24 महीनों में केन्द्र और राज्य सरकार का 42,000 करोड़ रुपया फसल बीमा पर खर्च हुआ जिसे 13 बीमा कम्पनियों ने मिलकर 15,995 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया”22। पी. साईनाथ के अनुसार महाराष्ट्र के एक जिले में फसल बीमा योजना के तहत कुल 173 करोड़ रुपये रिलायंस इंश्योरेंस को दिये गये। फसल बर्बाद होने पर रिलायंस ने किसानों को सिर्फ 30 करोड़ रुपये का भुगतान किया और बिना एक पैसा लगाये 143 करोड़ रुपये का मुनाफा कमा लिया।
किसानों पर जबरन बीमा का बोझ डाल दिया जाता है। वे जब बैंकों से ऋण लेने जाते हैं तो बैंक मैनेजर द्वारा बीमा लेने के लिए बाध्य किया जाता है और उनके कर्ज से ही प्रीमियम की राशि काट ली जाती है। बैंक मैनेजर की भूमिका यहाँ इंश्योरेंस कम्पनी के एजेंट की होती है। किसानों के पास बीमा लेने के लिए कम्पनियों के चयन का विकल्प नहीं होता। जिले में जो इंश्योरेंस कम्पनी कार्य कर रही होती है उसी से बीमा लेना होता है। उन बीमा कम्पनियों का जिला या तालुका स्तर पर अपना दफ्तर भी नहीं होता, जहाँ किसान नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजे की मांग कर सकें। नुकसान की भरपाई का तरीका भी अन्यायपूर्ण है। बीमा की प्रीमियम राशि व्यक्तिगत स्तर पर ली जाती है पर मुआवजे का भुगतान व्यक्तिगत क्षति पर न होकर गाँव के स्तर पर होता है। जब गाँव की सभी फसलें बर्बाद होती हैं, उसी स्थिति में क्षतिपूर्ति दी जाती है। जिन क्षेत्रों के किसान संगठन जागरूक और संगठित होते हैं वे संघर्ष कर कुछ क्षतिपूर्ति प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन जहाँ उनके संगठन नहीं हैं, वे मोल-तोल नहीं कर पाते। बीमा कंपनी और किसानों के बीच अगर कोई विवाद हो तो उस विवाद को सुलझाने के लिए पहले से कोई तय प्रक्रिया नहीं है। सी.ए.जी. इस बीमा योजना के लिए सरकार की आलोचना की है कि उसके पास फसल बीमा सम्बन्धी कोई डाटा बेस नहीं है कि कौन किसे, कितना बीमा का सुरक्षा कवर दे रहा है। इसके लिए उसे प्राइवेट बैंकों और बीमा कम्पनियों पर आश्रित रहना पड़ता है। कई फसलों की प्रीमियम की राशि अधिक होती है जो आम किसान के लिए वहनीय नहीं है। उदाहरण के लिए कपास उत्पादन हेतु किसान को प्रति एकड़ 1200रु. का प्रीमियम देना होता है। अगर कोई किसान 10 एकड़ में कपास उत्पादित करता है तो उसे 8000 से 10,000 हजार रुपये का प्रीमियम देना होगा। कुल मिलाकर फसल बीमा योजना किसानों के हित से ज्यादा काॅरपोरेट लूट को बढ़ावा देता है। कम्पनियाँ बिना कुछ खर्च किये करोड़ों डकार जाती हैं।
एन.डी.टी.वी. के द्वारा आर.टी.आई. के माध्यम से पूछे गये सवाल के जबाव से अब यह तथ्य स्पष्ट हो गया है कि सरकार ने कानून बनाने के पहले किसी भी किसान संगठन, यहाँ तक कि अपने जेबी संगठनों से भी बातचीत और राय मशविरा नहीं किया। दबी जुवान से गृहमंत्री ने भी यह बात स्वीकारी। उधर प्रधानमंत्री रोज यह कहते हुए नहीं थकते कि इस कानून से किसानों को लाभ होगा। किसानों को लाभ पहुँचाने वाले कानून के लिए जब किसानों से कोई मशविरा नहीं हुआ तो क्या सरकार ने काॅरपोरेट घरानों से पूछ कर किसानों के फायदे वाला यह कानून बनाया? लगता कुछ ऐसा ही है। सारे देश को मालूम हो या न हो अडानी को तो इस कानून के बारे में जानकारी अवश्य थी। अगर ऐसा नहीं था तो फिर जून 2020 में कृषि सम्बन्धी अध्यादेश लागू होने के पूर्व मई 2020 में ही हरियाणा के पानीपत में अडानी समूह (अडानी एग्रो लौजिस्टिक प्रा0लि0) को अनाज भंडारण की सुविधा के विकास के लिए 90,015.623 स्क्वायर मीटर जमीन इसराना तहसील के नौलथा और जोन्धाकालन गाँव में क्यों दी गयी? जब पूरा देश मई महीने में भीषण लाॅकडाउन की त्रासदी से गुजर रहा था उस समय हरियाणा के ’डायरेक्टर आफ टाउन एण्ड कन्ट्री प्लानिंग’ की ओर से 7 मई को उक्त कंपनी को भूमि उपयोग में बदलाव की स्वीकृति दी गयी।
मोदी सरकार के पिछले छः वर्षों के कार्यकाल में काॅरपोरेट हित में निजीकरण को भरपूर बढ़ावा दिया गया। रेल्वे, विमानन, एयर पोर्ट, बंदरगाह, पेट्रोलियम, रक्षा एवं दूरसंचार के क्षेत्र अंधाधुंध तरीके से काॅरपोरेट घरानों के हवाले कर दिये गये। देश में इन सब पर चुप्पी छायी रही। कारगर प्रतिरोध नहीं हुआ। इससे सरकार का हौसला बढ़ा और देश के सबसे बड़े क्षेत्र और सबसे ज्यादा लोगों को प्रभावित करने वाले कृषि क्षेत्र में तीन कानूनों के माध्यम से काॅरपोरेट घुसपैठ का रास्ता साफ कर दिया। सरकार की काॅरपोरेट परस्ती के कारण ही पहले नोटबंदी और बाद में कोविड 19 से जब भारत के सैकड़ों उद्योग बंद हो गये और करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये तब सरकार के कृपापात्र घरानों की पूँजी में बेतहाशा वृद्धि हुई। “रिलायंस इन्डस्ट्रीज के प्रमुख मुकेश अंबानी की निजी सम्पत्ति में 73 फीसदी का इजाफा हुआ। उनकी निजी सम्पत्ति 6.58 लाख करोड़ हो गयी। इसकी बदौलत वह लगातार नौवें साल देश के सबसे धनाढ्य व्यक्ति बने हुए हैं। वहीं गुजरात स्थित अडानी समूह के चेयरमैन गौतम अडाणी की सम्पत्ति में 48 फीसद की बढ़त हो गयी है और यह 1.40 लाख करोड़ हो गयी है”23। यही नहीं वित्त मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार पिछले पाँच वर्षों में बैंकों ने बड़े काॅरपोरेट घरानों के 246 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया। सरकारी अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिये पूरी फसल की खरीद सुनिश्चित की जाती है तो लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आयेगा, जो सरकार के वश में नहीं है। सवाल यह है कि काॅरपोरेट घरानों की कर्ज माफी और करों में छूट के लिए सरकार के पास पैसा कहाँ से आ जाता है? इस छूट का फायदा तो चन्द लोग उठाते हैं पर किसानों के फसलों की खरीद से आधी आबादी को लाभ मिलेगा।
कृषि कानूनों को रद्द न करने की जिद़ पर अड़ी मोदी सरकार की काॅरपोरेट परस्ती साफ-साफ नजर आ रही है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री के साथ अम्बानी, अडाणी के पुतले फूँक कर उनके बहिष्कार का संदेश देकर किसान पूरे देश में अपनी समझ का विस्तार दे रहे हैं कि वे कानून के पीछे छिपे सरकार के इरादों, मंसूबों और नीयत को अच्छी तरह समझते हैं। आन्दोलन के दौरान किसानों का दिया गया नारा ’सरकार की असली मजबूरी, अडानी, अम्बानी, जमाखोरी’ उनकी समझ का मूर्त रूप है। अखिल भारतीय किसान सभा (हरियाणा) के उपाध्यक्ष इन्द्रजीत सिंह ने ’फ्रंटलाइन’ से बातचीत में कहा कि बड़े काॅरपोरेट घरानों ने पहले से ही कृषि क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा ली थी। “लेकिन पिछले छः वर्षों के दौरान मोदी सरकार से ज्यादा किसान विरोधी सरकार हमने आज तक नहीं देखी। उनके ये विवादास्पद कृत्य इस क्षेत्र में काॅरपोरेट घरानों के बेलगाम प्रवेश की सुविधा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है”24।
कृषि कानूनों के किसानों के फायदे को लेकर जो निरंतर झूठ और आक्रामक प्रचार किया जा रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि हम सचमुच उत्तरसत्य के दौर में हैं। सरकार के इन झूठे दावों और प्रचार के प्रभाव में भले ही मध्यवर्ग का एक हिस्सा आ जाये पर किसानों को इस जन्नत की हकीकत मालूम है। उन्हें अनुभव ने सिखाया है, जिसे खोखले और निरर्थक शब्दों से बहलाया नहीं जा सकता। लोकसभा में विधेयक पारित होने के बाद प्रधानमंत्री ने कहा था यह विधेयक किसानों के लिए ’रक्षाकवच का काम करेगा’। अपने प्रथम चुनाव के 500 रैलियों में से कम से कम लगभग 300 रैलियों में उन्होंने कहा था कि अगर उनकी सरकार आयेगी तो वे न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ 50 प्रतिशत लाभ देंगे। यानी लागत के मूल्य पर 50 प्रतिशत लाभ देंगे। लेकिन चुनाव जीतने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के हलफनामें में उनका पक्ष बदल गया कि लागत के ऊपर 50 प्रतिशत का लाभ देना मुश्किल है। जब उन पर दबाव बढ़ने लगा तो गोल पोस्ट बदलते हुए उन्होंने 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया। अब कानून लागू होने के बाद सरकार के द्वारा कहा गया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर किसानों की सहायता की जा रही है पर भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत ने इस दावे को खारिज कर दिया। उनका कहना है कि यू.पी.ए. सरकार के समय न्यूनतम समर्थन मूल्य में 8 से 12 प्रतिशत की वृद्धि होती थी जो एन.डी.ए. के कार्यकाल में 1 से 5 प्रतिशत तक रह गयी। सरकार यह भी दावा कर रही है कि प्राइवेट कम्पनियों के आने से लागत मूल्य में कमी होगी लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ने खुद डीजल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि कर किसानों की लागत बढ़ा दी है। अभी डीजल और पेट्रोल पर सरकारी कर 50रु. के आस-पास है, जो कीमत का 65 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह भी दावा किया कि उन्होंने स्वामीनाथन आयोग की उन सिफारिशों को लागू कर दिया जिन्हें पूर्ववर्ती सरकारों ने फाईलों के ढेर में दबा दिया था। स्वामीनाथ आयोग की पाँचवी रिपोर्ट आने के बाद 201 एक्शन प्वाईंट तय किये गये थे, जिनके क्रियान्वयन के लिए अन्तर्मंत्रालय समिति की आठ बैठकें हुई जिसमें मोदी सरकार के कार्यकाल में सिर्फ तीन बैठकें हुई। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि इनमें से 175 सिफारिशें यू.पी.ए. सरकार के कार्यकाल में लागू हुई, सिर्फ 25 सिफारिशें मोदी सरकार ने लागू की।
प्रधानमंत्री ने वामदलों पर हमलावर रूख अख्तियार करते हुए तल्ख़ लहजे में कहा था कि केरल में ए.पी.एम.सी. मंडियाँ नहीं है। वामदल वहाँ इसके लिए आन्दोलन क्यों नहीं करते? अपनी भौगोलिक, प्राकृतिक स्थितियों के कारण केरल की स्थिति दूसरे राज्यों से भिन्न है। वहाँ सामान्य अनाजों की अपेक्षा रबर, मसालों आदि नकदी फसलों का उत्पादन ज्यादा होता हैं। नकदी फसलों का रकबा वहाँ अन्य फसलों की तुलना में लगभग आधा है। वहाँ की 82 फीसदी फसलें मसाले और प्लान्टेशन वाली फसलें हैं। वह पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों की तरह खाद्य फसलों की अधिकता वाला राज्य नहीं है। अतः वहाँ ए.पी.एम.सी. मंडियों का स्वरूप अन्य राज्यों की तरह नहीं है। अधिकतर नकदी फसलों के लिए अलग-अलग बोर्डों का गठन किया गया है। हालाँकि इन बोर्डों के सुचारू संचालन के लिए केन्द्र अपेक्षित मदद नहीं करता। इन्हें पर्याप्त राशि नहीं दी जाती। कई सारे बोर्डों में अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्तियाँ नहीं होती और कई पद खाली रहते हैं। मूल्य निर्धारण और विपणन में इन बोर्डों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह सही है कि केरल में एम.एस.पी. की सुविधा नहीं है। वह अपने किसानों को उत्पादन लागत पर प्रोत्साहन बोनस देता है। बोनस को जोड़कर उत्पादित अनाजों की कीमत केन्द्र द्वारा घोषित एम.एस.पी. से हमेशा अधिक होता है। वर्तमान में यह बोनस केन्द्र सरकार द्वारा घोषित एम.एस.पी. का आधा है। यह उल्लेखनीय है कि केरल पहला राज्य है जहाँ दो दर्जन से ज्यादा सब्जियों की न्यूनतम कीमतें तय कर दी जाती हैं और स्थानीय निकायों की सहायता से बिक्री की व्यवस्था की जाती है। “केरल में चावल की उत्पादन लागत 2017-18 में 1,616रु. प्रति क्विंटल थी। 2017-18 में 1,550रु. प्रति क्विंटल का न्यूनतम समर्थन मूल्य केन्द्र के द्वारा घोषित किया गया था। यह केरल के उत्पादन लागत से कम था। केरल सरकार के द्वारा 780रु. प्रति क्विंटल बोनस की घोषणा की गयी थी। केरल में चावल उत्पादक किसान उत्पादन लागत से 44 प्रतिशत मूल्य ज्यादा पाते हैं”25। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि केरल के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने आधा सच कहा। वास्तविकता यह है कि केरल में किसानों को दिया जाने वाला मूल्य स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप है, जो अभी देश के किसी भी हिस्से में नहीं दिया जा रहा है। वहाँ की सरकार किसानों को पर्याप्त सब्सिडी और ऋण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। केरल का रास्ता केन्द्र सरकार के रास्ते से बिल्कुल भिन्न है जो देशी-विदेशी व्यापारियों के लिए खुले बाजार की नीति अपना रही है।
औपनिवेशिक काल में जिस तरह हमारे देश का उच्च और मध्यवर्ग अंग्रेजों की नकल करता था उसी तरह आज हमारा शासक वर्ग अमेरिका की नकल करता है। आज अमेरिका में खुले बाजार और ’वालमार्ट’ या ’टेस्को’ जैसे खुदरा व्यापार श्रृंखला के बड़े ब्रांड सक्रिय हैं। कहा जा रहा है कि खुदरा बाजार श्रृंखला और खुले बाजार की नीति से किसानों की आय बढ़ेगी और उन्हें लाभ मिलेगा। क्या अमेरिका और यूरोपी संघ के देशों में सचमुच ऐसा हुआ? अमेरिका के कृषि विभाग के अनुसार “इसी तरह की खुले बाजार की नीति के कारण वस्तुओं की कीमत प्रति इकाई लागत से भी नीचे गिर गयी है। अतः अमेरिका के किसानों की आय दुनिया के अन्य देशों से बहुत कम है। अमेरिका के किसानों की शुद्ध आय 2013 से 2017 के बीच 50 प्रतिशत नीचे गिर गयी है। …….. युद्ध में भागीदार सैनिकों से किसानों की आत्महत्या की दर वहाँ दोगुनी है”26। वहाँ के ग्रामीण इलाकों में शहरी क्षेत्रों से आत्महत्या दर 45 प्रतिशत अधिक है। वहाँ किसान निरंतर दिवालिया हो रहे हैं। कृषि छोड़ रहे हैं। वहाँ पिछले दस साल में 17000 डेयरी फार्म बन्द हो गये। 1970 के बाद 93ः डेयरी फार्म बंद हो गये। अब उनकी जगह सिर्फ चार-पाँच बड़ी काॅरपोरेट कंपनियाँ दूध उत्पादन करती हंै। इंग्लैण्ड में हर एक मिनट पर एक किसान खेती छोड़कर जा रहा है। किसानों की स्थिति को देखते हुए अमेरिकी सरकार बीमा, मूल्य सुरक्षा, भूमि संवर्द्धन, व्यापार और शोध को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी के रूप में सालाना 20 मिलियन डाॅलर खर्च करती है। इसी तरह जापान कृषि क्षेत्र से प्राप्त आय का 40 प्रतिशत किसानों पर खर्च करता है। यूरोप में हर वर्ष 100 मिलियन डाॅलर की सब्सिडी कृषि के सहयोग के लिए दी जाती है।
खुले बाजार की तरह खुदरा व्यापार श्रृंखला भी अमेरिका में किसानों की आय वृद्धि करने में सहायक नहीं हो सका। किसानों और उपभोक्ताओं के बीच के मुनाफे को खुदरा क्षेत्र की ये बड़ी कम्पनियाँ खुद लील जाती हैं। हमारे यहाँ ’अमूल’ दूध की कीमत का 70 प्रतिशत दुग्ध उत्पादकों को मिलता है। अमेरिका के खुले बाजार में 1 डाॅलर की बिक्री पर सिर्फ 8 प्रतिशत किसानों को प्राप्त होता है। अगर खुले बाजार और खुदरा व्यापार श्रृंखला की व्यवस्था काम कर रही होती तो यूरोप और अमेरिका को बड़ी मात्रा में अपने किसानों को सब्सिडी देने की जरूरत नहीं होती। हमारे यहाँ किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर जिस सक्रियता और उत्साह के साथ खुले बाजार और खुदरा बाजार के निगमीकरण की ओर सरकार बढ़ रही है, वह अमेरिका और यूरोप किसानों की सहायता पहुँचाने में विफल रहा है। अगर बाजार इतनी लाभकारी होती तो अमेरिकी और यूरोपीय किसान इतने संकट में नहीं होते। अतः अमेरिका और यूरोप के विफल माॅडल को सरकार के द्वारा इस देश में लागू करना उचित नहीं है।
किसान आन्दोलन की नयी संस्कृति
भूमंडलीकरण की जनविरोधी नीतियों को लागू किये जाने के बाद भारत के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों, किसानों और मजदूरों के संघर्ष निरंतर जारी रहे हैं। जल, जंगल, जमीन और खेती से जुड़े मुद्दों पर समय-समय पर इनके प्रतिरोध व्यक्त होते रहे हैं लेकिन कड़कड़ाती ठण्ड में दिल्ली की सीमा पर ’डेरा डाले, घेरा डाले’ इन किसानों का आन्दोलन आजाद भारत के इतिहास में अपनी सूझ-बूझ, संगठनात्मक क्षमता, आपसी समन्वय, एकजुटता, दृढ़ता, संयम और धैर्य की दृष्टि से अभूतपूर्व और अनूठा आन्दोलन है। अपने भोजन, आवास और दैनिक जरूरतों को पूरा करने की समस्त तैयारियों के साथ लम्बी लड़ाई का यह जज्बा संघर्ष की एक नयी संस्कृति है। पिछले तीस वर्षों से जारी निराशाजनक और हताश आत्महत्याओं के दौर से किसानों को बाहर निकालकर इसने सŸाा से सीधे संघर्ष का साहस, नया जोश और जुनून पैदा किया है।
स्वाभाविक है आन्दोलन को यह ऊँचाई एक दिन में प्राप्त नहीं हुई। पिछले कई वर्षों से निरंतर संघर्ष के दौरान कई किसान और मजदूर संगठन एक दूसरे के करीब आये। अपने आन्दोलन के साथ समाज के विभिन्न वर्गों और समूहों को साथ लेने की प्रवृत्ति भी इनमें दिखी। वर्तमान सरकार अजेय नहीं है। 2012 में किसानों के ग्वालियर से आगरा मार्च के बाद तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार ने 2013 में भूमि अधिग्रहण का एक नया कानून बनाया था, जिसके किसान हित में कुछ प्रगतिशील प्रावधानों को मोदी सरकार ने सŸाा में आते ही एक अध्यादेश के माध्यम से कमजोर करने का प्रयास किया था। उस समय संसद के भीतर और बाहर किसानों के जबर्दस्त प्रतिरोध ने सरकार को अध्यादेश वापस लेने के लिए बाध्य कर दिया था।
प्रधानमंत्री मोदी के पिछले शासन काल में किसानों के कई आन्दोलन हुए जिसने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। 2017 में मंदसौर गोलीकांड में पाँच किसानों के मारे जाने के बाद किसानों ने देश भर में जबर्दस्त प्रतिवाद किया। आगे चलकर 2017 में ही शिकार आन्दोलन तथा 2018 में ’किसान लाँग मार्च’ का आयोजन अखिल भारतीय किसान सभा के द्वारा किया गया। मार्च 2018 मंे 40 हजार आदिवासी किसान 6 दिन में 180 कि.मी. की पैदल यात्रा कर नासिक से मुम्बई पहुँचे, जिनका वहाँ के वकीलों, डाॅक्टरों, शिक्षकों, बैंक कर्मियों ने भव्य स्वागत किया और उनसे एकजुटता जाहिर की। 2017 में मंदसौर गोलीकांड के बाद स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने C2+50 प्रतिशत की दर से न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने तथा कर्ज माफी हेतु अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (ए.आई.के.एस.सी.सी.) का गठन किया गया। किसान संघर्ष की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम था। इस समन्वय समिति में देश के 250 किसान संगठन शामिल हैं। समन्वय समिति के गठन के उपरान्त राष्ट्रीय स्तर पर जनसम्पर्क के बाद किसानों की कर्ज मुक्ति बिल तथा कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्य से सम्बन्धित न्यूनतम समर्थन मूल्य से जुड़े प्राईवेट कृषक अधिकार बिल 2018 में संसद में पेश किया गया। इस बिल को 21 विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था। अगर वर्तमान सरकार सचमुच कृषक हितैषी है तो उसे उस बिल को पारित कराना चाहिए था। नवम्बर 29, 30, 2018 को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने दिल्ली के लिए मुक्ति मार्च का आयोजन किया, जिसने देश के सैकड़ों किसानों, खेतिहर मजदूरों को एक मंच पर लाने का कार्य किया। इस मुक्ति मार्च में यह माँग की गयी कि कृषि संकट पर विचार करने के लिए संसद का एक विशेष अधिवेशन बुलाया जाये। इन समस्त आन्दोलनों की आम प्रवृत्ति यह थी कि वे केन्द्र और राज्य की उन आर्थिक नीतियों का विरोध करते थे, जिनमें कृषि को अलाभकारी बनाकर किसानों को कर्ज के जाल में फँसा दिया गया था। जाहिर है केन्द्र सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण किसानों के भीतर असंतोष धीरे-धीरे घनीभूत होता जा रहा था।
5 जून 2020 को कृषि सम्बन्धी अध्यादेश लागू होने के बाद अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने पूरे देश में विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। 9 अगस्त 2020 को समन्वय समिति से जुड़े संगठनों और केन्द्रीय मजदूर संगठनों ने संयुक्त रूप से कृषि एवं श्रम अध्यादेशों का राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिवाद किया। 25 सितम्बर को संसद के शीतकालीन सत्र में संक्षिप्त चर्चा के बाद विधेयक पारित होने पर पुनः राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिरोध का आयोजन किया गया। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के सदस्यों तथा पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों ने 26 व 27 नवम्बर 2020 को दिल्ली चलो का आह्नान किया। दिल्ली का वर्तमान आन्दोलन ’संयुक्त किसान मोर्चा’ (एस.के.एम.) के द्वारा संचालित है, जिसमें पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों के साथ अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति तथा शिवकुमार शर्मा, कक्का जी द्वारा संचालित 180 संगठनों का समूह ’राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ’ भी शामिल है।
आज दिल्ली के किसान आन्दोलन में किसानों की जो समझ, प्रतिबद्धता, स्पष्टता और दृढ़ता दिखायी पड़ती है, उसके पीछे पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों के जमीनी स्तर पर किये गये कार्य हैं। कुछ किसान नेताओं ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जून 2020 में अध्यादेश लागू होते ही पंजाब में प्रतिरोध शुरू हो गया। अगस्त माह में भारतीय किसान यूनियन एकता (उग्र्राहन) के उग्राहन एवं किसानों के हित में समय से पूर्व सेवानिवृत्ति लेने वाले शिक्षक सुखदेव सिंह कोकरीकालन के नेतृत्व में कृषि अध्यादेशों के दुष्प्रभावों को लेकर पंजाब के 600 गाँवों में 5 दिवसीय जागरूकता अभियान चलाया गया। एक अन्य किसान संगठन ’किसान मजदूर संघर्ष समिति’ (के.एम.एस.सी.) ने कृषि कानूनों के महत्वपूर्ण बिन्दुओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद किया और इसकी प्रतियाँ एक लाख किसानों और मजदूरों के बीच बाँटी। किसान संघर्ष से जुड़े अधिकांश लोग एक मत से स्वीकार करते हैं कि पंजाब के 30 से अधिक किसान संगठनों को एक साथ लाने में पंजाब कोआपरेटिव विभाग के अन्तर्गत काम करने वाले जगमोहन सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन के गुरुनाम सिंह चडूनी तथा स्वराज्य इंडिया के योगेन्द्र यादव ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। उत्तरप्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत के पुत्र राकेश टिकैत के भारतीय किसान यूनियन ने भी आन्दोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इन नेताओं और संगठनों के निरंतर प्रयासों के कारण ही हरियाणा की खट्टर सरकार की कड़कड़ाती ठंड में पानियों की बौछार, आँसू गैस गोले और सड़कों पर खोद दिये गये गड्ढों ने किसानों के हौसले पस्त नहीं होने दिये। आज भी विपरीत परिस्थितियों में दिल्ली की सीमाओं पर वे बहादुरी से डटे हैं।
पिछले कई वर्षों से कृषि क्षेत्र में साम्राज्यवादी नीतियों के अनुसरण के कारण भारत के साथ अन्य दक्षिण एशियाई देशों के किसानों में भी वहाँ की सरकार के खि़लाफ जबर्दस्त गुस्सा और आक्रोश दिख रहा है। वहाँ की सरकारें किसानों के प्रतिरोध का बर्बर दमन कर रही है। एक महीने पूर्व पाकिस्तान में भी समर्थन मूल्य के लिए प्रतिरोध कर रहे किसानों को लाहौर में पीटकर गिरफ्तार किया गया। श्रीलंका में आयातित उर्वरकों की कमी और कृषि सब्सिडियों को कम किये जाने के विरोध में किसानों ने शक्तिशाली प्रतिरोध किया। भारत की तरह वहाँ की सरकारों ने भी कोविड काल में उन पर काॅरपोरेट एजेंडा थोपने और कृषि के निगमीकरण और विनियमन को आगे बढ़ाने का कार्य किया। पहले लाॅकडाउन के दौरान पाकिस्तान सरकार ने वर्ल्ड बैंक के साथ गेहूँ के बाजार को विनियमित करने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किया।
पिछले कार्यकाल में और इस बार भी नरेन्द्र मोदी सरकार का यह स्थायी चरित्र बन गया है कि जब भी उसके खिलाफ कोई आन्दोलन उठ खड़ा होता है तो वह उसे टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशद्रोही, विकास विरोधी, शहरी नक्सल आदि कहकर उसे बदनाम करने की कोशिश करती है। इस आन्दोलन के बारे में भी उसने यही रणनीति अपनायी। सरकार ने सबसे पहले कहा कि यह आन्दोलन कांग्रेस द्वारा चलाया जा रहा है। सरकार के केन्द्रीय मंत्री राव साहब दानवे ने किसान आन्दोलन के पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ बताया। इस आन्दोलन में खालिस्तानी उग्रवादी तत्वों के शामिल होने की बात कहकर भी आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश की गयी। सरकार अब हताशा में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एन.आई.ए.) का सहारा लेकर आन्दोलन के कुछ नेताओं को नोटिस भिजवा रही है। बीच में यह भी कहा गया कि इस आन्दोलन को वामपंथी उग्रवादी तत्वों ने हाईजैक कर लिया है। भारतीय किसान यूनियन के जोगिदर सिंह ने कहा है कि “सरकार का दोहरा चरित्र है। एक तरफ वे दिखाना चाहते हैं कि वे समस्या का समाधान करना चाहते हैं पर दूसरी तरफ वे आन्दोलन को बदनाम करते हैं। दूसरी तरफ कुछ लोगों को अलग से बातचीत के लिए बुला रहे हैं। वे हमारी एकता से डरे हुए हैं। इसीलिए वे हमें हर कीमत पर बाँटना चाहते हैं। मैं सभी संगठनों से एक साथ खड़े होने की अपील करता हूँ”27।
इस पूरे आन्दोलन को लेकर इलैक्ट्राॅनिक और प्रिंट मीडिया का व्यवहार शत्रुतापूर्ण रहा है। वे इसे हिंसक, जिद्दी, देशद्रोही और राजनीतिक बहकावे का शिकार होने का तमगा देते रहे हैं। अधिकांश बड़े अखबारों के संपादकीय पृष्ठ नीति आयोग के सरकारी बुद्धिजीवियों के कानून समर्थक लेखों से भरे दिखाई पड़े। हिन्दी के प्रमुख अखबार ’जनसत्ता’ को पढ़कर लगा ही नहीं कि इस देश में किसानों का कोई आन्दोलन भी चल रहा है। चोटी के अंग्रेजी अखबारों के काॅरपोरेट समर्थक वर्ग चरित्र को उद्घाटित करते हुए पी. साईनाथ ने कुछ इस तरह समाहार प्रस्तुत किया है, “इंडियन एक्सप्रेस के एक संपादकीय में कहा गया” इस पूरे प्रकरण में दोष सुधारों में नहीं, बल्कि जिस तरह से कृषि कानूनों को पारित किया गया और सरकार की संचार की रणनीति या इसकी कमी में है। एक्सप्रेस को यह भी चिंता है कि इसे सही ढंग से नहीं सँभालने से अन्य महान योजनाओं को चोट पहुँचेगी, जो “तीन कृषि कानूनों की तरह ही” भारतीय कृषि की वास्तविक क्षमता से लाभान्वित होने के लिए आवश्यक सुधार हैं।……. ’टाईम्स आफ इंडिया’ का अपने संपादकीय में कहना है कि सभी सरकारों का प्राथमिक कार्य है “किसानों में एम.एस.पी. व्यवस्था के आसन्न हस्तांतरण की गलतफ़हमी को दूर करना। आखिरकार केन्द्र का सुधार पैकेज कृषि व्यापार में निजी भागीदारी को बेहतर बनाने का एक ईमानदार प्रयास है।“ और इन जैसे सुधारों से “भारत के खाद्य बाजार की हानिकारक विकृतियाँ भी ठीक होगी। …… ’हिन्दुस्तान टाईम्स’ के एक संपादकीय में कहा गया है “इस कदम (नये कानूनों) का ठोस औचित्य है। ”और” किसानों को यह समझना होगा कि कानूनों की वास्तविकता नहीं बदलेगी“28। इन संपादकीय टिप्पणियों को देखकर लगता है कि अखबार लोकतंत्र का चैथा खम्भा न होकर सरकार का चैथा खम्भा है। एक विराट जन आन्दोलन के प्रति अखबारों का यह रवैया उनके पतन की महागाथा है।
किसानों के इस आन्दोलन ने उस पुरानी थीसिस को खारिज कर दिया कि किसानों की चेतना पिछड़ी हुई होती है। आन्दोलन के न सिर्फ नेताओं बल्कि एक-एक भागीदारों को कानून की बारीकियों की समझ, उसके दुष्प्रभाव, उसके विरूद्ध तर्क की जैसी समझ है वैसी शायद सरकार के मंत्रियों, अधिकारियों और मध्यवर्ग के पतित हिस्सों में भी नहीं हो! एक बार जब इन्सान में सही चेतना पैदा हो जाये तो उसे भटकना, भरमाना मुश्किल है। इसीलिए सरकार द्वारा प्रचारित असंख्य झूठ, मीडिया का विरोधी रवैया और सŸाा का हठ उसे डिगा नहीं पा रहा है। इस आन्दोलन ने किसानों में व्याप्त हताशा और निराशा को दूर कर सरकार की नीतियों में बदलाव के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया। इस संघर्ष के दौरान ही उनकी चेतना का परिष्कार भी हुआ। इस आन्दोलन की एक सबसे बड़ी खासियत यह भी है कि 80 के दशक के आन्दोलनों की तरह इस आन्दोलन का नेतृत्व किसी एक करिश्माई व्यक्ति के हाथ में न होकर किसान संगठनों की समन्वय समिति के पास है। वे सारे फैसले सामूहिक रूप से आपसी सहमति के आधार पर ले रहे हैं। आन्दोलन का स्वरूप पूरी तरह से जनतांत्रिक है। इसमें सिर्फ किसानों की ही नहीं कृषक मजदूरों, स्त्रियों, नौजवानों, बच्चों तक की व्यापक भागीदारी है। इसके साथ ही समाज के विविध समूहों, खिलाड़ियों, कलाकारों, साहित्यकारों, जनता से जुड़े बुद्धिजीवियों का समर्थन भी इसे प्राप्त है।
इस आन्दोलन ने देश के किसानों को यह अहसास दिलाया है कि उसने क्या खोया है? किसान अपने हितों के साथ-साथ आम उपभोक्ताओं, शहरी और ग्रामीण गरीबों की लड़ाई भी लड़ रहे हैं क्योंकि इन कानूनों का दूरगामी प्रभाव उनके जीवन को भी तहस-नहस करने वाला है। इस आन्दोलन ने पूरे देश के किसानों में एक नये भाईचारा और साथीपन की भावना का विकास किया है। नासिक से मुम्बई लाँग मार्च के तीन साल बाद महाराष्ट्र के किसान अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में नासिक के गोल्फ मैदान में इस बार दिल्ली मार्च करने के लिए जब इकट्ठा हुए तो पालघर के किसान संतोष कामदी ने कहा “पिछली बार हमने अपनी माँगों के लिए मुम्बई की यात्रा की थी और हमने लड़ाई जीती। इस बार मैं पंजाब और हरियाणा के भाईयों के संघर्ष में हिस्सा लेने जा रहा हूँ। हम बिना जीते हुए लौटकर आने के लिए नहीं जा रहे”29।
इस किसान आन्दोलन ने पंजाब के 32 किसान संगठनों के साथ देश भर के लगभग 500 से अधिक संगठनों को एक साथ संघर्ष में उतरने का अवसर प्रदान किया। इसने किसान संगठनों को नहीं, पंजाब और हरियाणा जैसे प्रतिद्वंदी राज्यों को भी एकजुट कर दिया। किसानों के साथ मजदूरों की एकता को भी प्रश्रय दिया। सत्ता की हठधर्मिता के बावजूद किसानों के हौसले पस्त नहीं हैं। वे अभी भी दिल्ली की सीमाओं पर चट्टान की तरह अडिग हैं। इस आन्दोलन ने किसानों में नया आत्म विश्वास पैदा किया है। किसानों का यह आन्दोलन सिर्फ कर्जमाफी, सब्सिडी या न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग का आन्दोलन नहीं है। वे समझते हैं कि इस बार उनकी लड़ाई साम्राज्यवाद के दलाल भारतीय पूँजीपतियों और उनके कारिन्दों से है।
किसानों के इस अनूठे आन्दोलन ने कृषि संकट को मुख्य एजेंडे पर ला दिया है। आवश्यकता है कि हमारे देश की संसद इस संकट की प्रकृति और समाधान के लिए ईमानदार चर्चा कर एक दीर्घकालीन कृषि नीति का निर्माण करे। भारतीय कृषि आज जटिल और गंभीर समस्याओं का सामना कर रहा है। उसे अस्थाई तरीके से हल नहीं किया जा सकता। इसकी चुनौतियों से निपटने के लिए समन्वित ढंग से प्रयास की जरूरत है। आज किसानों की मूल समस्या उसके कम आय की है। किसानों के लिए वेतन आयोग के तर्ज पर कृषक आय आयोग का गठन हो एवं कृषि को लाभकारी बनाया जाये। एम.एस. स्वामीनाथन आयोग के C2+50 प्रतिशत के आधार पर कृषि उत्पादों का सही प्राक्लन हो एवं देश के हर राज्य में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी हो। इसके लिए ए.पी.एम.सी. मंडियों का जाल पूरे देश में फैलाकर उसका नियमन किया जाये। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा दिया जाये। लम्बे समय से चले आ रहे कृषि और उद्योग के बीच विभेद को खत्म कर कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाया जाये। कृषि आधारित उद्योग गाँवों में ही खुलें और गाँव को आत्मनिर्भर बनाया जाये। लेकिन ये सारी सद्इच्छाएं काॅरपोरेट परस्त जनविरोधी सत्ता के रहते संभव नहीं है।
कोरोना की आड़ में मोदी सरकार ने एक ही साथ कृषि कानूनों एवं मजदूर कानूनों में संशोधन कर किसानों और मजदूरों के हितों पर जबर्दस्त प्रहार किया है। वह किसानों और मजदूरों की कीमत पर देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों को लाभ पहुँचाना चाहती है। अतः पूरे देश के किसानों और मजदूरों में इस सरकार को लेकर तीखा आक्रोश है। दिल्ली में किसानों का संघर्ष सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसानों का संघर्ष नहीं है। यातायात के साधनों के सुचारू रूप से नहीं चलने के कारण दिल्ली के समीप होने के कारण पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के किसानों की अधिकता जरूर है पर उन्हें समस्त देश के किसानों का समर्थन प्राप्त है। ये किसान समस्त देश के किसानों की हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह सच है कि ये सिर्फ किसानों की ही नहीं ग्रामीण और शहरी गरीबों, मध्यवर्ग के उपभोक्ताओं की लड़ाई भी लड़ रहे हैं; जिन्हें आज न कल इन कानूनों के दूरगामी दुष्परिणाम भुगतने होंगे। अतः इन व्यापक वर्गों का सक्रिय सहयोग, समर्थन और भागीदारी ही इस आन्दोलन का भविष्य तय करेगा। यह आश्वस्तकारी है कि इस आन्दोलन को विभिन्न वर्गों और समूहों का देशव्यापी समर्थन मिल रहा है।
हाल-फिलहाल किसानों के शांतिपूर्ण आन्दोलन को अब कानूनी पचड़ों में उलझाने की कोशिशें चल रही हैं। सरकार बहुत पहले से इन कानूनों के मसले पर समिति बनाकर आन्दोलन को टालने का प्रयास कर रही थी। सरकार की मंशा को समझते हुए किसानों ने इसे अस्वीकार कर दिया था। अब यही प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से आया है। सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून की संवैधानिकता पर विचार कर सकता है पर कोई कानून संवैधानिक होते हुए भी जनविरोधी हो सकता है। सरकार के किसी जनविरोधी फैसले का प्रतिरोध करना जनता का अधिकार है। यह किसान विरोधी कानून न्यायालय नहीं, सरकार लेकर आयी है। अब न्यायालय को बीच में लाकर आन्दोलन को पुनः बदनाम किया जायेगा कि देखो ये किसान तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को भी नहीं मान रहे। किसान सरकार की इस शरारतपूर्ण चाल को समझते हैं। अतः वे सर्वोच्च न्यायालय में पार्टी नहीं हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जो समिति बनायी है, वह एकपक्षीय है। समिति के सदस्यों के कानून समर्थक बयान और विचार पहले से ही सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद हैं। वे अपना पक्ष पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। ऐसे में उनसे निष्पक्ष राय की उम्मीद करना बेमानी है। अगर सर्वोच्च न्यायालय खुद इस कानून की प्रासंगिकता को समझना चाहता है तो उसे किसानों के पक्ष को रखने वाले बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों को भी उस समिति में शामिल करना चाहिए। समिति के स्वरूप को देखते हुए उसकी राय का अंदाजा पहले से ही लगाया जा सकता है। सरकार जैसे फर्जी किसान संगठनों के कानून के समर्थन का दावा पहले से कर रही है, वैसे संगठनों को समिति के समक्ष पेश करवाकर अपने दावे को सही साबित करने की कवायद भी कर सकती है।
किसी देश की सरकार को जनता ही चुनती है। अतः जनता को सरकार से सवाल पूछने और उसके गलत निर्णयों के प्रतिरोध का नैतिक और संवैधानिक अधिकार है। एक जनप्रिय लोकतांत्रिक सरकार जनता की भावनाओं और विचारों का आदर करते हुए अगर अपने फैसलों को बदलने का निर्णय लेती है तो उससे उसकी लोकतांत्रित प्रतिबद्धता ही जाहिर होती है। लेकिन जनता के बहुमत से चुनी हुई सरकार जब सत्ता के अहंकार और राज्य हठ में अपने फैसलों को आत्मसम्मान का विषय बनाकर अपनी जनता को ही खारिज करने लगती है तो अपने फासिस्ट चरित्र का ही इज़हार करती है। ब्रेख्त ने ऐसी ही सरकार पर टिप्पणी करते हुए अपनी एक कविता में कहा था “ऐसे मौके पर क्या यह आसान नहीं होगा/सरकार के हित में/कि वह जनता को भंग कर कोई दूसरी चुन ले”30। आज सरकार किसानों का प्रतिपक्ष गढ़ने के लिए अपनी पार्टी और विचारधारा से जुड़े ऐसी ही फर्जी और कागजी संगठनों की जोर-शोर से तलाश कर रही है। किसान तो दृढ़ता से डटे हुए हैं पर सरकार हताशा में किसान नेताओं को राष्ट्रीय जाँच एजेंसी का नोटिस भिजवाकर उन्हें डरा-धमका रही है।
गाँव और किसान एक दूसरे के पर्याय हैं। भारत के गाँवों का भविष्य किसानों के भविष्य से जुड़ा है। अगर किसान बर्बाद होते हैं तो भारत के गाँव भी तबाह हो जायेंगे। ऐसे में महात्मा गाँधी की चेतावनी भारतीय शासक वर्ग के सिर पर आज भी अभिशाप की तरह मंडरा रही है-“सच तो यह है कि हमें गाँवों वाला भारत और शहरों वाला भारत, इन दोनों में से किसी एक को चुन लेना है। गाँव उतने ही पुराने हैं, जितना कि भारत पुराना है। शहरों को विदेशी आधिपत्य ने बनाया है। जब यह आधिपत्य मिट जायेगा, तब शहरों को गाँवों के मातहत होकर रहना पड़ेगा। आज तो शहरों का बोलबाला है और वे गाँवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गाँव का हृास और नाश हो रहा है। गाँव का शोषण खुद एक संगठित हिंसा है। अगर हमें स्वराज्य की रचना अहिंसा के पाये पर करनी है तो गाँवों को उनका उचित स्थान देना होगा।……. मैं कहूँगा कि अगर गाँवों का नाश होता है तो भारत का नाश हो जायेगा”31।
भारतीय शासक वर्ग ने गाँव की जगह शहरों को और किसानों की जगह बड़े पूँजीपतियों के हित को चुन लिया है। ये तीनों कानून देशी-विदेशी निगमों द्वारा कृषि क्षेत्र को हड़पे जाने की साजिश का अंग है। सरकार बेशर्मी के साथ किसानों, मजदूरों के विरूद्ध देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों के साथ खड़ी है। यह फासिस्ट सरकार का प्रतिनिधि चरित्र है। फासिज्म के गंभीर अध्येताओं ने काॅरपोरेटिज्म को फासिज्म का मूल आधार बताया है। कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की तेरहवीं कांग्रेस के विचारों से सहमति जताते हुए फासीवाद के गंभीर विचारक ज्याॅर्जी दिमित्रोव ने काॅरपोरेट और वित्तीय पूँजी से फासीवाद का सम्बन्ध निरूपित करते हुए कहा था-“वह वित्तीय पूँजी के सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी, सबसे अधिक अंधराष्ट्रवादी और सबसे अधिक साम्राज्यवादी तत्वों की एक खुली आतंकवादी तानाशाही है।…… फासिज्म स्वयं वित्तीय पूँजी की ही सत्ता है। यह मजदूर वर्ग तथा किसानों और बुद्धिजीवियों के क्रांतिकारी हिस्से के खिलाफ आतंकवादी प्रतिशोध का संगठन है”32। देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों के दैत्याकार बुल्डोजर की ड्राविंग सीट पर बैठा तानाशाह भारतीय रेलों, रेल्वे स्टेशनों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों, अस्पतालों, स्कूलों और करोड़ो श्रमिकों के जीवन को रौंदता, ध्वस्त करता खेतों, गाँवों और किसानों के जीवन को तहस-नहस करने के लिए आगे बढ़ रहा है। फिलहाल लाखों किसानों नेे दिल्ली की सीमाओं पर इस बुल्डोजर से अपनी छातियाँ अड़ाकर उसे रोक रखा है। यह भविष्य के गर्भ में है कि किसान, उनकी लहलहाती फसलें, उनके गाँव इसके नीचे दबकर बर्बाद होते हैं या यह बुलडोजर दिल्ली की लुटियन जोन में लौट जाता है। किसानों का यह भविष्य इस देश के लोकतंत्र और फासिज्म के भविष्य को भी तय करेगा। उत्पीड़ित वर्गों के साथ यह भारतीय किसानों के अस्तित्व का संघर्ष है।
संदर्भ:-
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16. संजय ठाकुर/’भुखमरी का गहरात संकट’/’जनसŸाा’/नई दिल्ली/26 सितम्बर, 2020/पृष्ठ-6.
17. नवशरण सिंह/’ए मिलियन रीजन टू मार्च’/’द हिन्दू’/दिल्ली/17, दिसम्बर, 2020/पृ.-7.
18. व्ही. श्रीधर/’ए टाईडल वेव आॅफ ऐंगर’/’फ्रंटलाईन’/1,जनवरी, 2021/पृ.-9.
19. राजमोहन उन्नीथन/’द लाँग रोड टू फूड सेक्योरिटी’/’द हिन्दू’/दिल्ली/17, दिसम्बर 2020/पृ.-7.
20. संजय ठाकुर/’भुखमरी का गहराता संकट’/’जनसŸाा’/नई दिल्ली/26, सितम्बर, 2020, पृ.-6.
21. राजमोहन उन्नीथन/’द लाँग रोड टू फूड सेक्योरिटी’/’द हिन्दू’/दिल्ली/17, दिसम्बर 2020/पृ.-7.
22. पी. साईनाथ/’कितनी आजाद है ग्रामीण पत्रकारों की कलम’?/न्यूज लाॅउण्ड्री डाॅट काॅम/03, दिसम्बर, 2019.
23. ’जनसŸाा’/दिल्ली/30, सितम्बर, 2020/पृ.-10.
24. इन्द्रजीत सिंह/इन्टरव्यू-टी.के. राजलक्ष्मी/’ऐट ग्राउंड जीरो’/’फ्रंटलाईन’/1, जनवरी, 2021/पृष्ठ-11.
25. दीपक जाॅन्सन/’द केरला अल्टरनेटिव’/’फ्रंटलाईन’/1, जनवरी, 2021/पृ.-34.
26. दीपक के./’ए फाउस्टेन बार्गेन’/फ्रंटलाईन/1, जनवरी, 2021/पृ.-22.
27. जोगिन्दर सिंह/’द हिन्दू’/दिल्ली/16, दिसम्बर, 2020/पृष्ठ-9.
28. पी. साईनाथ/च्।त्प्/17, दिसम्बर/रूरल इंडिया आॅनलाईन डाॅट आॅर्ग।
29. आलोक देशपाण्डेय/’नासिक फार्मस टू ज्वाईन सर्पोट ब्रदर्स फ्राॅम पंजाब, हरियाणा’/’द हिन्दू’/दिल्ली/22, दिसम्बर, 2020/पृ.-5.
30. बर्तोल्त ब्रेख्त/’इकहतर कविताएँ और तीस छोटी कहानियाँ’/अनुवाद मोहन थपलियाल/परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ/संस्करण 1998/पृ.-94.
31. मो.क.गाँधी/’हरिजन सेवक’(हिन्दी साप्ताहिक)/20 जनवरी, 1940 तथा 29 अगस्त 1936/स्रोत-’मेरे सपनों का भारत’/सं.-सिद्धराज ढड्ढा/सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी/तीसरा संस्करण/दिसम्बर 1969/पृ.-32,33.
32. ज्याॅर्जी दिमित्रोव/’फासीवाद के खिलाफ जनमोर्चा’/समकालीन प्रकाशन, पटना/प्रथम संस्करण-2003/पृ.-18,19.
सियाराम शर्मा
7/35, इस्पात नगर, रिसाली,
भिलाई नगर, जिला-दुर्ग (छ.ग.)
पिन-490006
मो.न.-9329511024, 8319023110