समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

पढ़त :: वे डरते हैं… :: मनोज कुमार

पहले एक किस्सा ::

बात बहुत पुरानी भी नहीं है। यही लगभग 100 साल पहले – सन 1920 की बात है। बात इतनी दूर की भी नहीं है| यही अपने पूर्णिया (बिहार) जिले के धमदाहा अंचल का वाक़िया है। हुआ यूं कि किसी खेतिहर ने अपने संपन्न मालिक से किसी मजबूरी में कुल जमा 250 रूपये उधार लिए। गाँव के रिश्ते से वह कर्जदार-खेतिहर, मालिक का पोता भी था। जैसा कि होता रहा है, कर्जदार-खेतिहर अपने मालिक-महाजन को चाहकर भी उधार चुका नहीं पा रहा था। खेतिहर ने कुछ भैंसें पाल रखी थीं। मालिक-महाजन ने कहा कि उधार के बदले वह उसकी तीन भैंसे खोलकर ले जाएगा। यहाँ तक तो सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा कि अब भी होता है, लेकिन इसके बाद जो घटित हुआ, वह आज सौ साल बाद हमारे लिए अकल्पनीय है।

खेतिहर ने अपने मालिक-महाजन से मिन्नत की कि वे अपने कर्जे के बदले पाँच बीघा [1 बीघा= 0.83 एकड़, 5 बीघा = 4.15 एकड़], जमीन ले लें लेकिन भैंसे रहने दें, क्योंकि भैंस के बिना वह अपना भरण-पोषण कैसे करेगा। महाजन इस बात के लिए कतई राजी नहीं हुए। थक-हार कर खेतिहर ने पंचायत बिठायी। पंचायत ने खेतिहर के पक्ष में फैसला सुनाया। पंचायत ने कहा कि अगर मालिक भैंसे खोलकर ले जाएगा तो आखिर खेतिहर अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करेगा। खेत का क्या है , खेत तो अगर वह स्वस्थ और जीवित रहा तो फिर भी आबाद कर लेगा। (चक्रवर्ती 2001, पृष्ठ- 48]

और अब सीख ::

  1. आज से सौ साल बाद यह संभव है कि कोई साफ पानी वाले तीन कुओं के बदले एक फ्लैट गुडगाँव, एक फ्लैट पुणे और एक विला बैंगलोर में देने की पेशकश कर दे। आज से तीन सौ साल बाद यह संभव है कि पेड़-पौधे युक्त 400 वर्गमीटर जमीन में एक साल गुजारने के अधिकार के बदले साउथ-एक्स का कोई दिल्ली वाला अपनी एक बी. एम. डब्ल्यू. और एक मर्सडीस हमेशा के लिए आपके जिम्मे कर दे।
  2. ज़रा पंचायत के फैसले पर गौर कीजिए। पंचायत को खेतिहर के ‘आजीविका के अधिकार’ (right to livelihood) और मालिक-महाजन के ‘संपत्ति के अधिकार’ (right to property) में से एक को चुनना था। पंचायत ने ‘आजीविका के अधिकार’ को मौलिक अधिकार माना। हमारे समय की पंचायतें अलबत्ता तो ऐसे मामलों में टांग नहीं अड़ातीं, क्योंकि फिलहाल वे ‘लव जिहाद’ से निपटने में व्यस्त हैं। और अगर ऐसे मामले में पंचायत सुनवाई करे भी तो शायद वह संपत्ति के अधिकार को ही मौलिक अधिकार मानेगी।
  3. इतिहास को अगर गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों और निजी संपत्ति को लेकर ही हमारी धारणाएं नहीं बदलती रही हैं, बल्कि हमारा ‘कॉमन सेंस’ भी बुनियादी तौर पर बदल सकता है। अभी हाल तक कई किसान समुदायों के कॉमन सेंस में आजीवका का अधिकार मौलिक अधिकार था, आज हमारे कॉमन सेंस में संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार बन चुका है।
  4. डी. डी. कोसम्बी, रोमिला थापर, आर. एस. शर्मा. व आनंद चक्रवर्ती आदि से आप बेशक असहमत हो सकते हैं। उनसे खूब झगड़ा कीजिए। लेकिन अगर आपने अपने सुब्रमन्यम स्वामी और दीनानाथ बत्रा के बहकावे में आकर इन्हें एक सिरे से मार्क्सवादी/नेहरूवादी आदि कहकर पढ़ना बंद कर दिया तो पता चलेगा कि महाभारत वाले अर्जुन रोज तीन किलोमीटर साइकिल चलाकर द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखने जाते थे और क्लास के बाद गुरू द्रोणाचार्य मेट्रो स्टेशन से जहांगीरपुरी की दिशा में जाने वाली मेट्रो लेकर सेलेक्ट सिटी मॉल में जाकर बास्किन राबिन्स का आईस्क्रीम खाते थे।
  5. जिसके हाथ में सत्ता होती है वह इतिहास से डरता है। वह अपने वर्तमान को शाश्वत वर्तमान में तब्दील करने की इच्छा रखता है। इसलिए एक तरफ वह इतिहास में अपने वर्तमान को प्रक्षेपित करता है तो दूसरी तरफ इतिहास के अंत की थ्योरी गढ़ता है।
  6. परिवर्तन की इच्छा रखने वाले तबके को इतिहास के परिवर्तनशील स्वरूप को देखकर प्रेरणा मिलती है। परिवर्तन सिर्फ ऊपरी नहीं होते। परिवर्तन का मतलब सिर्फ और सिर्फ ये नहीं होता कि चंद्रगुप्त मौर्य के बाद बिम्बिसार मगध के सम्राट बने।
  7. पिछले तीन-चार वर्षों से ये सिलसिला चल रहा है। साल के अंतिम सप्ताह में हम आस-पास के किसी ऐतिहासिक स्थल पर घूम आते हैं। समय के बदलाव को थोड़े व्यापक फलक पर देखना आसान हो जाता है, नहीं तो रोजमर्रे की दुनिया तो हमेशा एक जैसी ही लगती है- बेतरतीब और अस्तव्यस्त। गत वर्ष टीपू सुल्तान के समर पैलेस की बारी थी। साल की शुरुआत भी टीपू की राजधानी, उसके किलों और महलों से ही हुई थी। टीपू का समर पैलेस जिन दिनों बेंगलूरू में तैयार हो रहा था, उन दिनों फ्रांस में बास्तील का किला ढह रहा था। कहते हैं कि टीपू तक फ्रांस की क्रान्ति की खबर पहुँच रही थी। यह भी कहते हैं कि टीपू पहला भारतीय था जिसे जैकोबिन क्लब  (समानता और स्वतंत्रता के दोस्त] का सदस्य मनोनीत किया गया था। वह इस बात को लेकर काफी अचंभित था कि दुनिया में एक ऐसा देश भी है जिसका कोई राजा नहीं है। 18वीं सदी के एक भारतीय सुल्तान के लिए यह लगभग अकल्पनीय था। नेपोलियन से उसने जो संपर्क साधा, उसका रणनीतिक मतलब तो था ही, लेकिन शायद उसके आकर्षण का एक कारण वह अचम्भा भी रहा हो। आप सोचिए कि कोई आपसे कहे कि जिस तरह राजा के बिना राज्य संभव है, वैसे ही बगैर पुश्तैनी निजी संपत्ति के भी भविष्य में किसी समाज की कल्पना की जा सकती है।

आज जो अकल्पनीय है, कल वह संभव भी हो सकता है। समय घड़ी की सुईयों से नहीं बदलता है। मानवीय समय, सामूहिक मानवीय कर्म से बदलता है।

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