राजकमल से 2018 के बाद 2020 में छपी सोपान जोशी की किताब ‘जल थल मल’ को देखने के बाद हूक सी पैदा होती है कि काश! हिन्दी में नोबेल होता । वैसे यह किताब किसी भी पुरस्कार या सम्मान से बहुत बड़ी है । जिसे आजकल पारिस्थितिकी कहा जाता है उस जटिल वैज्ञानिक धारणा को लेखक ने कमाल की सहजता के साथ सूत्र रूप से व्यक्त कर दिया है । प्रत्येक अध्याय में घनघोर शोध से हासिल निष्कर्षों को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत किया गया है । खास बात यह कि पर्यावरण के विचारकों पर जिस आसानी से विकास विरोधी होने की मुहर लगा दी जाती है उसका कोई मौका लेखक ने नहीं दिया है । इस मामले में सरकारी सोच की सारी कलई उतारने के बावजूद समस्या के समाधान का कोई आसान रास्ता नहीं सुझाया गया है । बेहद मौलिक इस किताब में समस्या को हल करने के सांर्वजनिक, सरकारी और निजी प्रयासों का भी लेखा जोखा रखा गया है । इससे सामुदायिक और वैज्ञानिक कोशिशों को उचित सम्मान तो मिला ही है, तमाम अन्य पहलकदमियों की प्रेरणा की सम्भावना भी पैदा हुई है । किताब इतनी जरूरी है कि प्रत्येक हिंदी भाषी को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए । किताब में छपे शब्दों के अतिरिक्त प्रत्येक पृष्ठ पर मौजूद चित्रांकन भी बेहद महत्वपूर्ण हैं । ये चित्रांकन सोमेश कुमार के उकेरे हुए हैं ।
किताब के सभी अध्याय प्रचंड शोध से हासिल जानकारी के साथ लिखे हुए हैं । लगभग सबमें ही ढेर सारी नयी बातें हैं । उन सबको किताब पढ़कर ही ठीक से जाना जा सकता है फिर भी यहां संक्षेप में उनकी विषयवस्तु को यथासम्भव सहजता के साथ पेश किया जा रहा है । इस शोध से भी अधिक महत्व उसकी प्रस्तुति का है जिसमें लेखक ने बिना बोझिल बनाये दैनन्दिन अनुभव से जोड़कर तथ्यों को ग्राह्य बना दिया है । असल में इसकी सहजता का मुकाबला भी असम्भव है । किताब का केंद्रीय तर्क है कि मल का निस्तारण थल में होना ही लाभप्रद और उपयोगी है क्योंकि मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने वाले ढेर सारे तत्व मल-मूत्र में पाये जाते हैं । इसीलिए सीवर व्यवस्था के आगमन से पहले खेतों में खाद के बतौर इसका उपयोग करने के लिए किसान इसे खरीदा करते थे । मल के निस्तारण के लिए आधुनिक सीवर व्यवस्था के आगमन के साथ जल के दुरुपयोग के चलते हमारे जीवन में ढेर सारी समस्याओं का जन्म हुआ है । सीवर में मल-मूत्र की मात्रा बेहद कम होती है, पानी ही अधिक रहता है । इन सीवरों के जाल में ही सार्वजनिक सेवाओं में लगे सफाई कर्मचारियों की समस्या भी आ जाती है जिसके साथ जातिवाद का भी अटूट संबंध है । देश भर में इन सीवरों की सफाई के काम में लगे लोगों की मौतों की खबरें सुनायी देती रहती हैं । इस काम में लगे कर्मचारियों की जाति आम तौर पर अस्पृश्य होती है । इस पर विचार करते हुए लेखक ने जातिभेद की समस्या पर सोचने वालों में उन लोगों के विचारों का समर्थन किया है जो मानते हैं कि कठोर जातिभेद की मौजूदा प्रणाली का जन्म अंग्रेजी शासन के तहत जनगणना की व्यवस्था के बाद हुआ है । जाति तो मौजूद थी लेकिन उसका वर्तमान सख्त स्वरूप नहीं था । जाति के सवाल पर यह विचार सर्वमान्य होने की बजाय विवादास्पद है । बहरहाल वैकल्पिक उपायों के केंद्र में जल से सम्पर्क बचाकर उसे थल में पहुंचा देने के प्रयास वर्णित हैं ।
सार्वजनिक क्षेत्र में मल की सफाई का सबसे संगठित तंत्र रेलवे है । मुझे भी इसका व्यक्तिगत अनुभव है । इस मामले में सचमुच बेहद दमनकारी आरक्षण व्यवस्था नजर आती है । सफाई का यह विशाल तंत्र लगभग अनिवार्य रूप से अस्पृश्य जातियों के श्रम से संचालित होता है । लेखक ने इस तंत्र की विशालता का वर्णन करने के साथ ही वास्तविक कठिनाइयों पर भी ध्यान दिया है । रेलयात्री नामक इस विशाल सचल समुदाय की मल-मूत्र व्यवस्था की देखरेख सचमुच टेढ़ी खीर है । रेल के गतिमान रहने पर ट्रैक पर उसके गिरने से लोहे में जंग तेजी से लग जाती है । नतीजतन पटरियों के कब्जे गल जाते हैं । रेल दुर्घटनाओं का इससे गहरा संबंध है । जब रेल खड़ी हो तो शौचालय के इस्तेमाल से स्टेशन का रखरखाव मुश्किल हो जाता है । रेल की गति के चलते गिरता हुआ मल-मूत्र रेल के डिब्बों से नीचे चिपक जाता है । इन सबको साफ करने में ढेर सारा पानी खर्च होता है । इस काम को हाथ से करना श्रमिक की मजबूरी हो जाती है । हाथ से मैला साफ करने पर प्रतिबंध का सबसे बड़ा उल्लंघन एक सरकारी संस्थान ही करता है । इस समस्या के समाधान पर विचार करते हुए लेखक ने सेना के अनुसंधान विभाग से विकसित एक बायोडाइजेस्टर का परिचय दिया है जिसका इस्तेमाल रेलवे में धीरे धीरे शुरू हुआ है । रेलवे के निजीकरण के मौजूदा दौर में इस पहलू पर कितना ध्यान दिया जायेगा, कहना मुश्किल है ।
रेल संबंधी अध्याय के अतिरिक्त किताब का सबसे आकर्षक अध्याय कलकत्ते से संबंधित है । उस शहर का मल-मूत्र बगल से बहने वाली हुगली में नहीं जाता बल्कि उसकी ढाल के चलते पूरब में बहने वाली छोटी सी नदी कुल्टीगंग में जाता है । नदी में जाने से पहले उसका उपचार होता है । यह उपचार तीस हजार एकड़ में फैले तालाबों और खेतों से होता है । इस पानी में मछली, सब्जी और धान उगाकर मछुआरे किसानों की अतिरिक्त कमाई भी होती है । उपचार के इस विशाल तंत्र का विस्तृत वर्णन हमारे समाज की पारम्परिक जानकारी के सचेतन प्रयोग का विलक्षण निदर्शन कराता है । समूची किताब मानव जीवन के बारे में इतने सारे वैज्ञानिक कोणों को गूंथकर तैयार की गयी है कि इससे किसी भी पाठक को इस धरती की लगभग प्रत्येक गतिविधि की मोटी जानकारी हो जायेगी । समुद्र के विशालकाय प्राणी ह्वेल से लेकर आंत के अंधेरों में आक्सीजन के बिना भी जिंदा रहनेवाले बैक्टीरिया तक जीवन के समस्त रूपों की लीला के बारे में उच्च वैज्ञानिक जानकारी को सृष्टि के खेल की तरह प्रस्तुत किया गया है । इस खेल में कुछ भी निर्जीव या व्यर्थ नहीं दिखायी देता । एक जीव के उपभोग के बाद निकला पदार्थ दूसरे का भोज्य बन जाता है । कलकत्ते के बाहर जिन खेतों में मैले जल का उपचार होता है उनमें धूप, जल, जीवाणु और मिट्टी का यही खेल अहर्निश चलता रहता है । इन भेरियों की व्यवस्था पर ढेर सारे अध्ययनों का जिक्र भी किताब को रोचक बनाता है । खास बात यह कि किताब में नगरीय मल प्रबंधन के उन आधुनिक प्रयासों का भी परिचय दिया गया है जिनसे सामाजिक शुचिता पर आधारित जीवन का निर्माण सम्भव है । सरकारी स्वच्छता के मुकाबले लेखक को शुचिता का प्रयोग सही लगता है । पर्यावरणिक रूप से उपयोगी मल प्रबंधन के ये प्रयास देश में यत्र तत्र सफलता के साथ संचालित हो रहे हैं ।
मल निस्तारण की समस्या पर लिखी इस किताब में मार्क्स का जिक्र आश्चर्यजनक है लेकिन मार्क्स के नवीनतम पाठ से परिचित लोगों के लिए अनजाना नहीं है । इस सदी के तमाम मार्क्सवादी उनके लेखन में मौजूद पर्यावरण चिंता को उजागर कर रहे हैं । यहां तक कि समाजवाद को भी इस समय पुरानी धारणा से अलगाने के लिए इकोसोशलिज्म (पारिस्थिकी संवलित समाजवाद) कहा जा रहा है । लेखक के मुताबिक मार्क्स ‘लंदन के सोहो नामक इलाके में रहते थे जिसमें सन 1854 में एक पानी के पंप से हैजा फैला था ।’ मल के निस्तारण के लिए बन रहे ‘सीवर की एक बड़ी खोट उन्हें तभी दिख गयी थी’ । उनके ग्रंथ ‘पूंजी’ के तीसरे खंड से लेखक ने एक अल्पलक्षित उद्धरण देकर अपनी बात को पुष्ट किया है । मार्क्स के अनुसार ‘उपभोग से निकला मैला खेती में बहुत महत्व रखता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इसकी भव्य बरबादी करती है । मिसाल के तौर पर लंदन में 45 लाख लोगों के मल-मूत्र का कोई और इस्तेमाल नहीं है उसे टेम्स नदी में डालने के सिवा, और वह भी भारी खर्च के बाद ।’ खेती के सिलसिले में मार्क्स के गहन अध्ययन की गवाही बहुतेरे अन्य लोगों के साथ जान बेलामी फ़ास्टर ने भी दी है लेकिन उसे इस संदर्भ में लेखक ने रचनात्मक तरीके से देखा समझा है ।
किताब का सबसे उत्तेजक हिस्सा अंत के बीस पृष्ठों की संदर्भ सूची है जिसमें स्पृहणीय ईमानदारी के साथ लेखक ने एक एक तर्क और तथ्य के स्रोत का उल्लेख कर दिया है । इस विशाल सूची को देखने से हिंदी लेखन की एक खास समस्या नजर आती है । किताब में वर्णित विषयवस्तु में हमारे देश की मौजूदगी प्रमुख होने के बावजूद संदर्भ ग्रंथों में मुश्किल से कोई ग्रंथ हिंदी का लिखा दिखायी देगा । इतनी विशाल संदर्भ सूची में हिंदी की कुल चार किताबों का उल्लेख हुआ है । इससे आसपास की जानकारी के प्रति हमारी उदासीनता और गैर जिम्मेदारी का ही सबूत मिलता है ।