1977 के छठे लोकसभा चुनाव से 2019 के सत्रहवें लोकसभा चुनाव की तुलना करना गलत है। उस समय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के सब विरोधी थे। उन्होंने आपातकाल लगाया था। इसके पहले ही इंदिरा गांधी का निरंकुश शासन आरम्भ हो चुका था। इस निरंकुश शासन के विरुद्ध 1974 के अन्त में भारतीय लोकदल की स्थापना की गयी थी जो सात राजनीतिक दलों का विलय था। स्वतंत्र पार्टी, उत्कल कांग्रेस, भारतीय क्रान्ति दल और समाजवादी पार्टी इसमें शामिल थी। भालोद ने भारतीय जनसंघ और संगठन कांग्रेस के साथ मिलकर इन्दिरा गांधी और उनकी सरकार के विरुद्ध जनता पार्टी का गठन किया था। उस समय जे पी जैसे नेता थे जो सबकी अगुवाई कर रहे थे।
1977 में जनता पार्टी भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव में उतरी थी। 542 सीटों में से उसे 295 सीट मिली थी और कांग्रेस को 154। 2019 के चुनाव के पहले अभी तक नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर किसी प्रकार का ‘महागठबन्धन’ नहीं हुआ है। उस समय इन्दिरा गांधी का विरोध जितना प्रबल था, उसकी तुलना में आज नरेन्द्र मोदी का विरोध बहुत-बहुत कम है। उस समय न इन्टरनेट था, न सोशल मीडिया। 40-42 वर्ष में बहुत कुछ बदल गया है। उस समय जयप्रकाश नारायण थे और आज ?
10 मार्च को चुनाव आयोग ने 17 वीं लोकसभा के चुनावी कार्यक्रम की घोषणा कर दी है और मात्र तीन दिन बाद 13 मार्च को प्रधानमंत्री ने कई ट्वीट कर राजनीतिज्ञों, खिलाड़ियों, पत्रकारों, फिल्म स्टारों, लोगों से मतदाताओं से मतदान में अधिक से अधिक संख्या में भाग लेने की अपील करने को कहा है लोकतंत्र के खतरे में होने की बात बार-बार कही जाती रही है, पर अब मोदी लोकतंत्र को अधिक सुदृढ़ करने के लिए ट्वीट कर यह कह रहे हैं कि वे अधिकाधिक संख्या में लोगों को मतदान करने को प्रेरित करें। इसी को कहते हैं ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’। राहुल गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, एम के स्टालिन, नवीन पटनायक, एच डी कुमार स्वामी, जगमोहन रेड्डी, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, पवन चामलिंग सबसे उन्होंने लोगों को मतदान में भाग लेने के लिए अपील करने को कहा है।
वहीं, भाजपा के मुख्यमंत्रियों – सर्वानन्द सोनोपाल (असम) , मनोहर पार्रिकर (गोवा), विजय भाई अर रूपाणी (गुजरात), मनोहर लाल खट्टर (हरियाणा), जयराम ठाकुर (हिमांचल प्रदेश), रघुवर दास (झारखण्ड) , देवेन्द्र फडणवीस (महाराष्ट्र), विप्लव कुमार देव (त्रिपुरा) , एन वीरेन सिंह (मणिपुर), योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश) और त्रिवेन्द्र यिंह रावत (उत्तराखण्ड) के साथ पूर्व मुख्यमंत्रियों – रमन सिंह, शिवराज सिंह चैहान और विजयराजे सिंधिया को टैग किये जाने या कहे जाने की सूचना नहीं है।
यह मोदी स्टाइल है जिसे समझे बिना मोदी को हराना कठिन है। यह राजनीति की नयी नेट शैली है, डिजिटल राजनीति भी है। मोदी ने भारतीय राजनीति का ‘नेरेटिव’ बदल दिया है। वे विराट कोहली, अनिल कुम्बले, वी वी एस लक्ष्मण, वीरेन्द्र सहवाग को ही नहीं, अमिताभ बच्चन, करन जौहर, अक्षय कुमार, दीपिका पाडुकोणे, अनुष्का शर्मा, लता मंगेशकर, एके रहमान के साथ हरसिमरत कौर बादल, चिराग पासवान, आदित्य ठाकरे सबको अपने ट्वीट में टैग करते हैं। और अलग से प्रणव मुखर्जी और फोगाट बहनों को भी। इस नामावली में भाजपा का कोई नेता-मंत्री नहीं है। क्या इन्हें लोकतंत्र की चिन्ता नहीं है ? फिल्म स्टारों को ट्वीट में एक लोकप्रिय डाॅयलाग भी ये डालते हैं – ‘थोड़ा दम लगायें और वोटिंग को एक सुपरहिट कथा बनायें’।
31 ट्वीट के जरिये मतदान के पक्ष में वातावरण बनाने की पहल का मनोवैज्ञानिक पक्ष है। यह भी कहा गया है कि वोट न देने वाले बाद में पश्चाताप करेंगे। भारतीय लोकतंत्र चुनावतंत्र बनकर रह गया है। ‘डेमोक्रेसी’ का ‘इलेक्टोक्रेसी’ बन जाना उसके पतन का सूचक है। श्री श्री, सदगुरु जे बी जी, योगी श्री रामदेव और उद्योगपति रतन टाटा ही, जिन्हें प्रधानमंत्री ने ट्वीट और टैग किया है, लोकतंत्र और देश को मजबूत करेंगे। प्रधानमंत्री का संवाद किसान, मजदूर, सामान्य जन, बुद्धिजीवी से नहीं है।
प्रधानमंत्री ने इन सबको मतदाताओं को जागरुक करने के लिए पहल करने को कहा है ‘सब यह दिखा दें कि इस बार अभूतपूर्व मतदान होगा और इस बार का मतदान देश के चुनावी इतिहास के पिछले सारे रिकार्ड तोड़ देगा।’
सत्रहवां लोकसभा चुनाव कई अर्थों में ‘अभूतपूर्व’ होने जा रहा है। इस चुनाव में पिछले चुनाव, 2014 से मतदाताओं की संख्या 8.34 करोड़ अधिक है। उन्नीस साल से कम उम्र के मतदाताओं की संख्या 1.6 करोड़ है। पिछले चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 81 करोड़ थी। इस चुनाव में कुल 89.71 करोड़ वोटर है – 46.53 करोड़ पुरुष और 43.16 करोड़ स्त्री मतदाता है। बूथों की संख्या एक लाख बढ़ गयी है और अब कुल 10.38 लाख बूथ है। पहले लोकसभा चुनाव, 1952 से सोलहवें लोकसभा चुनाव तक वोटिंग प्रतिशत घटता-बढ़ता रहा है। दस चुनावों में साठ प्रतिशत से कम वोटर रहे हैं और छह चुनावों में साठ प्रतिशत से अधिक।
पहली लोकसभा में मतदाता 45.7 प्रतिशत थे। सर्वाधिक 66 प्रतिशत वोट 2014 में रहा। मोदी का अनुमान है कि इस बार के चुनाव में वोट प्रतिशत बढ़ेगा। सत्रहवें लोकसभा का चुनाव सात चरणों में सम्पन्न हो रहा है। पिछले चुनाव से दो चरण कम। सोलहवीं लोकसभा का चुनाव 9 चरणों में 7 अप्रैल 2014 से 12 मई 2014 तक हुआ था। इस बार चरण कम है, दिन अधिक। सात चरण और लगभग चालीस दिन – 11 अप्रैल से 19 मई तक। 15 राज्यों और सात केन्द्र शासित प्रदेशों में एक चरण में, जहां कुल 181 सीट है, चुनाव होगा। चार राज्यें की 57 सीटों में दो चरणों में और दो राज्यों की 25 सीटों में तीन चरणों में, चार राज्यों की 112 सीटों पर चार चरणों में, एक राज्य की छ सीटों पर पांच चरणों में और तीन राज्यों की कुल 162 सीटों पर सात चरणों में चुनाव सम्पन्न होंगे।
इसके अध्ययन का अपना महत्व है जो इस स्तम्भ में संभव नहीं। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में चुनाव सबसे अन्तिम तिथि में है। संसदीय क्षेत्रों की तिथियां भी शायद सोच-समझ कर रखी गयी हैं। जम्मू कश्मीर के एक संसदीय क्षेत्र अनन्तनाग में मतदान की तीन तिथियां हैं। महाराष्ट्र की 48 सीटों पर चार चरण में चुनाव होगा और पश्चिम बंगाल की 42 सीटों पर सात चरणों में चुनाव होंगे। तमिलनाडु की 39 सीटों पर एक दिन मतदान होगा, पर ओडिशा की 21 सीटों पर मतदान चार दिन होंगे। इसी प्रकार गुजरात की 26 सीटों पर एक दिन वोट डाला जाएगा और छत्तीसगढ़ की 11 सीट पर तीन दिन मतदान होगा। राज्यों की संसदीय सीट संख्या का एक या कई चरण के मतदान से कोई संबंध नहीं है। चुनाव आयोग ने बहुत सोच-समझ कर ही चरण-संख्या तय की होगी।
लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ती गयी है। 1984-85 तक के चुनावों में राजनीतिक दलों की संख्या अधिक नहीं थी। 1951 में 53, 1957 में 15, 1962 में 27, 1967 में 25, 1971 में 53, 1977 में 34, 1980 में 36 और 1984-85 में 42 राजनीतिक दलों ने लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े किये थे। 1989 में राजनीतिक दलों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इस चुनाव में 113, 1991-92 में 154, 1996 में 209, 1998 में 176, 1999 में 169, 2004 में 230, 2009 में 363 और 2014 में 465 दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया। देश में दो हजार से कुछ अधिक पंजीकृत राजनीतिक दल हैं जिनमें 25 प्रतिशत ही चुनाव लड़ते हैं।
सत्रहवें लोकसभा चुनाव में चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों की संख्या पिछले चुनाव से अधिक होने की संभावना है। पिछले लोकसभा चुनाव में कई प्रमुख मुद्दे थे। नौकरी में कमी, मुद्रास्फीति, आर्थिक मंदी, भ्रष्टाचार, सुरक्षा, आतंकवाद, धार्मिक विभाजन, सम्प्रदायवाद, सड़क, बिजली, पानी के सवाल, कोयला घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम, अगस्ता वेस्ट लैण्ड आदि। क्या अब किसी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र का क्या कोई अर्थ है ? यूपीए – 2 के कार्य-कलाप से क्षुब्ध होकर मतदाताओं ने भाजपा को बहुमत प्रदान किया था। 15 वीं लोकसभा से 16 वीं लोकसभा में उसकी 166 सीटें बढ़ीं। तीस वर्ष बाद किसी राजनीतिक दल को संसद में बहुमत प्राप्त हुआ।
पांच वर्ष में देश बुरी तरह घायल हो चुका है। भारत की आत्मा लहूलुहान है। नागार्जुन ने अपनी एक कविता में 45-46 वर्ष पहले चुनाव को प्रहसन कहा था। अब स्थिति यह है कि जिसे लोकतंत्र की चिन्ता नहीं है वही लोकतंत्र की रक्षा की बात कर रहा है। सत्रहवां लोकसभा चुनाव पिछले सभी चुनाव से भिन्न होगा। इस चुनाव से भारतीय लोकतंत्र और संविधान का भविष्य जुड़ा है। जनता बार-बार ठगी जाती रही है। उसने साम्प्रदायिक और दक्षिणपंथी दल को बहुत बाद में सत्ता सौंपी। लम्बे समय तक कांग्रेस में उसकी आस्था रही। वहां से आस्था डिगने के बाद उसकी आस्था क्षेत्रीय दलों की ओर गयी।
त्रिशंकु संसद का स्पष्ट अर्थ यह था कि देश की जनता का किसी एक राजनीतिक दल में विश्वास नहीं है। संयुक्त मोर्चा की सरकारें भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। सत्ता लोभ बढ़ता गया। हारकर जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी, पर इस बार वह कुछ अधिक ही ठगी गयी। सारे आश्वासन और वायदे धरे रह गये। मतदाताओं से जीवित-जीवंत संपर्क राजनीतिक दलों का घटता गया है। चुनाव लड़ने की एक नयी तकनीक नरेन्द्र मोदी ने निर्मित की। चुनाव कहीं अधिक खर्चीला हुआ। चुनावी खर्च सात हजार करोड़ से अधिक हो चुका है। इस चुनाव का खर्च अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव के खर्च से अधिक होने की संभावना है। पहली बार देश एक व्यक्ति के हाथ में है। देश की राजनीतिक दिशा, लोकतंत्र का स्वरूप और भविष्य इस चुनाव से तय होगा।
पहली बार देश में संघीय ढ़ांचा खतरे में है। प्रधानमंत्री कार्यालय सारे फैसले लेता है। कैबिनेट मंत्रियों की शक्तियां या तो खत्म की गयीं या कमजोर। संवैधानिक संस्थाएं नष्ट की गयीं। राज्यपाल तक को संवैधानिक धर्म की चिन्ता न रही। झूठ को वैधता प्रदान की गयी। ‘सत्यमेव जयते’ के देश भारत में ‘सत्य’ किनारे किया गया। बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता जेल में डाले गये। इस चुनाव में लोकतंत्र की और जनचेतना की परीक्षा होगी।
2019 का चुनाव एक असाधारण चुनाव होगा। इस चुनाव में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। क्या राजनीतिक दलों को, विपक्ष को सचमुच इसकी कोई चिन्ता है ? कहीं कोई महागठबन्धन नहीं है। बसपा को पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी। वह कांग्रेस से गठबन्धन के खिलाफ है। दिल्ली में कांग्रेस आम आदमी पार्टी से मिल जुलकर चुनाव नहीं लड़ रही है। जब देश में सवाल पूछने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा हो, समझा जाना चाहिए कि देश कहां जा पहुंचा है। नरेन्द्र मोदी देश का पर्याय नहीं हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी देश नहीं है। देश बड़ा है जहां सब एक साथ रहते हैं। ‘सबका साथ, सबका विकास’ महज एक नारा है। एक साथ अम्बानी, अडानी और सामान्य जन को लाभान्वित नहीं किया जा सकता।
इस समय अर्थशास्त्री नवउदारवाद के अन्त की बात कर रहे हैं। मोदी का आर्थिक सिद्धान्त नवउदारवादी है। यह चुनाव भारत को बचाने के लिए भी है। ‘बचाना’ हमारे समय की सबसे मुख्य और मूल्यवान क्रिया है। सवाल यह है कि हम भारत की आत्मा को नष्ट होने से बचायेंगे या नहीं ? यह चुनाव यह तय करेगा कि हमार ‘हस्ती’ काम रहेगी या मिटेगी ? भारत से फंडामेंटलिज्म नष्ट होगा या नहीं ? भारत को बचाने वाली शक्तियां कहां है, किसके साथ हैं ? चुनाव में उनकी कैसी सार्थक भूमिका होगी ? सीट-संख्या की छीना-झपटी से क्या स्थिति सुधरेगी ? बदलेगी ? अभी चुनाव की घोषणा हुई है, आने वाले दिनों में कब होगा, कुछ कहा नहीं कहा जा सकता। देश सोलह चुनाव देख चुका है। सत्रहवां भी देखेगा। पर उसके बाद ?