पुलिस के बारे में प्रख्यात कवि पाश ने एक जगह लिखा है-
“ऐ हुकूमत
तू अपनी पुलिस से
पूछ कर बता
कि
सीख़चों के भीतर मैं कैद हूँ
या सीख़चों के बाहर ये सिपाही .”
आम तौर पर पुलिस में निचले पदों पर काम करने वालों की हालत, पाश की कविता की पंक्तियों को साकार करते हुए,’ सीख़चों के बाहर कैद ‘ जैसी ही होती है. उनके ड्यूटी के घंटे निर्धारित नहीं हैं, आवास व्यवस्था से लेकर अन्य स्थितियों के बारे में परवाह करने वाला कोई नहीं है.वेतन भत्ते एवं अन्य मांगों पर ध्यान आकर्षित करवाने के लिए उत्तराखंड पुलिस के कतिपय कर्मियों द्वारा दो बार हड़ताल भी करने की कोशिश की गयी.परन्तु कुछ पुलिस कर्मियों की बर्खास्तगी और निलंबन के अलावा कुछ न हुआ.
बीते दिनों उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने पुलिस कर्मियों की यंत्रणादायक कार्य स्थितियों पर एक जन हित याचिका पर सुनवाई की.न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा की खंडपीठ ने पुलिस की कार्य स्थितियों को लेकर दाखिल की गयी हरिद्वार निवासी अरुण कुमार भदौरिया की जनहित याचिका पर 15 मई 2018 को अपना फैसला सुनाया.
उक्त जनहित याचिका में उत्तराखंड में पुलिस की कार्यस्थितियों को मानवीय बनाने की मांग की गयी थी.पुलिस की कार्यस्थितियों के बारे में याचिकाकर्ता ने वर्ष 2011 में सूचना मांगी थी.इस संदर्भ में 2013 में सब सूचनाएं मिल जाने के बाद याचिकाकर्ता ने उत्तराखंड पुलिस की कार्यस्थितियों को बेहतर किये जाने की मांग करते हुए 13 मार्च 2013 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपा.ऐसा ही ज्ञापन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2 अगस्त 2014 को सौंपा गया.
इस संदर्भ में याचिकाकर्ता उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग भी गया.जवाबी कार्यवाही के तौर पर 30 जून 2015 को उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग को जिम्मेदार प्राधिकारी द्वारा सूचित किया गया कि उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार राज्य में उत्तराखंड पुलिस अधिनियम 2007 लागू कर दिया गया है.
लेकिन इस सब कार्यवाही से पुलिस की कार्यस्थितियों में कोई ठोस बेहतरी नहीं हुई.अलबत्ता उक्त जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय,नैनीताल ने जो निर्देश दिए हैं,वे पुलिस की कार्यस्थिति सुधारने के लिए महत्वपूर्ण हैं.सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि इसमें पुलिसकर्मियों की ड्यूटी की अवधि 8 घंटे किये जाने का आदेश दिया गया है.अपने 67 पृष्ठों के फैसले में न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा की खंडपीठ ने उत्तराखंड पुलिस अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों पर गौर किया है .
अन्विति चतुर्वेदी के लेख “पुलिस रिफॉर्म्स इन इंडिया”(भारत में पुलिस सुधार) का विस्तृत उद्धरण उच्च न्यायालय के इस फैसले में है.उक्त लेख के हवाले से बताया गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बजट का मात्र 3 प्रतिशत ही पुलिस पर खर्च होता है.देश में प्रति एक लाख लोगों पर 181 पुलिस कर्मियों के पद स्वीकृत हैं. पर वास्तव में तैनात 131 पुलिस कर्मी ही हैं.संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार प्रति एक लाख लोगों पर 222 पुलिस कर्मी होने चाहिए.पिछले एक दशक(2005-2015) में अपराध में प्रति लाख व्यक्तियों की आबादी पर 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.लेकिन दोष सिद्धि की दर बेहद कमजोर रही है.वर्ष 2015 में केवल 47 प्रतिशत मामलों में ही दोष सिद्धि हो सकी.
उत्तराखंड के संदर्भ में उक्त लेख में कहा गया है कि 1 जनवरी 2016 को उत्तराखंड में पुलिस कर्मियों के स्वीकृत पदों की संख्या 21,155 थी.स्वीकृत पदों के सापेक्ष नियुक्त पुलिस कर्मियों की संख्या,उक्त तिथि पर 19,991 थी. 2015-16 में उत्तराखंड सरकार का कुल बजट 32,694 करोड़ रुपये था.इसमें से पुलिस महकमे के लिए आवंटित बजट था 1,207 करोड़ रूपया.पुलिस विभाग इस बजट में से 879 करोड़ रूपये ही खर्च कर पाया.पुलिस विभाग को आवंटित बजट,कुल बजट का 2.7 प्रतिशत था.
उच्च न्यायालय ने पुलिस सुधार के संदर्भ में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग,राष्ट्रीय पुलिस आयोग,राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा गठित कोर ग्रुप,पद्मनाभइया कमेटी,रिबेरो कमेटी आदि कमेटियों और आयोगों की रिपोर्टों की अनुशंसाओं को विस्तार में उद्धृत किया है.
यह फैसला इसलिए उल्लेखनीय है क्यूंकि यह पुलिस विभाग में निचले पदों में काम करने वालों की कार्यस्थितियों पर गौर करते हुए,उनमें सुधार करने के ठोस निर्देश राज्य सरकार को देता है.पुलिस में सबसे निचले पदानुक्रम पर काम करने वाला कार्मिक होता है-कांस्टेबल या सिपाही.पुलिस की नौकरी करते हुए कांस्टेबल को किस तरह के यंत्रणादायक हालातों से दो-चार होना पड़ता है,इस पर विभिन्न आयोगों और समितियों की रिपोर्टों के हवाले से उक्त फैसले में काफी प्रकाश डाला गया है.
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस विभाग के कार्मिकों का 87 प्रतिशत हिस्सा कॉन्स्टेबलों का है.उक्त रिपोर्ट के अनुसार पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली के चलते कॉन्स्टेबलों को मशीन में तब्दील कर दिया गया है,जिन्हें यांत्रिक रूप से अपने वरिष्ठों के आदेशों का पालन करना होता है.ट्रान्सफर-पोस्टिंग में निरंतर राजनीतिक हस्तक्षेप ,लम्बी ड्यूटी अवधि और अर्दली के तौर पर बेहद निकृष्ट किस्म के काम भी कॉन्स्टेबलों को करने होते हैं.इस तरह की कार्यस्थितियों और दिमाग के बजाय शारीरिक बल के इस्तेमाल पर जोर,एक तरह से कांस्टेबलों को क्रूर और अमानवीय बना देता है.
राष्ट्रीय पुलिस आयोग(1977) ने कांस्टेबलों की कार्यस्थितियों में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे और यह भी सुझाव दिया कि कांस्टेबल के वेतन का ढांचा तय करने के लिहाज से उसे कुशल श्रमिक का दर्जा दिया जाए. कांस्टेबल स्तर के पुलिस कर्मियों को अफसरों के घरेलू नौकरों में तब्दील करने वाली अर्दली व्यवस्था को तत्काल समाप्त करने की अनुशंसा भी उक्त रिपोर्ट समेत विभिन्न रिपोर्टों में की गयी है.
राष्ट्रीय पुलिस आयोग की उक्त रिपोर्ट के हवाले से ही फैसले में लिखा गया है कि पुलिस कर्मियों को हफ्ते के सातों दिन और एक दिन में 10-16 घंटे ड्यूटी पर रहना पड़ता है.पुलिस पर वी.आई.पी. बंदोबस्त और वी.आई.पी.सुरक्षा नेटवर्क उपलब्ध करवाने का भी दबाव होता है.उत्तराखंड में आये दिन, देखने में आता है कि मुख्यमंत्री एक जिले के दौरे पर जाए तो वी.आई.पी.ड्यूटी के नाम पर अगल-बगल के कई जिलों से पुलिस कर्मियों को दौड़ा दिया जाता है.पुलिस में निचले पदों पर काम करने वाले कार्मिकों के लिए, ऐसे कार्यक्रमों में न खाने की ठीक से व्यवस्था होती है,न रहने की और ना ही आने-जाने की.
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 42 के क्रम में राज्य सरकार को पुलिस कर्मियों को न्यायसंगत और मानवीय कार्यस्थितियां उपलब्ध करवाने के लिए ठोस प्रयास करना चाहिए.अदालत ने उत्तराखंड सरकार को यह निर्देश दिया कि वह सुनिश्चित करे कि किसी भी पुलिस कर्मी को 8 घंटे से अधिक ड्यूटी न करनी पड़े.उत्तराखंड पुलिस अधिनियम की धारा 42 के संदर्भ में न्यायालय ने कहा कि इसे तार्किक और मानवीय तरीके से व्याख्यित किया जाना चाहिए. इस धारा में कहा गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत हर पुलिस अफसर हर समय ड्यूटी पर माना जाएगा.पुलिस कर्मियों की ड्यूटी अवधि के बारे में अलग से कोई व्याख्या नहीं है. न्यायालय ने कहा कि हर समय ड्यूटी पर माना जाएगा,का यह आशय कतई नहीं हो सकता कि वह 24 घंटे ड्यूटी करेगा.न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिकारी और कर्मचारी को किसी हाल में 8 घंटे से अधिक ड्यूटी नहीं करनी चाहिए.
अदालत ने राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया कि वह तीन महीने के भीतर पुलिस कल्याण के लिए कोष बनाये.पुलिस बल के रहने की स्थितियों में सुधार करने के लिए न्यायालय ने उत्तराखंड सरकार को आवासीय योजना बनाने का सुझाव भी दिया.अदालत ने राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया कि वह नियमों में संशोधन करके यह सुनिश्चित करे कि हर पुलिस कर्मी को अपने सेवा काल में कम से काम तीन प्रमोशन मिलें ताकि उसके करियर में ठहराव खत्म हो और उसकी क्षमता वृद्धि हो.
उक्त फैसले में पुलिस विभाग को कार्मिकों को छुट्टियाँ देने में उदारता बरतने का भी निर्देश दिया गया है.ड्यूटी के दौरान शारीरिक घाव,अपंगता या मृत्यु होने पर समुचित मुआवजा देने का निर्देश भी इस फैसले में दिया गया है.राज्य सरकार को पुलिस विभाग के लिए सुयोग्य डाक्टरों की नियुक्ति करने का निर्देश दिया गया है.साथ ही पुलिस कर्मियों की मेडिकल फिटनेस जांचने के लिए हर तीन माह में परीक्षण का निर्देश भी है.अत्याधिक कार्यबोझ के चलते तनाव का शिकार होने वाले पुलिस कर्मियों की काउंसलिंग के लिए हर जिले में साइकेट्रिस्ट नियुक्त करने का आदेश भी उक्त फैसले में दिया गया है.साथ ही पुलिस कर्मियों के मनोरंजन की समुचित व्यवस्था,जिसमें जिम और स्विमिंग पूल शामिल है,पुलिस स्टेशन और पुलिस आवासीय कालोनियों में करने को कहा गया है.ट्रैफिक पुलिस को मास्क दिए जाने और उन्हें ट्रैफिक ड्यूटी देने में समुचित ब्रेक देने का आदेश अदालत ने दिया है.
कुल मिला कर देखें तो पुलिस कर्मियों की कार्यस्थितियों में समुचित सुधार का एजेंडा न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और शरद कुमार शर्मा की खंडपीठ ने उत्तराखंड सरकार के सामने रख दिया है.यह देखना रोचक होगा कि इस फैसले का कितना अनुपालन राज्य सरकार और पुलिस महकमा करता है.ख़ास तौर पर आठ घंटे की ड्यूटी वाले निर्देश का पालन कैसे किया जाएगा,इस पर नजर रखी जानी चाहिए.यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्यूंकि दुनिया भर में मजदूरों ने आठ घंटे का कार्यदिवस अनथक संघर्ष और कुर्बानियों के बाद हासिल किया.लेकिन भारत में तो मजदूरों को ही आठ घंटे के कार्यदिवस से वंचित करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.
स्वयं उत्तराखंड में सिडकुल के तहत लगी फैक्ट्रियों में मामूली मजदूरी पर 12 से लेकर 18 घंटे काम करवाना सामान्य चलन बनता जा रहा है.आठ घंटे का कार्यदिवस या ऐसी ही जायज मांगों के लिए जब मजदूर,उन फैक्ट्रियों में आन्दोलन में उतरते हैं तो यही पुलिस उनसे निपटने के लिए आगे की जाती है ,जो स्वयं भी आठ घंटे के कार्यदिवस और ऐसी ही अन्य सुविधाओं की तलबगार है.
राष्ट्रीय पुलिस आयोग की एक पुरानी रिपोर्ट में कहा गया है कि “ पुलिस का वर्तमान संगठन ,1861 के पुलिस अधिनियम पर आधारित है.यह आज के समय के अनुकूल नहीं है क्यूंकि साम्राज्यवादी हुकूमत की तानशाही पुलिस एक लोकतान्त्रिक देश में ठीक से काम नहीं कर सकती.” पुलिस को लोकतान्त्रिक बनाए जाने की जरूरत है और पुलिस को लोकतान्त्रिक अधिकार दिया जाना भी आवश्यक है.