शमसुल इस्लाम
क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नेताजी की स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की जयन्ती मनाना, सावरकर सरीखे हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का दम भरनेवालों द्वारा नेताजी और आज़ाद हिन्द फौज के साथ किये गये विश्वासघात की लीपापोती करना है ?
जो लोग नेताजी और उनके साथियों और भारत की आज़ादी के लिये अपना सर्वाेत्तम निछावर कर देनेवाले आज़ाद हिन्द फौज के नायकों और सिपाहियों से प्यार करते हैं उन्हें यह माँग करनी चाहिये कि मोदी लाल किले से नेताजी और उनकी आज़ाद हिन्द फौज के प्रति आर.एस.एस. और हिन्दू महासभा दोनों ने जो अपराध किये हैं, उनके लिये वह माफ़ी माँग लें।
4 जुलाई 1943 को नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज (इंडियन नेशनल आर्मी इसका गलत अनुवाद है) की स्थापना की घोषणा की थी, अर्थात स्वतंत्र भारत की सेना और वह मशहूर नारा दिया थाः ‘‘तुम मुझे खून दो! मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।’’
उस अस्थायी सरकार के मुखिया के तौर पर नेताजी ने भारत के लिये मंत्रिमंडल की भी घोषणा की थी जिसमें एस.ए. अइयर, ए.एन. सहाय, करीम ग़नी, देबनाथ दास, डी.एम. खान, ए. येलप्पा, सरदार ईशर सिंह, ए.एन. सरकार, अजीज़ अहमद, एन. एस. भगत, जे. के. भोंसले, गुइजारा सिंह, ए. डी. लोगनाथन, एहसान क़ादिर और शाहनवाज़ खान शामिल थे।
आज़ाद हिन्द फौज के गठन के बाद हजारों सिपाहियों में उत्साह भरने के लिये अपने ऐतिहासिक भाषण में बोस ने ‘‘दिल्ली चलो’’ का नारा दिया था। अस्थायी सरकार और आज़ाद हिन्द फौज दोनों में भारत की विविधता और समावेशी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतिनिधित्व होता है।
जहाँ अस्थायी सरकार में सभी धर्मों और क्षेत्रों से मंत्री थे तो आज़ाद हिन्द फौज में भी ऐसा ही था। उसमें नायक थे जनरल मोहम्मद जेड. कियानी, कर्नल इनायत कियानी, कर्नल गुलजारा सिंह, लेफ्टिनेंट कर्नल गुरुबख्श सिंह, कर्नल शाह नवाज़ खान और कर्नल हबीबुर्रहमान और कैप्टन अब्बास अली, कर्नल अब्दुल अजीज़ ताज़िक और कर्नल प्रेम सहगल।
आश्चर्य यह है कि आज़ाद हिन्द फौज में रानी झाँसी रेजिमेंट नाम से महिला लड़ाकू रेजिमेंट भी थी जिसकी प्रमुख थीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल, यह काम दुनिया की दूसरी सेनाओं में बहुत बाद में हो पाया। यह सच है कि आज़ाद हिन्द फौज आजादी की लड़ाई में कामयाब नहीं हो सकी और द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र सेनाओं की हार के बाद वह नेस्तनाबूद हो गयी। आज़ाद हिन्द फौज के 43,000 सिपाहियों में से 16,000 गिरफ्तार कर लिये गये. उनमें से 1945 और 1946 के बीच 11,000 सिपाहियों से पूछताछ की गयी और उनका दिल्ली के लाल किले में 10 फौजी अदालतों में कोर्ट मार्शल हुआ।
पहला और सबसे मशहूर कोर्ट मार्शल संयुक्त रूप से प्रेम सहगल, गुरुबख्श सिंह ढिल्लों और शाहनवाज खान का हुआ था और तीनों भारत के तीन सबसे बड़े धार्मिक समूहों से थे।
कोर्ट मार्शल की इन कार्यवाहियों ने पूरे भारत को, आज़ाद हिन्द फौज के अफसरों के पक्ष में उद्वेलित कर दिया. आज़ाद हिन्द फौज के अफसरों के बचाव में कांग्रेस ने पहलकदमी की. इनमें मशहूर वकील जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई, कैलाशनाथ काटजू और आसिफ अली शामिल थे. तीनों अफसरों को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी पर वह कार्यान्वित नहीं हो सकी.
इस मौके पर प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा – ‘‘ इस कार्यक्रम में भाग लेकर मैं गौरवान्वित हूँ. मैं जानता हूँ कि कुछ लोग इसकी आलोचना करेंगे. उन्हें करने दीजिये. सबको मालूम है कि आज़ाद हिन्द फौज का गठन करके नेताजी ने ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी थी. एक पार्टी ने भारत पर 70 साल तक शासन किया, पर उसने कभी उनकी फाइलें सार्वजनिक नहीं की. ’’
यह सच है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में नेताजी की जापान, इटली और जर्मनी से दोस्ती का कांग्रेस ने विरोध किया था. यह भी सच है कि आजादी के बाद नेहरू और सरदार पटेल की अगुवाई में कांग्रेस सरकार ने लाॅर्ड माउंटबेटेन की सलाह पर आज़ाद हिन्द फौज के पूर्व सैनिकों को आजाद भारत की सेना में शामिल नहीं होने दिया था.
लेकिन भारतीयों को यह भी पता होना चाहिये कि आज के आरएसएस/भाजपा के वैचारिक पूर्वजों की नेताजी और आज़ाद हिन्द फौज के विरुद्ध भूमिका क्या रही. हिन्दू महासभा और आरएसएस दोनों के पास मशहूर वकीलों की फौज हमेशा रही पर दोनों में से किसी ने भी लालकिले पर चल रहे मुकदमें में आज़ाद हिन्द फौज के सेनानियों को बचाने की कोई कोशिश कभी नहीं की.
हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठनों के अभिलेखागार में ऐसे तमाम अभिलेख मौजूद हैं जो यह बताते हैं कि सावरकर के नेतृत्व में, जिसे आरएसएस भी हिन्दुत्व के आदर्श पुरुष के रूप में आदर देती है, हिन्दू महासभा ने नेताजी के मकसद से कितने भयानक धोखे किये हैं. जब आजाद हिन्द फौज की टुकड़ियों द्वारा नेताजी उत्तर-पूर्व को आजाद कराने की योजना बना रहे थे, उस समय वी.डी. सावरकर ने ब्रिटिश आकाओं को पूर्ण सैन्य सहयोग देने का प्रस्ताव रखा था.
1941 में हिन्दू महासभा के 23वें सम्मेलन को सम्बोधित करते हुये सावरकर ने कहा था :
‘‘ युद्ध हमारे मुहाने तक आ पहुँचा है, यह हमारे लिये ख़तरा भी है और अवसर भी और दोनों ही दशा में यह जरूरी हो गया है कि सैन्य अभियान को और तेज कर दिया जाय और हर गाँव और शहर में हिन्दू महासभा की शाखाओं में हिन्दुओं को थलसेना, जलसेना और वायुसेना और हथियार बनाने के कारखानों में काम करने के लिये तैयार किया जाय।’’
अंग्रेजों की सहायता के लिये सावरकर किस सीमा तक जा सकते थे यह उनके निम्न व्याख्यान स्पष्ट हो जाता है –
” जहाँतक भारत की सुरक्षा का प्रश्न है, हिन्दुओं को, जहाँतक हो सके, बड़ी से बड़ी संख्या में उत्तरदायित्वपूर्ण सहयोग की भावना के साथ थलसेना, जलसेना, वायुसेना और अस्त्र-शस्त्र के कारखानों में शामिल होकर भारत सरकार के युद्ध के प्रयासों का बिला हिचक साथ देना चाहिये, क्योंकि यही हिन्दू हित में है।…….एक बार फिर हमें यह नोट करना चाहिये कि इस युद्ध में जापान के कूद जाने से हमपर ब्रिटेन के दुश्मनों के सीधे और फौरन हमले का ख़तरा पैदा हो गया है।……. इसलिये हिन्दू महासभाइयों को, खासतौर पर बंगाल और असम में, हिन्दुओं को जितनी अधिक संख्या में सम्भव हो सके, बिना एक मिनट गँवाये सेना के सभी अंगों में शामिल हो जाने के लिये प्रेरित करना चाहिये।’’
सावरकर ने हिन्दुओं का आह्वान किया कि ‘‘वे (ब्रिटिश) थलसेना, जलसेना और वायुसेना को हिन्दू संगठनों के हृदयवाले हिन्दू योद्धाआंे से भर दें’’ और उन्होंने उन्हें भरोसा दिलाया कि अगर हिन्दू ब्रिटिश सशस्त्र सेना में शामिल हो जाते हैं तो, ‘‘यह तय है कि हमारा हिन्दू राष्ट्र, युद्ध के बाद की स्थितियों का सामना करने के लिये- चाहे वह हिन्दू विरोधी गृहयुद्ध हो या कोई संवैधानिक संकट हो या सशस्त्र क्रांति हो- और ताकतवर एवं अतुल्य रूप से संगठित होकर और अधिक लाभकारी स्थिति में उभरेगा।’’
सावरकर को ब्रिटिश साम्राज्य की अपराजेयता में पूरा भरोसा था। मदुराई में दिया गया उनका अध्यक्षीय भाषण उनके ब्रिटिश साम्राज्यवादी परिकल्पना के निर्लज्ज समर्थन का जीता-जागता प्रमाण है। भारत को आजाद कराने की नेताजी की कोशिशों को उन्होंने सिरे से ख़ारिज़ कर दिया था। उन्होंने घोषित कर दिया कि –
‘‘न केवल भौतिक आधारों पर बल्कि व्यावहारिक राजनीति के आधारों पर भी, हम इस बात के लिये बाध्य हैं कि हिन्दू महासभा संगठन के स्तर से हमारा किसी ऐसे कार्यक्रम से कोई सरोकार न हो जिसमें वर्तमान परिस्थितियों में किसी तरह का सशस्त्र प्रतिरोध निहित हो।’’
द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि उसकी सशस्त्र सेनाओं में कुछ नयी बटालियनें बनायी जाँय, तो सावरकर की सीधी कमान में हिन्दू महासभा ने एक अभियान चलाकर सेना में हिन्दुओं की बड़ी भर्ती करने का निश्चय किया। सावरकर ने हिन्दू महासभा के मदुरै अधिवेशन में यह बात अपने प्रतिनिधियों को भी बतायीः
‘‘स्वाभाविक है कि हिन्दू महासभा ने व्यावहारिक राजनीति को दृष्टिगत रखते हुये ब्रिटिश सरकार के युद्ध से सम्बन्धित समस्त प्रयासों में भाग लेने का निश्चय किया है क्योंकि उनका सीधा सम्बन्ध भारत की सुरक्षा और भारत में सैन्यबल जुटाने के प्रश्न से जुड़ा है।’’
ऐसा नहीं कि सावरकर इस बात से अनजान थे कि उनके इस सोच के खिलाफ आम भारतीयों में बहुत गुस्सा है। उन्होंने अंग्रेजों की युद्ध सम्बन्धी कार्यवाहियों में उनसे सहयोग करने के हिन्दू महासभा के निर्णय की आलोचना को दरकिनार कर दियाः
‘‘…..भारतीय जनता इस तरह की राजनीतिक मूर्खताओं की आदी है, वह सोचती है कि आमतौर पर भारतीयों के हित अंग्रेजों के हितों के विरुद्ध हैं, तो उनसे हाथ मिलाने का कोई भी कदम अनिवार्य रूप से समर्पण, राष्ट्रविरोधी और अंग्रेजों के हाथों में खेलना होता है और ब्रिटिश सरकार के साथ किसी तरह का सहयोग हर तरह से देश विरोधी और निन्दनीय होता है। ’’
अगर एक तरफ बोस दक्ष सैन्य रणनीति के तहत भारत की आजादी के लिये जर्मन और जापानी फौजों की सहायता लेने पर काम कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर सावरकर ब्रिटिश औपनिवेशिक आकाओं को सीधी सहायता पहुँचाने में व्यस्त थे। यह नेताजी के अभियान के साथ धोखे के अलावा और कुछ भी नहीं था।
सावरकर और हिन्दू महासभा ब्रिटिश सरकार के साथ घोषित रूप से खड़े थे और उन्होंने आगे चलकर आजाद हिन्द फौज के हजारों बहादुरों का कत्ल किया और उनका अंग-भंग किया। अपने ब्रिटिश आकाओं का गुणगान करते हुये सावरकर ने अपने अनुयायियों से मदुरै में कहा कि एशिया को यूरोपीय प्रभाव से मुक्त करने के घोषित उद्देश्य से जापानी सेना के लगातार आगे बढ़ने के कारण ब्रिटिश सरकार को उनकी सेना के लिये बड़ी संख्या में भारतीयों की आवश्यकता है और उसकी सहायता की जानी चाहिये। ब्रिटिश रणनीति की प्रशंसा करते हुये उन्होंने कहाः
‘‘हमेशा की तरह ब्रिटिश राजनीति ने इसे भी पहले ही अनुभव कर लिया था कि अगर कभी जापान के साथ युद्ध छिड़ जाय तो भारत खुद-ब-खुद युद्ध की सारी तैयारियों का केन्द्र बन जायेगा…. यह भी हो सकता है कि जितनी तेजी से जापानी सेनायें हमारी सीमा के करीब पहुँचें उतनी ही तेजी से भारतीय अफसरों की निगरानी में उन्हें 20 लाख सिपाहियों की फौज बनानी पड़े।’’
सावरकर ने अगले कुछ साल ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं के लिये भर्ती शिविरों के गठन में बिताये, और बाद में इसी सेना ने उत्तर-पूर्व के विभिन्न भागों में आजाद हिन्द फौज के बहादुरों का कत्लेआम किया।
हिन्दू महासभा का मदुरै सम्मेलन ‘फौरी योजना’ के संकल्प के साथ समाप्त हुआ जिसका मंतव्य था ‘‘अधिक से अधिक संख्या में हिन्दुओं की थलसेना, जलसेना और वायुसेना में भर्ती सुनिश्चित की जाय।’’ उन्होंने उन्हें यह भी बताया कि अकेले हिन्दू महासभा के प्रयासों से एक साल में एक लाख हिन्दू ब्रिटिश सेना में भर्ती किये गये।
यह ध्यान देने की बात है कि इसी अवधि में आरएसएस ने भी सावरकर को अपने जवानों को ब्रिटिश सशस्त्र सेना में भर्ती होने के लिये प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से, लगातार बुलाना जारी रखा। आरएसएस के कार्यकर्ताओं को उनके सम्बोधन मे कुछ भी ढँका-छुपा नहीं थाः ‘‘इसलिये हिन्दुओं को आगे बढ़कर थलसेना, जलसेना और वायुसेना और हथियार और सेना के दूसरे सामानों के उद्योगों में हजारों लाखों की संख्या में शामिल हो जाना चाहिये।’’
सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने देश के विभिन्न भागों में ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं में भर्ती के इच्छुक हिन्दुओं की सहायता के लिये उच्चस्तरीय परिषदों का गठन किया। सावरकर के निम्न उद्गारों से हमें यह पता हो गया था कि ये परिषदें ब्रिटिश सरकार के सीधे सम्पर्क में थीं. सावरकर ने अपने कार्यकर्ताओं से कहाः
‘‘समय समय पर सेना में भर्ती होनेवाले हिन्दुओं के कष्टों और कठिनाइयों के समाधान हेतु हिन्दू मूहासभा, दिल्ली ने श्री गणपत राय, बी0ए0, एल0एल0बी0 वकील, पंचकुंई रोड, नई दिल्ली के संयोजकत्व में केन्द्रीय-उत्तरी हिन्दू सैन्यीकरण परिषद बनायी गयी है।’’
भारत के विभिन्न भागों में इसी तरह की और भी परिषदें बनायी गयी थीं। सावरकर ने हिन्दू मूहासभा के कार्यकर्ताओं को यह भी बताया किः
‘‘सर ज्वाला प्रसाद श्रीवास्तव, बम्बई से बैरिस्टर जमनादास जी मेहता, श्री वी0वी0 कालिकर, एम0एल0सी0, नागपुर और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद या एडवाइज़री वार कमेटी के दूसरे सदस्यगण, इन सैन्यीकरण परिषदों द्वारा सन्दर्भित किये जाने पर, निश्चित रूप से उनकी कठिनाइयों को दूर करने में यथासम्भव सहायता करेंगे।’’
इससे यह साफ समझ में आता है कि ब्रिटिश सरकार ने हिन्दू महासभा के नेताओं का समायोजन अपनी आधिकारिक वार कमेटियों में कर लिया था। जो लोग सावरकर को महान देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं वे जब सावरकर के ब्रिटिश सेना में भर्ती होनेवाले हिन्दुओं को दिये गये निम्न निर्देर्शों को पढ़ें तो उनका सिर शर्म से झुुक जाना चाहियेः
‘‘यह हमारे अपने हित में होगा कि जितना भी सम्भव हो उतनी ही स्पष्टता से इस सम्बन्ध में एक विन्दु को समझ लिया जाय कि जो हिन्दू भारतीय (ब्रिटिश) सेना में शामिल हो रहे हैं उन्हें तात्कालिक सैन्य अनुशासन के प्रति सम्पूर्ण रूप से विनम्र और आज्ञाकारी होना चाहिये बशर्ते वे आदेश जानबूझकर हिन्दू गौरव को अपमानित करने के लिये न दिये गये हों।’’
आश्चर्य यह है कि सावरकर को कभी यह नहीं लगा कि औपनिवेशिक स्वामियों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती होना ही किसी आत्माभिमानी देशभक्त भारतीय के लिये अपने आप में भयंकर अपमान है। अपने उच्चतम सैनिक गठन के मामले में ब्रिटिश सरकार नियमित रूप से सावरकर के सम्पर्क में रही। इसमें सावरकर द्वारा सुझाये गये लोगों के नाम भी शामिल हैं। ब्रिटिश सरकार को सावरकर ने धन्यवाद में जो तार भेजा था उससे यह बात और भी साफ हो जाती है।
भिड़े का लेख हमें बताता है कि,
‘‘हिन्दू महासभा के सभापति बैरिस्टर वी0डी0 सावरकर ने (1) जनरल वावेल, कमांडर इन-चीफ और (2) भारत के वाइसराय को 18 तारीख (18 जुलाई, 1941) को यह तार भेजा थाः
‘‘डिफेंस कमेटी और उसके पदाधिकारियों के समक्ष आप महामहिम की घोषणा का स्वागत है। श्री कालिकर और जमनादास मेहता की नियुक्ति पर हिन्दू महासभा विशेष रूप से सन्तोष व्यक्त करती है।’’
यहाँ यह देखना अधिक महत्वपूर्ण है कि सावरकर के बरखिलाफ़ ब्रिटिश सरकार के हितों के लिये काम करनेवाली मुस्लिम लीग ने भी इन युद्ध सम्बन्धी गतिविधियों में या सरकार द्वारा स्थापित डिफेंस कमेटियों में शामिल होने से इन्कार कर दिया था।
भारत के लिये कल का दिन एकसाथ ही वेदना और विडम्बना का दोनों का होगा जब उसे यह देखने को मिलेगा कि नेताजी और आजाद हिन्द फौज के साथ आपराधिक रूप से दग़ा करनेवाली परम्परा के वाहक प्रधानमंत्री मोदी जैसा व्यक्ति साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की शानदार परम्परा को बड़ी बेशर्मी से हथिया रहा है। मोदी जिस परम्परा से आते हैं उसने ब्रिटिश शासकों का पक्ष लेकर नेताजी और आजाद हिन्द फौज के साथ आपराधिक रूप से दग़ा किया था। आज, राजनीतिक अवसरवाद के चलते, मोदी और उनके सैद्धान्तिक पिता समावेशी और उपनिवेश-विरोधी संघर्ष की प्रतिमूर्तियों के साथ शरारत कर रहे हैं।
लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के लिये संघर्ष करनेवाले नेताजी और आजाद हिन्द फौज की बात करने का प्रधानमंत्री मोदी को क्या अधिकार है जबकि उनका जुड़ाव आर.एस.एस. के सिद्धान्तों से है, वह खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी, भारत को धर्माधारित हिन्दूराष्ट्र के लिये समर्पित घोषित करते हैं और अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना चाहते हैं ?
( सबरंग इंडिया से साभार, अनुवादः दिनेश अस्थाना)