2.4 C
New York
December 8, 2023
समकालीन जनमत
संस्मरण

समर न जीते कोय-22

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

जीवन के रंग, पार्टी के संग


शादी के डेढ़ साल बाद मैं इलाहाबाद आ गई। ये डेढ़ साल का समय मायका और ससुराल मिल के कटा। रामजी राय होलटाइमर हो गए थे। अशोक भइया भी उसी प्रक्रिया में थे। इसको लेकर घर में बहुत तनाव था। इसके लिए सब रामजी राय को ही दोषी मानते थे। जो स्वाभाविक भी था। आज भी पार्टी होलटाइमरों के प्रति शायद लोगों की यही नजरिया है। ऐसी स्थिति में मायके में रुकना अच्छा नहीं लगता था। मुझे याद है कामरेड ओमप्रकाश मिश्र मेरे गांव आए थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप चलिए न हम लोगों के साथ। मैंने कहा कि आप लोगों के रहने का कोई ठिकाना तो है नहीं, मैं एक महीने की बच्ची लेकर कहां जाऊंगी। कामरेड बोले कोई पेड़ के नीचे थोड़े रहते हैं हमलोग, जहां रहेंगे वहां आप भी रहिएगा। मैंने बोला कि अभी नहीं, बच्ची थोड़ी बड़ी हो जाय तब। बाद के दिनों में ओमप्रकाश जी नौकरी करने लगे। अशोक भइया भी बी. एड. किए और बड़े जीजा के माध्यम से मोहनपुरा इंटर कालेज में पढ़ाने लगे। इसके बाद इनको लेकर मायके में तनाव कम हो गया।
तीन महीने की समता को लेकर मैं ससुराल आ चुकी थी। एक दिन मुहल्ले के कई लड़के मिलकर भांग खाने का प्लान बनाए। उसमें रामजी राय भी भांग खाए। रात होते होते भांग चढ़ गई और रामजी राय की हालत खराब होने लगी। बाद में पता चला कि भांग में थोड़ी अफीम भी मिला दी गई थी। अंत में रामजी राय को लेकर बनारस भगना पड़ा। वहां डाक्टर के पास रामजी राय गए तो, लेकिन दिखाए नहीं, बोले अब मैं ठीक हूं। फिर हमलोग गांव आ गए। दूसरे दिन रामजी राय इलाहाबाद जाने की बात करने लगे तो मैंने कहा कि मैं भी आप के साथ चलूंगी। फिर रामजी राय ने अपने बड़े भाई से कहा कि मीना भी मेरे साथ जाएगी। भइया बोले कि मीना जाएगी तो खर्च बढ़ेगा और मैं जितना खर्च दे रहा हूं उससे ज्यादा नहीं दे सकता। रामजी राय बोले आप जितना देते हैं उतना ही दीजिएगा। बाकी देखा जाएगा। उसी बीच अवधेश प्रधान भी रामजी राय की तबीयत खराब होने की सूचना मिलने पर गांव आ गए थे। सबकी जाने की तैयारी हो गई। बरतन के नाम पर मुझे आटा सानने के लिए एक जिस्ते की थाली और राशन के नाम पर 2 किलो अरहर की दाल देते हुए माता जी ने कहा कि सावधानी से रहना, शहर में बरतन चोरी हो जाने का डर रहता है।
पहले हमलोगों को बनारस प्रधान जी के यहां जाना तय हुआ। बनारस पहुंचने के बाद स्टेशन से रिक्से से प्रधान जी के घर जाते हुए रामजी राय बीच ही में रिक्से से उतर गए। प्रधानजी रामजी राय से जाकर बोले रिक्शा रुका है चलो, तो उन्होंने कहा कि आपलोग जाइए मैं आता हूं। प्रधान जी के साथ मैं घर आ गई। प्रधान जी उस समय भदैनी में रहते थे। बाद में रामजी राय रात ढाई बजे कमरे पर आए। परेशानी उनके चेहरे पर साफ दिख रही थी। अगले दिन पार्टी की कोई मीटिंग थी। उसके लिए कामरेड ईश्वर चंद जी उर्फ दादा आ चुके थे। फिर दोनों लोग कहीं बाहर निकल गए और चार बजे सुबह लौटे। उन लोगों ने रामजी राय को शायद कोई दवा दिया और वे सो गए। मीटिंग के लिए और लोग भी आ चुके थे। मीटिंग हुई। उसके बाद मेरी तबियत खराब हो गई।
अगले दिन हमलोग अशोक भइया सहित इलाहाबाद आ गए। अगले छह महीने तक रामजी राय घर नहीं गए। रामजी राय भी परेशान ही थे। इधर पार्टी की होलटाइमरी वह भी अन्डरग्राउंड पार्टी की। उधर पत्नी, छोटी बच्ची का साथ। आर्थिक दिक्कत ऊपर से, खैर…..। करते करते 1978 में रामजी राय डा. रघुवंश जी के अंडर रिसर्च में एडमिशन लिए। रामजी राय के रिसर्च का विषय था “कविता की रचना प्रक्रिया संदर्भ मुक्तिबोध और अज्ञेय”। रिसर्च के नाम पर घर से भी कुछ आर्थिक सहयोग मिल जा रहा था। कुछ दिन बाद ये भी बंद हो गया। फिर मैं भी समता के साथ मायके चली गई। लौटकर आई तो रामजी राय का रिसर्च का काम चल रहा था। मैं भी सोच रही थी कि किसी तरह रिसर्च पूरा करके जमा कर देते। फरवरी-1979 तक रिसर्च का काम पूरा होने-होने को था। लास्ट का ही कुछ काम बचा रह गया था। मैंने कई बार कहा भी कि रिसर्च में जो भी थोड़ा काम रह गया है उसे पूरा करके जमा क्यों नहीं कर दे रहे हैं। रामजी राय ने कहा कि मैंने पहले ही बता दिया था कि मुझे नौकरी नहीं करनी है, पार्टी का काम करना है। रिसर्च जमा भी कर दूं तो उसका क्या फायदा। बाद में डा. रघुवंश जी रामजी राय और इन्हीं के दोस्त हिमांशु रंजन से कहते रहते थे कि रिसर्च तुमलोग पूरा कर लो बाद में शायद कोई काम आ जाय। लेकिन रघुवंश जी के ये दोनों हीरा- मोती अपने अपने कारणों से रिसर्च नहीं ही पूरा किए। इसके बाद तो तय हो गया कि मुझे ही अब कुछ करना पड़ेगा।

इस सबके बीच दो तीन कामरेड घर पर आते ही रहते थे, जो एक दो दिन से ज्यादा नहीं रुकते थे। घर में ही रहते और कहीं बाहर नहीं जाते थे। केवल किताबें पढ़ते और आपस में बतियाते रहते थे। उन दिनों उन लोगों का नाम भी नहीं पूछते थे हमलोग।  अभी 44-45 साल बाद उनमें से एक कामरेड हमें लखनऊ लेनिन पुस्तक केन्द्र पर पार्टी स्थापना दिवस वाले दिन मिले। रामजी राय ने बताया कि मीना राय जो 1977 में हमलोगों के यहां दो-तीन कामरेड आते थे उनमें से एक कामरेड ये भी थे। फिर कामरेड ने भी कहा कि मीना जी भी आई हैं क्या। कार्यक्रम के बाद कामरेड से बातचीत हुई। बहुत अच्छा लगा उनसे मिलकर। पुरानी बातें याद आने लगीं।

मेरे ट्रेनिंग का फार्म आ गया और फार्म भर कर मैं घर चली गई क्योंकि मकान मालिक कमरा खाली करा दिया था। अप्रैल-1979 में मेरा ट्रेनिंग में एडमिशन हो गया। ट्रेनिंग दो साल की थी। ट्रेनिंग के दौरान बहुत हद तक आर्थिक परेशानी झेलनी पड़ी। कभी-कभी तो लगता था कि एक बार भी रामजी राय कह देते कि पैसे के लिए बहुत दिक्कत हो रही है ट्रेनिंग छोड़ दो तो मैं छोड़ देती। लेकिन जब भी ऐसी समस्या आती मैं कहती भी थी कि बहुत दिक्कत हो रही है छोड़ दूं क्या ट्रेनिंग, तो रामजी राय यही कहते थे कि पैसे के लिए न छोड़िए आपका नहीं मन है ट्रेनिंग करने और आगे कुछ करने का तो छोड़ दीजिए, लेकिन मुझे नौकरी करने के लिए न कहिएगा।
ट्रेनिंग के दौरान ही कई कामरेड आते रहे। कई एक मीटिंगे भी होती रहीं। वैसे तो मैं नास्ता खाना के समय ही उन लोगों के पास जाती थी। कामरेड बहुत धीरे धीरे बतियाते थे। बहुत ध्यान देने पर कुछ-कुछ सुनाई देता था। उन लोगों की बात सुनकर लगता था कि बात तो समाज के हित में ही लोग कर रहे हैं तो इतना चोरी से क्यों कर रहे हैं। खैर जिस कारण से लोग अंडरग्राउंड तौर पर कार्य कर रहे थे। ये लोग मुझे अच्छे लगने लगे।
होलटाइमर साथियों को बहुत सारे घरों में बहुत झेलना पड़ता था। जल्दी लोग अपने यहां रहने नहीं देना चाहते थे। कई तरह का विरोध होता था। खाना न मिले, घर का सारा पानी गिरा दिया जाता कि लोग परेशान हों। ये सब भी किसी ने बताया नहीं था, उन्हीं लोगों के आपस में बात करने के दौरान मैं सुनी थी। उसके बाद जब भी कोई आता मैं अपने हैसियत से ज्यादा लोगों को खिलाती पिलाती थी। हमलोग उनका पूरा ध्यान रखते थे। जल्दी जाना होता था तो सुबह मैं भी जल्दी उठकर नाश्ता करा देती। ये बात जरुर थी कि दो दिन में ही एक हफ्ते का बजट चला जाता था। इसका फायदा रामजी राय भी उठाते थे। जब रामजी राय से कहें कि ये लोग आते हैं तो बजट गड़बड़ा जाता है तो कहते उन्हीं लोगों के सामने ये समस्या रखिए, उन लोगों से तो कुछ कहती नहीं हैं आप। मैंने कहा दो दिन के लिए आते हैं तो उनसे क्या कहें। आपस में लड़ झगड़ के हमलोग शांत हो जाते। लेकिन सभी कामरेडों में एक कामरेड का स्वभाव मुझे ठीक नहीं लगता था। बाकी लोग कभी अपने लिए दवा छोड़कर स्पेशल कुछ नहीं मांग करते थे। जो खाना बने प्रेम से खाते थे। मेरे स्कूल चले जाने पर फुटकर बरतन भी धोकर रख देते थे। हमलोग खुद ही उनलोगों का ध्यान रखते थे। लेकिन वे कामरेड जो थे रामजी राय बाहर जाएं तो एक दर्जन अंडा मंगा लेते। घर के काम में कभी तनिक कोई सहयोग नहीं करते। ठीक है अंडा आया तो नास्ते की जगह यूज हो या सब्जी की जगह यूज हो तो ठीक रहता। अलग से खर्चा न बढ़ता। लेकिन जब सब्जी बन जाय तो वे कामरेड तुरन्त गरम सब्जी में तीन चार कच्चे अंडे फोड़कर डाल देते और सब्जी ढक देते। जो एकदम अच्छा नहीं लगता था। एक दिन तो हद ही किए, कोहड़े की सब्जी बनी थी, उसमें भी ऊपर से अंडा डाल दिए। जब खाना निकालने लगी तो देखकर बड़ा गुस्सा आया। मैंने कहा कि आपको अच्छा लगता है कामरेड तो अपनी सब्जी में डाला करिए न। फिर उसमें भी राजनीति बतियाने लगे। थोड़ी देर बाद रामजी राय से कहने लगे क्यों रामजी तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा। रामजी राय भी हामी भरते हां अच्छा लग रहा है जबकि मुझे पता था कि उनको भी सब्जी में इस तरह से अंडा खाना नहीं अच्छा लगता। फिर सारा गुस्सा रामजी राय पर ही उतरता, फिर मन ही मन कहती, चले जाने दो तो ऐसी ही सब्जी खिलाऊंगी आपको। फिर हम दोनों लड़ झगड़कर अपने अपने काम में लग जाते।
ट्रेनिंग के दौरान हम लोगों के साथ साथ मेरी बेटी समता को भी बहुत झेलना पड़ा था। ढाई साल की थी। अक्सर उसको नानी के यहां छोड़ आते थे। महीना दो महीना बीते फिर रामजी राय जाकर ले आते। कुछ दिन बाद फिर छोड़ आते। एक बार समता के बीमार होने की सूचना मिली रामजी राय अगले ही दिन गए उसको ले आए। रामजी राय उसको कहानी सुनाते -एक गइया थी उसको एक बछिया थी। बछिया गइया का दूध पीती थी। गइया को दूध नहीं होता तब भी बछिया कहती दूध पीयम्। फिर गइया बछिया को नानी के पास छोड़ देती। थोड़े दिन बाद बछिया रोने लगती तो गइया उसे नानी के यहां से बुला लेती। फिर बछिया गइया को दूध पीने के लिए तंग करने लगती तो क्या बछिया को फिर नानी के यहां…….. वाक्य पूरा होने से पहले ही समता कहने लगती ना दूध ना पीयम् पापा, दूध ना पीयम्।  ट्रेनिंग के दूसरे साल में हम समता को भी अपने पास रखने लगे।

अगस्त 1981 में मेरी नौकरी लग गई। मेरा घर शुरु से ही पार्टी का शेल्टर रहा है। हर तरह की मीटिंग होती थी। जितने मकान बदले हर जगह मीटिंगें होती थीं। कटरा वाले घर में आने पर जब पार्टी की मीटिंग होती, तो अंदर वाले कमरे में नीचे दरी बिछा दिया जाता। 10-12 लोग आराम से बैठ जाते थे। एक कामरेड हमसे कहे कि सभी का जूता, चप्पल एक बोरी में भरकर कहीं आंगन में रख दीजिए। केवल दो चप्पल कमरे के बाहर बाथरुम जाने के लिए रखिएगा। ताकि किसी के आने पर ये न शक हो कि इतने लोग यहां क्यों आए हैं और अंदर क्या कर रहे हैं। मीटिंग एक दो दिन जब तक चले उसमें से कोई बाहर नहीं जाता था। बाहर से सामान लाने की जिम्मेदारी केवल उदय और अनिल अग्रवाल पर रहती थी। रामजी राय तो कभी भी पार्टी संबन्धी कोई बात मुझे नहीं बताते थे। घर में रहें तब भी नहीं बताते थे कि कल से यहां मीटिंग होगी। शाम में यहां के पार्टी इंचार्ज ही आते तो बताते कि कल से यहां मीटिंग है, खाने के लिए क्या क्या सामान लाना है। सब सामान रात में ही आ जाता। बाकी जरुरत के अनुसार बीच बीच में उदय लाते। फिर कोई रात में आता तो कोई सुबह, एक एक करके आते लोग। ज्यादातर लोग रात ही में आते और मीटिंग समाप्त होने के बाद रात ही में बारी बारी कोई आगे में रोड से तो कोई पीछे की गली से निकलते।

अंकुर छोटा था। रामजी राय पटना जनमत का कार्यभार देख रहे थे। एक बार कामरेड मीरा दी और शायद कामरेड शंभू दा भी ( कामरेड स्वदेश भट्टाचार्या )आए हुए थे। मेरी तबीयत खराब थी। मीरा दी उदय के साथ जाकर मछली लाईं और वहीं बनाईं भी। उनलोगों से बातचीत के दौरान मैंने मीरा दी से कहा कि मुझे हमेशा ये गिल्टी फील होता है कि मैं पार्टी मेम्बर तो हूं लेकिन पार्टी के लिए कुछ नहीं कर पाती हूं। मैं नौकरी, बच्चे और घर गृहस्थी में ही फंसी रहती हूं। कभी कभी लगता है नौकरी छोड़ दूं और पार्टी का काम करूँ, लेकिन फिर वही बच्चों का क्या होगा? मीरा दी ने कहा कि ऐसा क्यों सोचती हैं? उन लोगों ने कहा कि आप सारी जिम्मेदारी संभाल लीं हैं तभी तो रामजी राय निश्चिंत होकर पूरा समय पार्टी को दे रहे हैं। तो आप का काम पार्टी का ही तो काम हुआ। फिर बच्चों को सही दिशा में परवरिस कर दो पार्टी कैडर तैयार कर रही हैं तो फिर आपको क्यों गिल्टी फील होनी चाहिए। शंभू दा ने कहा रामजी राय की अनुपस्थिति में भी जो घर पार्टी सेल्टर बना हुआ है वह किसके कारण। आप हर कार्यक्रम में आती जाती भी हैं। इतना सब करने के बाद भी आपको क्यों लग रहा है कि आप पार्टी का काम नहीं करती हैं। इन सब बातों से मन कुछ शान्त हुआ।
एक बार वर्मा जी ( का. रामजतन शर्मा )  किसी कामरेड के साथ आए। अंदर वाले कमरे में लोग बैठे। वर्मा जी उस समय यूं.पी. के पार्टी सचिव थे। उन्होंने कहा कि खाना खाकर थोड़ा आराम करने के बाद शाम में हमलोग निकल जाएंगे। मैंने खाना बनाया। खाना खाने के बाद वर्मा जी ने कहा कि कामरेड को अपनी बहन के यहां जाना है, आप बाजार जाकर एक साड़ी और एक किलो मिठाई लेते आइए। मैं साड़ी,ब्लाउज, पेटीकोट सहित मिठाई भी ले आई। फिर लोग शाम में चाय पीकर चले गए। दो दिन बाद वर्मा जी फिर आए तो मैंने उनसे पूछा कि कामरेड उस दिन आपके साथ कामरेड विनोद मिश्र आए थे न। कहे नहीं तो, किसने कहा कि विनोद मिश्र थे? मैंने कहा कि कामरेड आप दोनों के अलावा तो उस दिन कोई आया नहीं, तो कौन बताएगा कि कौन आया था। मुझे लगा इसलिए मैं पूछ रही थी। वर्मा जी बोले कि आपको कैसे लगा कि वो कामरेड विनोद मिश्र थे। मैंने कहा कि कामरेड आप उनसे बात करते समय जो रिस्पेक्ट उन्हें दे रहे थे उससे लगा कि आपसे सीनियर ही कोई है। फिर मैंने सुना था कि कामरेड विनोद मिश्र सिगरेट बहुत पीते हैं और वो सिगरेट भी बहुत पी रहे थे और आप मना भी नहीं कर रहे थे। इसलिए मुझे लगा कि वो कामरेड विनोद मिश्र थे। नहीं थे तो कोई बात नहीं। मेरी पूरी बात सुनकर वर्मा जी मुस्कराए और कहे कि सही पकड़ी हैं आप। वो कामरेड विनोद मिश्र ही थे। मैं कहीं और उन्हें ले नहीं जा सकता था और उन्हें थोड़ा आराम भी करना था। इसलिए यहीं लाना उचित समझे।
पार्टी सदस्यों, छात्र संगठन (पी एस ओ) और दस्ता नाट्य मंच के सदस्यों के बीच इतना अच्छा सामंजस्य था कि सभी लोग एक परिवार के सदस्य की तरह रहते थे। एक दूसरे के सुख दुख में हमेशा खड़े रहते थे। जम कर पढ़ते थे और जमकर आपस में बहस करके समझते थे। इन लोगों के साथ रहने पर हम अपने को जितना सुरक्षित महसूस करते थे उतना अपने रिश्तेदारों के बीच भी नहीं करते थे। इसका साक्षात उदाहरण था कि मैं अकेले शिवकुमार मिश्रा ( बांदा से) और उदय यादव ( जौनपुर से) के साथ रहती थी और अंकुर के पैदा होने पर घर से किसी को नहीं बुलाया था। संगठन के लोगों ने ही सब संभाल लिया। पहले पार्टी, छात्र संगठन, दस्ता नाट्य मंच  के लोग जनमत और अन्य किसी तरह के काम को पार्टी का काम समझकर ही करते थे। इस माहौल में अब कमी भी आई है। अब तो पार्टी नेता ही नए लोगों को समझाने लगते हैं कि जनमत के लिए काम न करो वो पार्टी का काम नहीं है। मुझे तो लगता है कि पार्टी के प्रति अब लोग उतना डिवोटेड नहीं रह गए हैं। न वो काम करने का जुनून है और न ही उतना पढ़ने- लिखने, बहस करने और समझने का।
उस समय इलाहाबाद में दिलीप सिंह, बाबूलाल जी, रामचेत आजाद जी, अशोक जी पार्टी कार्यकर्ता थे। बाद के दिनों में अखिलेंद्र सिंह, कुमुदिनी पति, अनिल वर्मा, अनिल अग्रवाल, उदय, लाल बहादुर सिंह, राधेश्याम जी और के के पाण्डेय आदि लोग जुड़े। उस समय जो पार्टी के लिए काम करने का जुनून था,समझदारी में जो धार थी अब वह नहीं दिखती।
आज की परिस्थिति में फिर उसी धार, उसी जुनून, उसी एकता की जरुरत है तभी हम टिक पाएंगे और आगे बढ़ पाएंगे अन्यथा सब बिखर जाएगा।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More

Privacy & Cookies Policy