समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-19

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

तो ऐसे हुआ मेरा विवाह


मुझसे एक साल सीनियर मेरी दोस्त कालिंदी पकड़ी गांव की रहने वाली थी। हमलोग एक ही स्कूल में 6 से 10 तक पढ़े। कालिंदी की मां बहुत पहले गुजर चुकी थीं। एक दो बार मैं लड़कियों के साथ पकड़ी कालिंदी और बेचन से मिलने भी गयी थी। उसके बाद उससे कोई संपर्क नहीं रहा। बाद के दिनों में पता चला कि कालिंदी की शादी रामजी राय से तय हुई थी। मैं सुनकर बहुत खुश थी कि शादी के बाद भी हम लोगों की दोस्ती बनी रहेगी, नहीं तो तब लड़कियां एक दूसरे से कहां मिल पाती थीं। स्कूल का चपरासी शिवनाथ एक दिन किसी काम से पिता जी के पास आया था। पिताजी उसे पान लाने के लिए घर भेजे। मैंने शिवनाथ से पूछा कि कालिंदी की शादी कब है, तो बोला- बिटिया वो शादी तो कट गई। मैंने पूछा क्यों? चपरासी बोला कि लड़के ने ही शादी करने से मना कर दिया। लड़के की शादी तो शायद तुम्हारे घर में ही तय हो रही है। तुमको नहीं पता है? मैंने कहा- नहीं। ये सब सुनकर मैं सन्न रह गई।
1973 में हाई स्कूल करने के बाद मेरी आगे की पढ़ाई बंद हो गई थी। उसके बाद तो लड़की का घर में बैठना अपने घर से ज्यादा गांव मुहल्ले को खटकने लगता था। अगर लड़की पढ़ रही है तब तो कुछ छूट मिल जाती थी, वह भी शिक्षित परिवार हो तब। गांव समाज की यही सोच रहती थी कि जितनी जल्दी हो सके लड़की के हाथ पीले करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा जाएं। यही सोच मेरे घर में भी थी। नीरजा हमसे 6 माह बड़ी थी। इसलिए पहले तो शादी के लिए उसी का नम्बर था। पिताजी इस संबन्ध में चाचा से बात किए। नीरजा चूंकि पढ़ रही थी इसलिए चाचा अभी उसकी शादी के लिए नहीं तैयार हुए। इसलिए पहले मेरी ही शादी के लिए बात होने लगी।
अशोक भइया उस समय इलाहाबाद पढ़ रहे थे। जाड़े का दिन था। घर में सोने के लिए पुआल बिछा था। मां किनारे ही सोती थी। बगल में बोरसी भी रखी थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि अशोक भइया खाना खाते समय मां से पूछे कि मतसा में हमारे यहां की शादी हो सकती है क्या? क्योंकि गांव में आज भी गोत्र वगैरह देखकर ही शादी की जाती है। एक ही गोत्र में शादी नहीं की जाती है। एक गोत्र के लोग भाई बहन माने जाते हैं और भाई बहन में शादी हो नहीं सकती। मां ने कहा कि मतसा में शादी हो सकती है। मतसा रामजी राय का गांव था। रामजी राय भी इलाहाबाद ही पढ़ रहे थे और अशोक भइया के सीनियर थे। दोनों अच्छे मित्र भी थे। दोनों में से कोई भी गांव आता तो इलाहाबाद लौटने से पहले घर न आने वाले के परिवार से मिलकर ही इलाहाबाद जाता।
मेरे घर में कोई भी मेहमान आए तो खाना मैं ही खिलाती थी। इन्दिरा दी की तबीयत खराब चल रही थी। उनका बनारस से इलाज चल रहा था। इस समय इन्दिरा दी गांव पर ही रह रही थीं। अशोक भइया घर आए हुए थे। तब दशहरे से दीवाली तक यूनिवर्सिटी बंद रहती थी। इस बीच रामजी राय से मेरी शादी की चर्चा शुरू हो गई थी। जब भी शादी की चर्चा गहराए तो रामजी राय के आने पर उनको मैं खाना नहीं खिलाती थी। इन्दिरा दी ही खाना खिलाती थीं। ज्यादातर खोइया ( ईख का रस निकालने के बाद का छिलका ) पर ही खाना बनता था। भाभी पतली- पतली लेकिन खूब बड़ी -बड़ी रोटी बनाती थीं। इन्दिरा दीदी को इतनी बड़ी रोटी देने में शर्म लगती थी। इसलिए जब रात में खाना खिलाना होता था तो कैंची से रोटी काटकर छोटी करके देती थी। काटने से रोटी का किनारा चिपक ही जाता था और रात की वजह से कोई ध्यान भी नहीं देता था। दिन में यह नहीं हो सकता था, तो रोटी देते समय कहती थी झोरुई पूड़ी है, झोरुई पूड़ी ( यह इतनी बड़ी पूड़ी होती है कि छानकर डंडे पर टांगते हैं और चार तह करके रखी जाती है। एक पूरी पूड़ी कोई नहीं खा पाता)। जब किसी कारण ये चर्चा होने लगे कि शादी वहां नहीं होगी, तो रामजी राय के आने पर हमीं खाना खिलाते थे।
बुआ की देवरानी रामजी राय की चचेरी बड़ी बहन थीं। बुआ के लड़के दिनेश भइया भी इलाहाबाद ही पढ़ते थे और इन लोगों के मित्र भी थे। इन दिनों रामजी राय को टी बी हुआ था। इसलिए वे गांव पर ही रह रहे थे। टी बी के चलते मां शादी के लिए हिचकिचा रही थी। बड़ी बुआ से बात हुई तो बुआ कहने लगीं कि लड़के को टी बी होने का न पता रहता तो कोई बात नहीं, जब पता है तब “जियते मांछी ना न घोटाई”। फिर एक बार दिमाग बनने लगा कि रामजी राय से शादी नहीं होगी। अशोक भइया को पता चला तो मां से कहे कि क्यों शादी के लिए मना कर रही हो। मां ने कहा लड़के को टी बी है तो अपनी लड़की की शादी करके लड़की की जिन्दगी बर्बाद करूं? अशोक भइया बोले मुझे भी तो हाई स्कूल में ही स्नोफिलिया हुआ था और वो भी अंतिम स्टेज पर थी, तो मेरी शादी करके क्यों किसी लड़की की जिन्दगी बर्बाद की? टी बी अब खतरनाक बीमारी नहीं रह गई है मां, 6 महीने में ठीक हो जाएगी।
कुछ दिन माहौल एकदम शांत रहा। उस समय रामजी राय पार्टी के होलटाइमर शायद हो चुके थे। पार्टी अंडरग्राउंड थी। कवर चढी़ रेड बुक कभी लिए रहते थे, कभी कभी गंदा सा कुर्ता पजामा पहने भी आ जाते। मुहल्ले वाले भी कहते क्या देखकर शादी कर रहे हैं आपलोग? एक बार दुआर के छत पर सूखने के लिए धान फैलाया गया था। शाम को धान की भरी बोरी सिर पर लेकर मैं छत से उतर रही थी। नीचे मेरी मां रामजी राय के साथ बैठी थी। मां रामजी राय से बोली कि इसका मेहनत से बड़ा लगाव है। बहुत मेहनती है। किसी काम को छोटा बड़ा नहीं मानती है। भरी बोरी अनाज लेकर छत पर चढ़ जाती है और सूखने के बाद उतार लाती है। रामजी राय को मेरा श्रम के प्रति यह लगाव पसन्द आ गया। जिसको लेकर हम आज भी उनको चिढ़ाते हैं कि मुझे बोरा ढोते देख पसन्द किए थे कि जब बोरा ढो लेती है तो मुझे भी ढो लेगी। कुछ दिन बाद फिर रामजी राय से शादी की बात शुरू हो गई। उस समय मैं 19वें साल में प्रवेश की थी।
पिताजी मतसा शादी तय करने गए। वहां दहेज जैसी कोई मांग नहीं हुई। रामजी राय घर में अपने बड़े भाई से बोलकर इलाहाबाद गए थे कि डेढ़गावां ( मेरा गांव ) से कोई शादी के लिए आएगा तो मना मत करिएगा और न लेन देन की कोई बात करिएगा। पिताजी मेरी शादी तय करके लौटे तो इतना खुश थे कि क्या बताऊं। उनकी खुशी देखकर मैं भी खुश थी कि पिताजी को शादी के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा। ऐसे ही कितना भार उनके ऊपर है। सामान वगैरह की तैयारी तो पहले से चल ही रही थी। एक किसान को बेटी की शादी में कितना झेलना पड़ता है, मैं अच्छी तरह से समझ रही थी। मेरी शादी में मांग न होने से पिताजी इतना प्रसन्न थे कि कहने लगे कि जिन्दगी में किसी भी पूजा -पाठ और तीर्थ से सबसे बड़ा पूजा-तीर्थ है अपने लड़के की शादी में दहेज न लेना। उनपर इसका इतना गहरा असर पड़ा कि बाद के दिनों में मेरे छोटे भाई और एक भतीजे की शादी में उन्होंने कोई दहेज नहीं लिया। मुझे बता रहे थे कि इन दोनों की शादी में तुम्हारी शादी से ज्यादा पैसा खर्च हुआ।
धीरे-धीरे तिलक का समय भी नजदीक आ गया। अब रामजी राय, चितरंजन भइया, अशोक सिंह, दिनेश भइया और अशोक भइया शादी के संबंध में बातचीत करने के लिए बैठे, तो रामजी राय ने कहा कि एक बात तय है- शादी में कोई कर्मकांड नहीं होगा। इस बात से बाकी लोग सहमत तो थे लेकिन परेशान भी कि समाज में बिना कर्मकांड के शादी कैसे होगी? घर वाले कैसे मानेंगे। रामजी राय ने कहा-लोगों को मनाया जाएगा। बाकी लोगों के सामने तब सवाल ये था कि बिना कर्मकांड के शादी का स्वरूप क्या होगा? घर में तो इसका विरोध होगा ही तब क्या करना होगा? एक बात यह भी शायद हुई कि जब कोई तैयार न होगा तो कोर्ट मैरेज हो जाएगा। रामजी राय ने कोर्ट मैरेज के लिए भी मना कर दिया। उन्होंने कहा-शादी तो सामाजिक ढंग से ही होगी, बस कर्मकांड नहीं होगा। यह बात मेरे कान में भी कहीं से आई, तो मैंने कोर्ट मैरेज के लिए साफ मना कर दिया। मैंने कहा कि कोर्ट मैरेज का ग़लत मैसेज समाज में जाएगा। इतना बदलाव, लोग नहीं सोचेंगे कि आप लोग कर्मकांड न करने के चक्कर में कोर्ट मैरेज कर रहे हैं। बल्कि यही कहेंगे कि लड़का पहले से आता ही था, कोई बात हो गई होगी तो मजबूरी में कोर्ट मैरेज कर दिए। फिर जितना आप लोग कुरीतियों के खिलाफ नया करने को सोच रहे हैं, सब बेकार हो जाएगा। रामजी राय के दोस्त खासकर चितरंजन सिंह, अशोक सिंह और कभी कभी दिनेश भइया, अशोक भइया बातचीत के लिए कभी मतसा जाते थे तो कभी मेरे यहां। धीरे धीरे इसकी चर्चा गांव में फ़ैल गई थी कि रामजी की शादी बिना धार्मिक कर्मकांड के होगी। और जब बिना कर्मकांड के शादी होगी तो पंडी जी लोगों का वहां क्या काम ही रहेगा?
बाद में मुझे पता चला कि तिलक से एक दिन पहले यही सब बात लेकर रामजी राय के यहां दुआर पर बड़ा जमावड़ा हुआ। चूंकि तिलक से एक दिन पहले ही लड़की वाले के यहां से उपरोहित लड़के वाले के यहां पहुंच जाता है। इसलिए हमारे यहां के उपरोहित विंध्याचल पंडित वहां पहुंच चुके थे। रामजी राय के मित्रों में गोरख पाण्डेय, चितरंजन सिंह, अशोक सिंह आदि भी थे ही। जमावड़े में गांव के खास लोगों में राजकुमार राय, श्याम नारायण राय, डाक्टर मिश्रा, और कुबेर नाथ राय (संभवत:) सहित गांव के अन्य गणमान्य लोग और पंडी जी लोग भी आए थे। धीरे-धीरे बात शुरू हुई और बहस में बदल गई। रामजी राय की तरफ से गोरख पाण्डेय बहस में थे। हमारे यहां से उपरोहित विंध्याचल पंडित थे जो एरिया में सबसे ज्यादा पढ़े और जानकार पंडित थे। गांंव के आए लोगों में से किसी ने कहा कि आप लोग धर्म का विरोध क्यों करते हैं? जैसे सुना है कि रामजी की शादी में धार्मिक कर्मकांड नहीं होगा। आपलोग ऐसा करके बहुत बड़ा पाप कर रहे हैं। इस तरह से तो यह हम ब्राह्मण लोगों का भी विरोध हुआ। इस तरह का विवाह कोई विवाह है?
गोरख पांडेय ने कहा कि पंडितों से हम लोगों का कोई विरोध नहीं है। हम लोगों का पाखण्ड और कर्मकांड से विरोध है। कर्मकांड न करके हम लोग पाप नहीं कर रहे हैं, बल्कि आप लोगों को पाप करने से बचा रहे हैं। आप लोग जाने अनजाने  भर लगन हर एक शादी में गौ हत्या के बराबर पाप करते आ रहे हैं। इस बात पर लोगों ने पूछा कि हम लोग क्या पाप कर रहे हैं? गोरख पाण्डेय ने कहा नाराज न होइए आप लोग, आप ही लोग बताइए कि जो कन्यादान आप लोग करवाते हैं, आप की पोथी में नहीं लिखा है कि किसी रजस्वला (मासिक/ पीरिएड होने वाली) लड़की का कन्यादान करवाना, गौ हत्या के बराबर पाप का भागी होना होता है? फिर आप लोग ही बताइए कि आज के समय में बिना रजस्वला हुए किसी लड़की की शादी हो रही है? तो एक सीजन में कितनी गौ हत्या का पाप करते हैं आप लोग? और यह बात गोरख पाण्डेय ने पूरे प्रमाण के साथ कहा था। यह सुनकर सभी लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे। वहां गांव के पवनी पजहर और अन्य काम करने वाले भी उपस्थित थे। वे लोग आपस में बात करने लगे कि  ‘लइका बेदो (वेद) पढ़ले बान स, आ इ लोग त देखलहूं ना होई, अइसे नइखं स बोलत। अब ज़बाब दं जा पंडी जी लोग।’  गोरख पाण्डेय की बात सुनकर गांव के आए कुछ लोग खिसकना शुरू कर दिए। पंडितों में हमारे यहां के उपरोहित विंध्याचल पंडित आचार्य थे और इधर गोरख पाण्डेय आचार्य थे। पंडितों की तरफ से विंध्याचल पंडित से कहा गया कि आप बताइए ये लड़के जो कह रहे हैं वो सच है? विंध्याचल पंडित ने कहा कि लड़के कह तो सही रहे हैं। मैं भी उनकी बात से सहमत हूं। उसके बाद गांव के जीउत चौबे तमतमा कर उठ खड़े हुए और बोले- हम तो मुन्ना भइया ( रामजी राय के घर का नाम ) की तरफ हैं। मुन्ना भइया हमेशा न्याय की बात करते हैं, और इनके तिलक का भोज और कोई खाए न खाए हम तो जरूर खाएंगे। जीउत चौबे की यह बात सुनकर अन्य उपस्थित पंडी जी लोग सकपका गए। इससे ये भी पता चला कि पंडी जी लोग कल तिलक में भोज न खाने का भी प्लान बनाए थे।
20 फरवरी 1976 तिलक का दिन आ ही गया। तिलक के सामान की सारी व्यवस्था हो गई थी। जब दहेज की मांग नहीं होती है, तो लड़की वाले खुशी से अपने हैसियत से ज्यादा ही लड़की को करते हैं। सब लोग मतसा पहुंच गए थे। तिलक से पहले सत्यनारायण भगवान की कथा होती है, जिसमें चौके पर लड़का बैठता है। कथा सुनने के बाद तिलक चढ़ता है। रामजी राय चौके पर बैठने को तैयार ही नहीं थे कि मैं कथा सुनने नहीं बैठूंगा, किसी कर्मकांड में नहीं शामिल हूंगा। माता जी बहुत नाराज़ होने लगीं कि ब्राह्मण और कथा दोनों का अपमान कर रहे हो, कुछ अनर्थ हो गया तो? अंतत्वोगत्वा रामजी राय चौके पर नहीं बैठे तो माता जी ही बैठकर कथा सुनीं। उसके बाद चौबे जी चौके से उठ ही नहीं रहे थे कि तिलक चढ़वाकर उठेंगे। रामजी राय कहे कि मैं तिलक चढ़वाऊंगा ही नहीं। अंत में ढढ़नी के इन्द्रदेव राय चौबे जी से पास गए और न जाने क्या बात किए कि चौबे जी थोड़ी देर बाद अपने आप ही चौके से उठकर चले गए।
चौबे जी के उठने के बाद रामजी राय चौके पर बैठे। तिलक चढ़ाने टाइप कुछ नहीं हुआ। तिलक का जो सामान गया था, उसे बारी-बारी से नन्हें ( मेरा छोटा भाई) चौके पर रख दिया। पांच हजार रुपया भी चढ़ाना था। जैसे ही एक हजार की गड्डी रखी गई रामजी राय ने इशारे से पैसा देने के लिए मना कर दिया तो बाकी का पैसा नहीं दिया गया। तिलक में मेरे यहां से बृजराज पंडित भी गए थे। कोई लेन देन न होने के कारण उदास थे।
तिलक से लौटने के बाद पिताजी के खुशी का ठिकाना नहीं था। बोले कि अभी तक घर की शादियों में मेरे यहां की मिठाई टाप पर रहती थी, लेकिन यहां मिठाई के मामले में हमको भी डाक गए सब। बहुत बढ़िया मिठाई बनवाए थे लोग। बाकी कर्मकांड तो मेरे पिताजी मानते ही नहीं थे, इसलिए वे बिना कर्मकांड के शादी करने से खुश ही थे। पूरे गांव में बिना किसी कर्मकांड के तिलक का कार्यक्रम सम्पन्न होने की खबर फैल गई। सब लोग यही चर्चा कर रहे थे कि तिलक में इंतजाम तो बहुत बढ़िया था। लड़का दहेज विरोधी है। जो पैसा गया था वो भी नहीं लिए सब। तिलक में कोई कर्मकांड नहीं हुआ न ही शादी में होगा।
शादी की सारी तैयारी हो चुकी थी। सभी लोग आ भी चुके थे। नई तरह की शादी देखने की सबकी उत्सुकता थी। हल्दी वाले दिन माड़ो (मंडप) गड़ गया था। हल्दी का कार्यक्रम हो चुका था।
9 मार्च 1976 को शादी थी।  सुबह से ही कुछ न कुछ चल रहा था। मां को पहले ही अशोक भइया सब समझा चुके थे कि जिसको जो नेग जिस मौके का देना है ऐसे ही दे दो। लेकिन मां कही कि भइया ये सब कर लेने दो। इसमें कोई पूजा पाठ नहीं है। शादी अपने हिसाब से तुम लोग करना। दोपहर में कोहड़त का भात खाना था। इसमें बुआ मिट्टी के चूल्हे पर भात और दाल बनाती हैं। इसके लिए बुआ को नेग मिलता है। जिसे दुल्हन सहित पांच कुवांरी लड़कियां मंडप में बैठकर खातीं हैं। ढाई – तीन बजे ये सब चल ही रहा था कि बरात आने की सूचना मिली और रामजी राय अशोक अशोक बोलते घर के अन्दर आ गए। इन्दिरा दी रामजी राय को बोली कि दुआर पर या जहां बरात रुकी है वहां जाइए। शादी के समय आना है। उसके पहले आपको घर नहीं आना है। उसके बाद मंडप सजाने का काम होने लगा। इन्दिरा दी की बात सुन सभी लोग हंसने लगे। जब मंडप में टंगे हनुमान जी का कैलेंडर चितरंजन भइया हटवाए कि यहां इनकी जरूरत नहीं है, तो इन्दिरा दी गुस्सा कर ही बोलीं कि- ‘हनुमान जी क फोटो हटाव ताल, ए रामजी क बियाह में तू ही हनुमान जी रहब का? चितरंजन भइया भी हंस के कहे कि- हं इंदिरा दी, ए रामजी क हमहीं हनुमान जी हईं।
(आगे अगली क़िस्त में जारी.. ‌…..)

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